यान्त्रिक पुनरुत्पादन के युग में कलात्मक रचना

वॉल्टर बेंजामिन

हमारी ललित कलाएँ ज़िस युग में विकसित हुईं, उनके प्रकार और प्रयोग जिस युग में स्थापित हुए, वह वर्तमान से एक काफ़ी भिन्न समय था और जिन लोगों ने उन्हें विकसित और स्थापित किया, वस्तुओं के ऊपर उनके कार्य का नियंत्रण हमारे नियंत्रण की तुलना में तुच्छ था। लेकिन हमारी तकनीकों की अद्भुत वृद्धि, उनके द्वारा हासिल अनुकूलनीयता और सटीकता, उनके द्वारा रचित हो रहे विचार और आदतें, इस बात को एक संशय से परे कर देते हैं कि सुन्दर के प्राचीन शिल्प में गहरे परिवर्तन आसन्न हैं। सभी कलाओं में एक भौतिक घटक होता है जिसे अब वैसा ही समझा या माना नहीं जा सकता जैसा कि पहले किया जाता था, जो स्वयं हमारे आधुनिक ज्ञान और शक्ति से अनछुए नहीं रह सकते। पिछले बीस वर्षों के दौरान न तो पदार्थ और न ही दिक् या काल वैसे रह गये हैं जैसे कि वे प्राचीन काल से थे। हमें कलाओं की समूची तकनीक को रूपान्तरित कर देने वाले नवोन्मेषों की उम्मीद करनी चाहिए, जो कि स्वयं कलात्मक आविष्कारों को प्रभावित करेंगे और शायद कला की हमारी पूरी धारणा में ही एक अद्भुत परिवर्तन ला देंगे।1

(पॉल वैलेरी, ‘La Conquete de l’ubiquite)

प्रस्तावना

जब मार्क्स ने पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की अपनी आलोचना के काम को हाथ में लिया, तो यह उत्पादन पद्धति अभी अपनी शैशवावस्था में ही थी। मार्क्स ने अपने प्रयासों को कुछ इस प्रकार दिशा-निर्देशित किया कि उन्हें भविष्यसूचक मूल्य दिया जा सके। वह पूँजीवादी उत्पादन में अन्तर्निहित बुनियादी स्थितियों तक गये और अपनी प्रस्तुति के द्वारा दिखलाया कि पूँजीवाद से भविष्य में किस चीज़ की उम्मीद की जा सकती है। परिणाम यह था कि कोई इससे न सिर्फ सतत् बढ़ती तीव्रता के साथ सर्वहारा वर्ग के शोषण की अपेक्षा कर सकता था, बल्कि अन्ततः ऐसी स्थितियों के निर्माण की उम्मीद भी कर सकता था जो स्वयं पूँजीवाद के ही उन्मूलन को सम्भव बना देंगी।

अधिरचना में रूपान्तरण ने, जो कि मूलाधार में रूपान्तरण से कहीं धीमी गति से होता है, उत्पादन की स्थितियों में हुए परिवर्तनों को संस्कृति के सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्त करने में आधी सदी से भी अधिक समय लिया है। केवल आज हम यह दिखला सकते हैं कि इसने क्या रूप लिया है। इन कथनों से कुछ निश्चित भविष्यसूचक आवश्यकताएँ पूर्ण होनी चाहिए। लेकिन सत्ता पर इसके कब्ज़े के बाद सर्वहारा वर्ग की कला या किसी वर्ग-विहीन समाज की कला के बारे में थीसिसों का इन माँगों से उन थीसिसों के मुकाबले कम अन्तर्सम्बन्ध है जो उत्पादन की मौजूदा स्थितियों के तहत कला के विकासात्मक रुझानों से सम्बन्ध रखती हैं। उनका द्वन्द्व अधिरचना में अर्थव्यवस्था से कम ग़ौर करने योग्य नही होता। इसलिए एक हथियार के रूप में ऐसी थीसिसों के मूल्य को कम आँकना ग़लत होगा। वे कई पुरानी पड़ चुकी अवधारणाओं को किनारे कर देती हैं, जैसे कि रचनात्मकता और प्रतिभा, अनश्वर मूल्य और रहस्य  वे अवधारणाएँ ज़िनका अनियंत्रित (और जो फिलहाल लगभग अनियंत्रित ही है) प्रयोग फासीवादी अर्थों में सूचना के संसाधन की ओर ले जाएगा। आगे जिन अवधारणाओं को कला के सिद्धान्त में लाया गया है वे अधिक परिचित शब्दों से इन मायनों में अलग हैं कि वे फासीवाद के उद्देश्यों के लिए बिल्कुल बेकार हैं। उल्टे वे कला की राजनीति में क्रान्तिकारी माँगों को सूत्रबद्ध करने के लिए उपयोगी हैं।

I.

सिद्धान्ततः कोई भी कलात्मक रचना हमेशा से ही पुनरुत्पादन-योग्य रही है। मनुष्य-निर्मित शिल्प कृतियों की मनुष्यों द्वारा हमेशा नकल की जा सकती है। अपने शिल्प का अभ्यास करने के लिए शिष्यों द्वारा, अपनी रचनाओं के प्रसार के लिए उस्तादों द्वारा, और, अन्त में, लाभ हासिल करने के लिए तीसरे पक्षों द्वारा प्रतिकृतियाँ बनाई जाती थीं। लेकिन किसी कलात्मक रचना का यान्त्रिक पुनरुत्पादन एक बिल्कुल नयी चीज़ की नुमाइन्दगी करता है। ऐतिहासिक तौर पर, यह रुक-रुककर और लम्बे अन्तरालों पर छलागों में आगे बढ़ा, लेकिन त्वरित तीव्रता के साथ। प्राचीन यूनानी कलात्मक रचनाओं के तकनीकी पुनरुत्पादन की केवल दो प्रक्रियाएँ जानते थेः ढालकर और ठप्पा लगाकर। काँसा, टेरा कोटा, और सिक्के ही वे कलात्मक रचनाएँ थीं ज़िनका वे अधिक मात्र में उत्पादन कर सकते थे। बाकी सभी रचनाएँ अद्वितीय थीं और उनका यान्त्रिक रूप से पुनरुत्पादन नहीं हो सकता था। लकड़ी के साँचे से बनने वाले चित्रें के साथ पहली बार कला यान्त्रिक रूप से पुनरुत्पादन-योग्य हो गयी, जो कि छपाई द्वारा लिपि के पुनरुत्पादन योग्य से काफी पहले हुआ था। साहित्य में छपाई, यानी कि लेखन के यान्त्रिक पुनरुत्पादन ने जो भारी बदलाव लाए, वह एक परिचित कहानी है। यद्यपि, विश्व इतिहास के परिप्रेक्ष्य से हम जिस परिघटना की जाँच कर रहे हैं उसके अन्दर, छपाई मात्र एक विशेष, हालाँकि विशिष्ट रूप से महत्वपूर्ण, उदाहरण है। मध्य युग के दौरान लकड़ी के साँचे में नक्काशी करने और उकरने की कला जुड़ गयी; उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में पाषाणलेखन ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।

पाषाणलेखन के साथ पुनरुत्पादन की तकनीक सारतः एक नये चरण में प्रवेश कर गयी। पहले से कहीं अधिक प्रत्यक्ष यह प्रक्रिया लकड़ी के किसी ब्लॉक पर काट या किसी तांबे की प्लेट पर उकरने की बजाय एक पत्थर पर प्रारूप को अनुरेखित करने के द्वारा अलग होती थी और इसने चित्रात्मक कला को पहली बार अपने उत्पादों को बाज़ार में न सिर्फ बड़ी संख्या में रखने की आज्ञा दी, जैसा कि अभी तक होता आया था, बल्कि रोज़ाना बदलते रूपों में भी रखने की आज्ञा दी। पाषाणलेखन ने चित्रात्मक कला को रोज़-ब-रोज़ के जीवन के चित्रण में सक्षम बनाया, और यह छपाई के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी। लेकिन अपने आविष्कार के कुछ ही दशकों बाद पाषाणलेखन फोटोग्राफी से पीछे छूट गया। चित्रात्मक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में पहली बार फोटोग्राफी ने सबसे महत्वपूर्ण कलात्मक कार्यों से हाथ को मुक्त कर दिया जो अब से लेंस में देखती आँखों के ज़िम्मे आ गया। चूँकि आँख हाथ द्वारा चित्र बनाए जाने के मुकाबले कहीं तेज़ गति से देखती है, चित्रात्मक पुनरुत्पादन की प्रक्रिया की गति इतनी अधिक बढ़ गयी कि वह अब बोलने के साथ रफ़्तार मिला सकती थी। स्टूडियो में कोई दृश्य शूट करने वाला फिल्म प्रचालक अभिनेता के बोलने की रफ़्तार पर चित्रों को पकड़ता है। ज़िस प्रकार पाषाणलेखन ने वस्तुतः सचित्र अखबार को परिणामित किया ठीक उसी प्रकार फोटोग्राफी ने स्वर फिल्म की पूर्वसूचना दी। बीती सदी का अन्त आते-आते स्वर के तकनीकी पुनरुत्पादन पर भी काबू पा लिया गया।

एक बिन्दु पर आकर मिलने वाले इन प्रयासों ने उस स्थिति को पूर्वानुमान-योग्य बना दिया ज़िसके बारे में पॉल वैलेरी ने इस वाक्य में बताया हैः “जिस प्रकार एक मामूली से प्रयास से सुदूर से हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमारे घर में पानी, गैस, और बिजली आती है, उसी प्रकार हमें दृश्य व श्रव्य छवियाँ भी आपूर्ति की जाएँगी, जो हाथ की सरल गति, मुश्किल से एक इशारे से प्रकट होंगी और ग़ायब हो जाएँगी” (ऊपर उद्धृत, पृ 226)। 1900 के करीब तकनीकी पुनरुत्पादन एक ऐसे स्तर पर पहुँच गया था ज़िसने न केवल इसे सभी प्रसारित कलात्मक रचनाओं के पुनरुत्पादन योग्य बना दिया और इस प्रकार जनता के ऊपर उसके प्रभाव में सबसे गहरा परिवर्तन लाने में सक्षम बना दिया; बल्कि इसने इसने कलात्मक प्रक्रियाओं के बीच अपना एक अलग स्थान कब्ज़ा कर लिया। इस स्तर के अध्ययन के लिए उन प्रभावों की प्रकृति से अधिक रहस्योद्घाटन करने वाला और कुछ भी नहीं है जो इन दो भिन्न अभिव्यक्तियों के कारण कला के पारम्परिक रूप पर पड़ा है कलात्मक रचनाओं का पुनरुत्पादन और फिल्म की कला।

II.

किसी कलात्मक रचना के सबसे पूर्ण पुनरुत्पादन में भी एक तत्व की कमी होती हैः काल और दिक् में इसकी उपस्थिति, उस स्थान पर इसका अद्वितीय अस्तित्व जहाँ यह प्रकट होती है। कलात्मक रचना के इस अद्वितीय अस्तित्व ने उस इतिहास को निर्धारित किया है ज़िसके अधीन यह अपने पूरे अस्तित्व के दौरान रही है। इसमें वे परिवर्तन शामिल हैं ज़िनका सामना साल-दर-साल इसे भौतिक स्थिति में नुकसान के रूप में करना पड़ा हो और साथ ही मालिकाने में हुए परिवर्तन भी इसमें शामिल हैं।2 पहले के चिन्हों को केवल रासायनिक या भौतिक विश्लेषणों के जरिये ही उद्घाटित किया जा सकता है जो किसी पुनरुत्पादित सामग्री पर नहीं किया जा सकता है; मालिकाने में आने वाले परिवर्तन एक परम्परा के अधीन होते हैं ज़िसे मौलिक की स्थिति से ही ढूंढा जा सकता है।

प्रामाणिकता के अवधारणा के लिए मूल की उपस्थिति एक पूर्वशर्त होती है। काँसे के मोरचे का रासायनिक विश्लेषण इसे स्थापित करने में सहायता कर सकता है, ठीक वैसे ही जैसे कि यह प्रमाण कि मध्य युग की कोई पाण्डुलिपि पन्द्रहवीं शताब्दी के किसी अभिलेखागार से आती है। प्रामाणिकता का पूरा क्षेत्र तकनीक के दायरे के बाहर है और, जाहिर है, केवल तकनीकी दायरे के नहीं बल्कि पुनरुत्पादन के दायरे से भी बाहर है।3 मूल रचना अपने दस्ती पुनरुत्पादन के समक्ष, ज़िसे आम तौर पर नकल होने का ही दर्ज़ा मिलता था, अपने पूरे प्राधिकार को सुरक्षित रखती थी; लेकिन उस तरह से यह तकनीकी पुनरुत्पादन के समक्ष नहीं होता। इसका कारण दोहरा है। पहला यह कि प्रक्रिया का पुनरुत्पादन मूल रचना से दस्ती पुनरुत्पादन की तुलना में अधिक स्वतन्त्र होता है।

उदाहरण के लिए, फोटोग्राफी में, प्रक्रिया पुनरुत्पादन मूल रचना के वे पहलू उभार सकते हैं ज़िन तक नंगी आँखों की तो कोई पहुँच नहीं होती, लेकिन लेंस उन्हें देख सकते हैं, ज़िन्हें अपने अनुसार समायोज़ित कर सकते हैं और उनके कोणों का चुनाव कर सकते हैं। और फोटोग्राफिक पुनरुत्पादन, कुछ विशेष प्रक्रियाओं की सहायता से, जैसे कि चित्र को बड़ा करना या स्लो मोशन के जरिये, उन छवियों को कैद कर सकते हैं जो नैसर्गिक दृष्टि से बच निकलती हैं। दूसरी बात यह कि तकनीकी पुनरुत्पादन मूल रचना की प्रतिकृति को उन स्थितियों में रख सकता है जो स्वयं मूल रचना की पहुँच से परे हो। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह मूल रचना को दर्शक से बीच रास्ते में मिलने में सक्षम बनाती है, चाहे वह किसी फोटोग्राफ के रूप में हो या फोनोग्राफ रिकॉर्ड के रूप में। विशालकाय गिरजा एक कला प्रेमी के समक्ष स्टूडियो में उपस्थित होने के लिए अपने मूल स्थान को छोड़ता है; किसी प्रेक्षागृह में या किसी ओपेन एयर थियेटर में प्रस्तुत होने वाला सामूहिक भजन, एक घर की बैठकी में गूँजता है।

ज़िन स्थितियों में यान्त्रिक पुनरुत्पादन के उत्पाद को लाया जा सकता है वे, सम्भव है कि, वास्तविक कलात्मक रचना को छूते भी न हों, लेकिन फिर भी इसकी उपस्थिति की गुणवत्ता का हमेशा अवमूल्यन होता है। यह न सिर्फ किसी कलात्मक रचना के लिए सत्य है बल्कि, उदाहरण के लिए, किसी ऐसे भूदृश्य के लिए भी सत्य है जो किसी फिल्म में दर्शक के सामने से पुनरीक्षण के लिए गुज़रता है। कलात्मक वस्तु के मामले में, एक बेहद संवेदनशील नाभिक यानी कि उसकी प्रामाणिकता में हस्तक्षेप किया जाता है जबकि इस मामले में कोई भी प्राकृतिक वस्तु अरक्षित नहीं है। किसी वस्तु की प्रामाणिकता ही हर उस चीज़ का सार है जो इसके आरंभ से प्रसार्य है, इसकी वास्तविक अवधि से लेकर उस इतिहास की इसकी गवाही तक, ज़िसका अनुभव इसने किया है। चूँकि ऐतिहासिक साक्ष्य प्रामाणिकता पर निर्भर होता है, इसलिए वह भी उस पुनरुत्पादन में जोखि़म में पड़ जाता है, ज़िसमें वास्तविक अवधि का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। और जब ऐतिहासिक साक्ष्यता प्रभावित होती है तो जो चीज़ अधर में लटक जाती है वह वास्तव में उस वस्तु की प्रामाणिकता है।4

आप उस लुप्त तत्व को “प्रभा मण्डल” में शामिल कर सकते हैं और यह कह सकते हैं: कि वास्तव में यान्त्रिक पुनरुत्पादन के युग में जो चीज़ कुम्हला जाती है वह कलात्मक रचना का प्रभा मण्डल है। यह एक लाक्षणिक प्रक्रिया है ज़िसका महत्व कला के राज्य से बाहर की ओर इशारा करता है। कोई सामान्यीकरण करते हुए यह कह सकता हैः पुनरुत्पादन की तकनीक पुनरुत्पादित वस्तु को परम्परा के राज्य से अलग कर देती है। कई पुनरुत्पादन बनाने में यह अद्वितीय अस्तित्व की स्थान पर प्रतिकृतियों की बहुलता को स्थापित कर देती है। और प्रेक्षक या श्रोता को उसकी अपनी विशिष्ट स्थिति में मिलने के लिए पुनरुत्पादन की आज्ञा देने में, यह पुनरुत्पादित वस्तु को पुनः सक्रिय कर देती है। ये दोनों प्रक्रियाएँ परम्परा के आश्चर्यजनक विध्वंस की ओर ले जाती हैं जो समकालीन संकट और मानव जाति के पुनर्नवीकरण का परिपूरक है। ये दोनों प्रक्रियाएँ समकालीन जन आन्दोलनों से अन्तरंगता से जुड़ी हुई हैं। इसका सबसे शक्तिशाली अभिकर्ता है फिल्म। इसका सामाज़िक महत्व को, विशेष रूप में इसके सबसे सकारात्मक रूप में, इसके विध्वंसात्मक, विरेचक (कैथार्टिक) पहलू के बिना समझा नहीं जा सकता, यानी कि इसके द्वारा सांस्कृतिक विरासत के परम्परागत मूल्यों के विसर्जन का पहलू। यह परिघटना महान ऐतिहासिक फिल्मों में सबसे अधिक प्रत्यक्ष है। यह हर नयी अवस्थिति तक पहुँचती है। 1927 में ऐबेल गांस ने उत्साहपूर्वक घोषणा कीः “शेक्सपियर, रेम्ब्राँ, बीतोवन फिल्में बनाएँगे…सभी पौराणिक कथाएँ, देवगाथाएँ और सभी मिथक, धर्म के सभी संस्थापक, और स्वयं सभी धर्म…अपने अनावृत्त पुनरुत्थान की प्रतीक्षा में हैं, और तमाम नायक गेटों पर एक-दूसरे के साथ धक्कम-धक्का कर रहे हैं।”5 सम्भवतः ऐसा कोई इरादा रखे बग़ैर, उन्होंने एक व्यापक विसर्जन को आमंत्रण जारी कर दिया।

III.

