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पूँजीवाद का संकट और ‘सुपर हीरो’ व ‘एंग्री यंग मैन’ की वापसी (दूसरी क़िस्त)

पूँजीवाद का संकट और ‘सुपर हीरो’ व ‘एंग्री यंग मैन’ की वापसी (दूसरी क़िस्त)

अभिनव सिन्हा

पहली किस्‍त यहां पढ़ें 

अमेरिकी कॉमिक्स व हॉलीवुड में सुपरहीरो फ़िक्शन

हॉलीवुड फिल्मों में भी ‘एंग्री यंग मैन’ का एक दौर रहा था, जिसमें एक हद तक मार्लन ब्राण्डो की ‘ऑन द वॉटर फ्रण्ट’ जैसी फिल्मों समेत कुछ ऐसी धुर प्रतिक्रियावादी फिल्मों को भी देखा जा सकता है, जिन्हें ‘एंग्री व्हाइट मेल’ फिल्मों के तौर पर गिना गया। इनमें क्लिंट ईस्टवुड की कई फिल्में और साथ ही रॉबर्ट डि नीरो की ‘टैक्सी ड्राइवर’ प्रमुख तौर पर शामिल की जाती हैं। लेकिन इन फिल्मों के नायक भारत के एंग्री यंग मैन से आम तौर पर काफ़ी अलग थे। इसके अपने ऐतिहासिक कारण हैं। भारत में एंग्री यंग मैन आज़ादी के बाद समानता और न्याय के जिन सपनों के टूटने की पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया के तौर पर अस्तित्व में आया था, हॉलीवुड में ऐसी प्रतिक्रिया की गुंजाइश काफ़ी सीमित थी। लेकिन हम यहाँ हॉलीवुड में आजकल ज़्यादा प्रभावी फिल्म जॉनर सुपरहीरो फिल्मों पर चर्चा करना चाहेंगे।

सुपरहीरो फिल्मों की हॉलीवुड में विशेष तौर पर 1980 के दशक से कोई कमी नहीं रही है। लगभग सभी सुपरहीरो कॉमिक्स जगत से लिये गये हैं। 1930 के दशक में बैटमैन और सुपरमैन के कॉमिक्स के पन्नों पर अवतरित होने और उसके बाद 1950 और 1960 के दशक में दर्जनों नये सुपरहीरोज़ के पैदा होने के बाद ये कॉमिक्स अमेरिका में काफ़ी लोकप्रिय हुई थीं, हालाँकि तब इनकी विचारधारात्मक भूमिका, थीम व सन्दर्भ हॉलीवुड की सुपरहीरो फिल्मों की तुलना में काफ़ी अलग थे, जिन पर हम आगे आयेंगे। इन सुपरहीरोज़ पर टेलीविज़न कार्यक्रम भी बने और लोकप्रिय भी हुए। सुपरहीरो फिल्मों का दौर 1980 के दशक से शुरू होता है। 1980 और 1990 के दशक में बनी सुपरहीरो फिल्मों में कॉमिक्स की शैली का गहरा असर मौजूद था। यह असर 2000 के दशक के साथ दूर हो गया। 2000 के दशक को सुपरहीरो फिल्मों के युग की सही मायने में शुरुआत माना जा सकता है।

2014 में आयी फिल्म ‘गार्डियन्स ऑफ गैलेक्सी’ ने 60 करोड़ डॉलर शुरुआती सप्ताह में ही कमा लिये, ‘अवेंजर्स असेम्बल’ ने 1.5 अरब डॉलर की कमाई की, ‘आयरन मैन 3’ ने 23 दिनों में ही 1 अरब डॉलर का आँकड़ा पार कर लिया, ‘कैप्टन अमेरिका 2’ ने पहले सप्ताहान्त में 7.52 करोड़ डॉलर कमाये और ‘डार्क नाइट राइज़ेज़’ ने कुल 10.8 अरब डॉल कमाये थे। 2000 के दशक की शुरुआत में बनी ‘एक्स मेन’ से सुपरहीरो फिल्मों का एक नया दौर शुरू हुआ और कई वैश्विक तौर पर सफल सुपरहीरो फिल्में तब से बन चुकी हैं। 2006-7 के बाद से इन फिल्मों के बनने की रफ़्तार और कमाई दोनों में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। आज तमाम अग्रणी हॉलीवुड स्टूडियो केवल कमाई को ध्यान में रखकर ये फिल्में नहीं बना रहे हैं। इन फिल्मों की एक विचारधारात्मक भूमिका है और इनके बनने का एक विचारधारात्मक सन्दर्भ मौजूद है। कोई भी कलात्मक रचना और विशेष तौर पर फिल्म मौजूदा विचारधारात्मक तन्त्र का अंग होती है। इनमें से कुछ वर्चस्वकारी विचारधारात्मक तन्त्र को चुनौती दे सकती हैं, तो अन्य इसकी पुष्टि करने और इसे और सशक्त बनाने का काम करती हैं। ज्याँ लुक कोमोली और ज्याँ नारबोनी ने इन दोनों ही श्रेणी की फिल्मों के बारे में लिखा है, “पहली और सबसे बड़ी श्रेणी उन फिल्मों की है जो पूरी तरह से प्रभुत्वशाली विचारधारा में शुद्ध रूप में और बिना किसी मिलावट के रंगी हुई हैं, और ऐसा कोई संकेत नहीं देती हैं कि उनके निर्माताओं को इस तथ्य की कोई भनक थी भी या नहीं। हम केवल कॉमर्शियल फिल्मों की बात नहीं कर रहे हैं। इन सभी श्रेणियों की अधिकांश फिल्में विचारधारा की अचेत उपकरण होती हैं और उसे पुनरुत्पादित करती हैं।

पिछले अंक में हमने कलात्मक रचना और आम तौर पर कला की भूमिका को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया था कि कला का प्रकार्य केवल यथार्थ का चित्रण करना नहीं होता; इसका कार्य यथार्थ से अनुपस्थित मूल्यों की आपूर्ति करना भी होता है। इस अभाव (lack) को सम्बोधित करते हुए कला कलाकार की सामाजिक-आर्थिक अवस्थिति और उसके द्वारा चुनी गयी राजनीतिक अवस्थिति के अनुसार एक प्रगतिशील भूमिका भी अदा कर सकती है और एक प्रतिक्रियावादी भूमिका भी अदा कर सकती है। यथार्थ में मौजूद अभाव या अनुपस्थिति को बुर्जुआ कला अपनी वर्ग विचारधारा के अनुसार भरती है और सर्वहारा कला अपने विश्व दृष्टिकोण के ज़रिये भरती है। (कला के प्रकार्यों के विषय में हमारी मूल प्रस्थापना के लिए देखें, नान्दीपाठ, जुलाई-सितम्बर 2013, पृ- 19-20) इसी रूप में कला हर-हमेशा एक राजनीतिक व विचारधारात्मक वस्तु होती है। ‘सारा सिनेमा राजनीतिक है।’

सुपरहीरो फिल्मों को भी हम इस बुनियादी प्रस्थापना की रोशनी में ही विश्लेषित करेंगे और यह देखने का प्रयास करेंगे कि मौजूदा सुपरहीरो फिल्में कौन-से अनुपस्थित मूल्यों की आपूर्ति कर रही हैं और किस राजनीतिक और विचारधारात्मक अवस्थिति से कर रही हैं। लेकिन उससे पहले ‘अतिमानव’ की पूरी अवधारणा पर संक्षिप्त चर्चा हमारे लिए लाभदायक होगी।

