बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – मेसिंगकौफ़ संवाद

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – मेसिंगकौफ़ संवाद (कुछ अंश)

थिएटर के सैद्धान्तिक प्रश्नों पर ‘मेसिंगकौफ़ संवाद’ ब्रेष्ट की सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाओं में से है, हालाँकि यह अधूरी रही। ब्रेष्ट की डायरी में एक नोट के अनुसार यह ‘थिएटर करने के एक नए ढंग के बारे में चार मुख़्तलिफ़ किरदारों के बीच बातचीत’ के रूप में है। ये किरदार हैं दार्शनिक, अभिनेता, अभिनेत्री, नाट्यशास्‍त्री और मज़दूर या इलेक्ट्रीशियन। डायरी के शब्दों में, ‘दार्शनिक थिएटर को अपने उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करना चाहता है। उसके मुताबिक इसे लोगों के बीच की घटनाओं की सटीक छवि प्रस्तुत करनी चाहिए और दर्शक को अपना रुख तय करने का मौका देना चाहिए। अभिनेता अभिव्यक्ति का अवसर चाहता है। उसके लिए कथानक और चरित्रों की उपयोगिता है। नाट्यशास्‍त्री दार्शनिक से सहमत है और वादा करता है कि थिएटर को दार्शनिक के  thaëter में तब्दील करने में अपने ज्ञान और हुनर का उपयोग करेगा। उसे आशा है कि इससे थिएटर को नया जीवन मिलेगा। इलेक्ट्रीशियन नए दर्शकवर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। वह एक मज़दूर है और दुनिया से असन्तुष्ट है।’-सं॰

ख़ुशमिज़ाजी के साथ आलोचना

अभिनेता : पात्रों की भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करने और मंच पर उनकी गतिविधियों में आत्मिक रूप से भागीदारी करने में लोगों को आनन्द आए, यह तो समझा जा सकता है। लेकिन इन चीज़ों की आलोचना करने से उन्हें कैसे आनन्द आएगा?

दार्शनिक : आपके विभिन्न नायकों की गतिविधियों में भागीदारी करके मैं प्राय: उदास हो जाता हूँ, और उनकी भावनाओं से तादात्म्य स्थापित करके आम तौर पर मैं खिन्न हो उठता हूँ। दूसरी ओर, आपके नायकों के साथ खेल करना मुझे अच्छा लगता है; यानी, उनके व्यवहार के अलग–अलग तरीक़ों की कल्पना करने और उनकी क्रियाओं की, अन्य उतनी ही सम्भव क्रियाओं से तुलना करने में मुझे मज़ा आता है।

नाट्यशास्त्री : लेकिन वे जो हैं, और जिस चीज़ के लिए उन्हें गढ़ा गया है, उसे देखते हुए वे भला और कैसे व्यवहार कर सकते हैं? आप उनके व्यवहार का कोई अलग तरीक़ा कैसे सोच सकते हैं?

दार्शनिक : मैं ऐसा कर सकता हूँ। और इतना ही नहीं, मैं उनकी ख़ुद से भी तुलना कर सकता हूँ।

नाट्यशास्त्री : यानी अपनी आलोचनात्मक क्षमता का इस्तेमाल करना महज़ बौद्धिक मामला नहीं है?

दार्शनिक : बिल्कुल नहीं। आप आलोचना को बुद्धि तक सीमित नहीं कर सकते। अनुभूतियाँ भी इस प्रक्रिया में भूमिका निभाती हैं, और यह भी हो सकता है कि आप अनुभूतियों के ज़रिए आलोचना को व्यवस्थित करें। याद रहे कि आलोचना संकट में जन्म लेती है और उसे बल देती है।

नाट्यशास्त्री : मैं मानता हूँ कि छोटे से छोटा दृश्य मंचित करने के लिए भी हमें अधिकतम सम्भव जानकारी होनी चाहिए। फिर इसके बाद?

