समकालीन पूँजीवादी समाज में अपराध : कुछ फ़ुटकल नोट्स
कात्यायनी
(1) आम तौर पर समाज में इन दिनों दो सामाजिक समस्याओं पर सबसे अधिक चर्चा होती है – भ्रष्टाचार और अपराध, आम तौर पर लगातार बढ़ते स्त्री-विरोधी बर्बर अपराध। किसी भी सामाजिक ढाँचे में जो ‘डेविएंट’ (विचलनशील) व्यवहार अन्य नागरिक, समाज या शासन-तंत्र को नुकसान पहुँचाता है, वह अपराध है। वैसे भ्रष्टाचार भी, बुर्जुआ मानकों से भी, आर्थिक-सामाजिक अपराध ही है।
(2) ‘डेविएंट’ व्यवहार क्या है, यह किसी सामाजिक ढाँचे में राजनीतिक सत्ता, या सत्ताधारी वर्ग ही तय करता है और उसकी परिभाषा और दण्डात्मक व्यवस्था को विधि-व्यवस्था के रूप में संहिताब) करता है। चूँकि हर सामाजिक ढाँचे में सत्ताधारी वर्ग के विचार ही सत्ताधारी विचार होते हैं, इसलिए आम नागरिक रोज़मर्रे के जीवन में अपराध की आलोचना भी प्राय: उन्हीं उपकरणों से करता है जो सत्ताधारी वर्ग का वैचारिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का तंत्र उसे मुहैया कराता है। मार्क्सवादी विज्ञान सर्वहारा वर्ग की अवस्थिति से, समस्त शोषित-उत्पीडि़त जनों के पक्ष से अपराध की परिघटना का विश्लेषण और आलोचना प्रस्तुत करता है।
(3) पहले व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य की चर्चा की जाये। पूँजी का निर्माण मज़दूर की अतिरिक्त श्रम शक्ति को हड़प कर किया जाता है, पर यह अपराध नहीं है, विधिसम्मत है। माल-उत्पादन के इस अन्तर्निहित रहस्य को मज़दूर नहीं समझता, वह इसे स्वाभाविक मानता है और अपनी दुरवस्था की जड़ें अन्य परिधिगत कारणों में ढूँढ़ता है। जब उसकी जि़न्दगी बहुत बेहाल हो जाती है और मुनाफ़ा निचोड़ने की गलाकाटू होड़ में पूँजीपति श्रम क़ानूनों द्वारा प्राप्त अधिकारों का अपहरण (यानी शोषण और प्रतिस्पर्धा के खेल के निर्धारित नियमों का अतिक्रमण तथा मज़दूरें के अतीत के संघर्षों से हासिल अधिकारों का अपहरण) करने लगता है, तब मज़दूर संगठित होकर आर्थिक रियायतों और बुर्जुआ जनवादी अधिकारों के लिए लड़ते हैं। इसी लड़ार्इ की लम्बी प्रक्रिया में वे वैज्ञानिक विचारों से लैस होते हैं तो बुर्जुआ वैधिक विभ्रमों से मुक्त होकर पूँजीवादी शोषण की पूरी प्रणाली को विधिसम्मत ठहराने वाली और इसलिए उसकी हिफ़ाजत करने वाली व्यवस्था को ही अपराधी के कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
(4) पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय की प्रणाली और सामाजिक-राजनीतिक अधिरचना में, पूँजीपति वर्ग की इच्छा से स्वतंत्र, वस्तुगत आंतरिक गति से, लगातार ऐसी विरोधी गतियाँ पैदा होती रहती हैं जो पूरे ढाँचे के निर्बाध संचालन को रोकती और अस्त-व्यस्त करती रहती हैं। कभी-कभी यह अव्यवस्था शासक वर्ग के नियंत्रण से कुछ समय के लिए बाहर भी हो जाया करती है। प्रतिस्पर्धा पूँजीवाद की मूल चालक शक्ति है। पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता, सिद्धान्तकार, और विशेष तौर पर उसकी मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करने वाली सरकार मुनाफे के लिए होड़ के इस खेल के कुछ नियम बनाती है। पर इस खेल में बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को लीलती चली जाती है और होड़ गलाकाटू हो जाती है। ऐसे में कभी आगे निकलने तो कभी अस्तित्व बचाने के लिए अलग-अलग पूँजीपति घराने तरह-तरह से खेल के