सुपरमैन की अवधारणा और नीत्शे का उबेरमेंश

सभी सुपरहीरो अतिमानव होते हैं। कई बार फ्रेडरिख़ नीत्शे के सुपरमैन (उबेरमेंश, ubermensch) और कॉमिक्स की दुनिया के सुपरमैन (अतिमानवों) के बीच रिश्ता बिठाया जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन अगर करीबी से देखा जाय तो इन दोनों के बीच गहरा रिश्ता है। नीत्शे का उबेरमेंश (अतिमानव) तकलीफ़ों के ज़रिये पैदा होता है। बल्कि आप कह सकते हैं कि नीत्शे एक प्रकार से ‘तकलीफ़ों के कल्ट’ का निर्माण करते हैं। उनके अनुसार हर महान व्यक्ति इन तक़लीफ़ों के ज़रिये शिक्षित होकर महान ऊँचाइयों तक पहुँचता है। नीत्शे के अतिमानव के पूरे दर्शन के पीछे जो पूरी सोच है वह कुछ लोगों के विशेषाधिकार को स्वीकार्य मानने पर आधारित है। ये लोग उत्पादक श्रम में हिस्सेदारी नहीं करते हैं और यहाँ तक कि उन्हें प्रभुत्व स्थापित करने के “श्रम” से भी पूर्ण मुक्ति मिली हुई होती है। वे मुक्त रूप से जीवन की सभी अच्छी चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं। नीत्शे ज़रथुस्त्र के साधारण लोगों और योद्धाओं, विधि-निर्माताओं और राजाओं के बीच के अन्तर की बात करते हैं और कहते हैं कि उबेरमेंश इन दोनों से भी ऊपर होता है, क्योंकि उसे शासन करने के भोंडे कार्य से भी मुक्ति मिली होती है। उबेरमेंश केवल मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे पूरी सभ्यता को प्रेरित करते हैं। धरती पर वे वही भूमिका अदा करते हैं जो कि ईश्वर निभाता है। उबेरमेंश किसी भी नियम, बाध्यता, या नैतिक बन्धन से नहीं बँधा होता है। वह रोमांच और खुशी से भरी ज़िन्दगी बिताता है। उसका एकमात्र कार्य होता है अपने आपको उत्कृष्ट से उत्कृष्ट बनाते जाना और नीत्शे के अनुसार यह तभी सम्भव है जब वह अपने आपको दया-भाव से पूर्ण रूप से मुक्त कर ले। यही वह चीज़ है जोकि उसे उबेरमेंश की स्थिति से नीचे गिरा सकती है। नीत्शे दया की भावना से यह नफ़रत और मानवतावाद-विरोध जरथुस्त्र से सीखते हैं। उनके अनुसार, दया की यह भावना एक मानवतावादी मूल्य है जिसका उबेरमेंश के जीवन में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

नीत्शे का मानना है कि यह उबेरमेंश सभी नैतिक मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करेगा। नीत्शे के अनुसार, पश्चिमी बुर्जुआ समाज की नैतिकता और आचार-संहिताओं की कोई प्रासंगिकता नहीं है और इसके ‘रैडिकल’ पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। लेकिन अगर हम इस ‘पुनर्मूल्यांकन’ की जड़ में जायें तो उसमें कुछ भी रैडिकल नहीं है। यह बुर्जुआ प्रबोधन और तर्कणा में जो भी सकारात्मक था, जो भी मानवीय था, जो भी वैज्ञानिक था उसकी आलोचना करता है, लेकिन बुर्जुआ वर्ग की पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और उसमें निहित शोषण की आलोचना नहीं करता। बल्कि नीत्शे का उबेरमेंश का सिद्धान्त बिना किसी अपराध-बोध के नंगे दमन और उत्पीड़न के साथ शोषण करने, हर प्रकार के नैतिक बन्धन को समाप्त कर देने की हिमायत करता है। नीत्शे की ‘रैडिकल’ आलोचना वास्तव में आधुनिकता और प्रबोधन के हरेक सकारात्मक मूल्य की आलोचना है। यह आलोचना अन्त में हर चीज़ को ‘शक्ति की इच्छा’ पर ले आती है। यही वह चीज़ है जो कि उबेरमेंश की नैतिकता को साधारण लोगों और दासों से अलग करती है। यह नैतिकता और कुछ नहीं बल्कि शासक वर्ग की नैतिकता का वह रूप है जिसे उबेरमेंश ने पूर्णता (perfection) तक पहुँचा दिया है। उबेरमेंश का दर्शन शक्ति की उस इच्छा का प्रतिबिम्बन है जो किसी भी प्रकार की नैतिकता, मानवीय मूल्य या तार्किकता के बन्धन को नहीं मानता।

नीत्शे के इस दर्शन को जिस वर्ग के बीच आधार मिला वह टुटपुँजिया वर्ग के बुद्धिजीवी थे। नीत्शे के दर्शन में कानून मानने वाले, नैतिकता और आचार-संहिताओं को मानने वाले साधारण बुर्जुआ नागरिक के प्रति भारी अवमानना का भाव है और उनका बुर्जुआ उबेरमेंश अपने किसी भी कार्य के प्रति पूर्ण रूप से बेशर्म है, किसी भी कार्य के लिए कभी भी क्षमा याचना नहीं करता, अपराध-बोध से मुक्त है। इस कल्पना ने और साथ ही नीत्शे के पूरे दर्शन ने वर्जना और कुण्ठा के शिकार टुटपुँजिया वर्गों के मस्तिष्कों को और समाज में अधर में पड़े उनके जीवन को एक ज़बर्दस्त प्रतिक्रियावादी फन्तासी दी। यही कारण था कि इस वर्ग को नीत्शे के रूप में अपना देवदूत और ऋषि मिल गया। नीत्शे का मानना है कि मानवता उबेरमेंश के स्तर तक तब पहुँचेगी जब कि वह जनवाद और ईसाई धर्म से पूर्ण रूप से मुक्ति पा लेगी। नीत्शे का मानना था कि जनवाद ‘समानता’ के नाम पर जानवरों के झुण्ड को जन्म देता है। मज़ेदार बात यह है कि नीत्शे का स्वयं मानना था कि उबेरमेंश के उसके सिद्धान्त को जनसाधारण के बीच लोकप्रिय बनाने का ज़्यादा प्रयास नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि इससे दासों की नस्ल उन तमाम भारी, उबाऊ उत्पादक कार्यों को करने से इंकार कर देगी, जिन्हें करने के लिए वह बनी है।

नीत्शे के बारे में बाद के दौर में कई नववामपंथी चिन्तकों, उत्तरआधुनिकतावादी चिन्तकों ने नये प्रकार के कुछ पुनर्मूल्यांकन पेश किये जिनके अनुसार नीत्शे का दर्शन प्रतिक्रियावादी नहीं था, बल्कि वह तो केवल पूँजीवादी नैतिकता और प्रबोधन तर्कणा के दमनकारी मूल्यों की आलोचना कर रहा था। इस खोखली आलोचना पर हम आगे आयेंगे, लेकिन अभी इतना समझा जा सकता है कि नीत्शे का उबेरमेंश बुर्जुआ मानवतावाद, नैतिकता, जनवाद आदि की भावनाओं की आलोचना करते हुए कभी भी बुर्जुआ लूट और शोषण के फलों का मज़ा लेने में कुछ भी ग़लत नहीं देखता। उल्टे वह इस लूट और शोषण के फलों का बिना किसी अपराध-बोध के और खुलकर मज़ा लेने का हिमायती है! वह बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों से बैर नहीं रखता। वह उन बुर्जुआ आदर्शों और मूल्यों की आलोचना करता है जो प्रगतिशील जनवादी बुर्जुआ दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित आदर्श और मूल्य थे, मगर जो बुर्जुआ वर्ग के वास्तविक शासन के साथ बेमेल थे। नीत्शे इस अन्तरविरोध को मिटाते हैं और बुर्जुआ दमन और शोषण को निर्बन्ध और नंगे, बेशर्म रूप में अंजाम देने का दर्शन रचते हैं। बुर्जुआ लूट और शोषण से बचने का अधिकार केवल इस ‘शक्ति की इच्छा’ पर निर्धारित है। जिनके पास ये ‘शक्ति की इच्छा’ है, उन्हें श्रम, लूट और शोषण के जुए से पूर्ण मुक्ति है। नीत्शे केवल उन बुर्जुआ मूल्यों की आलोचना करते हैं जो कि दासों की नस्ल के प्रति रवैये को विनियमित करते हैं, नियंत्रित करते हैं। इसीलिए नीत्शे का नारा है, “कुछ भी सत्य नहीं, हर चीज़ की इजाज़त है!”