इतिहास की लम्बी अवधियों के दौरान, मानवता के पूरे अस्तित्व की पद्धति के साथ ही मानवीय इन्द्रियानुगत बोध की पद्धति भी बदलती है। इस तरीके से मानवीय इन्द्रियानुगत बोध संगठित होता है, ज़िस माध्यम में यह सम्पूर्ण होता है, वे न केवल प्रकृति से निर्धारित होते हैं बल्कि ऐतिहासिक परिस्थितियों से भी निर्धारित होते हैं। पाँचवी सदी, जनसंख्या में होने वाले भारी स्थानान्तरणों के साथ ही, उत्तरार्द्ध रोमन कला के जन्म और वियेना उत्पत्ति (वियेना जेनेसिस) की साक्षी बनी, और न सिर्फ प्राचीन काल से भिन्न एक कला विकसित हुई बल्कि एक नये किस्म का बोध भी विकसित हुआ। वियेनीज़ स्कूल के अध्येता, रीग्ल और विकॉफ, ज़िन्होंने उन क्लासिकीय परम्पराओं के वज़न का प्रतिरोध किया ज़िनके नीचे ये बाद में आने वाले कला रूप दफ़्न रहे थे, पहले लोग थे ज़िन्होंने उस समय पर बोध के संगठन के बारे में नतीजे निकाले। लेकिन उनकी अन्तर्दृष्टि चाहे ज़ितनी भी व्यापक रही हो, उन्होंने अपने आप को उस महत्वपूर्ण औपचारिक प्रमाणचिन्ह को दिखाने तक सीमित कर दिया जो रोमन काल के उत्तरार्द्ध के बोध की चारित्रिक आभिलाक्षणिकता था। उन्होंने उन सामाज़िक परिवर्तनों को प्रदर्शित करने का कोई प्रयास नहीं किया और, शायद, इसका कोई रास्ता उन्हें नहीं दिखा जो बोध में होने वाले इन बदलावों में अभिव्यक्त हो रहे थे। ऐसा रूपक देखने वाली किसी भी अन्तर्दृष्टि की पूर्वशर्तों को पूरा करने के लिए वर्तमान अधिक उपयुक्त है। और अगर समकालीन बोध के माध्यमों में परिवर्तनों को प्रभा मण्डल के क्षरण के रूप में समझा जा सकता है, तो इसके सामाज़िक कारणों को प्रदर्शित करना सम्भव है।

ऐतिहासिक वस्तुओं के सन्दर्भ में प्रभा मण्डल की ज़िस अवधारणा को ऊपर प्रस्तावित किया गया था उसकी प्राकृतिक वस्तुओं के प्रभा मण्डल के सन्दर्भ में उपयोगी रूप में सचित्र व्याख्या की जा सकती है। प्राकृतिक वस्तुओं के प्रभा मण्डल की परिभाषा हम एक दूरी की अद्वितीय परिघटना के रूप में देते हैं, चाहे यह कितनी भी करीब क्यों न हो। अगर, गरमियों की किसी दोपहर आराम करते हुए, आप अपनी दृष्टि क्षितिज पर दिख रही किसी पर्वतीय श्रृंखला पर ले जाते हैं या किसी शाखा पर ले जाते हैं ज़िसकी छाया आप पर पड़ रही हो, तो आप उन पर्वतों, उस शाखा के प्रभा मण्डल का अनुभव करते हैं। यह छवि प्रभा मण्डल के समकालीन क्षरण के सामाज़िक आधारों को समझना आसान बना देती है। यह दो परिस्थितियों पर निर्भर करती है, और वे दोनों ही समकालीन जीवन में जनसमुदायों के बढ़ते महत्व से सम्बन्धित हैं। ये दो परिस्थितियाँ हैं, समकालीन जनसमुदायों की चीज़ों को दिक् या स्थान की दृष्टि से और मानवीयता की दृष्टि से “समीपतर” लाने की कामना, जो उतनी ही तीव्र है, ज़ितना कि हर वास्तवकिता की अद्वितीयता को, इसके पुनरुत्पादन को स्वीकर करके, वशीभूत करने के प्रति उसका झुकाव।6 अत्यन्त निकटपूर्ण सादृश्यता, इसके पुनरुत्पादन के जरिये किसी वस्तु पर नियंत्रण प्राप्त करने की चाहत हर दिन अधिक से अधिक शक्तिशाली होती जाती है। स्पष्टतः, सचित्र पत्रिकाओं और न्यूज़रील द्वारा प्रस्तुत पुनरुत्पादन उस छवि से काफी भिन्न होते हैं ज़िन्हें निरस्त्र आँखों द्वारा देखा जाता है। सीधे आँखों को दिखने वाली छवि में अद्वितीयता और स्थायित्व इतने करीबी से जुड़ा होता है ज़ितनी करीबी से सचित्र पत्रिकाओं आदि में उनकी संक्रमणीयता और पुनरुत्पादनीयता जुड़ी होती है। किसी वस्तु को उसके खोल के अन्दर झाँककर देखना, इसके प्रभा मण्डल को नष्ट करना, उस बोध का चिन्ह है ज़िसमें “वस्तुओं की सार्वभौमिक समानता का इन्द्रियबोध” इस हद तक बढ़ गया है कि यह पुनरुत्पादन के जरिये किसी अद्वितीय वस्तु से भी उसका अर्क निकाल लेता है। बोध के क्षेत्र वह परिघटना इसी रूप में अभिव्यक्त होती है जो विचारधारात्मक क्षेत्र में सांख्यिकी के बढ़ते महत्व के रूप में देखी जा सकती है। यथार्थ को जनसमुदायों के अनुसार समायोज़ित करना और जनसमुदायों का यथार्थ के अनुसार समायोज़ित होना एक ऐसी प्रक्रिया है ज़िसका दायरा चिन्तन के लिए भी उतना ही असीमित है ज़ितना कि बोध के लिए।

IV

किसी कलात्मक रचना की अद्वितीयता को परम्परा की संरचना में उसके जड़ित होने से अलग नहीं किया जा सकता है। यह परम्परा स्वयं पूरी तरह जीवित और अत्यन्त परिवर्तनशील होती है। मिसाल के तौर पर, वीनस की प्राचीन प्रतिमा प्राचीन यूनानियों के साथ ज़िस परम्परात्मक सन्दर्भ में खड़ी थी, ज़िन्होंने उसे एक श्रद्धा की वस्तु बना दिया था, वह मध्य युग के उन पुरोहितों के परम्परात्मक सन्दर्भ से बिल्कुल भिन्न था, ज़िन्होंने उसे एक मनहूस मूर्ति के रूप में देखा। यद्यपि, दोनों के समक्ष उसकी अद्वितीयता उपस्थित थी, यानी, उसका प्रभा मण्डल। मूल रूप में कला के सन्दर्भात्मक समेकन को पंथ (कल्ट) के रूप में अभिव्यक्ति मिली। हम जानते हैं कि प्राचीनतम कलात्मक रचनाएँ किसी न किसी कर्मकाण्ड (रिचुअल) की सेवा में पैदा हुई थीं पहले जादुई, और फिर धार्मिक किस्म की। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि कलात्मक रचना का अस्तित्व इसके प्रभा मण्डल के सन्दर्भ में कभी भी पूरी तरह इसके संस्कार-सम्बन्धी कार्य से अलग नहीं हुआ।7 दूसरे शब्दों में, “प्रामाणिक” कलात्मक रचना के अद्वितीय मूल्य का आधार संस्कार में था, यानी उसके मूल उपयोग मूल्य के स्थान पर।

कर्मकाण्डीय (रिचुअलिस्टिक) आधार को, चाहे वह कितना ही दूरस्थ क्यों न हो, वि-धार्मिकीकृत (सेक्युलराइज़्ड) संस्कार के तौर पर सुंदर के पंथ (कल्ट) के सबसे अपवित्र रूपों में भी पहचाना जा सकता है।8 पुनर्जागरण के दौरान विकसित हुए और तीन सदियों तक हावी रहे सुन्दर के इहलौकिक पंथ (सेक्युलर कल्ट) ने स्पष्ट रूप में दिखलाया कि संस्कारगत आधार क्षरित हो रहा है और उस प्रथम संकट को भी दिखलाया और इस पर आपदा के समान आया। समाजवाद के उदय के साथ-साथ पुनरुत्पादन के पहले सही मायनों में क्रान्तिकारी माध्यमों, जैसे कि फोटोग्राफी के विकास के साथ ही, कला ने आते हुए उस संकट का आभास किया जो एक सदी बाद स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ रहा है। उस समय, कला ने कला कला के लिए (l’art pour l’art) के सिद्धान्त के साथ अपनी प्रतिक्रिया प्रदर्शित की, यानी कि कला के एक धर्मशास्त्र के साथ। इस प्रतिक्रिया “शुद्ध” कला के विचार के रूप में ज़िस चीज़ को जन्म दिया उसे नकारात्मक धर्मशास्त्र कहा जा सकता है, ज़िसने न केवल कला की किसी सामाज़िक भूमिका की इजाज़त देने से इंकार कर दिया बल्कि विषय-वस्तु के द्वारा किसी भी प्रकार के श्रेणीकरण से भी इंकार कर दिया। (कविता में मलार्मे यह अवस्थिति अपनाने वाला पहला व्यक्ति था।)

यान्त्रिक पुनरुत्पादन के युग में कला के किसी भी विश्लेषण को इन सम्बन्धों के साथ न्याय करना होगा, क्योंकि वे हमें एक बेहद महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टि की ओर ले जाते हैं: विश्व इतिहास में पहली बार, यान्त्रिक पुनरुत्पादन ने कलात्मक रचना को संस्कारों पर इसकी परजीवी निर्भरता से स्वतन्त्र कर दिया है। अब और भी अधिक हद तक पुनरुत्पादित कलात्मक रचना पुनरुत्पादन के लिए ही बनायी गयी कलात्मक रचना बन गयी है।9 मिसाल के तौर पर, किसी फोटोग्राफिक निगेटिव से कोई कई प्रिण्ट तैयार कर सकता है; “प्रामाणिक” प्रिण्ट की माँग करने का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन ज़िस क्षण प्रामाणिकता का पैमाना कलात्मक उत्पादन के लिए लागू होना बन्द कर देता है, उसी क्षण कला की पूरी भूमिका पलट जाती है। संस्कार पर आधारित होने की बजाय, यह अब एक नये व्यवहार पर आधारित होना शुरू कर देती है राजनीति।

V

कलात्मक रचनाओं को अलग-अलग धरातलों पर प्राप्त किया जाता है और अलग-अलग धरातलों पर उनका मूल्यन होता है। दो ध्रुवीय प्रकार अलग से दिखलायी पड़ते हैं: एक के साथ, ज़ोर पंथ मूल्य (कल्ट वैल्यू) पर है; दूसरे के मामले में ज़ोर कलात्मक रचना के प्रदर्शन मूल्य पर है।10 कलात्मक उत्पादन किसी पंथ में काम करने के लिए निर्दिष्ट आनुष्ठानिक वस्तुओं के साथ शुरू होता है। कोई यह मान सकता है कि ज़िस बात का कोई फर्क पड़ता है वह है उनका अस्तित्व, न कि उनका प्रदर्शन हेतु प्रस्तुत होना। पाषाण युग के मनुष्य द्वारा अपनी गुफा की दीवारों पर बनाया गया बारहसिंघा एक जादू का उपकरण था। उसने इसे अपने बंधु मनुष्यों को दिखलाया, लेकिन मुख्यतः वह आत्माओं के लिए बनाया गया था। आज कल्ट मूल्य यह माँग करेगा कि कलात्मक रचना छिपी रहे। सेला (प्राचीन यूनानी या रोमन मन्दिर में एक भीतरी कमरा जहाँ ईश्वर की मूर्ति रखी होती है-अनु.) में ईश्वर की कुछ निश्चित मूर्तियों तक केवल पुरोहित की ही पहुँच होती है; मडोना की कुछ मूर्तियाँ सारे वर्ष ढँकी रहती हैं; मध्यकालीन गिरजों की कुछ मूर्तियाँ भूमि के स्तर पर दर्शक द्वारा नहीं देखी जा सकतीं। संस्कारों से विभिन्न कला प्रथाओं की मुक्ति के साथ ही उनके उत्पादों के प्रदर्शन के अवसर भी बढ़ते जाते हैं। यहाँ-वहाँ भेजी जा सकने वाली किसी आवक्ष मूर्ति का प्रदर्शन उस दिव्य प्रतिमा की तुलना में आसान है ज़िसका किसी मन्दिर के अन्दर अचल स्थान निर्धारित है। यही बात चित्र के पहले मौजूद पच्चीकारी या भित्तिचित्र की तुलना में चित्र के लिए लागू होती है। और हालाँकि यह सम्भव है कि शुरुआत में किसी धार्मिक यज्ञ के सार्वजनिक रूप से प्रस्तुति योग्य होने का गुण किसी सिम्फनी के मुकाबले अधिक रहा हो, लेकिन सिम्फनी उसी क्षण पैदा ही हुई जब इसकी सार्वजनिक प्रस्तुति-योग्यता यज्ञ के मुकाबले अधिक होने आभास दे रही थी।

कलात्मक रचना की विभिन्न पद्धतियों के साथ, प्रदर्शन हेतु इसकी उपयुक्तता इस हद तक बढ़ी कि इसके दो ध्रुवों के बीच परिमाणात्मक परिवर्तन इसके प्रकृति में एक गुणात्मक रूपान्तरण में बदल गया। इसकी तुलना प्रागैतिहासिक काल में कलात्मक रचना से की जा सकती है, जब इसके कल्ट मूल्य पर निरपेक्ष बल के कारण यह प्राथमिक तौर पर और सबसे मुख्य रूप में एक जादू का उपकरण थी। काफी बाद में ही जाकर इसकी पहचान एक कलात्मक रचना के रूप में हुई। उसी तरह आज, इसके प्रदर्शन मूल्य पर निरपेक्ष बल के कारण कलात्मक रचना बिल्कुल नयी भूमिकाओं वाली एक रचना बन गयी है, ज़िसमें से कलात्मक भूमिका, यानी ज़िस एक भूमिका से हम परिचित हैं, बाद में सम्भवतः एक संयोगात्मक भूमिका के रूप में पहचानी जाय।11 इतना तो निश्चित हैः आज फोटोग्राफी और फिल्म इस भूमिका के सबसे उपयोगी उदाहरण हैं।

VI.