निर्धारित नियमों को तोड़ते हैं, शेयर बाजार में घपले-घोटाले होते हैं, टैक्स चोरी होती है, तरह-तरह से कम्पनी क़ानूनों के उल्लंघन होते हैं, कारपोरेट बोर्ड रूम में षडयंत्र होते हैं। सरकार फ़िर अम्पायर के रूप में नियंत्रण और विनियमन का काम करती है। कभी-कभी पूरी व्यवस्था और पूरे वर्ग के हितों की हिफ़ाजत के लिए शासक वर्ग के एक या कुछ सदस्यों को बलि का बकरा भी बनाया जाता है। आर्थिक अपराधों की अराजकता के बढ़ने और उसे नियंत्रित करने की यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। पर पूँजी बढ़ाने के लिए जब पूँजीपति बुर्जुआ क़ानून का अतिक्रमण करके जनता के हितों पर सीधे डाका डालते हैं, वहाँ क़ानून उनके प्रति बहुत नरम रुख अपनाते हैं। एक उदाहरण लें। बैंकों में अपनी गाढ़ी कमार्इ से जनता जो बचत करती है, उससे क़र्ज लेकर निवेश करके फ़िर उसी जनता को निचोड़कर कर्इ गुना अधिक मुनाफ़ा कमाते हैं और बचत पर ब्याज के रूप में जनता को बहुत ही छोटा भाग मिलता है। यह धोखाधड़ी तो बुर्जुआ क़ानून के हिसाब से अपराध नहीं है, पर पूँजीपति फ़िर यह करते हैं कि उस क़र्ज को ही नहीं लौटाते और कम्पनी क़ानून और अन्य वित्तीय क़ानून ऐसे बनाये गये हैं कि उन पूँजीपति घरानों का कुछ नहीं बिगड़ता। भारत में सालाना इस तरह से पूँजीपति सरकारी बैंकों का अरबों रुपया गड़प जाते हैं और रिज़र्व बैंक उन्हें ‘नान परफॉर्मिंग असेट्स के खाते में दर्ज़ कर लेता है। बैंक से बचतकर्ता को ब्याज सहित मूल तो मिल जाता है, पर सारा बोझ सरकारी वित्त के जरिए देश की जनता पर चला जाता है। इस तरह की बुर्जुआ क़ानून की दृष्टि से भी अवैध लूट के तमाम तरीक़े हैं।
(5) इसी तरह, पूँजी का जो अन्तरराष्ट्रीय खेल है, उसमें राष्ट्रपारीय निगम तमाम घपले-घोटाले, सरकारों के लोगों को ख़रीदने से लेकर मुनाफ़ा बढ़ाने और बाज़ार बनाने के लिए, राष्ट्रों के पार पूँजी भेजने के लिए आपस की भयंकर होड़ में स्थापित अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों को तोड़ते रहते हैं और इनकी कर्इ अन्यायपूर्ण गतिविधियों पर रोकथाम के लिए तो कोर्इ अन्तरराष्ट्रीय क़ानून या कारगर मेकेनिज़्म है ही नहीं। फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियों और हथियार कम्पनियों के अपराधों और काले कारनामों पर कर्इ किताबें लिखी गयी हैं। बाज़ार की होड़ और संसाधनों की लूट ही दुनिया के सभी युद्धों का मूल कारण है। दो-दो महायुद्धों, कर्इ रक्तपातपूर्ण युद्धों, हिरोशिमा-नागासाकी, वियतनाम पर ‘कार्पेट बाम्बिंग से लेकर हाल के दिनों में अफगानिस्तान, इराक, लीबिया, सीरिया में बर्बर ख़ूनी खेल तक – पूँजी के इस विश्व ऐतिहासिक अपराध की तो कोर्इ सीमा ही नहीं है। यही नहीं, भोपाल गैसकाण्ड जैसे सामूहिक नरंसहार से बड़ा अपराध क्या हो सकता है। अनाज की प्रचुरता के बावजूद पूरी दुनिया में यदि बच्चे कुपोषण और भुखमरी के शिकार होते हैं, दवाओं की क़ीमतों की वजह से यदि लोग मरते रहते हैं, यदि थोड़े से लोगों के ऐश्वर्य के द्वीप नारकीय कष्टों के सागर में जगमगाते रहते हैं, यदि मुनाफे की अंधी हवस में पारिस्थितिक संकट पैदा करके पूरी मानवता के भविष्य पर पूँजीवाद परोक्ष हमला जारी रखता है, तो इससे बड़ा अपराध भला क्या हो सकता है। अत: पहले इस विश्व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने की ज़रूरत है कि मनुष्यता और विश्व इतिहास का अपराधी पूँजीवाद है, हर अपराध का मूल उदगम पूँजीवाद है। जो भी धनी है, वह किसी न किसी रूप में अपराधी है, किसी न किसी रूप में लूटे गये अधिशेष का परजीवी हिस्सेदार है। बाल्ज़ाक ने यूँ ही नहीं कहा था कि ‘हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा है।