1960 के दशक के बाद से नीत्शे की बौद्धिक अपील में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है। इसका एक प्रमुख कारण था आधुनिकता और प्रबोधन को पश्चिमी दमनकारी परियोजना का अंग मानने वाले तमाम उत्तरआधुनिक, उत्तरसंरचनावादी विचारकों द्वारा नीत्शे के विचारों का एक अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन। ऐसा करने वालों में मिशेल फूको, गाइल्स देल्यूज़ से लेकर रिचर्ड रॉर्टी जैसे उत्तरआधुनिकतावादी व्यवहारवादी तक शामिल थे। इन लोगों ने अलग-अलग तरह से नीत्शे का बौद्धिक पुनर्वास करने का प्रयास किया है। इनका मानना है कि नीत्शे को ग़लत कारणों से एक प्रतिक्रियावादी दार्शनिक के तौर पर खड़ा किया गया जबकि वह केवल बुर्जुआ आधुनिकता, प्रबोधन और नैतिकता की आलोचना कर रहे थे। जैसा कि हम देख चुके हैं कि नीत्शे की आलोचना बुर्जुआ वर्ग के शासन को प्रबोधन की तर्कणा और पुनर्जागरण के मानवतावाद से मुक्त करने के लिए है; वह समूचे बुर्जुआ समाज, व्यवस्था और दर्शन की आलोचना नहीं है, बल्कि पूँजीवाद के संकटग्रस्त और मरणासन्न दौर में पैदा हुई पतनशील पूँजीवादी प्रतिक्रिया है। डॉमिनिक लोसूर्दो नामक विद्वान ने नीत्शे के दर्शन और उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ पर सराहनीय काम करते हुए दिखलाया है कि नीत्शे का पूरा चिन्तन उनके दौर के आम जनता के जुझारू आन्दोलनों, मज़दूर आन्दोलनों और क्रान्तिकारी आन्दोलनों के विरुद्ध और समानता और जनवाद के समाजीकरण के विचार के विरुद्ध विकसित होता है। लोसूर्दो के अनुसार, 1789 में फ्रांसीसी क्रान्ति से जो प्रक्रिया शुरू हुई और 1848 की क्रान्ति से होती हुई 1871 के पेरिस कम्यून तक पहुँची, नीत्शे का पूरा दर्शन उसी प्रक्रिया के प्रति एक गहरी शत्रुता की भावना से विकसित होता है। 1872 में नीत्शे ने एक पुस्तक लिखी ‘दि बर्थ ऑफ ए ट्रैजेडी’। इस रचना को लोसूर्दो ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखते हुए बताते हैं कि यह पश्चिमी जनवादी और समानतामूलक राजनीतिक व दार्शनिक परम्पराओं के विरुद्ध नीत्शे का पहला बौद्धिक हमला था। इस रचना में वह दासों के बर्बर विद्रोह के ख़तरे का जिक्र करते हैं और जर्मन राज्य की ओर वापसी और साथ ही प्राचीन यूनानी गौरव के दिनों की ओर वापसी का आह्नान करते हैं। अपने आधुनिकता-विरोधी दर्शन को नीत्शे इस पुस्तक में यहूदी-विरोध, ईसाई धर्म की आलोचना और अमेरिकी उदारवादी विचारों के प्रति शत्रुता के चोगे में पेश कर रहे थे।

इस रचना के बाद नीत्शे ने नंगे यहूदी-विरोध से किनारा कर लिया। इसके बाद लोसूर्दो के अनुसार उनकी दार्शनिक यात्रा  तीन चरणों से होकर गुज़री। पहला चरण था वैग्नर का अनुयायी बनने का चरण। दूसरे चरण में नीत्शे फ्रांसीसी नैतिकतावादियों की शरण में गये और आख़िरी चरण में वे घोर नैतिकता-विरोध और ज़रथुस्त्र के मसीहाई प्रतिक्रियावाद तक पहुँचे। लेकिन हरेक चरण में नीत्शे के विचारों को प्रेरित करने वाली जो चीज़ थी वह थी आम मेहनतकश जनता के जुझारू आन्दोलन और सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष के प्रति गहरी घृणा की भावना। उनके जीवन के दौर में हो रहे मज़दूर आन्दोलन और क्रान्ति का मँडराता ख़तरा नीत्शे के पैथोलॉजिकल सदमे (trauma) का मूल कारण था। मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए वह बुर्जुआ वर्ग के मानवतावाद, जनवाद, प्रबोधन, तर्कणा व आधुनिकता आदि को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उनके अनुसार, यह वायरस 1789 में, प्रबोधन के दौरान, धार्मिक सुधार आन्दोलन या पुनर्जागरण के समय नहीं लगा था, बल्कि यह वायरस प्राचीन काल में ही पश्चिमी सभ्यता को यहूदी धर्म से लगा था। यह वह मूल पाप है जो कि पश्चिमी सभ्यता से तभी से चिपका हुआ है। आर्य प्रोमेथियस के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में हीन यहूदी खड़ा है। इस स्थिति को दुरुस्त करने के लिए या तो नये जर्मन साम्राज्य की स्थापना करनी होगी, या फ्रांसीसी नैतिकतावादियों या ज़ारवादी रूस से उम्मीद करनी होगी। ग़ौर करें कि ये सभी उस समय के यूरोप में प्रतिक्रियावादी शक्तियों के प्रतीक थे।

नीत्शे का अनैतिकता के पक्ष में आह्वान, अच्छे और बुरे के फर्क को समाप्त करने की वकालत, और ‘शक्ति की इच्छा’ को एकमात्र नैतिकता बताना वास्तव में उसका ईसाई धर्म (जिसके कुछ प्रगतिशील तत्वों की शुरुआती समाजवादी विचारों के जन्म में एक भूमिका थी), समाजवादी विचारधारा और हेगेल के दर्शन के इतिहास से एक प्रकार का छाया-युद्ध था। जब नीत्शे कहते हैं कि बर्बरों के ऊपर हेरेनवोक (श्रेष्ठ नस्ल) का शासन होना नैसर्गिक है तो दरअसल वे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का समर्थन कर रहे होते हैं। और जब नीत्शे एक नयी ज़्यादा उन्नत सभ्यता के लिए एक नयी दास व्यवस्था की वकालत करते हैं, तो उनका निशाना अमेरिकी गृहयुद्ध और दास प्रथा उन्मूलन था। नीत्शे के दर्शन को अगर संक्षेप में रखा जाय तो यह पतनशील वृद्ध हो रहे पूँजीवाद का प्रतिक्रियावादी यथार्थवाद है। यह पूँजीवादी यथार्थवाद पूँजीवाद के आदर्श (ideal) और वास्तविक (real) के अन्तर को अनावृत्त कर देता है। यह दिखलाता है कि पूँजीवादी शोषण की व्यवस्था का प्रबोधनकालीन तर्कणा, पुनर्जागरणकालीन मानवतावाद और जनवाद, समानता आदि के मूल्यों से बुनियादी तौर पर मेल नहीं है। नीत्शे बुर्जुआ वर्ग को बिना किसी अपराधबोध और नैतिकता के पूर्ण रूप से अनैतिक, दयाहीन, अमानवीय बन जाने का ‘नैतिक बल’ देता है। नीत्शे का अतिमानव एक सच्चा बुर्जुआ सार्वभौम (sovereign) है जो कि पूर्ण रूप से यथार्थवादी है। वह जानता है कि पूँजीवादी लूट और शोषण की व्यवस्था के साथ सार्वभौमता की जिस अवधारणा की ज़रूरत है, वह वास्तव में उबेरमेंश की अवधारणा ही हो सकती है, जोकि शुद्ध रूप से ‘शक्ति की इच्छा’ पर आधारित हो और नैतिकता, मानवतावाद आदि के बन्धनों से पूर्ण रूप से मुक्त हो। यह अनायास नहीं है कि नीत्शे का दर्शन एक ओर हिटलर, नात्सी पार्टी और फासीवादियों के लिए प्रेरणा स्रोत बना और वही अमेरिकी सामाजिक डार्विनवादी आयन रैंड के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। और यह भी अनायास नहीं है कि नीत्शे उत्तरआधुनिकतावादियों और नव-व्यवहारवादियों (जैसे कि रॉर्टी) के लिए भी प्रेरणा स्रोत बना। यहाँ बता दें कि रिचर्ड रॉर्टी ने लिखा है कि जॉन ड्यूई जैसे व्यवहारवादियों और उत्तरआधुनिकतावादियों में काफ़ी कुछ समानताएँ हैं। सम्भवतः उनका इशारा कारणात्मकता के निषेध की ओर है, जो कि ड्यूई और उत्तरआधुनिकतावादियों को एक मंच पर ला देता है। अगर ऐसा ही है तो मानना होगा कि इस कारणात्मकता के निषेध का मूल कहीं न कहीं नीत्शे में है।

नीत्शे का पूँजीवादी उबेरमेंश, कार्ल श्मिट का पूँजीवादी सार्वभौम और पूँजीवादी सुपरहीरो