दार्शनिक : जानकारी के स्तरों में काफ़ी विभिन्नता होती है। आपके स्वप्नों और पूर्वाभासों में, आपकी आशाओं और चिन्ताओं में, पसन्द और सन्देह में भी जानकारी होती है। लेकिन सबसे बढ़कर, ज्ञान बेहतर ढंग से जानने में, यानी अन्तरविरोध में ख़ुद को अभिव्यक्त करता है। यही आपका क्षेत्र है।

(…)

नाट्यशास्त्री : देखिए, थिएटर की कला को विज्ञान जितना ही शिक्षात्मक बनाने के बारे में आपके विचारों का हमने अपनी क्षमता भर अध्ययन किया है। आपने हमें अपने थिएटर में आकर काम करने के लिए आमंत्रित किया जो आपके मुताबिक एक वैज्ञानिक संस्थान था; कला का सृजन हमारा लक्ष्य नहीं था। लेकिन आप जो चाहते थे, उसे हासिल करने के लिए हमें अपनी सारी कला झोंक देनी पड़ी है। साफ़ कहूँ तो, अगर हमें आपकी इच्छा के अनुसार और आपके इच्छित लक्ष्यों को ध्यान में रखकर काम करना है, तो हमें कला का ही सृजन करना होगा।

दार्शनिक : मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा है।

नाट्यशास्त्री : आम तौर पर कला के अभ्यास के लिए जो कुछ ज़रूरी माना जाता है, उसमें से इतना कुछ आपने रद्द कर दिया है, फिर भी मुझे लगता है कि आपने जिस एक बिन्दु को बनाए रखा, वही असल बात है।

दार्शनिक : क्या?

नाट्यशास्त्री : जिसे आपने इस काम की सहजता कहा है। यह अहसास कि अभिरुचियों का यह खेल, दर्शकों के लिए चीज़ें रचने का यह काम ख़ुशमिज़ाजी के साथ, ज़िन्दादिली के मूड में ही किया जा सकता है, मज़ा लेने के मूड में ही किया जा सकता है। एक मशीन पर पाँच बटन दबाने वाले व्यक्ति के काम और पाँच गेंदों के साथ करतब दिखाने वाले व्यक्ति के काम में अन्तर की ओर इशारा करते हुए आपने कला की बिल्कुल सटीक व्याख्या की। और आपने इस सहजता को व्यक्ति के सामाजिक कार्य के प्रति उसके रुख की आत्यन्तिक गम्भीरता के साथ जोड़ा।

अभिनेता : शुरू में जिस चीज़ से मैं सबसे ज़्यादा बिदका, वह था पूरी तरह और सिर्फ़ तर्क पर ध्यान देने के ऊपर आपका ज़ोर। सोचना ऐसी शुष्क–सी क्रिया है; यह बुनियादी तौर पर एक अमानवीय चीज़ है। अगर आप यह तर्क देते कि यह मानवीय प्राणी का विशिष्ट गुण है तो भी यह ग़लत होता, क्योंकि मैं कहता कि आप प्राणी वाले भाग को तो छोड़ ही दे रहे हैं।

दार्शनिक : अब तुम्हें कैसा लगता है?

अभिनेता : ओह, अब मैं सोचता हूँ कि सोचना इतनी ठण्डी क्रिया नहीं है। इसका अनुभूति से कोई अन्तरविरोध नहीं है। और मैं दर्शकों में जो चीज़ जगाता हूँ वह महज़ विचार नहीं बल्कि अनुभूतियाँ भी होती हैं। अब मैं सोचने को बस व्यवहार के एक ढंग और वह भी सामाजिक व्यवहार के एक ढंग के रूप में देखता हूँ। यह एक ऐसी चीज़ है जिसमें पूरा शरीर, अपनी सभी इन्द्रियों के साथ, हिस्सा लेता है।