(6) निजी स्वामित्व की व्यवस्था की सुरक्षा पूँजीवादी विधिशास्त्र और नीतिशास्त्र का आधारभूत संकल्प है। अपराध के मानक भी यह इसी हिसाब से तय करता है। इसीलिए करोड़ों-अरबों की टैक्स चोरी या ऋण अदायगी से मुकरने वाले तो सम्मानित नागरिक बने रहते हैं, लेकिन दुकान से ब्रेड चुराने वाला, पाकेटमारी करने वाला या छोटा-मोटा कर्ज़ वापस न करने वाला ग़रीब क़ानून की गिरफ्त से कभी बच नहीं पाता। छोटी-मोटी चोरी और लूटपाट को यह व्यवस्था ‘अफोर्ड’ कर सकती है, पर वह इसे कभी भी सहन नहीं करती क्योंकि ये चीज़ें निजी स्वामित्व की व्यवस्था को चुनौती देती हैं। दूसरी बात, ये प्रवृत्तियाँ यदि बढ़ जायें तो पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय की प्रणाली के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक सामाजिक शान्ति-व्यवस्था भंग हो जायेगी।
(7) पूँजीवादी व्यवस्था जिन गतिविधियों को आर्थिक अपराध की श्रेणी में रखती है उनके लिए जि़म्मेदार व्यक्तियों के प्रति भी उसके व्यवहार की नरमी और कठोरता साम्पत्तिक पद सोपान क्रम से तय होती है। कारपोरेट अपराध (कारपोरेट टैक्स चोरी, एन.पी.ए., नेताओं-नौकरशाहों को कमीशन और घूस देना), वित्तीय अपराध (बैंकरों और शेयर बाज़ार के घपले-घोटाले), व्यापारिक अपराध (कालाबाज़ारी, मिलावट, जमाखोरी), राजनीतिक अपराध (नेताओं की भ्रष्टाचारिता, चुनावी धाधली आदि) और सफेद कालर अपराध (वक़ीलों-जजों के भ्रष्टाचार, मीडियाकर्मियों की दलाली, उच्च शिक्षा क्षेत्र के घपले-घोटाले, नौकरशाहों की घूसखोरी आदि) के लिए सज़ाएँ नरम होती हैं, बच निकलने और मामले को लटकाये रखने के अनगिनत रास्ते हैं, बच निकलने और मामले को लटकाये रखने के अनगिनत रास्ते हैं, मूल प्रयास केवल स्थिति को नियंत्रण में रखने और जनता का भरोसा बनाये रखने का होता है और कभी-कभी पूरी व्यवस्था के हक़ में कुछ लोगों की बलि दे दी जाती है। संगठित माफ़िया गिरोहों के अपराध उत्पादन और समाज की व्यवस्था को प्रभावित करते हैं अत: क़ानून उनके प्रति अपेक्षतया कठोर रुख अपनाता है, लेकिन इस कोटि के अपराध सरकारी तंत्र के प्रभावी लोगों के सहयोग-संरक्षण से ही चलते हैं, अत: इन पर रोक असम्भव होती है। सरकार और नौकरशाही में भ्रष्टाचार और सामाजिक अराजकता बढ़ने के साथ ही फ़ासीवादी प्रवृत्तियों और संगठित माफ़िया अपराधों में बढ़ोत्तरी होती जाती है। सम्पत्तिहीनों और आम लोगों के आर्थिक अपराध (छोटी चोरियाँ, रहजनी, पाकेटमारी, चपरासी का घूस लेना आदि) के प्रति व्यवस्था ज़्यादा चौकस रहती है और कठोर रुख अपनाती है। लेकिन जो लोग अपनी न्यूनतम ज़रूरतों तक से वंचित रहते हैं या जो कर्तव्य पालन का उचित फल नहीं मिलने, बड़े लोगों के भ्रष्टाचार या सामाजिक असमानता से क्षुब्ध रहते हैं, उनका एक हिस्सा ऐसे अपराध करता ही रहता है, जिन पर नियंत्रण करना राज्य मशीनरी का एक महत्वपूर्ण काम बना रहता है।