नीत्शे के दर्शन से प्रभावित एक अन्य दार्शनिक कार्ल श्मिट की सार्वभौमिकता की धारणा एक प्रकार से नीत्शे के प्रतिक्रियावादी दर्शन को विस्तार देती है। ग़ौरतलब है कि कार्ल श्मिट स्वयं नात्सी पार्टी का सक्रिय सदस्य रह चुका था। वह नात्सियों द्वारा किताबों को जलाने और यहूदी-विरोध में शामिल रहा था और नात्सियों द्वारा उसे बर्लिन विश्वविद्यालय में शिक्षक का पद सौंपा गया था। श्मिट ने सार्वभौमता की अपनी अवधारणा रची ही इसलिए थी कि फ्यूहरर के कल्ट और नात्सियों के शासन के लिए एक वैधता प्रदान करने वाला सिद्धान्त रचा जा सके। श्मिट के अनुसार सार्वभौम सही मायनों में वह होता है जो अपवादस्वरूप स्थिति का निर्णय लेता है। सार्वभौम जो निर्णय लेता है वह तर्क, सहीपन/ग़लतपन और परम्परा से स्वायत्त होता है। वह निर्णय सिर्फ़ इसलिए सही होता है क्योंकि उसे लिया गया होता है। इस रूप में सार्वभौम वह होता है जिसका निर्णय निरपेक्ष और स्वायत्त होता है और इसे तर्कों, नियमों या कानूनों से वैधता प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। ग़ौरतलब है कि एक प्रमुख नात्सी नेता ने एक बार कहा था, “हमारा आन्दोलन तर्कों के बल पर नहीं खड़ा हुआ है और इसलिए इसे तर्कों के बल पर नहीं हराया जा सकता है।” बहरहाल, श्मिट के लिए सार्वभौम वास्तव में वह होता है जो कि यह तय करता है कि कब राज्यसत्ता के सामान्य प्रचालन को रद्द कर एक अपवादस्वरूप या आपात स्थिति की घोषणा कर दी जाय। वह काननूसम्मत राज्य व्यवस्था के भीतर भी होता है लेकिन उससे बाहर भी हो सकता है, ठीक इसीलिए कि इस कानूनसम्मत राज्य व्यवस्था के प्रचालन को बचाया जा सके। सार्वभौम के लिए नैतिकता के बन्धनों से मुक्त होना अनिवार्य होता है क्योंकि इसके बिना वह मुक्त रूप से अपवादस्वरूप स्थिति पर निर्णय नहीं ले सकता है। यानी, सही मायने में एक बुर्जुआ तानाशाही, या कहें कि बुर्जुआ शासन का अन्तिम यथार्थ वही है जिसे श्मिट सार्वभौम बोलते हैं। यह अनायास नहीं है कि कार्ल श्मिट और नीत्शे जैसे प्रतिक्रियावादी, मानवतावाद-विरोधी, जनवाद-विरोधी दार्शनिक तमाम प्रतिक्रियावादी आन्दोलनों के प्रेरणास्रोत रहे हैं। और यह भी कोई इत्तेफ़ाक नहीं है कि मौजूदा दौर की सुपरहीरो फिल्मों पर भी श्मिट और नीत्शे जैसे प्रतिक्रियावादी दार्शनिकों के चिन्तन का गहरा असर है।

अमेरिकी कॉमिक्स जगत में सुपरहीरो का अवतरण: महामन्दी की एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति

सुपरहीरो फिल्मों या कॉमिक्स की जो शैली है उसका आम तौर पर एक तत्व यह माना गया है कि सुपरहीरो चरित्र चाहे यथास्थितिवादी हों या फिर अराजकतावादी, वे आम तौर पर जनता की पहलकदमी या उनके द्वारा हाथ में ली जा सकने वाली गतिविधि के एक स्थानापन्न के तौर पर प्रकट होते हैं। ख़राब हालात को बदलने की इच्छा की एक फैण्टास्टिक पूर्ति की जाती है जिसमें एक अतिमानव तमाम समस्याओं का समाधान कर देता है। चाहे हम 1930 के दशक में सुपरहीरो कॉमिक्स की शुरुआत के दौर को लें, शीत युद्ध के दौर पर विचार करें या फिर हम 1970 के दशक से ढाँचागत संकट के शिकार नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर की बात करें, हर-हमेशा सुपरहीरो यथार्थ में उपस्थित गम्भीर आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का एक काल्पनिक समाधान उपस्थित करते हैं। इन गल्पकथाओं में आम तौर पर जन समुदाय अनुपस्थित होते हैं, या फिर प्रकट होते हैं तो भी डरे हुए, खुश, दुखी या प्रसन्न मगर निष्क्रिय तमाशबीन के तौर पर। उनकी सामूहिक पहलकदमी और सक्रियता का स्थान एक अतिमानव की शक्ति और सक्रियता ले लेती है।

ये अतिमानव, कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो कुलीन और धनी पृष्ठभूमि से आते हैं। कारण समझा जा सकता है। केवल ऐसे धनकुबेर ही जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के सिरदर्द के बिना जनता की सुरक्षा, गुण्डों की पिटाई, रात में लबादा लपेटकर घूमने जैसे कामों को अंजाम दे सकते हैं, जैसे कि बैटमैन उर्फ़ ब्रूस वेन, आयरनमैन उर्फ टोनी स्टार्क, आदि। याद करें, नीत्शे का उबेरमेंश उत्पादन करने और यहाँ तक कि शासन करने के श्रम से पूर्ण रूप से मुक्त होता है। हालाँकि इसके कुछ अपवाद भी हैं, जैसे कि स्पाइडरमैन जो कि एक मध्यवर्गीय युवा है, मगर अपवाद नियम को ही पुष्ट करते हैं। सुपरमैन की बात ही अलग है क्योंकि उसे खाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, लेकिन एक दूसरे रूप में यह भी उबेरमेंश होने की शर्त को ही पूरा करता है! किसी मेहनतकश को सुपरहीरो के तौर पर स्थापित कर पाना थोड़ा मुश्किल काम है। ऐसा करने का प्रयास एक दौर में हुआ था, लेकिन वे सुपरहीरो ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह पाये! प्रत्यक्षतः, ऐसे ही अतिमानव (सुपरमैन) जीवित रह सकते हैं, जिनके सामने खाने-पीने, जीने आदि की भौतिक समस्याएँ मौजूद न हों। तभी तो वे अपना सारा समय 1930 से 1970 तक के दशक के दौर में आम तौर पर ग़रीब और कमज़ोर तबकों की रक्षा में लगाते थे और 1970 के दशक की शुरुआत से ही अपना ज़्यादा समय वे अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों की सेवा में लगाने लगे!

सुपरहीरो मूलतःअमेरिकी कॉमिक्स साहित्य में अस्तित्व में आये। उससे पहले बेहद चालाक और ताक़तवर नायकों का चलन अमेरिकी पल्प साहित्य में मौजूद था। यूरोप में भी ऐसे चरित्र पल्प साहित्य और कई बार तुलनात्मक रूप से उच्चतर स्तर के साहित्य में भी मौजूद थे। मगर उनका चित्रण उतने नग्न व्यक्तिवादी किस्म का नहीं था जितना कि अमेरिकी कॉमिक्स व पल्प साहित्य में। इसका कारण अमेरिकी समाज के एक पूँजीवादी समाज के तौर पर ही अस्तित्व में आने में और शुरू से ही एक प्रगतिशील व्यक्तिवाद और व्यवहारवाद के अमेरिकी सामाजिक जीवन की वर्चस्वकारी विचारधारा के रूप में स्थापित हो जाने के रूप में देखा जा सकता है। स्पष्ट है कि यह प्रगतिशील व्यक्तिवाद 1870 के दशक के बाद से, अमेरिकी पूँजीवाद के इज़ारेदारी के दौर में प्रवेश की शुरुआत के बाद से, उतना प्रगतिशील नहीं रह पाया और कालान्तर में यह रुग्ण किस्म के सामाजिक डार्विनवाद में तब्दील हो गया। बहरहाल, 1930 के दशक की शुरुआत में पहले सुपरहीरो चरित्रों का निर्माण हुआ। इनका भी एक इतिहास है और हर सांस्कृतिक उत्पाद की तरह इन चरित्रों पर भी इनके सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ की स्पष्ट छाप रही है।

जेरी सीगल और जो शुस्टर नाम के दो युवाओं ने अमेरिका में 1932 में सुपरमैन का चरित्र रचा। उन्होंने सुपरमैन की कॉमिक स्ट्रिप तैयार करके कई अख़बारों में भेजी लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया। 1938 में कॉमिक बुक का उदय हुआ। इसका एक कारण यह था कि न्यूयॉर्क में मुद्रकों के पास अतिरिक्त बेकार कागज़ बच जाता था और इसके इस्तेमाल के लिए कॉमिक्स निकालने की शुरुआत हुई। 1938 में इन दोनों युवाओं ने सुपरमैन के चरित्र के उपयोग के अधिकार नेशनल कॉमिक्स को बेच दिये, जो कि आगे चलकर डीसी कॉमिक्स बना। 1939 तक सुपरमैन कॉमिक्स की 9 लाख प्रतियाँ बिक चुकी थीं। बच्चों और यहाँ तक कि युवाओं के बीच यह काफ़ी लोकप्रिय हो रही थी। अभी सुपरमैन के पास ईश्वर जैसी शक्तियाँ नहीं थीं। सुपरमैन के दुश्मन ज़्यादातर अमीर वर्ग के विलेन थे। सुपरमैन ग़रीबों का रक्षक था और उनके लिए लड़ता था। उस दौर में सुपरमैन का ऐसा रूप और रवैया होने के कारण उस दौर की स्थितियों में निहित हैं। अमेरिका अभी पूरी तरह से महामन्दी से उबरा नहीं था। बेरोज़गारी और ग़रीबी की हालत अभी भी गम्भीर थी। रूज़वेल्ट के ‘न्यू डील’ का अमेरिका साक्षी बन चुका था। कीन्सीय कल्याणवाद अमेरिकी पूँजीवादी राज्यसत्ता की प्रभुत्वशील विचारधारा बन चुका था। इसका एक कारण यह भी था कि सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के साथ ग़रीबी, बेरोज़गारी और वेश्यावृत्ति के उन्मूलन के साथ समाजवाद के प्रभाव को रोकने के लिए कीन्सीय कल्याणवाद को अपनाना अमेरिकी पूँजीवाद के लिए ज़रूरी हो गया था। प्रगतिशील राजनीति और मज़दूर आन्दोलन अमेरिका में इस समय ताक़तवर था और युवा तबका आम तौर पर इसकी ओर आकृष्ट था। सुपरमैन के धनिक-विरोध को उस दौर में कई लोगों ने वामपंथी सहानुभूति मानकर भला-बुरा भी कहा था, हालाँकि सुपरमैन की फन्तासी में कुछ भी वामपंथी नहीं था। जो था उसे ज़्यादा से ज़्यादा वही टुटपुँजिया लोकरंजकता कहा जा सकता था, जिसका रुझान 1890 के दशक से ही अमेरिकी समाज में पॉप्युलिस्ट पार्टी की प्रवृत्ति के तौर पर मौजूद था। यह इज़ारेदार पूँजीवाद में संक्रमण के दौर में असुरक्षित होते और सर्वहाराकरण का ख़तरा झेलते टुटपुँजिया वर्गों का आन्दोलन था और इसी आन्दोलन ने जॉन ड्यूई-मार्का व्यवहारवाद को भी जन्म दिया था। यह पूरी सामाजिक तस्वीर सुपरमैन की कल्पना में भी प्रतिबिम्बित हो रही थी।