फोटोग्राफी में, प्रदर्शन मूल्य हर स्थान पर कल्ट मूल्य को विस्थापित करना शुरू करता है। लेकिन कल्ट मूल्य बिना प्रतिरोध के रास्ता नहीं छोड़ता। यह एक अन्तिम मोर्चाबन्दी की शरण लेता हैः मानवीय मुखाकृति। यह कोई संयोग नहीं है कि शुरुआती फोटोग्राफी का केन्द्रीय बिन्दु चेहरे के चित्र (पोर्ट्रेट) थे। प्रिय, अनुपस्थित या मृत लोगों की याद का कल्ट चित्र के कल्ट मूल्य को एक आखिरी शरण मुहैया कराता है। आखिरी बार शुरुआती छायाचित्रें से किसी मानवीय चेहरे के क्षणिक भंगिमा में प्रभा मण्डल उत्पन्न होता है। यही उनके गहरे विषाद, अतुलनीय सौन्दर्य का संस्थापित करता है। लेकिन जैसे ही आदमी फोटोग्राफिक छवि से लौटता है, उसी समय प्रदर्शन मूल्य संस्कार मूल्य पर अपनी श्रेष्ठता को पहली बार दिखलाता है। इस नये चरण को ठीक-ठीक निर्धारित करने में ही ऐटगेट का अतुलनीय महत्व निर्मित होता है, ज़िसने, 1900 के करीब, पेरिस की सूनी सड़कों के छायाचित्र खींचे। उसके बारे में बिल्कुल सही ही कहा गया है कि वह उनके छायाचित्र अपराध स्थल के रूप में खींचता था।

अपराध स्थल भी निर्जन होते हैं; उनकी तस्वीरें प्रमाण साक्ष्य स्थापित करने के उद्देश्य से खींची जाती हैं। ऐटगेट के साथ, छायाचित्र ऐतिहासिक घटनाओं के मानक साक्ष्य बन गये, और उन्होंने एक प्रच्छन्न राजनीतिक महत्व ग्रहण कर लिया। वे एक विशिष्ट प्रकार के अप्रोच की माँग करते हैं; मुक्त चिन्तन उनके लिए उपयुक्त नहीं होता है। वे दर्शक को उत्तेज़ित करते हैं; वह उनसे एक नये तरीके से चुनौती प्राप्त करता हुए महसूस करता है। साथ ही सचित्र पत्रिकाएँ उसके लिए दिशासूचक लगाना शुरू करती हैं, गलत हों या सही, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पहली बार, अनुशीर्षक देना बाध्यताकारी हो गया है। और यह स्पष्ट है कि किसी चित्र के शीर्षक से पूरी तरह भिन्न चरित्र है। सचित्र पत्रिकाओं में चित्रें को देखते लोगों को जो दिशा-निर्देश ये अनुशीर्षक देते हैं वे फिल्म में जल्दी ही अधिक सुस्पष्ट और अधिक आदेशात्मक बन जाते हैं जहां हर एक चित्र का अर्थ उससे पहले आने वाले चित्रों की श्रृंखला द्वारा नियत दिखलाई पड़ता है।

VII.

उन्नीसवीं सदी का वह विवाद ज़िसमें चित्रकारी के कलात्मक मूल्य को फोटोग्राफी के कलात्मक मूल्य के बरक्स खड़ा किया गया था, आज भटका हुआ और भ्रमित प्रतीत होता है। यद्यपि, यह इसके महत्व को ख़त्म नहीं करता; अगर यह कुछ करता है तो वास्तव में उसे रेखांकित करता है। यह विवाद वास्तव में एक ऐसे ऐतिहासिक रूपान्तरण का लक्षण था ज़िसके सार्वभौमिक प्रभाव का अहसास किसी भी प्रतिद्वन्द्वी पक्ष द्वारा नहीं किया गया था। जब यान्त्रिक पुनरुत्पादन के युग ने कला को कल्ट में इसके आधार से अलग कर दिया, तो इसकी स्वायत्तता की झलक भी हमेशा के लिए ग़ायब हो गयी। कला की भूमिका में परिणामस्वरूप आने वाला बदलाव उस सदी के परिप्रेक्ष्य की सीमाओं से आगे निकल गया; लम्बे समय तक यह बीसवीं सदी के परिप्रेक्ष्य से भी बचा रहा, ज़िसने फिल्म के विकास का अनुभव किया।

पहले इस प्रश्न पर काफी मात्र में व्यर्थ विचार किया गया कि फोटोग्राफी कोई कला है भी या नहीं। प्राथमिक प्रश्न क्या -फोटोग्राफी के आविष्कार ने ही कला की पूरी प्रकृति को रूपान्तरित नहीं कर दिया है – पूछा ही नहीं गया। जल्दी ही फिल्म सिद्धान्तकारों ने फिल्म के सन्दर्भ इसी अल्प-विचारित प्रश्न को पूछा। लेकिन फिल्म द्वारा परम्परागत सौन्द्रर्यबोध के लिए पैदा की गई दिक्कतों की तुलना में फोटोग्राफी द्वारा पैदा की गई दिक्कतें बच्चों के खेल के समान थीं। फिल्म के शुरुआती सिद्धान्तों का असंवेदनशील और थोपा गया चरित्र यहीं से पैदा होता था। मिसाल के तौर पर, ऐबेल गांस फिल्म की तुलना चित्रक्षर लेखन से करते हैं: “यहाँ, एक विलक्षण पश्चगमन के जरिये, हम मिस्रवासियों की अभिव्यक्ति के स्तर पर आ गये हैं…चित्रात्मक भाषा अभी परिपक्व नहीं हुई है क्योंकि हमारी आँखें अभी इसके लिए अभ्यस्त नहीं हुई हैं। यह जो अभिव्यक्त करती है अभी उसके लिए अपर्याप्त आदर है, और उसका पंथ अभी अपर्याप्त है।”12 या, सेवरिन मार्स के शब्दों में: “कला को एक ही साथ कैसा काव्यात्मक और साथ ही वास्तविक स्वप्न मिला है! इस तरह से देखा जाय तो फिल्म अभिव्यक्ति के एक अतुलनीय माध्यम का प्रतिनिधित्व कर सकती है। केवल सबसे उच्च-मस्तिष्क वाले व्यक्तियों को ही, जो अपने जीवन के सबसे पूर्ण और रहस्यपूर्ण क्षणों में हों, इसके प्रभाव क्षेत्र में प्रवेश करने की आज्ञा दी जानी चाहिए।”13 अलेक्सान्द्र आर्नू मूक फिल्म के बारे में अपनी फन्तासी का समापन इस प्रश्न के साथ करते हैं: “जो सारे सुस्पष्ट विवरण हमने दिये हैं क्या उनका नतीजा एक एक प्रार्थना की परिभाषा के रूप में सामने नहीं आ रहा है?”14 यह ग़ौर करना यहाँ निर्दिष्ट है कि किस प्रकार फिल्म को “कलाओं” के वर्ग में रखने की उनकी कामना इन सिद्धान्तकारों को इसमें संस्कारगत तत्व पढ़ने के लिए मजबूर कर रही है- निर्णय क्षमता की एक असाधारण कमी के साथ। फिर भी जब ये अटकलबाज़ियाँ प्रकाशित हुईं, तो ओपीनियन पब्लीक और दि गोल्ड रश प्रदर्शित हो चुकी थीं।

लेकिन, यह कारक ऐबेल गांस को तुलना के उद्देश्य से चित्राक्षरों को सामने रखने से रोक न सका, न ही सेवरिन-मार्स को फिल्म के बारे में वैसे बोलने से रोक सका जैसे कोई फ्रा एंजेलिको के चित्रों की बात करता है। आभिलाक्षणिक तौर पर, आज भी अतिप्रतिक्रियावादी लेखक फिल्म को एक ऐसा ही सन्दर्भात्मक महत्व देते हैं अगर सीधे तौर पर कोई भयभीत सन्दर्भात्मक महत्व नहीं तो, कम से कम एक अलौकिक सन्दर्भात्मक महत्व। मैक्स रीहार्ट के ए मिडसमर नाइट्स ड्रीम के फिल्म संस्करण पर टिप्पणी करते हुए वर्फेल करते हैं कि यह निस्सन्देह रूप से अपनी सड़कों, इंटीरियरों, रेलरोड स्टेशनों, रेस्तरां, मोटरकारों, और समुद्र तटों के साथ बाह्य विश्व की निष्प्राण प्रतिलिपि तैयार करना था, ज़िसने अब तक इस फिल्म को कला के क्षत्र तक उठने में बाधा पैदा की है। “फिल्म ने अभी तक अपने असली अर्थ को, अपनी वास्तविक सम्भावनाओं को सिद्ध रूप नहीं दिया है…ये तो प्राकृतिक माध्यम द्वारा और विश्वास कराने की अतुलनीय योग्यता के साथ हर उस चीज़ को अभिव्यक्त करने की इसकी अद्वितीय क्षमता से निर्मित होता है, जो परीकथा समान है, शानदार है, अलौकिक है।”15

VIII.

किसी स्टेज अभिनेता के कलात्मक प्रदर्शन को निश्चित तौर पर व्यक्तिगत तौर पर उस अभिनेता द्वारा ही प्रस्तुत किया जाता है; लेकिन स्क्रीन अभिनेता के प्रदर्शन को एक कैमरा द्वारा प्रस्तुत किया जाता है ज़िसके दोहरे परिणाम होते हैं। फिल्म अभिनेता के प्रदर्शन को जनता के सामने प्रस्तुत करने वाले कैमरा के लिए एक एकीकृत समष्टि के रूप में उसका आदर करना अनिवार्य नहीं है। कैमरामैन के निर्देशन में कैमरा लगातार प्रदर्शन के सन्दर्भ में अपनी अवस्थिति बदलता है। अवस्थितिक दृष्टिकोणों की श्रृंखला ज़िसे सम्पादक मिलने वाली सामग्री से बनाता है, वही सम्पूर्ण फिल्म होती है। विशेष कैमरा कोण, क्लोज़-अप, आदि के अतिरिक्त, इसमें गति के कई कारक समाविष्ट होते हैं जो वास्तव में कैमरा के होते हैं। इस प्रकार, अभिनेता का अभिनय कई दृष्टि-सम्बन्धी परीक्षणों के अधीन होता है। यह इस तथ्य का पहला नतीजा होता है कि अभिनेता का अभिनय कैमरे के माध्यम से पेश किया जाता है। यह दर्शकों को अभिनेता से किसी व्यक्तिगत सम्पर्क का अनुभव किये बिना एक आलोचक की स्थिति में आने की आज्ञा देता है। दर्शकों का कैमरे के साथ तादात्म्य वास्तव में कैमरे साथ तादात्म्य होता है। नतीजतन, दर्शक कैमरे की अवस्थिति अपना लेता है; इस अप्रोच परीक्षण करने वाला होता है।16 यह वह अप्रोच नहीं है ज़िसके समक्ष कल्ट मूल्य प्रकट होते हैं।

IX.

फिल्म के लिए जो बात प्राथमिक रूप से महत्वपूर्ण है वह यह है कि अभिनेता कैमरे के ज़रिये अपने आपको जनता के समक्ष पेश करता है, न कि किसी और को। परीक्षण के इस रूप के जरिये अभिनेता के रूपान्तरण (मेटामॉर्फोसिस) का आभास करने वाले पहले व्यक्तियों में से एक थे पिरैण्डेलो। हालाँकि इस विषय पर उनके उपन्यास सी गीरा में उनकी टिप्पणियाँ इस प्रश्न के केवल नकारात्मक पहलू और मूक फिल्म तक ही सीमित थे, यह उनकी वैधता को क्षीण नहीं करता है। क्योंकि इस मामले में स्वर फिल्म से कोई बुनियादी चीज़ नहीं बदलती। ज़िस बात से फर्क पड़ता है वह यह है कि भूमिका को दर्शकों के किसी समूह के लिए नहीं बल्कि एक यान्त्रिक मशीन के लिए निभाया जा रहा है स्वर फिल्म के मामले में दो मशीनों के लिए। पिरैण्डेलो ने लिखा है, “फिल्म अभिनेता निर्वासित अनुभव करता है- न सिर्फ मंच से निर्वासित बल्कि स्वयं से निर्वासित। विकलता के एक अस्पष्ट से अहसास के साथ वह एक अवर्णननीय ख़ालीपन महसूस करता हैः उसका शरीर अपनी शारीरिकता को खो बैठता है, यह वाष्पित हो जाती है, वह वास्तविकता, जीवन, स्वर, और उसके चलने से होने वाली आवाज़ों से वंचित हो जाती है, ताकि वह एक मूक छवि में तब्दील हो जाए, जो क्षण भर को स्क्रीन पर फड़फड़ाती है, और फिर ख़ामोशी में ओझल हो जाती है। …प्रोजेक्टर जनता के समक्ष उसकी छायाओं के साथ चलेगा, और उसे स्वयं कैमरे के समक्ष अभिनय करके सन्तोष करना होगा।”17 इस स्थिति की आभिलाक्षणिकता का वर्णन इस प्रकार भी किया जा सकता हैः पहली बार और यह फिल्म का प्रभाव है मनुष्य को अपनी पूरी जीवित वैयक्तिकता के साथ काम करना होगा, लेकिन फिर भी अपने प्रभा मण्डल को भूलना होगा। क्योंकि प्रभा मण्डल उसकी उपस्थिति से जुड़ा हुआ है; उसकी कोई नकल नहीं हो सकता। मंच पर जो प्रभा मण्डल मैकबेथ से पैदा होता है, दर्शकों के लिए उसे अभिनेता के प्रभा मण्डल से अलग कर पाना सम्भव नहीं होता। लेकिन, स्टूडियो में लिए गए फिल्म खण्ड (शॉट) की विलक्षणता यह है कि कैमरा जनता की जगह ले लेता है। नतीजतन, जो प्रभा मण्डल अभिनेता को घेरे रखता है वह समाप्त हो जाता है, और साथी खत्म हो जाता है उस चरित्र का प्रभा मण्डल ज़िसे वह निभा रहा है।

यह कोई अचम्भे की बात नहीं है कि यह पिरैण्डेलो जैसा एक नाटककार है जो, फिल्म की विशिष्टताएँ बताते हुए, अनजाने में उस संकट पर अपना हाथ रख देता है ज़िसमें थियेटर आज पड़ा हुआ है। कोई भी विस्तृत अध्ययन यह सिद्ध करता है कि इससे बड़ा असादृश्य और कहीं नहीं दिखता जैसा कि रंगमंच के नाटक और ऐसी किसी भी कलात्मक रचना में दिखता है जो यान्त्रिक पुनरुत्पादन के पूरी तरह अधीन है या, फिल्म की तरह, उसी में आधारित है। विशेषज्ञों ने लम्बे समय से इस बात की पहचान की है फिल्म में “महानतम प्रभावों को लगभग हमेशा “अभिनय” से कम-से-कम प्राप्त किया जाता है…” 1932 में रुडोल्फ आर्नहाइम ने समझा कि “नवीनतम रुझान है…अपनी चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं के कारण चुने गये अभिनेता को एक रंगमंच सामग्री के तौर पर देखा जाना…ज़िसे एक उचित जगह पर घुसा दिया गया है।”18 इस विचार के साथ कोई और बात भी करीबी से जुड़ी हुई है। मंच अभिनेता अपनी भूमिका के चरित्र के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता है। फिल्म अभिनेता को अक्सर यह अवसर नहीं दिया जाता है। उसका सृजन किसी भी अर्थ में एक सम्पूर्ण रचना नहीं होता; यह कई अलग-अलग रचनाओं को जोड़कर बना होता है। कुछ विशेष आकस्मिक चिन्ताओं, जैसे कि स्टूडियो की लागत, साथी अभिनेताओं की उपलब्धता, सजावट, आदि के अलावा, उपकरण की आरम्भिक स्तर की आवश्यकताएँ होती हैं जो अभिनेता की रचना को सजाई जा सकने वाली कड़ियों की श्रृंखला के रूप में तोड़ देता है। विशेष रूप से, प्रकाश व्यवस्था और उसके इंस्टालेशन के लिए किसी घटना को, जो स्क्रीन पर तेज़ गति से एक दृश्य के रूप में पेश होती है, अलग-अलग शूटिंग की श्रृंखलाओं के रूप में पेश करने की आवश्यकता होती है, ज़िसके लिए स्टूडियो पर कई घण्टे लग सकते हैं; यहाँ अभी हम मोन्ताज की बात भी नहीं कर रहे हैं, ज़िसके मामले में इसे आसानी से समझा जा सकता है।