दार्शनिक : मैंने एक रूसी नाटक देखा था जिसमें मज़दूर एक हिंसक अपराधी को एक बन्दूक देते हैं ताकि उनके काम के दौरान वह हिंसा से उनकी हिफ़ाज़त करे। दर्शक इस पर एक साथ हँसे भी और रोए भी। पुराने ढंग के थिएटर में नायक के विलोम में एक घिसा–पिटा–सा पात्र रखा जाता था। कैरिकेचर एक साधन है जिसके ज़रिए तदनुभूतिपरक चरित्रचित्रण आलोचना को स्वर देता है। अभिनेता जीवन की आलोचना करता है और दर्शक उसकी आलोचना से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। एपिक थिएटर शायद ऐसे कैरिकेचर तभी मंचित कर सकता है जब वह कैरिकेचर करने की प्रक्रिया को दर्शाना चाहता हो। तब कैरिकेचर किसी मुखौटा नृत्य वाले दृश्य में नर्तकों की तरह उपस्थित होते हैं। चरित्रचित्रण की फिसलती, फुदकती, पल–पल बदलती पद्धति की और भी अधिक ज़रूरत होती है क्योंकि पात्र की हर उक्ति को ध्यानाकर्षक बनाना होता है, और इसका अर्थ यह हुआ कि इन सभी उक्तियों के क्रमविन्यास, आपसी सम्बन्ध और विकास को भी ध्यानाकर्षक बनाना होगा। वास्तविक समझ और आलोचना तभी सम्भव है जब अंश और समग्र तथा अंश और समग्र के बदलते सम्बन्धों को पूरी तरह समझा जाए और उनकी आलोचना की जाए। लोगों की उक्तियाँ अन्तरविरोधपूर्ण होती ही हैं, इसलिए हमें पूरे अन्तरविरोध को लेना ही होगा। अभिनेता के लिए पूरे ब्योरों के साथ परिष्कृत चरित्र प्रस्तुत करना ज़रूरी नहीं है। वह ऐसा कर नहीं सकता, और उसे ऐसा करने की ज़रूरत भी नहीं। वह सम्बन्धित विषय की आलोचना ही नहीं प्रस्तुत कर रहा है, बल्कि सर्वप्रथम और सर्वोपरि तौर पर वह स्वयं विषय को ही प्रस्तुत कर रहा है। अपने द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली हर चीज़ के बारे में उसके पास पूरी तरह सोची–विचारी राय होना ज़रूरी नहीं है। वह देखी और अनुभव की गई चीज़ों की एक निधि से मदद लेता है।

अभिनेता : जो भी हो, हमारा थिएटर आपके ‘thaëter’[1] के लिए मुश्किल बाधा है, मेरे दोस्त। हमारी उन योग्यताओं को ही लें जिन्हें थिएटर ने अपने उद्देश्य के लिए विकसित किया है; उनका इस्तेमाल इस तथ्य से प्रभावित होगा कि हमारी कुछ क्षमताओं की आपके लिए कुछ ख़ास उपयोगिता नहीं है। किन्हीं रूपों में वे आपकी आवश्यकताओं से बढ़कर हों यह भी उतनी ही बड़ी बाधा है जितना कि उनका कसौटी पर पूरा न उतरना।

दार्शनिक : वे आवश्यकताओं से बढ़कर कैसे हैं?

अभिनेता : आपने देखने वाले और आलोचनात्मक दृष्टि से देखने वाले के बीच के अन्तर को बड़ी स्पष्टता से बताया है। आपका कहना है कि पहले वाले की जगह दूसरे को ले लेनी चाहिए। अनुमान मुर्दाबाद, जानना ज़िन्दाबाद! सन्देह मुर्दाबाद, विश्वास ज़िन्दाबाद! अनुभूति मुर्दाबाद, तर्क ज़िन्दाबाद! सपने मुर्दाबाद, योजनाएँ ज़िन्दाबाद! तड़प मुर्दाबाद, दृढ़निश्चय ज़िन्दाबाद!

अभिनेत्री ताली बजाती है।

अभिनेता : क्यों, आपने ताली नहीं बजाई?

दार्शनिक : कला के सामान्य कार्यों के बारे में मेरी धारणा इतनी निश्चयात्मक तो नहीं थी। निश्चित ही, इसके विपरीत दृष्टिकोण के मैं ख़िलाफ़ था : जानना मुर्दाबाद, अनुमान ज़िन्दाबाद, वग़ैरह–वग़ैरह। मैंने कला को बिल्कुल हाशिए पर रखने के विचार का विरोध किया। ऐसे नारे प्रगतिशील वर्गों और उथल–पुथल भरे समयों की कृतियों पर लागू नहीं होते। लेकिन हमारे अपने दौर पर नज़र डालिये। देखिए कि जिस तरह के रुख के मैं ख़िलाफ़ हूँ उन पर आधारित रचनाओं में आपको कितना बेहतर कलात्मक प्रदर्शन मिलता है। अनुमान लगाने को जानने के मुक़ाबले कहीं अधिक कलात्मक ढंग से दर्शाया जाता है। यहाँ तक कि जिन रचनाओं में स्पष्ट विचार होते हैं, उनमें भी अस्पष्ट वाले पक्ष में ही कलात्मक तत्त्व देखने को मिलता है। मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि हम इसे वहीं ढूँढ़ते हैं, बल्कि वाक़ई यह वहीं मिलता है।

नाट्यशास्त्री : आपके ख्याल से जानने के लिए कोई कलात्मक रूप नहीं है?