बैटमैन का चरित्र भी 1938 में ही प्रकट हुआ। जैसा कि हम इंगित कर चुके हैं, यह महामन्दी का दौर था। सामाजिक मनोविज्ञान में पलायनवादी सुपरहीरो गल्पकथाओं के स्वीकृत होने का मज़बूत आधार मौजूद था और लोग इस प्रकार की फन्तासी की माँग कर रहे थे। और यह माँग पूरी भी की गयी,  ऐसा महानायक जो कि बिना किसी देरी के, द्रुत प्रक्रिया के साथ हिंस्र न्याय को अंजाम देता है। 1930 के दशक के अन्त से इस प्रकार के कॉमिक चरित्रों के अस्तित्व में आने की प्रक्रिया शुरू हुई और एक के बाद एक दर्जनों सुपरहीरो चरित्र आये, हालाँकि उसमें से कुछ ही सफल हो सके। इसमें विशेष तौर पर सुपरमैन, बैटमैन और 1942 में अस्तित्व में आये चरित्र वण्डरवुमन को गिना जा सकता है।

वण्डरवुमन की रचना करने वाले विलियम एम- मॉर्सटन काफ़ी शिक्षित व्यक्ति थे और उन्होंने झूठ पकड़ने वाली मशीन का आविष्कार भी किया था। उन पर एक विशेष प्रकार के नारीवाद का असर था। उनका मानना था कि मानव जाति का भविष्य काफ़ी हद तक सशक्त स्त्रियों पर निर्भर करता है। वे ही मानव जाति को युद्ध, हिंसा और विनाश से बचा सकती हैं और इसके लिए उदार प्राधिकारसम्पन्न स्त्री के समक्ष समर्पण ही एकमात्र रास्ता है। इस रास्ते में भविष्य के लिए कुछ अच्छी उम्मीद की जा सकती है।

ये तीनों प्रमुख सुपरहीरो चरित्र आगे भी चलन में बने रहे। पहले कॉमिक्स में और फिर फिल्मों में भी ये चरित्र सामने आये। इसके बाद ग्रीन लैण्टर्न, फ़्लैश आदि जैसे कई चरित्र डीसी कॉमिक्स द्वारा बाज़ार में उतारे गये। इसी बीच 1939 में मार्वल कॉमिक्स के रूप में डीसी कॉमिक्स का एक प्रतिद्वन्द्वी भी बाज़ार में उतरा। 1940 में जैक किर्बी व जो साइमन द्वारा रचे गये चरित्र कैप्टन अमेरिका को मार्वल कॉमिक्स ने लांच किया। कैप्टन अमेरिका बाद में अमेरिका का सबसे लोकप्रिय युद्धकालीन चरित्र बना। इसे रचने वाले दोनों कलाकार ग़रीब यहूदी परिवारों से आते थे और उनके बीच नात्सियों के ख़िलाफ़ गहरी नफ़रत थी। इन्होंने अपने चरित्र कैप्टन अमेरिका को अमेरिकी जनवाद और स्वतन्त्रता के मसीहा के तौर पर दिखलाया और एक कॉमिक्स में कैप्टन अमेरिका को हिटलर की पिटाई करते हुए दिखलाया गया। इस कॉमिक्स को स्पष्टतः नात्सी-विरोधी कॉमिक्स की श्रेणी में रखा जा सकता था। इसका एक प्रमाण यह भी है कि अमेरिकी नात्सियों और दक्षिणपंथियों ने इस कॉमिक्स के प्रकाशन के बाद ढेर सारे हेट मेल मार्वल कॉमिक्स को भेजे! ग़ौरतलब बात है कि कैप्टन अमेरिका की कॉमिक्स में नात्सियों के ख़िलाफ़ संघर्ष की बात तब की जा रही थी जब कि अमेरिका अभी युद्ध में सक्रिय भागीदारी करने नहीं उतरा था और युद्ध से दूरी बनाकर इन्तज़ार करने की नीति अमेरिकी साम्राज्यवाद की प्रमुख नीति बनी हुई थी। चूँकि सोवियत रूस नात्सी जर्मनी को वास्तविकता में हरा रहा था और अमेरिकी वास्तव में नात्सीवाद के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्होंने कॉमिक्स में ही हिटलर की पिटाई कर दी!

युद्ध में अमेरिका के शामिल होने के बाद कॉमिक्स जगत को एक नयी बिकाऊ विषयवस्तु मिल गयी। इस दौर में कई नये सुपरहीरो आये। ये सुपरहीरो पहले के सुपरहीरोज़ से अलग थे। जो सुपरहीरो पहले से अस्तित्वमान थे उनके चरित्र में भी परिवर्तन आया। अब सुपरहीरो समाज में मौजूद अन्याय और गै़र-बराबरी से लड़ने वाले या फिर ग़रीबों के रखवाले की भूमिका निभाने वाले सुपरहीरो नहीं थे। ये नये सुपरहीरो अमेरिकी सरकार के सिपाही के समान थे। इस दौर में इन कॉमिक्स में धुरी शक्तियों (जर्मनी, इटली व जापान) के ख़िलाफ़ ज़बर्दस्त राष्ट्रवादी प्रोपगैण्डा होता था। जब द्वितीय विश्वयुद्ध ख़त्म हुआ तो तात्कालिक तौर पर कॉमिक्स जगत में एक निर्वात जैसा पैदा हो गया। इस निर्वात को कॉमिक्स जगत में एक भोंड़े किस्म के हास्य ने भरा। सुपरमैन, बैटमैन व वण्डरवुमन के कॉमिक्स में भोंड़े हास्य और व्यंग्य की भरमार हो गयी। कई बार इस हास्य और व्यंग्य का निशाना स्वयं ये सुपरहीरोज़ होते थे। इसी दौर में, अमेरिका में कुछ अध्ययन हुए (जिसमें से कुछ फ़र्जी थे, जैसे कि फ्रैंकफर्ट स्कूल से प्रभावित एक बुद्धिजीवी फ्रेडरिक वर्थैम का अध्ययन) जिसमें अमेरिकी समाज पर सुपरहीरो कॉमिक्स के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया। इसमें इस बात का भय जताया गया कि ये कॉमिक्स वास्तव में अमेरिकी समाज पर पतनशील प्रभाव छोड़ रहे हैं। इन कॉमिक्स पर समलैंगिक इरॉटिसिज़्म (जैसे कि बैटमैन और रॉबिन के सम्बन्धों में मौजूद संकेत), हिंसा और अपराध को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया। इसके साथ ही कॉमिक्स को लेकर सामाजिक, यौनिक व मनोवैज्ञानिक पतन का एक भय पैदा हुआ। नतीजतन कॉमिक्स निर्माताओं ने एक ‘कॉमिक कोड अथॉरिटी’ का निर्माण किया। इसके साथ हिंसा, अपराध आदि के चित्रण पर तमाम किस्म के विनियमन लागू कर दिये गये। इन विनियमनों ने और साथ ही 1950 के दशक का अन्त आते-आते शीत युद्ध के रफ़्तार पकड़ने के साथ सुपरहीरोज़ की दुनिया में भी परिवर्तन आये।