इसलिए किसी खिड़की से मारी गयी छलाँग को स्टूडियो में एक मचान से मारी गयी छलाँग के रूप में शूट किया जा सकता है, और हवा में छलाँग मारने वाले की उड़ान को हफ्तों बाद शूट किया जा सकता है, जब आउटडोर दृश्यों की शूटिंग की जा रही हो। इससे भी अधिक विरोधाभासी मामलों की कल्पना की जा सकती है। कल्पना कीज़िये कि किसी अभिनेता को दरवाज़े पर हुई दस्तक से चौंकना है। अगर उसकी प्रतिक्रिया सन्तोषजनक नहीं है तो निर्देशक एक उपाय का सहारा ले सकता हैः जब अभिनेता फिर से स्टूडियो पर आता है तो उसे पूर्वसूचना दिये बग़ैर पीछे एक गोली चलायी जाती है। भय की उस प्रतिक्रिया को अब शूट किया जा सकता है और उसे काटकर स्क्रीन संस्करण में लगाया जा सकता है। इससे अधिक मर्मभेदी तौर पर कोई चीज़ नहीं दिखला सकती कि कला ने “सुन्दर एकरूपता” की दुनिया को अलविदा कह दिया है, जो अब तक, वह एकमात्र क्षेत्र माना जाता रहा था, जहाँ कला फल-फूल सकती है।

X

जैसा कि पिरैण्डेलो बताते हैं, अजनबीपन का वह अहसास जो अभिनेता पर कैमरे के समक्ष काबू कर लेता है, बुनियादी तौर पर अलगाव का वही अहसास है जो आईने में अपना ही बिम्ब देखने पर किसी को होता है। लेकिन अब प्रतिबिम्बित छाया को अलग किया जा सकता है, उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। और इसे कहाँ ले जाया जाता है? जनता के सामने।19 एक क्षण के लिए भी स्क्रीन पर मौजूद अभिनेता की इस तथ्य के प्रति जागरूकता समाप्त नहीं होती है। कैमरा के समक्ष होते समय वह जानता है कि अन्ततः वह जनता के सामने होगा, यानी वे उपभोक्ता जो बाज़ार का निर्माण करते हैं। यह बाज़ार, जहाँ वह न सिर्फ अपना श्रम पेश करता है, बल्कि अपने सम्पूर्ण निज, अपने दिल और आत्मा को पेश करता है, उसकी पहुँच के बाहर है। शूटिंग के दौरान उसका इस बाज़ार से उतना ही मामूली सम्पर्क होता है ज़ितना कि कारखाने में पैदा होने वाली किसी भी चीज़ का होता है। यही बात उस दमन, उस नयी बेचैनी को जन्म दे सकती है, जो पिरैण्डेलो के अनुसार कैमरे के समक्ष आने पर अभिनेता पर हावी हो जाती है। प्रभा मण्डल के कुम्हलाने का जवाब फिल्म स्टूडियो के बाहर “व्यक्तित्व” के एक कृत्रिम निर्माण के ज़रिये देती है। फिल्म उद्योग के पैसे पोषित फिल्मी सितारे का कल्ट उस व्यक्ति के अद्वितीय प्रभा मण्डल का नहीं बल्कि “व्यक्तित्व के जादू” का संरक्षण करता है, जो वास्तव में किसी माल का नकली जादू होता है। जब तक फिल्म निर्माता की पूँजी चलन को निर्धारित करेगी, तब तक नियमतः आज की फिल्म को इस बात के सिवा कोई क्रान्तिकारी योग्यता नहीं दी जा सकती है कि वह कला की पारम्परिक अवधारणाओं की एक क्रान्तिकारी आलोचना को प्रोत्साहन देती है। हम इस बात से इंकार नहीं करते हैं कि कुछ मामलों में आज की फिल्में भी सामाज़िक स्थितियों, यहाँ तक कि सम्पत्ति के वितरण की क्रान्तिकारी आलोचना को भी बढ़ावा दे सकती हैं। यद्यपि, हमारा मौजूदा अध्ययन इस पहलू से उतना ही सरोकार रखता है ज़ितना कि इससे पश्चिमी यूरोप का फिल्म उत्पादन रखता है।

यह फिल्म और साथ ही खेल की तकनीक में निहित होता है कि इसकी उपलब्धि का गवाह बनने वाला हरेक व्यक्ति एक प्रकार का विशेषज्ञ है। यह हर उस व्यक्ति के लिए एक जाहिर-सी बात है जो अपनी-अपनी साईकिलों पर झुके उन अखबार वाले लड़कों की बातें सुन रहे हैं जो किसी साईकिल रेस के नतीजे के बारे में विचार-विमर्श कर रहे हैं। यह अनायास नहीं है कि अखबार प्रकाशक अपने अखबार पहुँचाने वाले लड़कों के लिए साईकिल रेस का आयोजन करते हैं। यह भागीदारों में ज़बर्दस्त दिलचस्पी पैदा कर देता है क्योंकि विजेता को एक अखबार वाले लड़के से ऊपर उठकर एक पेशेवर रेसर बनने का अवसर प्राप्त होता है। ठीक उसी प्रकार, न्यूज़रील हर किसी को एक राहगीर से ऊपर उठकर फिल्म का छोटा-मोटा कलाकार (एक्स्ट्रा) बनने का अवसर देती है। इस तरह से कोई भी आदमी अपने आपको किसी कलात्मक रचना के अंग के रूप में देख सकता है, मिसाल के तौर पर वर्टाफ का थ्री सांग्स अबाउट लेनिन या इवेंस का बोरिनेज। आज हर आदमी यह दावा कर सकता है कि उसकी फिल्म बनायी गयी। इस दावे को समकालीन साहित्य की ऐतिहासिक स्थिति पर एक तुलनात्मक निगाह डालकर सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।

सदियों तक थोड़े से लेखकों का सामना कई हज़ार पाठकों से होता था। यह पिछली सदी का अन्त आते-आते बदल गया। प्रेस के बढ़ते विस्तार के साथ, जो पाठकों के सामने नई-नई राजनीतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, पेशेवर और स्थानीय पत्र-पत्रिकाएँ रखता रहा, अधिक से अधिक पाठक स्वयं लेखक बन गये- शुरुआत में, कभी-कभी लिखने वाले। यह दैनिक प्रेस द्वारा अपने पाठकों के लिए “सम्पादक को पत्र” के पाठक स्तम्भ के खुलने के साथ शुरू हुआ। और आज लाभदायक रूप से नौकरीशुदा शायद ही कोई यूरोपीय व्यक्ति होगा जो, सिद्धान्ततः, किसी जगह अपनी रचना या अपनी रचना पर अन्य टिप्पणियाँ, शिकायतें, दस्तावेज़ी रपटें, या उसी प्रकार की चीज़ें छपवा न सकता हो। इस प्रकार, लेखक और जनता के बीच का फर्क अपने बुनियादी चरित्र को खोने वाला है। यह फर्क महज़ कार्यात्मक बन जाता है; यह हर मामले में अलग किस्म का हो सकता है। किसी भी क्षण पाठक स्वयं लेखक बनने को तैयार है। एक विशेषज्ञ के तौर पर वह लेखकत्व तक पहुँच प्राप्त कर लेता है, जो कि वह, अगर किसी मामूली अर्थों में ही सही, तो एक बेहद विशेषीकृत कार्य प्रक्रिया में अव्यवस्थित तरह से बन सकता है। सोवियत संघ में रचना को ही आवाज़ दे दी जाती है। इसे मौखिक तौर पर पेश करना किसी व्यक्ति की रचना का प्रदर्शन करने की क्षमता का अंग होता है। साहित्यिक अनुज्ञा अब बहुकुशलता पर आधारित है न कि किसी विशेषीकृत प्रशिक्षण पर और इस प्रकार वह साझा सम्पत्ति बन जाती है।20

इस पूरे तर्क को आसानी से फिल्म पर लागू किया जा सकता है, जहाँ वे संक्रमण लगभग एक दशक में ही पूरे हो गये, ज़िन्हें पूरा होने में साहित्य के क्षेत्र में सदियाँ लग गयीं। सिनेमा व्यवहार में, विशेषकर रूस में, यह परिवर्तन अब एक स्थापित यथार्थ बन गया है। रूसी फिल्मों के कुछ अभिनेता, ज़िनसे हम मिलते हैं, हमारे अर्थों में अभिनेता नहीं होती हैं बल्कि वे लोग होते हैं जो अपना ही किरदार निभा रहे होते हैं- और प्राथमिक तौर पर अपनी ही रचना प्रक्रिया में। पश्चिमी यूरोप में फिल्म का पूँजीवादी शोषण पुनरुत्पादित होने के आधुनिक मनुष्य के जायज़ दावे पर विचार करने से भी इंकार कर देता है। इन परिस्थितियों के अन्तर्गत फिल्म उद्योग जनसमुदायों की दिलचस्पी को भ्रम-प्रोत्साहक दृश्य लीलाओं और संदिग्ध अटकलबाज़ियों के जरिये प्रेरित करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहा है।

XI.

किसी फिल्म, विशेषकर स्वरयुक्त फिल्म, की शूटिंग ऐसी दृश्य लीला का ख़र्च उठा सकती है ज़िसकी कल्पना इससे पहले कभी भी, कहीं भी नहीं की जा सकती थी। यह एक ऐसी प्रक्रिया पेश करती है ज़िसमें किसी दर्शक पर एक ऐसा दृष्टिकोण निरूपित करना असम्भव होगा जो वास्तविक दृश्य से बाह्य सहायक सामग्रियों को, जैसे कि कैमरा उपकरण, प्रकाश के यन्त्र, स्टाफ सहायोगी, आदि बाहर कर देता हो- बशर्ते कि उसकी आँखें लेंस की रेखा के समान्तर न हो। किसी भी अन्य स्थिति के मुकाबले यह स्थिति किसी स्टूडियो के दृश्य और मंच के दृश्य के बीच की सम्भावित समरूपता को कृत्रिम और निरर्थक बना देती है। थियेटर में आप उस स्थान को अच्छी तरह से जानते हैं जहां से नाटक को तत्काल एक भ्रम के तौर पर पहचाना नहीं जा सकता है। शूट की जा रहे किसी फिल्म के दृश्य के लिए ऐसी कोई जगह नहीं होती। इसकी भ्रामक प्रकृति दोयम दर्ज़े की है, जो कि कटिंग के कारण पैदा होती है। यानी, स्टूडियो में यान्त्रिक उपकरण इस हद तक वास्तविकता के अन्दर तक भेद चुके हैं कि उपकरण के बाह्य अस्तित्व से मुक्त इसका शुद्ध पहलू एक विशिष्ट प्रक्रिया का परिणाम है, जो कि वास्तव में, विशिष्ट रूप से समायोज़ित कैमरे द्वारा शूटिंग और अन्य ऐसे ही शॉटों के साथ इसे चढ़ाया जाना है। वास्तविकता का उपकरण-मुक्त पहलू यहाँ छल की पराकाष्ठा बन गयी है; तात्कालिक वास्तविकता का दर्शन तकनोलॉजी की भूमि में एक ऑर्किड के समान बन गयी है।

थियेटर से इतनी भिन्नता रखने वाली इन परिस्थितियों का चित्रकारी की स्थिति से तुलना और भी सारगर्भित है। यहाँ प्रश्न यह है किः कैमरामैन की चित्रकार से कैसे तुलना होती है? इसका उत्तर देने के लिए हम एक सर्जिकल ऑपरेशन के साथ रूपक का सहारा लेते हैं। सर्जन एक जादूगर के ध्रुवीय विपरीत का प्रतिनिधित्व करता है। जादूगर हाथ फेर कर किसी बीमार व्यक्ति का उपचार करता है; सर्जन मरीज़ के शरीर में चीर-फाड़ करता है। जादूगर मरीज़ और अपने बीच की प्राकृतिक दूरी का कायम रखता है; हालाँकि वह इसे अपने हाथ फेरने के द्वारा बेहद थोड़ा-सा कम करता है, लेकिन वह इसे अपने प्राधिकार के द्वारा काफी बढ़ा देता है। सर्जन इसका ठीक उल्टा करता है; वह मरीज़ के शरीर को भेदकर अपने और मरीज़ के बीच की दूरी का काफी कम कर देता है, और इसे उस सावधानी से बढ़ाता है, हालांकि थोड़ा ही, ज़िसके साथ उसके हाथ अंगों के बीच चलते हैं। संक्षेप में, जादूगर के विपरीत जो अभी भी एक चिकित्सक में छिपा हुआ है सर्जन निर्णायक क्षण पर मरीज़ से रूबरू होने से परहेज़ करता है; उल्टे, यह ऑपरेशन के जरिये होता है कि वह उसके भीतर प्रविष्ट होता है।

जादूगर और सर्जन चित्रकार और कैमरामैन से तुलनीय हैं। चित्रकार अपनी रचना में वास्तविकता से एक प्राकृतिक दूरी कायम रखता है, कैमरामैन इसके जाल में काफी गहराई तक भेद जाता है।21 जो चित्र वे प्राप्त करते हैं उसमें भारी अन्तर होता है। चित्रकार की तस्वीर एक पूर्ण तस्वीर होती है, जबकि कैमरामैन की तस्वीर में कई खण्ड होते हैं ज़िन्हें एक नये नियम के तहत एक साथ जोड़ा जाता है। इस प्रकार, समकालीन मनुष्य के लिए फिल्म में वास्तविकता का निरूपण चित्रकार की रचना में इसके निरूपण से अतुलनीय रूप से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह यान्त्रिक उपकरण के साथ वास्तविकता के सांगोपांग पारगमन के कारण ही वास्तविकता के एक ऐसे पहलू को पेश करता है जो कि सभी उपकरणों से मुक्त है। और यही वह चीज़ है ज़िसकी एक कलात्मक रचना से कोई माँग करने का अधिकारी है।

XII.

कला का यान्त्रिक पुनरुत्पादन जन समुदायों की कला के प्रति प्रतिक्रिया को बदल देता है। पिकासो के किसी चित्र के प्रति कोई प्रतिक्रियावादी रुख़ किसी चैप्लिन की फिल्म के प्रति एक प्रगतिशील प्रतिक्रिया बन जाती है। प्रगतिशील प्रतिक्रिया की पहचान दृष्टिक और भावनात्मक आनन्द के विशेषज्ञ के रवैये के साथ प्रत्यक्ष, अन्तरंग संलयन से होती है। ऐसे संलयन का महान सामाज़िक महत्व होता है। किसी कला रूप के सामाज़िक महत्व में कमी ज़ितनी ज़्यादा होती है, जनता द्वारा आलोचना और आनन्द के बीच का अन्तर उतना ही तीक्ष्णतर होता जाता है। जो पारम्परिक होता है उसका अनालोचनात्मक रूप से आनन्द लिया जाता है, और जो सच्चे मायने में नया होता है उसकी द्वेष के साथ आलोचना की जाती है। स्क्रीन के मामले में, जनता का आलोचनात्मक रवैया और स्वीकारात्मक रवैया मिल जाता है। इसका निर्णयात्मक कारण होता है कि वैयक्तिक प्रतिक्रियाएँ उन व्यापक दर्शक प्रतिक्रियाओं द्वारा पूर्वनिर्धारित हो जाती हैं, जो कि वह पैदा करने वाली है, और यह फिल्म से ज़्यादा सुस्पष्ट और कहीं नहीं है। जैसे ही ये प्रतिक्रियाएँ अभिव्यक्त हो जाती हैं वैसे ही वे एक-दूसरे को नियन्त्रित करने लगती हैं। यहाँ भी चित्रकारी के साथ तुलना उपयोगी है। किसी चित्र के पास हमेशा इस बात का एक शानदार मौका रहता है कि उसे एक व्यक्ति या कुछ व्यक्ति देखेंगे। एक विशाल जनता द्वारा चित्रों पर सामूहिक चिन्तन, जैसा कि उन्नीसवीं सदी में विकसित हुआ, चित्रकला के संकट का एक आरंभिक लक्षण है, एक संकट जो किसी भी रूप में केवल फोटोग्राफी द्वारा उत्पन्न नहीं हुआ था बल्कि जनसमुदायों के लिए कलात्मक रचनाओं की अपील द्वारा सापेक्षिक रूप से स्वतन्त्र तरह से उत्पन्न हुआ।

चित्रकला किसी वस्तु को एक साथ सामूहिक अनुभव के लिए प्रस्तुत करने के लिए किसी स्थिति में नहीं होती है, ज़िस प्रकार कि यह हर युग में वास्तुकला के लिए, अतीत में महाकाव्यात्मक काव्य के लिए, और आज फिल्म के लिए सम्भव है। हालांकि इससे स्वतः ही किसी को चित्रकला की सामाज़िक भूमिका के बारे में नतीजे नहीं निकालने चाहिए, लेकिन विशेष स्थितियों के तहत, और मानो इसकी प्रकृति के विपरीत, जैसे ही चित्रकला प्रत्यक्ष रूप से जनसमुदायों के सामने आती है, इसके कारण एक गम्भीर ख़तरा पैदा हो जाता है। मध्ययुगीन चर्चों और मठों में और अट्ठारहवीं सदी के अन्त तक राजाओं के दरबारों में, चित्रों को सामूहिक रूप से ग्रहण करने का काम एक साथ नहीं होता था, बल्कि यह क्रमिक और पदानुक्रम वाली मध्यस्थता के साथ होता था। जो परिवर्तन आया है वह उस विशिष्ट द्वन्द्व की अभिव्यक्ति है ज़िसमें चित्रकला यान्त्रिक पुनरुत्पादनीयता द्वारा फँसा दी गयी है। हालाँकि चित्र कला दीर्घाओं और सालों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किये जाने लगे, लेकिन जनसमुदायों के पास उनको ग्रहण किये जाने की प्रक्रिया को संगठित और नियन्त्रित किये जाने का कोई रास्ता नहीं था।22 इस प्रकार वही जनता जो किसी विलक्षण फिल्म के प्रति एक प्रगतिशील (चरणबद्ध- अनुवादक) तरीके से प्रतिक्रिया देती है वही अति-यथार्थवाद के प्रति एक प्रतिक्रियावादी तरीके से प्रतिक्रिया देती है।

XIII.