(8) समाज में निजी सम्पत्ति और असमानता के पैदा होने के साथ ही अपराध के जन्म और विकास का इतिहास अपने-आप में अध्ययन का एक दिलचस्प विषय है। कर्इ बार अपराध अन्याय के संगठित प्रतिकार के अभाव में व्यक्तिगत विद्रोह और विक्षुब्ध निराशा की अभिव्यक्ति होता है। पहला चोर वह विद्रोही रहा होगा जो उपभोग-सामग्री की सामाजिक सम्पदा के वितरण में बेर्इमानी का विरोध करने के लिए रात को छिपकर भण्डारघर से कुछ चुरा लाया होगा। दास समाज और सामंती समाज में उत्पीड़न और विद्रोह की परिघटनाएँ आम थीं, पर आर्थिक-सामाजिक अपराधों की प्रकृति सरल थीं, श्रेणियाँ कम थीं और दायरा सीमित था। इसीलिए इन समाजों का न्याय-विधान भी सीधा-सरल था। सामन्ती समाज में भूमि और अचल सम्पत्ति का स्वामित्व प्रधान पहलू था, मुद्रा-विनिमय का दायरा सीमित था और सामन्ती विशेषाधिकार हर मामले में निर्णायक थे अत: अपराध और विधि का दायरा फ़िर भी सीमित-सरल था। पूँजीवादी समाज में चल सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुर्इ, मुद्रा ने जटिल और बहुआयामी भूमिका अपना ली, अधिशेष-विनियोजन और पूँजी संचय की जटिल प्रणाली अस्तित्व में आयी। इसके साथ ही सम्पत्ति के क़ानून जटिल हो गये। श्रम शक्ति की लूट, पूँजीपतियों की होड़, विनिमय की जटिल प्रणाली को चलाने के लिए जितने व्यापक क़ानूनों का तानाबाना ज़रूरी था, उनके अतिक्रमण के उतने ही नये-नये तरीक़ों का आविष्कृत होना भी लाजिमी था। आर्थिक अपराधों के नित नये तरीक़ों और उन पर नियंत्रण की विधि एवं मशीनरी का निरन्तर विकास – यह पूँजीवादी समाज की गतिकी का एक हिस्सा बन गया।
(9) बुर्जुआ उत्पादन और विनिमय की प्रणाली में अपराधी की भूमिका भी एक माल उत्पादक की बन गयी और अपराध पूँजीवादी विकास का एक उत्प्रेरक तत्व बन गया। इसका दिलचस्प ब्योरा कार्ल मार्क्स ने अपनी कृति ‘अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त में इस प्रकार दिया है :
“दार्शनिक विचारों का, कवि कविताओं का, पादरी धर्मोपदेशों का, प्राध्यापक कार्य-निर्देशिका का सृजन करता है, आदि। अपराधी अपराधों को जन्म देता है। यदि हम उत्पादन की इस बाद वाली शाखा तथा समग्र रूप में समाज के बीच सम्बन्ध को बारीकी से देखें, तो हम अपने को बहुत-से पूर्वाग्रहों से छुटकारा दिला देंगे। अपराधी अपराधों का ही नहीं, अपितु दण्ड कानून का भी, और उसके साथ ही प्राध्यापक का भी, जो इस दण्ड कानून पर लेक्चर देता है, और उसके अलावा उस अपरिहार्य कार्य-निर्देशका का भी सृजन करता है, जिसके माध्यम से यही प्राध्यापक अपने लेक्चरों को “माल” के रूप में आम मण्डी में झोंकता है। यह अपने साथ राष्ट्रीय सम्पदा की संवृद्धि लाता है, उस वैयक्तिक आनन्दानुभूति के सर्वथा अतिरिक्त जो-जैसा की सुयोग्य गवाह श्री प्रोफेसर रोशेर हमें बताते हैं-कार्य-निर्देशिका की पाण्डुलिपि से स्वयं उसके जन्मदाता को मिलती है।
यही नहीं, अपराधी पुलिस तथा दण्ड न्याय, पुलिस के सिपाहियों, जजों, जल्लादों, जूरियों, आदि के पूरे समूह का सृजन करता है; और कारोबार की ये विभिन्न दिशाएँ, जिन्हें लेकर सामाजिक श्रम-विभाजन के इतने ही नाना प्रवर्ग बनते हैं, मानव-आत्मा की नाना क्षमताओं का विकास करती हैं, नयी आवश्यकताओं का और उनकी तुष्टि के नये उपायों का सृजन करती हैं। अकेले यंत्रणा ने सर्वाधिक विलक्षण यांत्रिक खोजों को जन्म दिया है और इन औजारों के उत्पादन में अनेक इज्जतदार कारीगरों का उपयोग किया है।