दार्शनिक : मेरे ख्याल से नहीं। मैं अनुमान, सपने देखने और अनुभूति करने की पूरी दुनिया को भला क्यों ध्वस्त करना चाहूँगा? लोग इन तरीक़ों से भी सामाजिक समस्याओं से जूझते हैं। अनुमान और ज्ञान एक–दूसरे के विलोम नहीं हैं। अनुमान ज्ञान तक ले जा सकता है, और ज्ञान अनुमान तक। सपने योजनाओं को जन्म दे सकते हैं और योजनाएँ सपनों में घुलमिल जा सकती हैं। मुझे किसी चीज़ की तड़प होती है और मैं चल पड़ता हूँ, और आगे बढ़ते हुए मुझे और तड़प महसूस होती है। आप अनुभूतियों को सोचते हैं और आप सोचपूर्ण ढंग से अनुभूति करते हैं। लेकिन शार्ट कट और शार्ट सर्किट भी होते हैं। ऐसी मंज़िलें आती हैं जब सपने योजनाओं में नहीं ढलते, अनुमान ज्ञान में नहीं बदलता, तड़प राह पर आगे नहीं बढ़ाती। ये कला के लिए बुरे दौर होते हैं; बात बिगड़ जाती है। अनुमान और ज्ञान के बीच का तनाव, जिससे कला जन्म लेती है, भंग हो जाता है। जैसे कोई विद्युत क्षेत्र आवेशरहित हो गया हो। इस समय मेरी इस बात में रुचि नहीं है कि रहस्यवाद में डूब जाने वाले कलाकारों का क्या होता है। मेरी ज़्यादा रुचि उनमें है जो अधीर होकर योजनाविहीन सपने देखने से बिदककर स्वप्नविहीन योजना बनाने की ओर मुड़ जाते हैं, और परिणामस्वरूप खोखली योजनाएँ बनाते हैं।

नाट्यशास्त्री : समझा। हम जो अपने समाज की सेवा करने की कोशिश कर रहे हैं, हमें मानवीय गतिविधि के हर दायरे के सभी आयामों को अंकित करना होगा।

अभिनेता : यानी हमें बस वही नहीं दिखाना है जो हम जानते हैं?

अभिनेत्री : वह भी जिसका हम अनुमान करते हैं।

दार्शनिक : याद रखो कि कुछ चीज़ें जिन्हें तुम नहीं जानते हो, उन्हें दर्शक पहचान सकते हैं।

(…)

दार्शनिक : मज़दूरों के विरोधी कोई एकाश्मी प्रतिक्रियावादी समूह नहीं हैं। न ही विरोधी वर्गों का हर सदस्य कोई एकाश्मी, तैयारशुदा, गारण्टी युक्त शत–प्रतिशत दुश्मनाना प्राणी है। वर्ग–संघर्ष ने उसकी अन्तरात्मा को भी संक्रमित कर दिया है। उसके अपने हित उसे विपरीत दिशाओं में खींच रहे हैं। समूह के एक हिस्से के रूप में जीते हुए उसके हित समूह के हितों से साझा होंगे ही, चाहे उसका जीवन कितना भी अलग–थलग क्यों न हो। सोवियत फ़िल्म दि बैटलशिप पोतेमकिन में कुछ ऐसे भी बुर्जुआ थे जो नाविकों द्वारा उत्पीड़क अफ़सरों को उठाकर पानी में फेंक देने पर ख़ुशी से तालियाँ पीटते मज़दूरों के साथ शामिल हो गये। हालाँकि इस बुर्जुआ वर्ग की उसके अफ़सरों ने सामाजिक क्रान्ति से हिफ़ाज़त की थी पर यह कभी उन्हें आत्मसात नहीं कर सका था। यह ख़ुद अपने अधिकारों के अतिक्रमण से भयभीत था (और इसे महसूस कर रहा था) इसलिए बुर्जुआ और सर्वहारा कभी–कभी मिलकर सामन्तवाद के ख़िलाफ़ वोट देते थे। और इस तरह इन बुर्जुआओं का ऐसे क्षणों में समाज के प्रगतिशील सर्वहारा तत्त्वों से वास्तविक और सुखद सम्पर्क होता था; बड़े पैमाने पर और शक्तिशाली ढंग से सवालों को हल करते हुए वे ख़ुद को पूरी इंसानियत का एक हिस्सा महसूस करते थे। यह दर्शाता है कि कला अपने दर्शकों में एक क़िस्म की एकता पैदा कर सकती है, जो हमारे समय में वर्गों में बँटे हुए हैं।