फिल्म की चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ न सिर्फ उस तरीके में निहित होती हैं ज़िससे मनुष्य अपने आपको यान्त्रिक उपकरण के सम्मुख प्रस्तुत करता है, बल्कि इस उपकरण के जरिये, उस तरीके में भी निहित होती हैं, ज़िससे मनुष्य अपने परिवेश को पेश करता है। पेशागत मनोविज्ञान इस उपकरण की परीक्षण क्षमता को प्रदर्शित करता है। मनोविश्लेषण इसे एक अलग परिप्रेक्ष्य में दिखलाता है। फिल्म ने उन पद्धतियों से हमारे बोध के क्षेत्र को समृद्ध किया है ज़िन्हें फ्रायडीय सिद्धान्त की प्रणालियों से दर्शाया जा सकता है। पचास वर्षों से पहले ज़बान फिसलने की कोई घटना कमोबेश बिना ध्यान में आए गुज़र जाती थी। केवल अपवादस्वरूप ही ऐसी ग़लती ने किसी बातचीत में गहराई के आयामों को उद्घाटित किया है जो महज़ सतह पर होती दिखलाई दे रही थी। नित्य जीवन का असामान्य मनोविज्ञान (साइकोपैथोलॉजी ऑफ एवरीडे लाइफ) के बाद चीज़ें बदल गयी हैं। इस पुस्तक ने उन चीज़ों को अलग किया और विश्लेषण-योग्य बनाया जो अब तक बोध की व्यापक धारा पर किसी के ध्यान में आए बग़ैर तैर रही थीं। दृष्टव्य बोध के, और अब श्रव्य बोध के भी, समूचे स्पेक्ट्रम के लिए फिल्म ने मूल्यांकन को इसी तरह से गहरा बनाया है। यह इस तथ्य का महज़ एक ख़ास पहलू है कि किसी फिल्म में दिखाए गए व्यवहार-सम्बन्धी तत्वों को और अधिक सटीकता के साथ विश्लेषित किया जा सकता है और चित्रें में या मंच पर पेश दृष्टिकोणों से कहीं ज़्यादा दृष्टिकोणों से विश्लेषित किया जा सकता है। चित्र की तुलना में फिल्म में उतारा गया व्यवहार अपने आपको अधिक आसानी से विश्लेषण के लिए मुहैया कराता है क्योंकि इसमें स्थिति के बारे में अतुलनीय रूप से अधिक सटीक कथन होते हैं। मंच के दृश्य की तुलना में फिल्म में उतारा गया व्यवहार अपने आपको अधिक आसानी से विश्लेषण के लिए मुहैया कराता है क्योंकि इसे ज़्यादा आसानी से अलग करके देखा जा सकता है। इस परिस्थिति का महत्व इस बात से पैदा होता है कि इसमें कला और विज्ञान के परस्पर अन्तर्भेदन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति होती है। दरअसल, किसी स्क्रीन पर उतारे गये व्यवहार-सम्बन्धी तत्व के बारे में जो किसी निश्चित स्थिति में सफ़ाई से लाया गया हो, जैसे कि किसी शरीर की कोई मांसपेशी, यह कहना मुश्किल है कि कौन-सी चीज़ अधिक आश्चर्यजनक है, इसका कलात्मक मूल्य या विज्ञान के लिए इसका मूल्य। फोटोग्राफ़ी के कलात्मक और वैज्ञानिक उपयोगों की एकता को प्रदर्शित करना जो अब आम तौर पर अलग रहे थे, फिल्म के क्रान्तिकारी कार्यों में से एक होगा।23

हमारे आस-पास की चीज़ों पर करीबी निगाह (क्लोज़-अप) के जरिये, चिर-परिचित चीज़ों के छिपे विवरणों पर फोकस करके, रोज़मर्रा के परिवेशों को कैमरे के निपुण मार्गदर्शन के तहत अन्वेशित करके, फिल्म एक ओर, उन आवश्यकताओं के हमारे बोध को विस्तारित करती है, जो हमारे जीवन पर शासन करती हैं; वहीं, दूसरी ओर, यह कार्रवाई के एक सघन और अनपेक्षित क्षेत्र के बारे में हमें आश्वस्त करती है। ऐसा लगता था मानो हमारे शराबघरों और हमारी महानगरीय सड़कों, हमारे कार्यालयों और सजे-धजे कमरों, हमारे रेलवे स्टेशनों और हमारे कारखानों ने हमें हताशाजनक रूप से कैद कर रखा था। लेकिन तभी फिल्म आती है और इस कैद की दुनिया को सेकेण्ड के दसवें हिस्से के उस डायनामाइट से टुकड़े-टुकड़े कर देती है, ताकि अब, इसके दूर-दूर तक फैले ध्वंसावशेषों और मलबे के बीचों-बीच, हम शान्तिपूर्वक और साहसपूर्वक यात्रा पर जा सकें। क्लोज़-अप के साथ दिक् (स्पेस) फैलता है; स्लो मोशन के साथ गति विस्तारित होती है।

किसी स्नैपशॉट को बड़ा करने से जो दिख रहा था महज़ वह ज़्यादा सटीक, हालाँकि थोड़ा अस्पष्ट होने के साथ, नहीं दिखने लगताः यह कर्ता की पूरी तरह से नयी ढाँचागत संरचनाओं को जाहिर करता है। उसी तरह से, स्लो मोशन न सिर्फ गति के चिर-परिचित गुणों को पेश करता है, बल्कि यह उनमें पूरी तरह अज्ञात गुणों को खोल कर रख देता है, “जो महज़ धीमे कर दी गईं तेज़ गतियों जैसा दिखने की बजाय, एकदम ही फिसलती, तैरती, अलौकिक गतियों का प्रभाव देता है।”24 देखा जा सकता है कि आँखों को दिखने वाली प्रकृति की बजाय एक बिल्कुल ही अलग प्रकृति अपने आपको कैमरे के समक्ष अनावृत्त करती है- अगर महज़ इसलिए कि एक अचेतन रूप से प्रविष्ट दिक की जगह एक ऐसा दिक ले लेता है, ज़िसे मनुष्य सचेतन तौर पर अन्वेषित करता है। अगर किसी के पास इस बात की सामान्य जानकारी हो कि लोग कैसे चलते हैं, तो भी वह किसी की चाल के एक सेकेण्ड हिस्से के दौरान उसकी भंगिमा के बारे में कुछ नहीं जानता। किसी लाइटर या चम्मच के लिए हाथ बढ़ाना रोज़मर्रा होने वाली एक जानी-पहचानी गतिविधि है, लेकिन हम शायद ही यह जानते हों कि हाथ और धातु के बीच वास्तव में क्या चल रहा होता है, और इसके बारे में तो और भी कम कि हमारे मिजाज़ में परिवर्तनों के साथ यह कैसे बदलता है। यहाँ कैमरा अपने नीचे जाने और ऊपर आने के संसाधनों, इसके विघ्नों और विलगनों, इसके विस्तारों और त्वरणों, इसके विवर्धनों और लघुकरणों के साथ हस्तक्षेप करता है। कैमरा हमें अचेत दर्शन विद्या से हमारा परिचय कराता है, ठीक उसी तरह जैसे मनोविश्लेषण अचेत आवेगों से हमारा परिचय कराता है।

XIV.

कला के सबसे प्रमुख कार्यभारों में से एक हमेशा से ऐसी माँग का सृजन करना रहा है ज़िसे केवल बाद में ही पूरा किया जा सकता है।25 हर कला रूप का इतिहास ऐसे महत्वपूर्ण युग दर्शाता है ज़िसमें कोई विशेष कला रूप ऐसे प्रभावों की आकांक्षा करता है ज़िन्हें परिवर्तित तकनीकी मानकों के साथ ही हासिल किया जा सकता है, यानी कि, एक नये कला रूप में। इस प्रकार विशेष तौर पर पतनशील युगों में कला की जो उच्छृंखलाएँ और कच्चापन दिखलायी देती हैं वे वास्तव में इसकी समृद्धतम ऐतिहासिक ऊर्जाओं की नाभिक से पैदा होती हैं। हालिया वर्षों में, दादावाद में ऐसी बर्बरताएँ प्रचुर मात्र में थीं। केवल अब इसका आवेग समझने योग्य हो सका हैः दादावाद ने चित्रात्मक और साहित्यिक ज़रियों के माध्यम से ऐसे प्रभावों की रचना करने का प्रयास किया ज़िन्हें जनता आज फिल्म में ढूँढती है।

माँगों की बुनियादी तौर पर हर नयी, अगुआ रचना अपने लक्ष्य से आगे जाएगी। दादावाद ने यह काम इस हद तक किया कि इसने उन बाज़ार मूल्यों का परित्याग किया जो उच्चतर महत्वाकांक्षाओं के पक्ष में फिल्म की आभिलाक्षणिक विशेषताएँ हैं- हालाँकि वह ऐसे इरादों के प्रति सचेत नहीं था ज़िनकी यहाँ बात की गयी है। दादावादियों ने अपनी रचनाओं के बिक्री मूल्य को चिन्तनशील तल्लीनता के मामले में उनके बेकार होने की तुलना में काफी कम महत्व दिया। उनकी सामग्री की सुविचारित पतनशीलता इस बेकारपन को प्राप्त करने के लिए उनके जरियों में कम महत्वपूर्ण नहीं थी।

उनकी कविताएँ “शब्दों का सलाद” हैं ज़िसमें अश्लीलताएँ और भाषा का हर कल्पनीय अवशिष्ट उत्पाद होते हैं। यही बात चित्रकला के बारे में भी सही है, ज़िस पर वे बटन और टिकट लगा देते थे। ज़िस चीज़ का उन्होंने इरादा किया और उसे हासिल भी किया वह उनकी रचनाओं के प्रभा मण्डल का निर्मम ध्वंस था, ज़िन्हें वे उन्हीं उत्पादन के साधनों से पुनरुत्पादनों का नाम देते थे। आर्प के किसी चित्र या ऑगस्ट स्ट्रैम की किसी कविता के समक्ष चिन्तन और मूल्यांकन के लिए समय लेना असमीव है, जैसा कि कोई दिरेन के किसी कैनवस या रिल्के की किसी कविता के समक्ष करेगा। मध्यवर्गीय समाज के ह्रास में, चिन्तन-मनन एक असामाज़िक व्यवहार का स्कूल बन गया; सामाज़िक आचार के एक भिन्न रूप के तौर पर इसका प्रत्युत्तर विक्षिप्तता ने दिया।26 दादावादी गतिविधियों ने कलात्मक रचनाओं को विवाद का केन्द्र बनाकर एक प्रकार से प्रचण्ड विक्षिप्तता को सुनिश्चित किया। एक आवश्यकता सबसे प्रमुख थीः जनता का नैतिकता-बोध भंग करना।

आकर्षक रूप या ध्वनि की प्रोत्साहक संरचना से दादावादियों की कलात्मक रचना एक प्राक्षेपिकी का उपकरण बन गयी। यह देखने वाले पर एक बुलेट की तरह आकर लगती थी, यह उस पर घटित होती थी, और इस प्रकार एक स्पर्शनीय गुण हासिल कर लेती थी। इसने फिल्म की माँग को प्रोत्साहित किया, ज़िसका विक्षेपकारी तत्व भी मुख्य रूप से स्पर्शनीय है, क्योंकि यह स्थान और फोकस के परिवर्तन पर आधारित होती है जो कि नियमित अन्तराल पर दर्शक पर हमला करते हैं। आइये फिल्म के पर्दे की तुलना किसी चित्र के कैनवस से करते हैं। चित्र दर्शक को चिन्तन के लिए आमन्त्रित करता है; इसके समक्ष दर्शक अपने सम्बन्धों के लिए अपना परित्याग कर सकता है। एक फिल्म के फ्रेम के समक्ष वह ऐसा नहीं कर सकता है। जब तक उसकी आँखें किसी दृश्य को पकड़ पाती हैं वह बदल चुका होता है। इसे रोककर नहीं रखा जा सकता। दुहामेल, जो फिल्म से घृणा करता है और हालाँकि इसकी संरचना के बारे में कुछ जानता है लेकिन उसे इसके महत्व के बारे में कुछ भी नहीं पता, इस परिस्थिति को इस तरह से दर्ज़ करता हैः “मैं जो सोचना चाहता हूँ वह अब नहीं सोच सकता। मेरे विचारों की जगह चलते चित्रों ने ले ली है।”27 इन चित्रों को देखने में दर्शक के सम्बन्ध स्थापित होने की प्रक्रिया निश्चित रूप से उनके लगातार, आकस्मिक परिवर्तन से भंग होती रहती है। यह फिल्म के आघात प्रभाव को निर्मित करता है, जो, सभी आघातों की तरह, मस्तिष्क की उन्नत मौजूदगी के द्वारा सोख लिया जाना चाहिए।28 अपने तकनीकी ढाँचे के ज़रिये, फिल्म ने भौतिक आघात प्रभाव को लिफाफे से बाहर निकाल ज़िया है, ज़िसमें दादावाद ने उसे मानो नैतिक आघात प्रभाव के भीतर रखा हुआ था।29

XV.

जनसमूह एक मेट्रिक्स (साँचा) है ज़िससे कलात्मक रचनाओं के प्रति सभी पारम्परिक व्यवहार एक नये रूप में निकलते हैं। परिमाण गुण में बदल गया है। भागीदारों की बेहद बढ़ी हुई मात्रा ने भागीदारी के स्वरूप में ही एक परिवर्तन ला दिया है। इस तथ्य से कि भागीदारी का नया स्वरूप पहले एक असम्माननीय रूप में प्रकट हुआ दर्शक को कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। लेकिन फिर भी कुछ लोगों ने ठीक इसी कृत्रिम पहलू पर काफ़ी ज़ोर-शोर से हमले शुरू कर दिये हैं। इनमें से, दुहामेल ने अपने आपको सबसे आमूलवादी रूप में प्रकट किया है। ज़िस चीज़ पर वह सबसे अधिक आपत्ति करते हैं वह भागीदारी का वह रूप है जो फिल्म जनता से प्राप्त करती है। दुहामेल फिल्म को “भूदासों, अशिक्षित, अभागों, थके-माँदे प्राणियों के समय काटने का जरिया” बताते हैं, “जो अपनी चिन्ताओं में ख़र्च हो गये हैं…, एक कौतुक स्वाँग ज़िसमें किसी ध्यान-केन्द्रण की आवश्यकता नहीं है और जो किसी बुद्धि का पूर्वानुमान नहीं करता…, जो दिल में कोई दिया नहीं जलाता और लॉस एंजेल्स में किसी दिन “स्टार” बन जाने की हास्यास्पद उम्मीद के अलावा कोई उम्मीद नहीं जगाता।”30 स्पष्ट रूप से, यह असल में वही प्राचीन स्यापा है कि जनता विक्षेप (मन-बहलाव) की तलाश करती है जबकि कला दर्शक से ध्यान-केन्द्रण की माँग करती है। यह आम बात है। यह सवाल फिर भी अपनी जगह पर कायम रहता है कि क्या यह फिल्म के विश्लेषण के लिए कोई मंच मुहैया कराता है। यहाँ पर एक अधिक करीबी नज़र की ज़रूरत है। विक्षेप और ध्यान-केन्द्रण ध्रुवीय विपरीतों का निर्माण करते हैं ज़िन्हें इस रूप में कहा जा सकता हैः कोई मनुष्य जो किसी कलात्मक रचना के समक्ष ध्यान केन्द्रित करता है, वह इसके द्वारा सोख लिया जाता है। वह इस कलात्मक रचना में उसी तरह से प्रविष्ट हो जाता है ज़िस प्रकार दन्तकथा में उस चीनी चित्रकार के साथ होता है जब वह अपने द्वारा पूरे किये गये चित्र को देखता है। इसके विपरीत, विक्षिप्त जनता कलात्मक रचना को सोख लेती है। यह इमारतों के मामले में सबसे जाहिर है। स्थापत्य कला ने हमेशा से ही एक ऐसी कलात्मक रचना के आदिरूप का प्रतिनिधित्व किया है ज़िसे ग्रहण किये जाने की प्रक्रिया विक्षेप की अवस्था में एक समूह द्वारा मुकम्मिल की जाती है।