अपराधी भाव उत्पन्न करता है, जो स्थिति के अनुसार अंशत: नैतिक तथा अंशत: त्रासदीपूर्ण होता है, और इस तरह जनता की नैतिक तथा सौन्दर्यात्मक भावनाओं को जगाकर “सेवा” करता है। वह केवल दण्ड कानून के बारे में कार्य-निर्देशिका का ही नहीं, केवल दण्ड संहिता का ही नहीं और उनके साथ इस क्षेत्र में विधेयकों का ही सृजन नहीं करता है, अपितु कला, ललित साहित्य, उपन्यासों, त्रासदीप्रधान रचनाओं को भी, म्यूलनेर के ‘शुल्द (‘दोष), शिलर के ‘राउबेर (‘बटमार) नाटक को ही नहीं, अपितु सोफेक्लीज के ‘एडिपस और शेक्सपियर के ‘रिचर्ड तृतीय को भी जन्म देता है। अपराधी बुर्जुआ जीवन की नीरसता तथा प्रतिदिन की सुरक्षा को भंग करता है। इस तरह वह उसे गतिरोध से दूर रखता है और उस क्षोभकारी तनाव तथा फुरती को जन्म देता है, जिसके बिना प्रतियोगिता की प्रेरणा भी कुण्ठित हो जायेगी। इस तरह वह उत्पादक शक्तियों को प्रेरित करता है। जहाँ अपराध फालतू आबादी के एक हिस्से को श्रम-मण्डी से हटा देता है और मजदूरों के बीच स्पर्धा को कम करता है-उजरत को न्यूनतम सीमा से नीचे गिरने से कुछ हद तक रोकता है-वहाँ अपराध के विरुद्ध संघर्ष आबादी के दूसरे हिस्से को जज़्ब कर लेता है। इस तरह अपराधी उन स्वाभाविक “प्रतिभारों” के रूप में सामने आता है, जो सही सन्तुलन कायम करते हैं और “उपयोगी” काम-धन्धों की सारी सम्भावनाओं के द्वारा खोलते हैं।
उत्पादक शक्ति के विकास पर अपराधी के असर को तफसील के साथ दिखाया जा सकता है। अगर चोर न होते, तो क्या ताले अपने वर्तमान परिष्कृत स्तर पर कभी पहुँच पाते? अगर जालसाज़ न होते तो बैंकनोट तैयार करने का काम कभी आज का परिष्कृत रूप ग्रहण कर पाता? अगर तिजारत की धोखाधडि़याँ न होती, तो माइक्रोस्कोप क्या कभी साधारण तिजारत के क्षेत्र में प्रवेश कर पाता (देखें बैबेज)? क्या प्रायोगिक रसायन मालों की मिलावट और उसका पता लगाने की कोशिशों का उतना ही आभारी नहीं है, जितना कि उत्पादन के लिए र्इमानदारी भरे जोश का? अपराध सम्पत्ति पर अपनी निरन्तर नयी विधियों द्वारा प्रहार के जश्रिये बचाव की निरन्तर नयी विधियों का तकाजश करता है और इसलिए वह उतना ही उत्पादक है, जितना कि हड़तालें मशीनों के आविष्कार के लिए होती हैं। और अगर निजी अपराध के क्षेत्र को छोड़ दिया जाये, तो विश्व मण्डी का क्या कभी राष्ट्रीय अपराध के बिना प्रादुर्भाव हो पाता? दरअसल क्या राष्ट्रों का ही प्रादुर्भाव हो पाता? क्या आदम के ज़माने से ही पाप-वृक्ष साथ ही ज्ञान-वृक्ष नहीं रहा है?”
(10) भ्रष्टाचार के प्रश्न पर चाहे जितने लोकरंजक आन्दोलन चला लिये जायें, पूँजीवादी व्यवस्था में इसे समाप्त किया ही नहीं जा सकता। लूट की वैध विधि बढ़ती होड़ के साथ ही अवैध तौर-तरीक़ों को जन्म देगी ही। सफ़ेद धन के साथ काला धन पैदा होगा ही। सरकार और नौकरशाही पूँजीपतियों के प्रबन्धक का काम करते हैं। लुटेरों के नौकरों से सदाचारी होने की अपेक्षा नहीं कर जा सकती। और फ़िर अलग-अलग पूँजीपति विशेष लाभ के लिए स्वयं नेताओं-नौकरशाहों को ख़रीदने का काम करते ही रहेंगे, भले ही सामूहिक तौर पर वे भ्रष्टाचार-नियंत्रण की बात करें। नवउदारवाद के दौर में खुली लूट की होड़ भ्रष्टाचार को पूरी दुनिया में ‘खुला खेल फर्रुखाबादी बना चुके हैं। इन पर नियंत्रण की व्यवस्था की आंतरिक ज़रूरत समय-समय पर भ्रष्टाचार-विरोध के मसीहाओं को जन्म देती रहती है, जिनकी भूमिका सिर्फ़ व्यवस्था से मोहभंग रोकने की होती है, ‘सेफ्टी वाल्व और ‘शाक-एब्जार्बर की होती है। पूँजीवादी जनवाद के अन्तर्गत भ्रष्टाचार की भूमिका औपचारिक जनवाद की राजनीतिक अधिरचना और पूँजीवादी आर्थिक आधार के बीच अन्तरविरोध को हल करने का उपकरण है, इस बुनियादी सैद्धान्तिक बात को समझने की ज़रूरत है। फ्रेडरिक एंगेल्स ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति में लिखते हैं :