दार्शनिक : थिएटर कला के लिए मूलभूत मानी जाने वाली चीज़ों में से चाहे जितने की भी हम अपने नये लक्ष्यों के लिए तिलांजलि देना चाहें, एक चीज़ है जिसे हमें, मेरे ख्याल से, हर क़ीमत पर बचाए रखना चाहिए, और वह है सहजता का इसका गुण। (मूल जर्मन शब्द leichtigkeit का अर्थ सहजता और सरलता दोनों है जिसे एक हिन्दी शब्द में व्यक्त नहीं किया जा सकता-अनु.) यह हमारे लिए कोई अड़चन नहीं हो सकता और अगर हम इसे छोड़ दें तो इसका मतलब होगा अपने संसाधनों पर अत्यधिक बोझ डालना और उन्हें बरबाद करना। थिएटर में एक स्वाभाविक सहजता और सरलता है। इस तरह चेहरे पर मेकअप पोतकर पहले से रिहर्सल की हुई मुद्राएँ बनाना, थोड़ी सी चीज़ों से दुनिया की नक़ल उतारना, जीवन की एक झलक देना, ये चुटीले संवाद और सूक्तियाँ-अगर इस सबको बेवकूफ़ाना नहीं दिखना है तो इसकी स्वाभाविक ज़िन्दादिली को बनाए रखना होगा। ऐसी सहजता के भीतर आप कितनी भी संजीदगी हासिल कर सकते हैं, इसके बिना कुछ भी नहीं। इसलिए अगर हम किसी समस्या को एक ऐसे रूप में रखते हैं जिसे नाटक में उठाया जा सकता हो तो हमें विनोदपूर्ण ढंग से ऐसा करना चाहिए। हम बड़े बारीक़ सन्तुलन पर काम कर रहे हैं, लालित्यपूर्ण, सधे हुए क़दम रख रहे हैं, बिना यह ध्यान दिए कि हमारे क़दमों तले ज़मीन कैसे धसक रही है। लोग ज़रूर इस बात पर उँगली उठाएँगे कि हम रक्तरंजित युद्धों के बीच यहाँ बैठे, पलायनवाद की बात भी दिमाग़ में लाए बिना, थिएटर के उन मामलों पर चर्चा कर रहे हैं जो मनबहलाव की मनुष्य की ज़रूरत के कारण ही अस्तित्व में हैं। क्या पता कल हम सब भस्म हो जाएँ। लेकिन हम थिएटर पर केन्द्रित कर रहे हैं क्योंकि हम थिएटर के ज़रिए भी अपने काम को आगे बढ़ाने का एक साधन तैयार करना चाहते हैं। अपने हालात की अत्यावश्यकता के दबाव में हमें उन साधनों को नष्ट नहीं कर देना चाहिए जिनका हम इस्तेमाल करना चाहते हैं। जितनी हड़बड़ी होगी, रफ्तार उतनी ही कम होगी। भारी ज़िम्मेदारी का काम करने वाले सर्जन को छोटा–सा नश्तर हल्केपन और सहजता से हाथ में थामने की ज़रूरत होती है। निश्चित रूप से, दुनिया के कल–पुर्ज़े इधर–उधर खिसक गए हैं और सब कुछ फिर से दुरुस्त करने के लिए शक्तिशाली प्रयासों की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन विभिन्न ज़रूरी उपकरणों में से एक ऐसा भी हो सकता है जो नाज़ुक और तनु हो और जिसे सहजता से चलाया जाना ज़रूरी हो।