1961 में जैक किर्बी और स्टैन ली ने मिलकर मार्वल कॉमिक्स (जो अब तक टाइमली कॉमिक्स के नाम से जाना जाता था) के लिए ‘दि फैण्टास्टिक फोर’ के सुपरहीरोज़ का निर्माण किया। ये सुपरहीरो आदर्श आद्यरूप जैसे नहीं थे, जैसे कि सुपरमैन। इनमें तमाम कमियाँ थीं। ये आपस में लड़ते थे। एक अंक में तो ये सुपरहीरो ही दिवालिया हो गये थे। इस तरह से अब नंगी हिंसा और रक्तपात की कमी को पूरा करने और कॉमिक्स को दुबारा “दिलचस्प” बनाने के लिए कुछ आपसी अन्तरविरोध और यथार्थवाद का तत्व डाला गया। ‘दि फैण्टास्टिक फोर’ के साथ मार्वल कॉमिक्स का स्वर्ण युग शुरू हुआ। मार्वल ने हल्क, थोर, स्पाइडरमैन, आयरनमैन, अवेंजर्स, एक्स-मेन, सार्जेंट फ्यूरी व ब्लैक विडो जैसे कई सुपरहीरो चरित्रों की शुरुआत की और ये सभी ख़ासे कामयाब भी रहे। यह प्रक्रिया 1964 में डेयरडेविल नामक चरित्र के आने के साथ मुकाम पर पहुँची। आप कह सकते हैं कि ये सारे सुपरहीरो शीत युद्ध, कम्युनिज़्म-विरोध, क्यूबा-विरोध, चीन व उत्तरी कोरिया के विरोध की पैदावार थे। इसकी एक निशानी यह है कि इनमें से ज़्यादातर सुपरहीरोज़ की महाशक्तियाँ परमाणु विकिरण से पैदा हुई थीं। जैसा कि हम जानते हैं कि परमाणु शस्त्रों की होड़ शीत-युद्ध के दौर में अमेरिकी साम्राज्यवाद और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के बीच प्रतिस्पर्द्धा की एक अहम ख़ासियत थी। अमेरिका परमाणु शस्त्रों का प्रयोग करने वाला एकमात्र देश था और इस रूप में अपनी परमाणु क्षमता का साम्राज्यवादी प्रदर्शन वह सुपरहीरोज़ की फैण्टास्टिक दुनिया में भी करता था। ‘दि फैण्टास्टिक फोर’ अन्तरिक्ष में ‘कम्युनिस्टों’ से लड़ते हुए विकिरण का शिकार बने थे; पीटर पार्कर को एक रेडियोएक्टिव मकड़े ने काटा था; डेयरडेविल का मैट मर्डक रेडियोएक्टिविटी के कारण अन्धा होकर डेयरडेविल बना था; ब्रूस बैनर गामा विकिरण का शिकार होकर हल्क बनता है और एक्स-मेन द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर परमाणु विकिरणों से पैदा हुए म्यूटेशन के कारण म्यूटेण्ट बनते हैं। इस पूरी चीज़ से आप अमेरिकी जनमानस और सामाजिक मनोविज्ञान को समझ सकते हैं और साथ ही अमेरिकी साम्राज्यवाद की सांस्कृतिक प्रणालियों की भी एक झलक पा सकते हैं। यह अनायास ही नहीं कहा जाता कि व्यवहारवाद अमेरिकी समाज का वर्चस्वकारी दर्शन है जिसका नारा है ‘व्हाटेवर वर्क्स!’

अब आप इन सारे सुपरहीरो के खलनायकों पर एक निगाह डालें तो शीतयुद्धकालीन वैश्विक राजनीति के कॉमिक्स के दुनिया में प्रविष्टि को और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। मिसाल के तौर पर आयरनमैन का शुरुआती दुश्मन उत्तरी वियतनाम का एक कम्युनिस्ट जनरल था जो कि शैतानियत की पराकाष्ठा को दर्शाता था! आयरनमैन का ही एक अन्य प्रमुख खलनायक है मैण्डारिन, जो कि एक बेहद भद्दे स्टीरियोटिपिकल तरीके से बनाया गया एक चीनी चरित्र है। उसी प्रकार इन कॉमिक्स में फिदेल कास्त्रो, ख्रुश्चेव, और माओ के कैरीकेचर सामान्य रूप से देखे जा सकते थे। सुपरहीरो कॉमिक्स स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी प्रचार का एक प्रमुख माध्यम थे।

लेकिन 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही अमेरिकी पूँजीवाद अपनी आन्तरिक समस्याओं से भी जूझ रहा था। उसी समय वियतनाम-युद्ध विरोधी शान्ति आन्दोलन, छात्र आन्दोलन, नारीवादी आन्दोलन, काले लोगों का मुक्ति आन्दोलन और नागरिक अधिकार आन्दोलन अपने चरम पर था। अमेरिकी पूँजीवाद के उदार जनवादी राज्य की छवि कठघरे में थी और जनता के व्यापक जनसमुदायों के बीच में उसका वर्चस्व डावाँडोल था। इसी दौर में, सुपरहीरोज़ कॉमिक्स की दुनिया में भी कुछ बदलाव देखे जा सकते हैं। इस दौर में पहली बार कई काले सुपरहीरोज़ अस्तित्व में आते हैं जैसे कि ब्लैक फैल्कन, ल्यूक केज, ब्लैक गोलियथ, पॉवरमैन, ब्लैक पैन्थर आदि। ग़ौरतलब है कि कॉमिक्स में ब्लैक पैन्थर नामक सुपरहीरो असलियत में ब्लैक पैन्थर्स पार्टी बनने के चार महीने पहले ही अस्तित्व में आ गया था। इन सुपरहीरोज़ कॉमिक्स के मुखपृष्ठ पर ही ‘ब्लैक’ शब्द को काफ़ी रेखांकित किया गया होता था। आम तौर पर ये ब्लैक सुपरहीरोज़ किसी अतिधनाढ्य पृष्ठभूमि से नहीं आते थे, क्योंकि ऐसा दिखलाना एकदम यथार्थवादी नहीं होता और लोग इसका मज़ाक बनाते। ये आम तौर पर काले लोगों की पृथक बस्तियों में पैदा हुए नायक थे। इसी दौर में, खलनायक आम तौर पर नस्लवादी, श्रेष्ठतावादी, नात्सी किस्म के लोग होते थे। दूसरी ओर काले सुपरहीरोज़ नस्लीय बराबरी के हिमायती, ड्रग्स-विरोधी होते थे। लेकिन ये ब्लैक सुपरहीरो आम तौर पर लोकल गुण्डों, माफिया आदि से लड़ते थे, जबकि दूसरे ग्रहों से आने वाले दुश्मनों से लड़ने का काम पूरी तरह से श्वेत, पुरुष सुपरहीरोज़ का होता था। स्त्री सुपरहीरोज़ के बारे में भी यही बात दूसरे रूप में कही जा सकती है। उनका काम ‘मेल शॉविनिस्ट पिग्स’ से लड़ना होता था और दुश्मन देशों और दूसरे ग्रहों की महाशक्तियों से लड़ने का काम आम तौर पर श्वेत पुरुष सुपरहीरोज़ का ही होता था। यह राष्ट्रवाद के चरित्र के बारे में भी कई बातें साफ़ करता है। राष्ट्रवादी विचारधारा मूलतः मज़दूरों, स्त्रियों, काले लोगों, दलितों आदि के ख़िलाफ़ जाती है क्योंकि इस संघटन का एक बुनियादी अवयव पितृसत्तावाद होता है। विल्हेल्म राइख़ ने अपनी पुस्तक ‘मास साइकॉलजी ऑफ फाशिज़्म’ में प्रदर्शित किया है कि राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा हर-हमेशा बुर्जुआ रहस्यवाद, पितृसत्तात्मक चरित्र संरचना और यौनिक दमन पर आधारित होती है। बहरहाल, अभी हम इस पर लम्बी चर्चा नहीं कर सकते हैं।

इसी दौर में एक दूसरे किस्म का पूँजीवादी यथार्थवाद भी कॉमिक्स जगत के सुपरहीरोज़ की कहानियों में आ रहा था। मिसाल के तौर पर, आयरन मैन के एक अंक में आयरन मैन के ‘ऑल्टर ईगो’ टोनी स्टार्क के कारखाने में मज़दूरों की हड़ताल होती है। यह हड़ताल मैण्डारिन नामक एक चीनी खलनायक के भड़काने के कारण हुई थी और चीनी खलनायक ने भड़काने की प्रक्रिया में ‘शोषण’, ‘गैरबराबरी’ जैसी राजनीतिक शब्दावली का इस्तेमाल किया था! समझा जा सकता है कि इशारा किसकी तरफ़ था। यह वह दौर था जबकि अमेरिका में कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ धरपकड़ पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी। कम्युनिज़्म की हावी होती लहर (सांस्कृतिक क्रान्ति, 1968 का वैश्विक छात्र उभार आदि) के भय को अमेरिकी शासक वर्गों में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था। मज़दूरों के बीच कम्युनिस्ट षड्यंत्रों  की चर्चा ज़ोरों पर थी। उसी समय आयरन मैन का यह अंक भी आया था। लेकिन साथ ही इस अंक में आयरन मैन अपने आपसे पूछता है कि कम्युनिज़्म से उसने अमेरिकी जनवाद की रक्षा तो कर दी, लेकिन यह जनवाद किसका है? यह वियतनाम युद्ध में अमेरिका के कड़वे अनुभव और आसन्न हार की प्रतिक्रिया थी। इसके बाद टोनी स्टार्क शस्त्रों का उत्पादन बन्द कर देता है और पर्यावरणीय सुरक्षा के काम में लग जाता है!