”जनवादी गणराज्य आधिकारिक तौर पर सम्पत्ति में अन्तर का कोर्इ ख़्याल नहीं करता। उसमें धन-दौलत परोक्ष रूप से, और भी ज़्यादा सुनिशिचत ढंग से, अपना असर डालती है। एक तो सीधे-सीधे राज्य के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के रूप में जिसका क्लासिकी उदाहरण अमेरिका है, दूसरे, सरकार तथा स्टाक एक्सचेंज के गठबन्धन के रूप में।
इसी तर्क को आगे विस्तार देते हुए लेनिन अपनी रचना ‘ए कैरिकेचर आफ मार्किसज़्म ऐण्ड इम्पीरियलिस्ट इकोनामिज़्म में लिखते हैं :
” ”जनवादी गणराज्य ”तार्किक तौर पर पूँजीवाद से विरोध रखता है, क्योंकि ”आधिकारिक तौर पर यह धनी और ग़रीब दोनों को बराबरी पर रखता है। यह आर्थिक व्यवस्था और राजनीतिक अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध है। साम्राज्यवाद और गणराज्य के बीच भी यही अन्तरविरोध होता है, जो इस तथ्य के द्वारा गहरा या गम्भीर हो जाता है कि स्वतंत्र प्रतियोगिता से इजारेदारी में संक्रमण राजनीतिक स्वतंत्राताओं की सिद्धि को और भी अधिक ”कठिन बना देता है। तब फ़िर पूँजीवाद जनवाद के साथ सामंजस्य कैसे स्थापित करता है? पूँजी की सर्वशक्तिमानता के परोक्ष अमल के द्वारा। इसके दो आर्थिक साधन होते हैं : (1) प्रत्यक्ष रूप से घूस देना, (2) सरकार और स्टाक एक्सचेंज का गँठजोड़। (यह हमारी प्रस्थापनाओं में बताया गया है – एक बुर्जुआ व्यवस्था के अन्तर्गत वित्त पूँजी ”किसी सरकार और किसी अधिकारी को बेरोकटोक घूस दे सकती है और ख़रीद सकती है।) एक बार जब माल-उत्पादन की, बुर्जुआ वर्ग की और पैसे की ताक़त की प्रभुत्वशील हैसियत बन जाती है – सरकार के किसी भी रूप के अन्तर्गत और जनवाद की किसी भी किस्म के अन्तर्गत – (सीधे या स्टाक एक्सचेंज के जरिए) घूस देना ”सम्भव हो जाता है। तब यह पूछा जा सकता है कि पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की अवस्था में पहुँचने, यानी प्राक-एकाधिकारी पूँजी का स्थान एकाधिकारी पूँजी द्वारा ले लेने के बाद इस सम्बन्ध में कौन-सी चीज़ बदल जाती है? सिर्फ़ यह कि स्टाक एक्सचेंज की ताक़त बढ़ जाती है। क्योंकि वित्त पूँजी औधोगिक पूँजी का उच्चतम, एकाधिकारी स्तर होती है जो बैंकिंग पूँजी के साथ मिल गयी होती है। बड़े बैंक स्टाक एक्सचेंज के साथ विलय कर गये हैं या उसे अवशोषित कर चुके हैं। (साम्राज्यवाद पर उपलब्ध साहित्य स्टाक एक्सचेंज की घटती भूमिका के बारे में बात करता है, लेकिन केवल इस अर्थ में कि हर दैत्याकार बैंक वस्तुत: अपने आप में एक स्टाक एक्सचेंज है।
यानी भ्रष्टाचार पूँजीवादी तंत्र के आंतरिक मेकेनिज़्म का एक अंग है। यह जब अपनी सीमा लाँघकर पूँजीवादी जनवाद के लिए समस्या बनने लगता है तो पूँजीवाद स्वयं इसे नियंत्रित करने की कोशिश करता है। दूसरी बात, नवउदारवाद भ्रष्टाचार को बेलगाम बनाने का काम करेगा और उस पर नियंत्रण के लिए फ़ासीवादी कठोरता और लोकरंजक सुधारवाद के तरीक़ों को भी आजमाता रहेगा। इस दौर में ‘ब्लैक मनी’ ‘व्हाइट मनी’ के बीच का अन्तर मिट सा गया है, जो है वह सिर्फ़ ‘ग्रीन मनी’ है।