दार्शनिक : जिस थिएटर में हँसा न जा सकता हो, उस थिएटर पर हँसा जाना चाहिए। परिहासरहित लोग हास्यास्पद होते हैं। कभी–कभी यह आशा की जाती है कि समारोही प्रस्तुतीकरण चीज़ों को वह अर्थ दे देगा जो वैसे उनमें है नहीं। अगर चीज़ों में कोई अर्थ हो तो उस अर्थ को उभारने से ही पर्याप्त समारोह उत्पन्न हो जाएगा। लेनिन की अंत्येष्टि पर उमड़ी भीड़ की तस्वीरों से लगता है कि कोई समारोही घटना हो रही है। पहलेपहल आपको बस यही दिखता है कि लोग अब भी एक ऐसे व्यक्ति के साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं जिसे वे जाने नहीं देना चाहते। लेकिन उनकी तादाद बहुत बड़ी है, और इससे भी बढ़कर वे ‘मामूली’ लोग हैं और इस व्यक्ति के साथ चलकर वे एक छोटी सी जमात के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं जो लम्बे समय से उसे दुनिया से हटाने में लगी थी। इस तरह की चिन्ताएँ आपको समारोह की फिक्र करने से मुक्त कर देती हैं।

(…)

राजनीतिविशारद हों दर्शक

दार्शनिक : हम देख चुके हैं कि हमारा thaëter उस प्रसिद्ध, सार्वभौमिक, बार–बार परखी हुई और अपरिहार्य संस्था, थिएटर से एकदम भिन्न होगा। एक महत्त्वपूर्ण अन्तर, जिससे आपको राहत मिलेगी, यह तथ्य है कि इसे हमेशा–हमेशा के लिए नहीं खोल दिया जाना है। यह सिर्फ़ आज के समय के लिए, ठीक–ठीक हमारे आज के समय के लिए है : जो बेशक कोई आनन्ददाई समय नहीं है।

दार्शनिक : इसे सामने आना ही है; अब मैं इसे आपसे और नहीं छुपा सकता। मेरे पास कोई साज़ो–सामान नहीं है, कोई इमारत नहीं, कोई थिएटर नहीं, एक कास्ट्यूम या मेकअप का एक डिब्बा तक नहीं है। मेरे पीछे कोई नहीं है, कुछ नहीं है। आपको अपने अब तक के किसी भी प्रयास से ज़्यादा कठिन प्रयास करने होंगे, लेकिन उनके लिए कोई पैसा नहीं मिलने वाला, और हम आपसे यह भी नहीं कह सकते कि आप यश के लिए काम करें। क्योंकि हम यश भी नहीं दिला सकते। किसी भी अख़बार ने आज तक कभी हमारे सहयोगियों का यशगान नहीं किया।

(ख़ामोशी)

अभिनेता : तो आप बस काम के लिए काम करने की बात कर रहे हैं।

मज़दूर : यह एक बेहूदा सवाल है। मैं कभी किसी से यह नहीं पूछूंगा; इसे सुन–सुनकर मेरे कान पक गए हैं। ‘क्या तुम्हें अपने काम में मज़ा नहीं आता है?’ जब मैं अपनी मज़दूरी माँगता हूँ तो वे निराश स्वर में पूछते हैं। ‘क्या तुम बस काम के लिए काम नहीं करते?’ नहीं, चाहे जो भी हो जाए, हम पैसे देंगे। ज़्यादा नहीं, क्योंकि हमारे पास ज़्यादा कुछ नहीं है, लेकिन यह नहीं हो सकता कि कुछ न दें, क्योंकि काम के बदले भुगतान होना ही चाहिए।

नाट्यशास्त्री : मेरे ख्याल से मामूली भत्ता देने के बजाय कुछ नहीं देने से आपको ज़्यादा कलाकार मिल सकते हैं। अगर वे बिना कुछ लिये काम कर रहे हैं, तो कम से कम वे कुछ दे रहे हैं।

अभिनेता : आप लोग कुछ भत्ता देंगे, क्यों? ठीक है, मुझे मंज़ूर है। बेशक। यह हमारे रिश्तों में एक अर्थ पैदा करता है, और इसे एक साधारण कामकाजी मामला बना देता है। दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते, लेकिन यह तो ऐसी कला मानी जाती है जिसके दाँत गिने जा सकते हैं। मैं तो यही समझा हूँ : यह एक ऐसी बछिया है जो वाक़ई चाहती है कि इसके दाँत गिने जाएँ। चलो, वित्तीय पक्ष कमोबेश तय हो गया।

नाट्यशास्त्री : मैं तो कहूँगा कि यह आपकी ख़ुशक़िस्मती है कि कलाकार इतने छिछोर होते हैं। उसके दिमाग़ से यह बात ही उतर गई है कि अब उसे हर शाम ख़ुद को एक राजा में रूपान्तरित कर लेना[2] छोड़ना होगा।