इसी दौर में कैप्टन अमेरिका भी मोहभंग की स्थिति से गुज़र रहा था! इस समय वह एक खानाबदोश बन गया था, एक ऐसा सुपरहीरो जिसका कोई देश नहीं है। ग़ौरतलब है कि कैप्टन अमेरिका के इस अंक के प्रकाशन के कुछ ही समय पहले निक्सन का वॉटरगेट घोटाला सामने आया था। दरअसल, इस अंक में एक ख़तरनाक अपराधी संगठन के पीछे जो मास्टरमाइण्ड होता है, उसकी शक्ल निक्सन से काफ़ी मिलती है! बहरहाल, ये जो प्रतीतिगत रैडिकलिज़्म का दौर सुपरहीरो कॉमिक्स में शुरू हुआ था वह 1970 के दशक के अन्त तक समाप्त हो गया। 1980 के दशक में थैचरिज़्म और रीगनॉमिक्स का बोलबाला था और कॉमिक्स की दुनिया में भी मामला दक्षिण की ओर खिसक चुका था। सुपरहीरोज़ फिर से पूरी तरह से शीतयोद्धाओं में तब्दील हो चुके थे। लेकिन अमेरिकी सुपरहीरोज़ इस समय तक अपने स्टीरियोटिपिकल चित्रण के कारण उबाऊ हो चुके थे। हर-हमेशा इन कॉमिक्स कथाओं में अच्छे और बुरे के बीच एक अयथार्थवादी रेखा खींची गयी होती थी। जो अच्छा था वह शुद्ध रूप से अच्छा था और जो बुरा था वह बस बुरा था। लेकिन जब अमेरिकी सुपरहीरो का उबाऊपन की वजह से अन्तःस्फोट हो रहा था, उसी समय ब्रिटेन में कुछ प्रयोग हो रहे थे। लगभग इसी दौर में ब्रिटेन में कुछ अराजकतावादी सुपरहीरो अस्तित्व में आ रहे थे, जोकि व्यवस्था का पोषण या समर्थन नहीं करते थे; वे कानून और व्यवस्था का माखौल बनाते थे और उन्हें दमन का प्रतीक मानते थे। ऐसा एक हीरो था ‘वी’। इस हीरो पर अभी कुछ वर्ष पहले ही ‘वी फॉर वेण्डेटा’ फिल्म भी बनी थी। यह हीरो गाय फॉक्स का मुखौटा पहनता है और उसकी पहचान अज्ञात ही रहती है। वह गाय फॉक्स षड्यन्त्र की तरह ही लन्दन की पार्लियामेण्ट उड़ाने की साज़िश करता है। अब पश्चिमी दुनिया में होने वाले तमाम प्रदर्शनों में गाय फॉक्स का मुखौटा पहनना एक आम चलन हो गया है। कई लोगों का दावा है कि प्रतिरोध ने पॉप संस्कृति को सहयोजित करने का एक उदाहरण पेश किया है। लेकिन मुझे इसमें संशय है। कहीं पॉप संस्कृति ने तो प्रतिरोध को सहयोजित नहीं कर लिया? ग़ौरतलब है कि जब समूचा पूँजीवादी ढाँचा अपनी अनुत्पादकता और मरणासन्नता के चरम पर है तो विकल्प के रूप में गाय फॉक्स के विद्रोह को पेश किया जा रहा है, और इस प्रस्तुति में पहलकदमी सामूहिक या जनता के हाथ में नहीं है, बल्कि एक सुपरहीरो के हाथ में है। ऐसे में, सही मायने में जनता से विकल्प और विकल्प से अभिकरण छीना जा रहा है। और इसीलिए ऐसे प्रतिरोध के प्रतीक भी मूल्यमुक्त नहीं होते बल्कि तमाम मूल्यों से लदे होते हैं। सवाल यह है कि वर्चस्वकारी पूँजीवादी संस्कृति प्रतिरोध के किस चित्रण के प्रति सहिष्णु होने को तैयार है?

ख़ैर, एक अन्य अराजकतावादी सुपरहीरो जो कि ब्रिटेन में अस्तित्व में आया वह था मार्शल लॉ। यह सुपरहीरो अब ग़द्दार हो चुके सुपरहीरोज़ और उन सुपरहीरोज़ का संहार करता है जो कि पहले सरकार के नियन्त्रण में रहते थे, मगर अब स्वतन्त्र हो गये हैं और उन्होंने अपने गैंग्स बना लिये हैं। मार्शल लॉ जिन तमाम सुपरहीरोज़ का संहार करता है, उनकी शक्लें आश्चर्यजनक रूप से बैटमैन, आयरन मैन आदि जैसी हैं। वह अन्ततः अन्य सुपरहीरोज़ के साथ मिलकर मार्गरेट थैचर का तख़्तापलट करता है, मगर दयाशीलता के साथ। वह थैचर को कोई सज़ा नहीं देता, उन्हें सम्मान के साथ जाने देता है। और उसके बाद वह पूरे पृथ्वी के संचालन को अपने हाथ में ले लेता है। फिर एक नये युग की शुरुआत होती है जो कि ग़रीबी, भूख और युद्ध से मुक्त था!

इसी बीच फ्रैंक मिलर बैटमैन को एक नया स्वरूप देते हैं। उन्हीं के बैटमैन से क्रिस्टोफर नोलन ने अपने बैटमैन की प्रेरणा ली है। यह बैटमैन व्यवस्था के बारे में थोड़ा सशंकित हो चला है। इसी सीरीज़ में सुपरमैन को सत्ता के एक कम समझदार उपकरण के रूप में चित्रित किया गया है जो सत्ता पर कभी प्रश्न नहीं खड़ा करता। वह पूरी तरह से सत्ता से सहमति में रहता है और अमेरिका के साम्राज्यवादी मंसूबों में उसकी मदद करता है। यह 1980 के दशक के अन्त तक की स्थिति थी। इसी बीच सुपरहीरो फिल्मों का नया दौर शुरू हो चुका था। यह दौर 1990 के अन्त तक जारी रहता है। 1997 के एशियन टाइगर संकट और फिर 2000-2001 में हाउसिंग बुलबुले के फटने के साथ वैश्विक पूँजीवाद का संकट गहरा रहा था। 1990 में सोवियत संघ में सामाजिक साम्राज्यवाद के पतन के बाद कम्युनिज़्म के ख़ात्मे का जो उन्मादी शोर मचा था, वह अब संकट से बिलबिला रहे पूँजीवाद की कराहों में तब्दील हो चुका था। 2001 में वर्ल्ड ट्रेड टावर के ध्वंस के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद ने इसे अपने संकट को टालने का एक उपकरण बनाया और ‘आतंक विरोधी युद्ध’ की शुरुआत की। इसी समय सुपरहीरोज़ के नये दौर की शुरुआत होती है।

इस दौर में अमेरिकी कॉमिक्स के सुपरहीरोज़ में नंगे किस्म का अन्धराष्ट्रवाद देखा जा सकता था। 2001 के हमले के बाद आयी एक मार्वल कॉमिक्स में मार्वल कॉमिक्स के लगभग सभी महाखलनायक इकट्ठा होते हैं और आतंकियों की क्रूरता पर आश्चर्य जताते हुए आँसू बहाते हैं और कहते हैं कि इतने अमानवीय तो वे भी नहीं हो सकते! वे एक प्रकार से आतंकवाद के ख़िलाफ़ पूरे अमेरिका की अन्धराष्ट्रवादी एकता का एलान करते हैं! मार्वल ने इसी समय ‘कॉम्बैट ज़ोन’ नामक एक सीरीज़ निकाली जिसका स्पष्ट मकसद था इराक़ युद्ध का समर्थन करना। इसकी हज़ारों प्रतियाँ इराक़ में अमेरिकी सैनिकों को बँटवायी गयीं। लेकिन इसी समय अफगानिस्तान और इराक़ में आतंक-विरोधी युद्ध के वांछित परिणाम न मिलने के कारण सुपरहीरोज़ की शक्तियों के प्रति एक सन्देह भी कई सुपरहीरो कॉमिक्स में पेश हो रहा था। और वह 2006 आते-आते तो काफ़ी स्पष्ट रूप में दिखलायी दे रहा था। 2004 में डीसी कॉमिक्स का एक कॉमिक्स आया ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’। इसमें बैटमैन को डीसी के अन्य हीरोज़ के बारे में तमाम खुफिया जानकारी मिलती है। पाठक को पता चलता है कि इन सुपरहीरोज़ का ग्वान्तानामो बे, अबू ग़रीब जैसी कुख्यात जेलों से भी नापाक रिश्ता है!