(11) पूँजीवाद के अन्तर्गत अपराध भी उत्पादन-सम्बन्धों और उत्पादक-शक्तियों के बीच बढ़ते अन्तरविरोधों की एक अभिव्यक्ति है। प्रभुत्वशील तबका अपना प्रभुत्व बनाये रखने के लिए समाज के अन्य वर्गों को लगातार मातहती की मानसिकता में जीने के लिए अनुकूलित करने के उददेश्य से हर स्तर पर उत्पीडि़त करता है। यह जनता के विरुद्ध प्रभुत्वशालियों के अपराधों के विविध रूपों को जन्म देता है जो रोजमर्रे के जीवन में अभिव्यक्त होते हैं। दूसरी ओर शोषित-उत्पीडि़त वर्ग अपने अस्तित्व के लिए और प्रतिकार के लिए प्रभुत्वशालियों के विरुद्ध अपराध करते हैं। यह दूसरी श्रेणी का अपराध है। व्यक्तिगत और सामूहिक प्रतिरोध के दबाने और जनता को नियंत्रित मानसिकता में जीने के लिए राज्य क़ानूनी- ग़ैर-क़ानूनी ढंग से जो आतंकवादी कार्रवार्इ करता है, वह प्रभुत्वशालियों के अपराध का उच्चतम संगठित रूप है। पूँजीवादी उत्पीड़न के विरुद्ध व्यक्तिगत और सामूहिक आतंक की कार्रवाइयाँ इसी व्यवस्था की स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती हैं। वस्तुत: राज्य ही सबसे बड़ा आतंकवादी होता है। पूँजीवादी समाज के दैनन्दिन जनजीवन में जो संरचनागत हिंसा सर्वव्याप्त है, वह पूँजीवादी उत्पादन और शासन-प्रणाली की देन है। इन अर्थों में व्यापक जनता को प्रताडि़त करनेवाला सबसे बड़ा अपराधी स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है। पूँजीवादी व्यवस्था निरन्तर अपने को पुनरुत्पादित करती है। इस प्रक्रिया को जारी रखने के लिए राज्य क़ानून और क़ानूनी दमन के द्वारा या उनके आतंक के जरिए लोगों की चेतना को अधीनस्थ चेतना बनाकर अहम भूमिका निभाता है। लेकिन जीवन की विषम परिस्थितियाँ जब इस चेतना को विचिछन्न करने लगती है, तो लोग भी तरह-तरह से अराजक या संगठित प्रतिकार करते हैं, जिन्हें क़ानून ”अपराध मानता है और राजकीय हिंसा उसे कुचलने का आपराधिक काम करती है।
(12) पूँजीवाद लगातार कुछ लोगों को उत्पादन की प्रक्रिया से बाहर धकेलकर बेरोजगारों-अर्द्धबेरोजगारों की एक ”अतिरिक्त आबादी पैदा करता रहता है, जिन्हें ”कल्याणकारी राज्य कुछ सहारा देकर जिलाये रखता है। यह ”कल्याण के जरिए अपराध” है। जहाँ राज्य इस हद तक ”कल्याणकारी” नहीं होता, वहाँ भारी अरक्षित आबादी अस्तित्व रक्षा के लिए और विक्षुब्ध निराशा की स्थिति में न केवल सम्पत्तिशालियों, बल्कि आम जनता के विरुद्ध भी तरह-तरह के अपराध करने लगती है। नवउदारवाद के दौर में, पूरी दुनिया में कल्याणकारी राज्य का ढाँचा विसर्जित किया जा रहा है और जीने की न्यूनतम ज़रूरतों तक को बाज़ार के हवाले किया जा रहा है। इसके चलते भी समृद्ध से लेकर पिछड़े समाजों तक में अपराध बढ़ रहे हैं।
(13) आम जनजीवन में जो बर्बर अपराधों में बेशुमार बढ़ोत्तरी हुर्इ है, निम्न मध्यवर्गीय और मज़दूर बसितयों तक में, विशेषकर स्त्रियों और बच्चों के विरुद्ध जघन्य-बर्बर अपराधों की जो घटनाएँ बढ़ रही हैं, उसका एक कारण समकालीन पूँजीवाद द्वारा अतिलाभ निचोड़ने से पैदा हुर्इ मज़दूरों के जीवन की घोर विमानवीकारी परिस्थितियाँ हैं। किसी प्रकार के संगठित मज़दूर आन्दोलन और मज़दूरों की सामूहिक संगठित जागृत चेतना का अभाव इस विमानवीकरण के प्रभाव को और अधिक सघन बना रहा है। दूसरा कारण पूँजीवादी समाज में निरन्तर बढ़ता अलगाव (एलियनेशन) है। पूँजीवाद श्रम-विभाजन