इमारतें आदि काल से ही आदमी की साथी रही हैं। कई कला रूप पैदा हुए और खत्म हो गये। त्रासदी यूनानियों के साथ शुरू होती है, उनके साथ ख़त्म होती है, और सदियों बाद केवल सके “नियम” पुनर्जीवित होते हैं। महाकाव्यात्मक पद्य, ज़िसका मूल राष्ट्रों के यौवन में था, पुनर्जागरण के समापन पर यूरोप में समाप्त हो जाती है। पैनल चित्रकारी मध्य युग की रचना है, और कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो इसके अस्तित्व के लगातार जारी रहने को सुनिश्चित करती हो। लेकिन सिर पर छत के लिए मनुष्य की आवश्यकता जीवित रहने वाली है। स्थापत्य कला कभी स्थिर नहीं रही है। इसका इतिहास किसी भी अन्य कला से अधिक प्राचीन है, और एक जीवन्त शक्ति होने का इसका दावा जनता के कला से सम्बन्ध को समझने के हर प्रयास में महत्व रखता है। इमारतें दोहरे तरीके से विनियोज़ित होती हैं: उपयोग के द्वारा और बोध के द्वारा या यूँ कहें कि छूने और देखने के द्वारा। ऐसे विनियोजना को किसी प्रसिद्ध इमारत के समक्ष खड़े किसी पर्यटक के गहरे ध्यान केन्द्रण के अर्थों में नहीं समझा जा सकता। स्पर्शनीय पक्ष में दर्शनीय पक्ष के चिन्तन का कोई समानान्तर नहीं है। स्पर्शनीय विनियोजन ध्यान के जरिये उतना हासिल नहीं होता ज़ितना कि आदत के जरिये होता है। स्थापत्य कला के सम्बन्ध में, आदत काफी हद तक दर्शनीय ग्राह्यता को भी निर्धारित करती है। दर्शनीय ग्राह्यता भी भाव विभोर ध्यान द्वारा उतना नहीं होती ज़ितनी कि आकस्मिक रूप से उस वस्तु पर ग़ौर करने से होती है। विनियोजन की यह पद्धति, जो कि स्थापत्य कला के सन्दर्भ में विकसित हुई थी, कुछ विशेष परिस्थितियों में प्रामाणिक मूल्य ग्रहण कर लेती है। क्योंकि इतिहास के अहम मौकों पर बोध के मानवीय उपकरणों के समक्ष जो कार्यभार होते हैं, वे दृष्टव्य माध्यमों से पूरे नहीं किये जा सकते, यानी कि, महज़ चिन्तन से पूरे नहीं किये जा सकते। उन पर आदत के जरिये, स्पर्शनीय विनियोजन के मार्गदर्शन में एक क्रमिक प्रक्रिया में निपुणता प्राप्त की जाती है।

एक ऐसा व्यक्ति भी आदतें बना सकता है ज़िसका ध्यान भंग हो गया हो। और अहम बात यह कि ध्यान भंग होने की स्थिति में भी कुछ कार्यभारों को पूरा करने में निपुणता प्राप्त करने की क्षमता यह सिद्ध करती है कि उनका समाधान अब आदत का मसला बन चुका है। कला द्वारा प्रदत्त विक्षेप उस सीमा पर एक अप्रकट नियंत्रण को पेश करती हैं ज़िस तक नये कार्यभार मानसिक बोध के जरिये ही समाधान योग्य हो गये हैं। इसके अलावा, चूँकि व्यक्ति ऐसे कार्यभारों से बचने की ओर आकर्षित होते हैं, इसलिए कला सबसे कठिन और सबसे महत्वपूर्ण कार्यभारों का सामना करेगी जहाँ यह जनसमुदायों को गोलबन्द करने में सक्षम हो। आज यह ऐसा फिल्मों के जरिये कर रही है। विक्षेप की स्थिति में ग्रहणशीलता, जो कि कला के सभी क्षेत्रों में ग़ौरतलब तरीके से बढ़ रही है और मानसिक बोध में गम्भीर परिवर्तनों का लक्षण है, फिल्मों में अपने अभ्यास के सच्चे जरिये को पाती है। फिल्म अपने आघात प्रभाव के साथ ग्रहणशीलता के इस रूप से आधे रास्ते में मिलती है। फिल्म कल्ट मूल्य को नेपथ्य में चले जाने के लिए बाध्य करती है, न सिर्फ जनता को आलोचक की स्थिति में रखकर, बल्कि इस तथ्य के जरिये भी कि फिल्मों के मामले में इस पदवी पर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं होती। जनता एक जाँचकर्ता है, लेकिन अन्यमनस्क जाँचकर्ता।

उपसंहार

आधुनिक मनुष्य का बढ़ता सर्वहाराकरण और जनसमुदायों का बढ़ता गठन एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। फासीवाद नव-गठित सर्वहारा जनसमुदायों को उस सम्पत्ति संरचना को छेड़े बग़ैर संगठित करना चाहता है ज़िसे जनसमुदाय ख़त्म करने के लिए जूझते हैं। फासीवाद इन लोगों को उनके अधिकार देने में अपना निर्वाण नहीं देखता, बल्कि उन्हें अपने आपको अभिव्यक्त करने का एक अवसर देने में अपना निर्वाण देखता है।31 जनसमुदाय के पास सम्पत्ति सम्बन्धों को बदल डालने का अधिकार है; फासीवाद सम्पत्ति की रक्षा करते हुए उन्हें अभिव्यक्ति देने का प्रयास करता है। फासीवाद की तार्किक परिणति होता है राजनीतिक जीवन में सौन्दर्यशास्त्र का प्रवेश। जनसमुदाय के विरुद्ध अतिक्रमण, ज़िसे फासीवाद अपने फ्यूहरर कल्ट के जरिये, घुटनों के बल ले आता है, का समानान्तर एक ऐसे उपकरण के विरुद्ध अतिक्रमण में होता है जो कि संस्कारगत मूल्यों के उत्पादन में लगाया गया होता है।

राजनीति को सौन्दर्यपूर्ण बनाने के सभी प्रयासों की परिणति एक ही चीज़ में होती हैः युद्ध। युद्ध और केवल युद्ध ही पारम्परिक सम्पत्ति व्यवस्था का सम्मान करते हुए, सबसे बड़े पैमाने पर जन आन्दोलनों के लिए एक लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं। यही इस स्थिति के लिए राजनीतिक सूत्र है। तकनोलॉज़िकल सूत्र को इस प्रकार रखा जा सकता हैः केवल युद्ध ही सम्पत्ति व्यवस्था को कायम रखते हुए आज के सभी तकनीकी संसाधनों को एकत्र कर सकता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि युद्ध का फासीवादी दैवीकरण ऐसे तर्कों का उपयोग नहीं करता। फिर भी, इथियोपियाई औपनिवेशिक युद्ध पर अपने घोषणापत्र में मारीनेट्टी कहता हैः “सत्ताईस वर्षों से हम भविष्यवादियों ने युद्ध पर सौन्दर्य-विरोधी होने का ठप्पा लगाये जाने के खि़लाफ़ विद्रोह करते रहे हैं…इसी के अनुरूप हम कहते हैं: …युद्ध सुन्दर है क्योंकि यह अधीनस्थ बना लिये गये यन्त्रों पर गैस मास्क, डरावने मेगाफोनों, फ्लेम थ्रोवरों, और छोटे टैंकों के जरिये मनुष्य के प्रभुत्व को स्थापित करता है। युद्ध सुन्दर है क्योंकि यह मनुष्य के शरीर का वह धातुकरण शुरू करता है ज़िसका सपना देखा गया था। युद्ध सुन्दर है क्योंकि यह एक फलते-फूलते चरागाह को मशीन गनों के अग्निमय बाग़ीचे से समृद्ध बना देता है। युद्ध सुन्दर है क्योंकि यह बन्दूक के चलने, तोपों की गोलाबारी, युद्ध-विराम, सुगन्धों, और सड़ाँध को एक सिम्फनी में जोड़ देता है। युद्ध सुन्दर है क्योंकि यह एक नयी स्थापत्य कला को रचता है, जैसे कि बड़े टैंकों, ज्यामितीय गठन में उड़ानों, जलते गाँवों से उठते धुँए के कुण्डलों, और कई दूसरी चीज़ों को…जैसे कि भविष्यवाद के कवियों और कलाकारों को!… युद्ध के सौन्दर्यशास्त्र के इन सिद्धान्तों को याद रखें ताकि एक नये साहित्य और एक नयी चित्रात्मक कला के लिए आपका संघर्ष…उनसे आलोकित हो सके!”

इस घोषणापत्र में स्पष्टता का गुण है। इसके सूत्रीकरणों को द्वन्द्ववादियों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। द्वन्द्ववादियों के लिए आज के युद्ध का सौन्दर्यशास्त्र कुछ यूँ नज़र आता हैः अगर उत्पादक शक्तियों का नैसर्गिक उपयोग सम्पत्ति व्यवस्था द्वारा बाधित होता है तो तकनीकी उपकरणों में बढ़ोत्तरी, गति में बढ़ोत्तरी और ऊर्जा के स्रोतों में बढ़ोत्तरी अनैसर्गिक उपयोग के लिए दबाव डालेंगी, और यही युद्ध में दिखायी देता है। युद्ध की विध्वंसकता इस बात का प्रमाण पेश करती है कि समाज तकनोलॉजी को अपने अंग के रूप में शामिल कर लेने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं है, कि तकनोलॉजी समाज की आवयविक शक्तियों का सामना करने के लिए पर्याप्त विकसित नहीं है। साम्राज्यवादी युद्ध के भयंकर लक्षणों का उत्तरदायी उस असंगति को ठहराया जा सकता है जो कि उत्पादन के साधनों के ज़बर्दस्त विकास और उत्पादन की प्रक्रिया में उनके अनुपयुक्त रूप से उपयोग में लाये जाने के बीच मौजूद है दूसरे शब्दों में, बेरोज़गारी और बाज़ारों की कमी को ठहराया जा सकता है। साम्राज्यवादी युद्ध तकनोलॉजी का एक विद्रोह है जो, “मानव सामग्री” के रूप में, उन दावों को संकलित करता है ज़िन्हें उनकी प्राकृतिक सामग्री से समाज ने वंचित कर दिया है। नदियों को बहाने की बजाय, समाज खन्दकों की तहों में मानव धारा को बिछा देती है; हवाई जहाज़ से बीज गिराने की बजाय, वह भयंकर बमों को शहरों पर गिराती है; और गैस युद्ध के जरिये प्रभा मण्डल को एक नये तरीके से समाप्त किया जाता है।

“कला की रचना होने दो- विश्व को नष्ट होने दो,” फासीवाद कहता है, और, जैसा कि मारीनेती स्वीकार करता है, वह युद्ध से एक ऐसे इन्द्रीय बोध की कलात्मक परितुष्टि की आपूर्ति करने की अपेक्षा करता है जो तकनोलॉजी द्वारा बदला जा चुका है। यह स्पष्ट रूप से “कला के लिए कला” की ही परिणति है। मनुष्यता जो होमर के युग में ओलम्पियन देवताओं के चिन्तन की वस्तु थी, वह अब अपने लिए अपने चिन्तन की वस्तु बन चुकी है। आत्म-अलगाव इस हद तक पहुँच चुका है कि यह पहले दर्ज़े के सौन्दर्यबोधीय आनन्द के साथ अपने ही विनाश की अनुभूति कर सकती है। यह राजनीति की स्थिति है ज़िसे फासीवाद सौन्दर्यपूर्ण बना रहा है। कम्युनिज़्म कला के राजनीतिकरण के जरिये जवाब देता है।

टिप्पणियाँ

  1. पॉल वैलेरी, एस्थेटिक्स, से उद्धृत, “सर्वविद्यमानता पर विजय,” राल्फ मैनहीम द्वारा अनूदित, पृ. 225, पैंथियन बुक्स, बॉलिंजेन सीरीज़, न्यू यॉर्क, 1964.
  2. जाहिरा तौर पर, किसी कलात्मक रचना के इतिहास के दायरे में इससे अधिक आता है। उदाहरण के लिए, “मोना लीसा” के इतिहास में उसकी उन प्रतिलिपियों का प्रकार और संख्या आती है जो कि 17वीं, 18वीं और 19वीं सदियों में बनायी गयीं।
  3. ठीक इसी वजह से कि प्रामाणिकता का पुनरुत्पादन नहीं हो सकता, प्रामाणिकता को अलग करने और उसे श्रेणीबद्ध करने में पुनरुत्पादन की कुछ विशेष (यान्त्रिक) प्रक्रियाओं की सघन पैठ सहायक थी। ऐसे विलगीकरणों को विकसित करना कलात्मक रचनाओं के व्यापार का महत्वपूर्ण कार्य था। लकड़ी के साँचे की खोज के बारे में यह कहा जा सकता है कि उसने अपने विकास के बाद के दौर के पहले ही प्रामाणिकता की गुणवत्ता की जड़ पर चोट की। अधिक सुनिश्चित तौर पर, इसके पैदा होने के समय पर मडोना की किसी मध्ययुगीन तस्वीर को अभी “प्रामाणिक” नहीं कहा जा सकता था। यह आने वाली सदियों के दौरान और शायद आश्चर्यजनक रूप से आखि़री सदी के दौरान ही “प्रामाणिक” बन सकी।
  4. फाउस्ट का कोई ख़राब से ख़राब स्थानीय मंचन भी इस मामले में किसी फाउस्ट फिल्म से श्रेष्ठतर है कि, आदर्श रूप में, यह वीमर के पहले मंचन के साथ प्रतिस्पर्द्धा करता है। स्क्रीन के समक्ष पारम्परिक अन्तर्वस्तुओं को याद करना अलाभदायक होता है जो मंच के समक्ष दिमाग़ में आ सकते हैं- मिसाल के तौर पर, यह कि गोएठे के मित्र योहान हाइनरिख़ मर्क मेफिस्टो में छिपा है, और इसी प्रकार की अन्य बातें।
  5. एबेल गांस, “ले तेंप्स दे ला’इमेज एस्त वेनु,” लाआर्ट सिनेमैतोग्रैफीक, खण्ड 2, पृ. 94 फुटनोट, पेरिस, 1927.
  6. जनसमुदायों की मानवीय रुचि को सन्तुष्ट करने का अर्थ दृष्टि के क्षेत्र से अपने सामाज़िक कार्य को हटा देना भी हो सकता है। इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि आज का कोई पोर्ट्रेट कलाकार, अपने परिवार के बीच नाश्ते की टेबल पर बैठे किसी प्रसिद्ध सर्जन का चित्र बनाते समय उसके सामाज़िक कार्य को 17वीं सदी के उस चित्रकार से ज़्यादा सटीकता से दिखलाता है जो अपने समय के मेडिकल डॉक्टरों को इस पेशे का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखलाता था, जैसे कि अपने “शरीर रचना विज्ञान का पाठ” में रेम्ब्राण्ट करते हैं।
  7. प्रभा मण्डल की यह परिभाषा “दूर स्थित कोई अद्वितीय परिघटना चाहे यह कितनी भी करीब हो” और कुछ नहीं बल्कि दिक और काल के बोध की श्रेणियों में कलात्मक रचना के कल्ट मूल्य के सूत्रीकरण का प्रतिनिधित्व करती है। दूरी करीबी का विपरीत है। मूलतः दूर वस्तु वह है ज़िस तक पहुँचा नहीं जा सकता। पहुँच के बाहर होने का गुण निश्चित रूप से कल्ट छवि का एक प्रमुख गुण है। अपने प्रकृति के ही अनुरूप, यह “दूर” बना रहता है, “चाहे यह कितना भी करीब क्यों न हो।” इसकी विषय-वस्तु से जो करीबी कोई प्राप्त कर सकता है वह उस दूरी को दूषित नहीं करता जो इसकी रूप-वस्तु कायम रखती है।
  8. ज़िस हद तक चित्रकला के कल्ट मूल्य लौकिकीकरण (सेक्युलराइज़ेशन) हुआ है उसी हद तक इसकी बुनियादी अद्वितीयता के विचार अपनी भिन्नता को खोते गये हैं। दर्शक की कल्पना में परिघटना की वह अद्वितीयता जो कल्ट चित्र में अपना प्रभाव बरकरार रखती है उसकी जगह रचनाकार की आनुभविक अद्वितीयता या उसकी रचनात्मक उपलब्धि की अद्वितीयता अधिक से अधिक लेती जाती है। अधिक सुनिश्चित रूप में कहें तो ऐसा पूरी तरह से कभी नहीं होता; प्रामाणिकता की अवधारणा महज विशुद्धता के पार जाती है। (यह विशेष रूप से संकलनकर्ता में देखा जा सकता है जो हमेशा अन्धभक्त के कुछ लक्षण बरकरार रखता है और जो कलात्मक रचना का स्वामी होने के नाते इसकी कर्मकाण्डीय शक्ति में हिस्सा रखता है।) फिर भी, प्रामाणिकता की अवधारणा का कार्य कला के मूल्यांकन में निर्धारित बना रहता है; कला के लौकिकीकरण के साथ, प्रामाणिकता रचना के कल्ट मूल्य का स्थान ले लेती है।
  9. फिल्मों के मामले में, यान्त्रिक पुनरुत्पादन व्यापक वितरण के लिए कोई बाह्य शर्त नहीं है, जैसा कि यह साहित्य और चित्रकला के मामले में होता है। यान्त्रिक पुनरुत्पादन फिल्म उत्पादन की तकनीक में ही अन्तर्निहित होता है। यह तकनीक न सिर्फ सबसे प्रत्यक्ष रूप से व्यापक वितरण की आज्ञा देती है बल्कि वास्तव में इसका कारण होती है। यह वितरण के लिए विवश करती है क्योंकि किसी फिल्म का उत्पादन इतना महँगा होता है कोई व्यक्ति जो, उदाहरण के लिए, कोई चित्र ख़रीदने का ख़र्च उठा सकता है अब कोई फिल्म नहीं ख़रीद सकता है। 1927 में गणना की गयी थी कि कोई बड़ी फिल्म, अपना ख़र्च पूरा करने के लिए, नब्बे लाख दर्शकों तक पहुँचने को बाध्य है। स्वर वाली फिल्म के साथ, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसके अन्तरराष्ट्रीय वितरण को पहले-पहल एक झटका लगाः दर्शक भाषा की सीमा के कारण सीमित हो गये। यह राष्ट्रीय हितों पर फासीवाद ज़ोर के साथ मेल खाता था। फासीवाद के साथ इस सम्बन्ध पर ध्यान देना इस झटके पर ध्यान देने से ज़्यादा ज़रूरी है, जो कि तुल्यकालन (सिंक्रोनाइज़ेशन) के द्वारा न्यूनातिन्यून बना दिया गया। दोनों परिघटनाओं के साथ घटित होने के लिए मन्दी को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। यही विघ्न जो, एक बड़े पैमाने पर, मौजूदा सम्पत्ति व्यवस्था को शुद्ध बल प्रयोग के बूते कायम रखने के प्रयास की ओर ले गये, ख़तरे में पड़ी फिल्म पूँजी को स्वर फिल्म के विकास को तेज़ करने की ओर ले गये। स्वर फिल्म के श्री गणेश ने एक अस्थायी राहत दी, न सिर्फ़ इसलिए कि यह जनसमुदायों को वापस थियेटरों में ले जायी बल्कि इसलिए भी कि इसने विद्युत उद्योग से नयी पूँजी को फिल्म उद्योग के साथ मिला दिया। इस प्रकार, बाहर से देखने पर, स्वर फिल्म ने राष्ट्रीय हितों को प्रोत्साहित किया, लेकिन अन्दर से देखने पर, इसने पहले से कहीं ज़्यादा फिल्म उत्पादन के अन्तरराष्ट्रीयकरण में सहायता की।
  10. यह ध्रुवीयता भाववाद के सौन्दर्यशास्त्र में स्वतन्त्र रूप में नहीं आ सकती है। सौन्दर्य के इसके विचार में ये ध्रुवीय विपरीत इस प्रकार होते हैं कि इनमें कोई फर्क नहीं होता और परिणामतः ये उनकी ध्रुवीयता को बाहर कर देता है। फिर भी हेगेल में यह ध्रुवीयता अपने आपको उतनी स्पष्टता के साथ घोषित करती है ज़ितनी स्पष्टता से भाववाद के भीतर रहते हुए किया जा सकता है। हम उनके इतिहास के दर्शन से उद्धृत करते हैं:

“पुरातन की छवियाँ ज्ञात थीं। आरंभिक समय में धर्मपरायणता उनसे पूजा की माँग करती थी, लेकिन ऐसा वह सुन्दर छवियों के बिना नहीं कर सकती थी। ये परेशान करने वाली भी हो सकती हैं। हर सुन्दर चित्र में कुछ न कुछ अनात्मिक भी होता है, महज़ बाह्य, लेकिन इसकी आत्मा अपनी सुन्दरता के ज़रिये सीधे मनुष्य से बात करती है। इसके विपरीत, पूजा करने का सरोकार उस रचना से एक वस्तु के रूप में होता है, क्योंकि यह और कुछ नहीं बल्कि आत्मा का एक भावनाहीन व्यामोह है…चित्रात्मक कला पैदा हुई है…चर्च में…, हालाँकि यह कला के तौर पर अपने सिद्धान्त से पहले ही आगे जा चुकी है।”

इसी प्रकार, दि फिलॉसफी ऑफ फाइन आर्ट के निम्न कथन से पता चलता है कि हेगेल को इसमें एक समस्या का आभास था।

“हमारी पूजा की अधिकारी दिव्य वस्तुओं के तौर पर कलात्मक रचनाओं के प्रति सम्मान की मंज़िल से हम आगे आ गये हैं। जो प्रभाव वे पैदा करती हैं, वे ज्यादा प्रतिबिम्बात्मक होता है, और जो भावनाएँ वे पैदा करती हैं उसके लिए उच्चतर परीक्षण की आवश्यकता होती है…” (जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल, दि फिलॉसफी ऑफ फाइन आर्ट, अनु., टिप्पणियों के साथ, एफ.पी.बी. ओस्मैस्टन द्वारा, खण्ड.1, पृ. 12, लन्दन, 1920)

पहले किस्म के कलात्मक अभिग्रहण से दूसरे किस्म में संक्रमण आम तौर पर कलात्मक अभिग्रहण के इतिहास की आभिलाक्षणिकता है। इसके अलावा, अभिग्रहणता के इन दो ध्रुवीय रीतियों के बीच एक निश्चित दोलन हर कलात्मक रचना के सन्दर्भ में दिखलाया जा सकता है। सिस्टीन मडोना के उदाहरण को ही लें। हूबर्ट ग्रिम के अनुसन्धान के समय से ही यह पता है कि मडोना को मूलतः प्रदर्शन के उद्देश्य से बनाया गया था। ग्रिम का शोध इस सवाल से प्रेरित थाः चित्र के अग्रभाग में गढ़ी गयी कृति का क्या उद्देश्य है, ज़िस पर कि दोनों कामदेव झुके हुए हैं? ग्रिम आगे पूछते हैं कि रफाएल ने दो पर्दों के साथ आसमान को कैसे बनाया? शोध ने सिद्ध किया कि मडोना को पोप सिक्सटस के शव की सार्वजनिक दर्शन के लिए बुलाया गया था। पोपों के शवों को सेण्ट पीटर के पूजाघर की एक निश्चित दिशा में ताबूत के सहारे दर्शन के लिए रखा जाता है। इस चित्र में रफाएल मडोना को एक आवास की पृष्ठभूमि से बादलों के बीच से पोप के ताबूत की तरफ़ आते हुए दिखाते हैं, जो कि हरे पर्दों से चिन्हित किया गया है। सिक्सटस के अन्तिम संस्कार में रफाएल के चित्र के प्रदर्शन मूल्य का लाभ उठाया गया। कुछ समय बाद इसे पियासेंज़ा के ब्लैक फ्रायर्स के चर्च की उच्च वेदी पर रखा गया। इस निर्वासन का कारण उन रोमन रस्मों में ढूंढा जा सकता है जो कि उच्च वेदी पर उपासना सम्बन्धी वस्तु के रूप में चित्रों के प्रयोग को वर्जित करते थे। इस विनियमन ने कुछ हद तक रफाएल के चित्र का अवमूल्यन किया। फिर भी एक उचित कीमत प्राप्त करने के लिए, पोप के पादरी स्थान ने इस मोलभाव में चित्र को उच्च वेदी पर रखने को चुपचाप सहन कर लेने का निर्णय लिया। लोगों का इस पर ध्यान जाने से रोकने के लिए चित्र को दूर के प्रान्तीय नगरों के सन्यासियों को दिया गया।

  1. एक दूसरे स्तर पर बेर्टोल्ट ब्रेष्ट भी इसी के समान चिन्तनों में लगेः “अगर कलात्मक रचना के एक माल में तब्दील होने के बाद जो चीज़ सामने आती है, उस पर “कलात्मक रचना” की अवधारणा लागू नहीं हो सकती, तो हमें इस अवधारणा को सावधानी के साथ, लेकिन बिना डर के समाप्त कर देना चाहिए, ताकि कहीं ऐसा न हो कि हम उस चीज़ के कार्य को ही समाप्त न कर दें। क्योंकि इसे बिना मानसिक आपत्ति के इस दौर से गुज़रना होता है, और सीधे रास्ते से किसी अप्रतिबद्ध विचलन के तौर पर नहीं; बल्कि, कलात्मक रचना के साथ यहाँ जो होता है वह इसे बुनियादी तौर पर बदल डालेगा और इसके अतीत को इस हद तक मिटा देगा कि अगर पुरानी अवधारणा को फिर से इस्तेमाल किया गया और ऐसा ही होगा, क्यों नहीं होगा? तो यह यह उस चीज़ की किसी याद को उद्वेलित नहीं करेगा, जो कि वह करता था।”
  2. ऐबेल गांस, पहले उद्धृत रचना में, पृ. 100.1।
  3. सेवेरिन मार्स, एबेल गांस द्वारा उद्धृत, पहले उद्धृत रचना में, पृ. 100।
  4. अलेक्सान्द्र आर्नो, सिनेमा प्रिस, 1929, पृ. 28।
  5. फ्रांज़ वर्फेल, “आइन सोमरनाख़्टस्ट्रॅम, आइन फिल्म वॉन शेक्सपियर उण्ड रेइनहार्ट,” न्यूअस वीनर जर्नल, लू 15 में उद्धृत, नवम्बर, 1935।
  6. “फिल्म मानवीय कार्रवाइयों के विवरण के बारे में अन्तर्दृष्टि…देती है या दे सकती है…चरित्र को कभी भी प्रेरणा के स्रोत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता है; व्यक्तियों का आन्तरिक जीवन कभी प्लॉट का प्रमुख कारण मुहैया नहीं कराता और कभी कभार ही वह इसका परिणाम होता है।” (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वेरसूचे, फ्डेर ड्राईग्रॉशेनप्रोज़ेस,”, पृ. 268।) यान्त्रिक उपकरण के साथ अभिनेता के लिए परीक्षण-योग्य वस्तु के क्षेत्र का जो विस्तार होता है वह व्यक्ति के लिए आर्थिक स्थितियों के ज़रिये परीक्षण योग्य वस्तु के क्षेत्र के असाधारण विस्तार के अनुरूप होता है। इस प्रकार, वृत्ति और पेशे-सम्बन्धी ऐप्टिट्यूड परीक्षण लगातार और अधिक अहम हो जाते हैं। इन परीक्षणों में ज़िस चीज़ से फर्क पड़ता है वह है व्यक्ति के खण्डित प्रदर्शन (परफॉर्मेंस)। शूट की गयी फिल्म और पेशे-सम्बन्धी एप्टीट्यूड परीक्षणों को एक विशेषज्ञ समिति के सामने ले जाया जाता है। स्टूडियो में कैमरा निर्देशक का वही स्थान होता है जो कि एप्टीट्यूड परीक्षणों के दौरान परीक्षक का होता है।
  7. लुइगी पिरैण्डेलो, सी गीरा, लियोन पियेर क्ण्टि द्वारा उद्धृत, सिग्निफिकेशन दू सिनेमा,”, लेआर्ट सिनेमैटोग्राफीक, पहले उद्धृत रचना में, पृ. 14-15।
  8. रुडोल्फ आर्नहीम, फिल्म अल्स कुंस्ट, बर्लिन, 1932, पृ 178 फुटनोट। इस सन्दर्भ में ऐसे कुछ अमहत्वपूर्ण दिखने वाले विवरण दिलचस्प हो जाते हैं ज़िनमें फिल्म निर्देशक स्टेज की प्रथाओं से विचलन करता है। ऐसा ही वह प्रयास है जो कि अभिनेता को बिना मेकअप के अभिनय करने देता है, जैसा प्रयास कि जीआन डिआर्क में ड्रेयर द्वारा किया गया था। ड्रेयर ने ऐसे चालीस अभिनेताओं को खोजने में महीनों खर्च कर दिये जो कि रचना में इन्क्विज़िटर ट्रिब्यूनल के सदस्य होते हैं। इन अभिनेताओं की खोज ऐसी ही थी क्योंकि जैसे की ऐसी स्टेज सम्पत्ति की खोज ज़िनका मिलना मुश्किल होता है। ड्रेयर ने आयु, शारीरिक डीलडौल और चेहरे की संरचना में समानताओं से बचने का हर प्रयास किया। अगर इस प्रकार अभिनेता स्टेज सम्पत्ति बन जाता है, तो यह सम्पत्ति, दूसरी ओर कई बार एक अभिनेता के समान काम करती है। कम से कम फिल्म के लिए स्टेज सम्पत्ति को एक भूमिका दे दिया जाना असामान्य नहीं है। ढेर सारे उदाहरणों के बीच से चुनाव करने की बजाय, हम एक विशिष्ट रूप से सहमत कर देने वाले उदाहरण पर ध्यान देते हैं। एक काम करती हुई घड़ी स्टेज पर हमेशा एक व्यवधान होगी। वहाँ इसे समय नापने के इसके कार्य को जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। प्रकृतिवादी नाटकों में भी, खगोलीय समय रंगमंचीय समय से टकरायेगा। इन स्थितियों में यह एक रहस्योद्घाटन के समान है कि फिल्म, जब भी उपयुक्त हो, तो घड़ी द्वारा नापे जा सकने वाले समय का इस्तेमाल कर सकती है। इस स्पर्श से, अन्य तमाम स्पर्शों से कहीं ज़्यादा, यह बिल्कुल देखा जा सकता है कि निश्चित स्थितियों में एक फिल्म में हरेक प्रॉप अहम कार्यभारों का निर्वाह कर सकता है। यहाँ से हम पुदोव्किन के उस कथन से केवल एक कदम दूर हैं कि “किसी ऐसे अभिनेता का अभिनय, जो कि एक वस्तु से जुड़ा है और उसी के इर्द-गिर्द निर्मित है…सिनेमा-सम्बन्धी निर्मितियों की सबसे मज़बूत प्रणालियों में से एक है।” (डब्ल्यू. पुदोव्किन, फिल्मरेज़िक उण्ड फिल्ममैन्युस्क्रिप्ट, बर्लिन, 1928, पृ. 126)। फिल्म पहला कलात्मक रूप है जो यह दिखाने में सक्षम है कि पदार्थ किस प्रकार मनुष्य के साथ छलकपट करता है। इस लिए, फिल्में भौतिकवादी प्रस्तुतियों का एक शानदार ज़रिया हो सकती हैं।
  9. यहाँ प्रदर्शन की पद्धति में देखा गया परिवर्तन जो कि यान्त्रिक पुनरुत्पादन के द्वारा होता है, राजनीति पर भी लागू होता है। बुर्जुआ जनवादी व्यवस्थाओं का मौजूदा संकट एक ऐसी स्थितियों का संकट है जो कि शासकों की सार्वजनिक प्रस्तुतियों को निर्धारित करता है। जनवादी व्यवस्थाएँ राष्ट्र के प्रतिनिधियों के सामने सरकार के एक सदस्य को प्रत्यक्ष रूप से और व्यक्तिगत तौर पर प्रदर्शित कर सकती हैं। संसद उसकी जनता है। चूँकि कैमरा और रिकॉर्डिंग उपकरणों के आविष्कार ने वक्ता को असीमित संख्या में लोगों के लिए सुनने योग्य और देखने योग्य बना दिया है, इसलिए राजनीति के व्यक्ति की कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरणों के सामने प्रस्तुति सबसे अहम बन जाती है। संसदें, ज़ितना कि थियेटरों पर यह बात लागू होती हैं, ख़ाली हो जाती हैं। रेडियो और फिल्म न सिर्फ पेशेवर अभिनेताओं के कार्य को प्रभावित करते हैं, बल्कि उसी प्रकार वे उन लोगों के कार्यों को भी प्रभावित करते हैं ज़िन्हें इस यान्त्रिक उपकरण के समक्ष अपने आपको प्रदर्शित करना होता है, जो कि शासन करते हैं। हालाँकि उनके लक्ष्य अलग हो सकते हैं, यह परिवर्तन अभिनेताओं और शासकों को एक बराबर प्रभावित करता है। रुझान निश्चित सामाज़िक स्थितियों के तहत नियन्त्र्यणीय और स्थानान्तरणीय कौशलों को स्थापित करने की ओर है। इसका परिणाम एक नये चयन के रूप में सामने आता है, उस उपकरण के सामने चयन ज़िससे कि स्टार और तानाशाह दोनों विजयी प्रकट होते हों।
  10. सम्बन्धित तकनीकों का विशेषाधिकार प्राप्त चरित्र खत्म हो गया है। एल्डस हक्सले लिखते हैं:

“तकनोलॉजी में उन्नतियाँ…भोंड़ेपन की तरफ़ ले गयी हैं…प्रक्रिया पुनरुत्पादन और रोटरी प्रेस ने लेखनों और चित्रों की असीमित नकलें तैयार करने को सम्भव बना दिया है। सार्वभौमिक शिक्षा और सापेक्षिक रूप से उच्च वेतनों ने एक विशाल जनता का निर्माण किया है जो जानती है कि कैसे पढ़ना है और कैसे पठ्य और देखने योग्य सामग्री को ख़रीदने का ख़र्च जुटाना है। एक महान उद्योग अस्तित्व में आ गया है ताकि इन मालों की आपूर्ति की जा सके। अब, कलात्मक प्रतिभा एक दुर्लभ परिघटना है; ज़िससे यह परिणाम निकलता है…कि, हर युग में और सभी देशों में, अधिकांश कला बुरी रही है। लेकिन कुल कलात्मक उत्पादन में कूड़े-करकट का हिस्सा अब पहले किसी भी युग से ज़्यादा है। ऐसा ही हो सकता है इसे समझना सरल अंकगणित का मामला है। पिछली सदी के दौरान पश्चिमी यूरोप की आबादी दुगुने से कुछ ज़्यादा बढ़ी है। लेकिन सामग्रियों को पढ़ने- और देखने- की मात्रा, मेरी आकलन के अनुसार, कम से कम बीस या सम्भवतः पचास या हो सकता है कि सौ गुना तक बढ़ गयी हो। अगर एक्स लाख आबादी में प्रतिभावान एन लोग थे, तो 2एक्स आबादी में 2एन लोग होने चाहिए। स्थिति को इस प्रकार सारांश में बताया जा सकता है। एक सदी पहले छपाई और चित्रों के हरेक पृष्ठ के लिए, आज बीस या शायद सौ पृष्ठ छपते हैं। लेकिन हर प्रतिभावान आदमी जो तब ज़िन्दा था, की तुलना में आज केवल दो प्रतिभावान लोग हैं। ऐसा निश्चित तौर पर हो सकता है, भला हो सार्वभौमिक शिक्षा का, कि कई सम्भावित प्रतिभाएँ जो उस दौर में जन्मने से पहले ही खत्म हो जाती थीं, अब अपने आपको वास्तविक रूप दे पाने में सक्षम हो गयी हों। तो मान लीज़िये कि पहले के दौर के हरेक प्रतिभावान व्यक्ति की तुलना में आज तीन या चार प्रतिभावान व्यक्ति हैं। यह फिर भी सत्य ठहरता है कि पढ़ने और देखने वाली सामग्री के उपभोग ने प्रतिभावान लेखकों और चित्रकारों के नैसर्गिक उत्पादन से कहीं तेज़ गति से वृद्धि की है। सुनने सम्बन्धी सामग्री के साथ भी यही बात लागू होती है। समृद्धि, ग्रामोफोन और रेडियो ने सुनने वाले श्रोताओं की एक आबादी पैदा की है जो सुनने वाली सामग्री की ऐसी मात्र का उपभोग करती है जो आबादी में बढ़ोत्तरी और प्रतिभावान संगीतकारों की संख्या में नैसर्गिक बढ़ोत्तरी के सभी पैमानों का अतिक्रमण कर चुकी है। इससे नतीजा निकलता है कि सभी कलाओं में कचरे की पैदावार निरपेक्ष और सापेक्षिक दोनों ही रूपों में पहले के मुकाबले बहुत बढ़ गयी है; और यह कि यह ज्यादा ही रहेगी जब तक कि दुनिया पठ्य, श्रव्य और दृष्टव्य सामग्री का ऐसी बेकायदा मात्रा में उपभोग करती रहेगी। (एल्डस हक्सले, बियॉण्ड मेक्सीक बे। ए ट्रैवेलर्स जर्नल, लन्दन, 1949, पृ. 274 फुटनोट। पहली बार 1934 में प्रकाशित)।

इस प्रकार का प्रेक्षण निश्चित रूप से प्रगतिशील नहीं है।

  1. कैमरामैन की साहसिकता की कल्पना वास्तव में एक सर्जन से की जा सकती है। लुक दुर्तेन ने कुछ विशिष्ट तकनीकी हाथ की सफाइयों की सूची में उन्हें शामिल किया है “जिनकी कुछ मुश्किल ऑपरेशनों में आवश्यकता होती है। मैं उदाहरण के तौर पर ओटो-राइनोलैरिंजोलॉजी का एक मामला लेता हूँ;…तथाकथित एण्डोनेज़ल परिप्रेक्ष्य प्रक्रिया; या मैं लैरिंक्स सर्जरी के कलाबाज़ी जैसी तरकीबों का हवाला देता हूँ ज़िन्हें लैरिंजोस्कोप में उल्टी तस्वीर के परिणामस्वरूप करना पड़ता है। मैं कान की सर्जरी के बारे में भी बात कर सकता हूँ ज़िसमें घड़ीसाज़ों जैसी सटीकता की ज़रूरत होती है। सूक्ष्मतम पेशीय कलाबाज़ियों के किस दायरे की एक व्यक्ति से मांग की जा सकती है जो किसी मानवीय शरीर को बचाना या ठीक करना चाहता हो! हमें केवल एक आँख की झिल्ली निकालने के बारे में सोचना होगा जहाँ मानो इस्पात की लगभग तरल ऊतक के साथ बहस चलती है, या बड़े पेट के ऑपरेशनों के बारे में (लैपरोटोमी)।” लुक दुर्तेन, पहले उद्धृत रचना से।
  2. इस प्रकार का प्रेक्षण भोंड़ा लग सकता है, लेकिन जैसा कि महान सिद्धान्तकार लियोनार्डो ने बताया है, कई बार भोंड़े किस्म के प्रेक्षणों को उद्धृत किया जा सकता है। लियोनार्डों चित्रकला और संगीत के बीच इस प्रकार तुलना करते हैं: “चित्रकला संगीत से श्रेष्ठ है क्योंकि, अभागे संगीत से भिन्न, इसे अपने पैदा होने के साथ ही मरना नहीं होता है…संगीत ज़िसका उपभोग उसके जन्म की कार्रवाई के दौरान ही किया जाता है, चित्रकला के समक्ष हीन है ज़िसे वार्निश के इस्तेमाल ने अविनाशी बना दिया है।” (ट्रैटाटो 1, 29।)
  3. पुनर्जागरणकालीन चित्र इस स्थिति से एक सारगर्भित समानता को प्रदर्शित करते हैं। इस कला और उसके महत्व का अतुलनीय विकास तमाम नये विज्ञानों के समेकन पर, या कम से कम नयी वैज्ञानिक सूचनाओं पर कम निर्भर नहीं है। पुनर्जागरणकालीन चित्रकला ने शरीर रचना और परिप्रेक्ष्य का, गणित का, मौसम विज्ञान, और क्रोमैटोलॉजी का प्रयोग किया। वैलेरी लिखते हैं: “हमारे लिए उस किसी लियोनार्डो के उस अजीब दावे से ज़्यादा दूर और क्या हो सकता है ज़िसके लिए चित्रकला सर्वोच्च लक्ष्य और ज्ञान का अन्तिम प्रदर्शन थी? लियोनार्डो सहमत था कि चित्रकला सार्वभौमिक ज्ञान की माँग करती है, और वह एक सैद्धान्तिक विश्लेषण से मुँह भी नहीं चुराता है, जो कि हमारे लिए अपनी गहरायी और सटीकता के कारण आश्चर्यजनक है…” पॉल वैलेरी, पीसेज़ सूर लेआर्ट, ओटोर डि कोरोट,” पेरिस, पृ. 191।
  4. रुडोल्फ आर्नहीम, उद्धृत स्थान पर, पृ. 138।
  5. आन्द्रे ब्रेटन कहते हैं, “कलात्मक रचना केवल तब तक ही मूल्यवान है जब तक कि यह भविष्य के प्रतिबिम्बनों से कम्पित होती है।” निश्चित तौर पर, हर विकसित कला रूप विकास की तीन रेखाओं को काटता है। तकनोलॉजी कला के एक निश्चित रूप की ओर काम करती है। फिल्म के उदय से पहले चित्रों वाली फोटो बुकलेट होती थीं जो कि देखने वाले के अंगूठे के दबाव से आगे बढ़ती थीं, और इस प्रकार किसी बॉक्सिंग मुकाबले या टेनिस मैच को दिखाती थीं। फिर बाज़ार में, सिक्का डालने वाली मशीनें आ गयीं; उनके चित्रें की श्रृंखला को एक क्रैंक को घुमाने से पैदा किया जाता था।

दूसरी बात, अपने विकास के निश्चित दौरों में पारम्परिक कला रूप उन प्रभावों को पैदा करने के लिए संघर्ष के साथ काम करते हैं ज़िन्हें बाद में नये रूपों द्वारा बिना किसी प्रयास के हासिल कर लिया जाता है। सिनेमा के उदय से पहले दादावादियों के प्रदर्शन दर्शकों से वे प्रतिक्रिया निकलवाना चाहते थे, जो कि चैप्लिन ने बाद में अधिक नैसर्गिक तरीके से निकलवा ली।

तीसरी बात, साधारण सामाज़िक परिवर्तन अक्सर स्वीकार्यता में एक परिवर्तन को प्रोत्साहित करता है जो कि नये कला रूप को लाभ पहुँचाता है। फिल्म द्वारा अपने दर्शकों को पैदा करने के पहले, चित्रों ने, जो कि अब गतिहीन नहीं थे, ने कैसरपैनोरमा में एकत्र दर्शकों को मोहित कर रखा था। यहाँ जनता एक स्क्रीन के सामने एकत्र होती थी ज़िसमें स्टीरियोस्कोप लगे होते थे, हरेक के सामने एक। यान्त्रिक प्रक्रिया के द्वारा अलग-अलग चित्र स्टीरियोस्कोप के समक्ष आते थे, और फिर दूसरे चित्रें को रास्ता दे देते थे। एडिसन को फिल्म स्क्रीन और प्रोजेक्शन के ज्ञात होने के पहले पहली मूवी स्ट्रिप पेश करने में ऐसे ही उपकरणों का उपयोग करना पड़ा था। इस स्ट्रिप को एक छोटे दर्शक दीर्घा के सामने पेश किया जाता था जो कि उस उपकरण में देखते थे ज़िसमें चित्रों की श्रृंखला चलती रहती थी। इत्तेफाक से, कैसरपैनोरमा की संस्था इस विकास के द्वन्द्व को बेहद स्पष्ट तौर पर दिखलाती है। फिल्मों द्वारा चित्रों के ग्रहण करने को एक सामूहिक प्रक्रिया में बदले जाने से, कुछ ही पहले इन तेज़ी से पुराने पड़ती व्यवस्थाओं में चित्रों को अलग-अलग देखने की गतिविधि एक बार फिर से उस सघनता के साथ दुहरायी गयी ज़िसकी तुलना सेला में दिव्यता की प्रतिमा उठाये प्राचीन पुरोहित की सघनता से की जा सकती है।

  1. इस चिन्तन का धर्मशास्त्रीय आद्यरूप अपने ईश्वर के साथ किसी के अकेले होने की जागरूकता है। ऐसी जागरूकता, बुर्जुआजी के उत्कर्ष के दिनों में, पादरियों के संरक्षण से आज़ादी को मज़बूते करती थी। बुर्जुआज़ी के पतन के दौर में इस जागरूकता को उन ताकतों के सार्वजनिक मामलों से पीछे हटने की प्रच्छन्न रुझान को ध्यान में लेना पड़ा ज़िसका व्यक्ति ईश्वर के साथ संवाद में इस्तेमाल करते हैं।
  2. जॉर्जेस दुहामेल, सींस दे ला वी फ्रयूचर, पेरिस, 1930, पृ. 52।
  3. फिल्म वह कला रूप है जो आधुनिक मनुष्य के जीवन के प्रति बढ़ते खतरे के अनुरूप है। मनुष्य को अपने आपको सदमे के प्रभावों के प्रति अनावृत्त करने की ज़रूरत उन ख़तरों के अनुसार उसका समायोजन है, जो उसके सामने खड़े हैं। फिल्म नये अनुभवों को पिछले अनुभवों से मिलाने के उपकरण में गंभीर परिवर्तन लाती है- ऐसे परिवर्तन ज़िनका अनुभव सड़क पर बड़े शहर की भीड़-भाड़ में व्यक्तिगत स्तर पर एक मनुष्य करता है, और ऐतिहासिक स्तर पर आज का हर नागरिक करता है।
  4. जहाँ तक दादावाद का प्रश्न है, क्यूबिज़्म और फ्यूचरिज़्म के लिए अहम अन्तर्दृष्टियों को फिल्म से प्राप्त किया जाना होता है। दोनों ही उपकरण द्वारा यथार्थ की विकृति को सहयोज़ित करने के लिए कला के अपर्याप्त प्रयासों जैसे दिखते हैं। फिल्म के विपरीत, इन स्कूलों ने यथार्थ की कलात्मक प्रस्तुति के लिए इस उपकरण का उस प्रकार प्रयोग नहीं किया, बल्कि उन्होंने यथार्थ और उपकरण की संयुक्त प्रस्तुति में किसी किस्म के मिश्रण को अपना लक्ष्य बनाया। क्यूबिज़्म में, यह चेतावनी कि यह उपकरण ढांचागत तौर पर ऑप्टिक्स पर आधारित होगा, एक प्रभावी भूमिका निभाता है; फ्यूचरिज़्म में, यह इस उपकरण के उन प्रभावों की चेतावनी है जो कि फिल्म स्ट्रिप की द्रुत श्रृंखला के कारण पैदा होंगे।
  5. दुहामेल, पहले उद्धृत रचना से, पृ. 58।
  6. यहाँ एक तकनीकी विशेषता अहम है, विशेष तौर पर न्यूज़रील के सम्बन्ध में, ज़िसके प्रचारवादी महत्व को शायद ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा सकता है। बड़े पैमाने पर पुनरुत्पादन जनसमुदायों के पुनरुत्पादन से विशेष रूप से सहायता प्राप्त करता है। बड़ी परेडों और विशालकाय रैलियों में, खेल के कार्यक्रमों में, और युद्ध में, ज़िन सभी को आज कैमरे और ध्वनि रिकॉर्डिंग द्वारा कैद किया जा रहा है, जनसमुदाय एक दूसरे के सामने आ जाते हैं। यह प्रक्रिया, ज़िसके महत्व पर ज़ोर डालने की ज़रूरत नहीं है, पुनरुत्पादन और फोटोग्राफी की तकनीकों के विकास से करीबी से जुड़ी हुई है। जनान्दोलनों को आम तौर पर नंगी आंखों की बजाय एक कैमरा के जरिये ज्यादा स्पष्टता से समझा जाता है। एक विहगावलोकन सैकड़ों-हज़ारों लोगों की जुटान को ज़्यादा अच्छी तरह से पकड़ता है। और हालाँकि ऐसी दृष्टि मानवीय आँख के लिए उतनी ही पहुँच के भीतर हो सकती है, ज़ितनी कि कैमरे के लिए, लेकिन आंखों द्वारा प्राप्त छवि को उस प्रकार बड़ा नहीं किया जा सकता है, जैसे कि नेगेटिव को बड़ा किया जा सकता है। इसका अर्थ है कि जन गतिविधिया.1, ज़िसमें युद्ध भी शामिल है, मानवीय व्यवहार के ऐसे रूप का निर्माण करती हैं, जो विशेष तौर पर यान्त्रिक उपकरणों की पक्षधर है।

अनुवादः अभिनव

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