अभिनेता : इसके बरक्स ऐसा लगता है कि इस नये थिएटर में मैं अपने दर्शकों को राजाओं में तब्दील करने के लिए स्वतंत्र होउँगा। राजाओं जैसे नहीं, बल्कि असली राजाओं में। राजनीतिकविशारदों में, विचारकों में और इंजीनियरों में। क्या दर्शक होंगे मेरे! दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है उसे मैं उनके न्याय–सिंहासन के सामने लाउँगा। और अगर मेरा थिएटर मेहनतकश लोगों के इस विराट समूह के लिए एक प्रयोगशाला बन गया तो यह कैसा विशिष्ट, उपयोगी और यशस्वी स्थान होगा। मैं भी उस क्लासिकी सिद्धान्त के अनुसार अभिनय करूँगा : दुनिया को बदलो; इसे इसकी ज़रूरत है।

मज़दूर : इस बात में ज़रा ग़ुरूर झलकता है। लेकिन क्यों न हो? यह एक महान लक्ष्य के लिए है।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : .

 ‘‘थिएटर से गम्भीरता से जुड़ा कोई भी व्यक्ति ब्रेष्ट की अनदेखी नहीं कर सकता। ब्रेष्ट

हमारे समय के केन्द्रीय व्यक्तित्व हैं, आज सारा थिएटर वर्क किसी न किसी बिन्दु पर ब्रेष्ट के

वक्तव्यों और उपलब्धियों से शुरू होता है, या लौटकर उन तक आता है।’’

                                                                                                                                -पीटर ब्रुक

[1]ब्रेष्ट परम्परागत थिएटर से एकदम उलट नए ढंग के थिएटर के लिए यह शब्द इस्तेमाल करते थे।

[2]यहाँ स्तानिस्लाव्स्की की अभिनय पद्धति के उस प्रसिद्ध कथन का सन्दर्भ है कि अगर कोई अभिनेता किंग लियर का अभिनय कर रहा है तो उसे ख़ुद को विश्वास दिलाना होगा कि वह किंग ही है।–अनु.

 

 

  • सृजन परिप्रेक्ष्‍य, जनवरी-अप्रैल 2002

 

नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

  • पूँजीवाद का संकट और ‘सुपर हीरो’ व ‘एंग्री यंग मैन’ की वापसी (दूसरी क़िस्त)
  • पूँजीवाद में विज्ञापनों की विचारधारा और पूँजीवादी विचारधारा का विज्ञापन
  • साहित्य में अवसरवादी घटाटोप के सामाजिक-आर्थिक कारण
  • हान्स आइस्लर – एक नयी संगीत संस्कृति के निर्माता
  • बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन
  • नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ
  • स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श
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    साहित्य में अवसरवादी घटाटोप के सामाजिक-आर्थिक कारण

    पूँजीवादी सत्ता की नीतियों में आये परिवर्तन से भी अधिक उन सामाजिक-आर्थिक कारणों का अध्ययन महत्वपूर्ण है, जिनके कारण बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा आज आसानी से व्यवस्था द्वारा खरीद-फरोख्त, सौदेबाज़ी और सहयोजन का सहर्ष शिकार होने लगा है। यह अनायास नहीं है कि 1990 के दशक में नवउदारवाद की चौतरफा लहर के बाद यह परिघटना ज़्यादा बड़े पैमाने पर, एक आम प्रवृत्ति बनकर उभरी है। read more

    हान्स आइस्लर – एक नयी संगीत संस्कृति के निर्माता

    मज़दूरों के संगीत आन्दोलन में विशेषज्ञों का यह काम है कि वे क्रान्तिकारी कला के नये कार्यों में निहित भौतिक परिवर्तनों का परीक्षण करें। साथ ही मज़दूरों की व्यापक आबादी और उनके पदाधिकारियों को अपने विशेषज्ञों को बाध्य करना चाहिए कि वे यह विश्लेषण ज़रूर करें और इसके नतीजों को अमल में लागू करके उनका नियंत्रण तथा आलोचनात्मक परीक्षण करें। read more