की प्रक्रिया में मनुष्य मानवीय उत्पादन से, फ़िर मनुष्य मनुष्य से, फ़िर मनुष्य मानवीय गुणों से कटता चला जाता है। श्रम-विभाजन स्वचालन और प्रबंधन की नयी प्रविधियों के जरिए जितना उन्नत होता जाता है, अलगाव और तज्जन्य विमानवीकरण भी उतना ही बढ़ता चला जाता है। ऐसे में रुग्ण-हिंस्र पाशविक ऐनिद्रक भूख का कुछ चरम लम्पट-विमनावीकृत तत्वों के मानस में विस्फोट और स्त्रियों और बच्चों का शिकार बनना तार्किक परिणति है। इस स्थिति को बुर्जुआ संचार-माध्यमों द्वारा लगातार दी जाने वाली वह रुग्ण संस्कृति और गम्भीर बनाती है, जो स्त्री को लगातार ‘सेक्स आब्जेक्ट के रूप में प्रस्तुत करती है। टी.वी. विज्ञापनों व कार्यक्रमों से लेकर मज़दूरों द्वारा बड़े पैमाने पर मोबाइल में डाउनलोड करके देखी जाने वाली ‘पोर्न क्लिपिंग्स तक मनोरुग्णता-उत्पादक सामग्री का एक व्यापक बाज़ार पसरा हुआ है। जो सम्पत्तिशाली रोज ही ऐनिद्रक विलास में डूबे रहते हैं, प्राय: उन्हें बर्बर अपराध की ज़रूरत नहीं पड़ती और यदि वे करते भी हैं तो पैसे की ताक़त का दुर्भेदय कवच प्राय: उन्हें बचा लेता है। फ़िर भी, उस दुनिया में भी मीडिया और न्यायपालिका तक में (नेताशाही, नौकरशाही तो पहले से ही बदनाम रही है और भारतीय पुलिस को तो जनता यौन-अपराधी गिरोह ही मानती है) स्त्रियों के यौन-अपराध की घटनाएँ मीडिया की सनसनीखेज ख़बरें बनने लगी हैं।
(14) किसी भी ह्रासमान समाज-व्यवस्था की सांस्कृतिक पतनशीलता और आत्मिक रिक्तता लगातार बढ़ती चली जाती है। आज का असाध्य ढाँचागत संकटग्रस्त वृद्ध पूँजीवाद की संस्कृति घोर मानवद्रोही और आत्मिक रूप से कंगाल है। सामाजिक ताने-बाने से जनवाद के रहे-सहे तत्व भी तिरोहित हो रहे हैं। अलगाव व्यक्तियों को विघटित कर रहा है। आश्चर्य नहीं कि स्वीडन जैसा कल्याणकारी राज्य वाला समृद्ध देश यौन अपराधों के मामले में दुनिया में पहले स्थान पर है। आश्चर्य नहीं कि अमेरिकी समाज दुनिया का सबसे रुग्ण अपराधग्रस्त समाज है। भारत में स्थिति कर्इ मायनों में अधिक जटिल है। किसी बुर्जुआ जनवादी क्रानित के अभाव में यहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में जनवादी मूल्यों का पहले से ही अभाव था। साम्राज्यवाद के युग में क्रमिक गति से विकसित पूँजीवाद ज़्यादातर नकारात्मक सांस्कृतिक मूल्य लेकर आया और मध्ययुगीन सामुदायिक जीवन की निरंकुश दमनकारी, व्यक्ति-स्वातंत्रय विरोधी, स्त्री-विरोधी दमनकारी संस्थाएँ और मूल्य-मान्यताएँ भी साथ-साथ बनी रहीं। ऐसे समाज में नवउदारवादी दौर में पशिचम की निरंकुश उपभोक्तावादी संस्कृति में एक आँधी के समान धावा बोला और सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य पर एक अराजकता-सी फ़ैल गयी। नवउदारवाद ने हर स्तर पर फ़ासीवादी प्रवृत्तियों के फलने-फूलने की ज़मीन तैयार की, जिन्हें पुरातनपंथी मूल्यों-आग्रहों से भी भरपूर सहारा मिला। नयी और पुरानी बुराइयों के इस सहमेल ने बर्बर अपराधों की संस्कृति को बढ़ावा दिया जिसका सबसे अधिक शिकार पहले से ही अधीनस्थता की स्थिति होने के कारण स्त्रियाँ हो रही हैं और सर्वाधिक अरक्षित होने के कारण मासूम बच्चे हो रहे हैं।
कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है कि सभी अपराधों का मूल कारण पूँजीवाद है। पूँजीवाद स्वयं ही मानवता के विरुद्ध एक अपराध है।
- नान्दीपाठ-2, जुलाई-सितम्बर 2013