    पूँजीवाद में विज्ञापनों की विचारधारा और पूँजीवादी विचारधारा का विज्ञापन

    विज्ञापन न सिर्फ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका अदा करते हैं बल्कि वे पूँजीवादी विचारधारात्मक उपकरण के रूप में पूँजीवादी दृष्टिकोण, मनोविज्ञान और संस्कृति का बेहद चालाकी और बारीकी के साथ प्रचार-प्रसार भी करते हैं। विज्ञापन अत्यन्त वर्चस्वकारी तरीके से एक ख़ास नज़रिये से सोचने के लिए लोगों (जिसे कि वे महज़ उपभोक्ता के रूप में देखते हैं) की सहमति लेने का काम करते हैं। read more

    बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन

    हमारे वे दोस्त जो फ़ासीवाद की बर्बरता से उतने ही भयभीत हैं जितने हम, मगर जो सम्पत्ति स्वामित्व की शर्तों को सुरक्षित रखना चाहते हैं या फिर उनके बचाव के प्रति उदासीन हैं वह बर्बरता के ख़िलाफ़ पर्याप्त रूप से सशक्त या निरन्तर संघर्ष नहीं कर सकते जिसकी अभी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। क्योंकि वे न तो उन सामाजिक परिस्थितियों को नाम दे सकते है न ही उनके निर्माण में सहायता कर सकते हैं जिनमें बर्बरता के लिए कोई जगह नहीं होगी। read more

    कला-संस्कृति, शिक्षा एवं अकादमिक जगत पर भगवा फासिस्टों का बर्बर हमला

    फासीवाद का मुक़ाबला सिर्फ़ मानवतावादी गुहारों के ज़रिये लोगों के दिलो-दिमाग में दख़ल करने के सौन्दर्यशास्त्रीय तरीके से नहीं किया जा सकता। फासीवाद के खि़लाफ़ एक जुझारू सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा करने के लिए कला और संस्कृति के मोर्चे को कहीं अधिक गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है। कुलीनतावादी, अकर्मक, सांकेतिक, अनुष्ठानधर्मी, पैसिव एवं रक्षात्मक तरीकों से फासीवाद का मुक़ाबला कतई नहीं किया जा सकता। read more

    उद्धरण – नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

    संकट ठीक इसी तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नये का जन्म नहीं हो सकता; इस सन्धिकाल में तमाम किस्म के रुग्ण लक्षण उभर आते हैं।

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    नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ

    नोबल शान्ति पुरस्कार वास्तव में साम्राज्यवादी एजेण्डा है। इसके हकदार वे लोग और वित्तपोषित ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएँ होती हैं जो जनता के बीच नवउदारवादी नीतियों की स्वीकार्यता बनाने में ‘विचारधारात्मक पारगमन टिकट’ के तौर पर काम कर सकें। यानी वर्ग संघर्ष से वर्ग सहयोग की ओर! यह नवसाम्राज्यवाद का जनविद्रोह-विरोधी रणनीति है। बाल अधिकारों के प्रति साम्राज्यवादी देश, उनकी सेवा में सन्नद्ध अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और देशी विदेशी अनुदान से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं के मानव प्रेम का पहलू आज इसीलिए इतना मुखर हो उठा है ताकि नवउदारवादी नीतियों के अमल से जन्मे स्वतःस्फूर्त जन उभारों और जनआन्दोलनों को व्यवस्था के भीतर ही संगठित करके एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण किया जा सके और मौजूदा चौहद्दी में ही अर्थव्यवस्था के विकास के नाम पर अनुग्रहवादी व गरीबी कार्यक्रम को फण्ड देकर जन समर्थन हासिल किया जा सके। read more

    स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श

    हर सामाजिक परिघटना में निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों का द्वन्द्व मौजूद रहता है। परम्परा से विच्छिन्न आधुनिकता हो ही नहीं सकती। सिद्धान्त के स्तर पर आधुनिकता एक सार्वभौमिक मूल्य है, लेकिन अलग-अलग संस्कृतियों, देशों, राष्ट्रों, समाजों में उनके इतिहास-विकास की गति और विशिष्टता के हिसाब से सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में आधुनिकता-बोध के रूप और प्रकृति में वैविध्य होता है। पश्चिमी समाजों में आधुनिकता के उद्भव और विकास का जो काल और जो प्रक्रिया रही है, वही काल और वही प्रक्रिया औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में नहीं रही है। इससे भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी महादेशों और इन महादेशों के अलग-अलग देशों में आधुनिकता के इतिहास की गति और प्रकृति की भिन्नताओं को लक्षित किया जा सकता है।

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