इसके बाद मार्वल कॉमिक्स ने ‘अल्टिमेट्स’ निकाला जिसके आधार पर नयी अवेंजर्स फिल्म बनायी गयी। यह कॉमिक्स आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक ऐसे युद्ध की हिमायत करता है जो किसी भी रूप में कानून, नियम या नैतिकता से बाधित न हो। एक ऐसा युद्ध जिसमें कोई भी कदम उठाने की पूरी इजाज़त हो और बिना किसी अपराध-बोध के।

सुपरहीरोज़ पर बनी हुई फिल्में काफ़ी हद तक कॉमिक्स में गढ़े गये सुपरहीरोज़ के चरित्र और कथानक पर ही आधारित होती हैं। कई लोग सुपरहीरो फिल्मों को कम्प्यूटर-जेनरेटेड इमेजों से भरी हुई बेवकूफ़ी मानते हैं। लेकिन ये फिल्में हमें अमेरिकी समाज और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बारे में काफ़ी कुछ बताती हैं। चूँकि इस थीम का स्रोत कॉमिक्स जगत में था, इसलिए हमने कॉमिक्स जगत में सुपरहीरो कहानियों का एक विहंगावलोकन किया और इन कहानियों को उनके सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भों में रखने का प्रयास किया और यह प्रदर्शित किया कि सुपरहीरो कहानियाँ अपने युग में ही विचारधारात्मक रूप से जड़ित होती हैं। अब हम सुपरहीरो फिल्मों का विश्लेषण बेहतर तरीके से कर सकते हैं, जिसकी निश्चित तौर पर अलग से आवश्यकता है। कारण यह है कि फिल्म विधा एक ऐसी विधा है जो दृश्य-श्रव्य के कहीं उन्नत संयोजन और दिक्-काल के कहीं अधिक लचीलेपन के साथ यह संयोजन करने में सक्षम है। नतीजतन, अवचेतन और अचेतन तक इसकी पहुँच कहीं ज़्यादा है। इसलिए फिल्मों के ज़रिये सुपरहीरोज़ की कहानियाँ रूप और अन्तर्वस्तु के धरातल पर कैसे काम करती हैं, इसका विश्लेषण अलग से किया जाना चाहिए।

काउबॉय वेस्टर्न्स से सुपरहीरो फिल्मों तक: अतीत से वंचित एक पूँजीवादी राष्ट्र के आत्मबोध के आधुनिक मिथक

वैसे तो सुपरहीरो फिल्मों के बनने की शुरुआत 1980 के दशक से ही हो चुकी थी, लेकिन सुपरहीरो फिल्मों का स्वर्ण युग 2000 के पहले दशक के पूर्वार्द्ध से शुरू हुआ है। 2000 के पहले दशक की शुरुआत में एक्स-मेन फिल्म के साथ सुपरहीरो फिल्मों की झड़ी सी लग गयी। इनमें से ज़्यादातर सफल रहीं। इन फिल्मों ने हॉलीवुड में लगभग वही स्थान अपना लिया है, जो कि एक दौर में वेस्टर्न फिल्मों का हुआ करता था। उस दौर में काऊबॉय चरित्रों वाली ये फिल्में एक प्रकार से अमेरिकी समाज और संस्कृति की पहचान बन गयी थीं। आज सुपरहीरो फिल्में लोगों के मनोरंजन के ज़रिये जो असल कार्य कर रही हैं वह है वैश्विक पुलिसमैन और वैश्विक मुखिया के रूप में अमेरिका की छवि को स्थापित करना और रेखांकित करना। अमेरिका ‘मुक्त’ विश्व का नेता है! इस रूप में हॉलीवुड हमेशा की तरह एक आधुनिक मिथक निर्माता की अपनी भूमिका अदा कर रहा है। हॉलीवुड अमेरिका के वास्तविक इतिहास पर कोई फिल्म मुश्किल से ही बना सकता है, जो कि मूल अमेरिकी आबादी के क़त्ले-आम और सेटलर उपनिवेशवाद का खूनी इतिहास है। दूसरी बात यह है कि अमेरिका का यूरोप के समान कोई सुस्थापित सामन्ती इतिहास भी नहीं है। अमेरिका के इतिहास में जो चीज़ें सराहनीय थीं, वह पहली और दूसरी अमेरिकी क्रान्ति के दौरान कम-से-कम बुर्जुआ औपचारिकता के स्तर पर रखे गये समानता, भ्रातृत्व और जनवाद के विचार थे। लेकिन अमेरिकी पूँजीवाद के विकास के विशिष्ट पथ के कारण जनवाद या समानता से भी ज़्यादा अमेरिकी समाज और संस्कृति में व्यक्तिवाद और व्यवहारवाद के मूल्यों को महिमा-मण्डित किया गया। यही सोच वेस्टर्न्स में भी स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती थी। हॉलीवुड ने इन्हीं मूल्यों के अनुसार आधुनिक मिथक रचे क्योंकि अमेरिका के पास यूरोप के समान यूनानी-रोमन प्राचीन सभ्यता या सामन्तवाद का कोई इतिहास नहीं था, जिनसे कोई सिरा पकड़कर ये मिथक रचे जाते। इस रूप में हॉलीवुड एक ऐसे राष्ट्र के लिए एक आधुनिक मिथक निर्माता रहा है, जिसके पास कोई लम्बा अतीत नहीं है।

बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर 1950 के दशक तक हॉलीवुड ने अमेरिका और अमेरिकियों के लिए एक पहचान का निर्माण किया और यह पहचान काफ़ी लोकप्रिय भी हुई। यह थी काउबॉय चरित्रों पर आधारित वेस्टर्न फिल्में। काउबॉय एक ऐसा चरित्र था जो उस पश्चिमी सीमान्त की वन्यता और अज्ञात ख़तरों द्वारा निर्मित हुआ था, जिसके पार अमेरिकी औपनिवेशिकीकरण नहीं हुआ था या सुदृढ़ नहीं हुआ था। हालाँकि 19वीं सदी का अन्त आते-आते संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग सभी प्रदेश श्वेत औपनिवेशिकीकरण के मातहत आ चुके थे। लेकिन फिर भी पश्चिमी सीमान्त की वह स्मृति (जो कि काफ़ी हद तक बनायी गयी थी) अभी भी अमेरिकी पहचान का निर्माण कर रही थी। काउबॉय पश्चिमी सीमान्त के पार के व्यापक विस्तार के साथ जूझता था जो कि अविजित और अनजान था। इन फिल्मों का अन्तहीन रास्तों, अनन्त विस्तार और मुश्किल वातावरण का प्रभावी मोटिफ़ वास्तव में अमेरिकी पूँजीवादी सभ्यता के विस्तार की अन्तहीन सम्भावना का प्रतीक था, जिसके अगुवा प्रतीक तत्व के रूप में काउबॉय का चरित्र खड़ा किया गया था। काउबॉय एक प्रकार से उस जोखिम लेने की, उद्यमी और प्रतिस्पर्द्धात्मक संस्कृति का विशिष्ट प्रतीक बन गया जो कि अमेरिकी राष्ट्र की स्थापना से ही उसकी ख़ासियत थी। यह संस्कृति व्यक्तिवाद और व्यवहारवाद के मूल्यों से लदी हुई थी। काउबॉय फिल्में इसी संस्कृति को बीसवीं सदी के पहले छह-सात दशकों तक पेश कर रही थीं। इन फिल्मों में काउबॉय चरित्र अमेरिकी पूँजीवादी मूल्यों के वाहक थे; लम्बे और खाली भूभाग और अन्तहीन प्रतीत होता विस्तार अमेरिकी साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के लिए विस्तार की अनन्त सम्भावना-सम्पन्नता के प्रतीक थे; यह विस्तार ऐसा था जिसमें कानून और नियमों की बाधा नहीं थी, जैसा कि यूरोप के सामने पेश आयी थी; यहाँ कानूनी, नियम और नौकरशाही की बेड़ियों से मुक्त काउबॉय द्रुत और हिंस्र न्याय करता था; इस पूरे वातावरण में मूल अमेरिकी आबादी अपराधी या डकैत तत्व का प्रतिनिधित्व करती थी या फिर कमज़ोर पीड़ित का; साथ ही, कुछ बुरे श्वेत खलनायक भी होते थे। दूसरी ओर एक ऐसा नायक होता था जो कि कमियों-खामियों से परे नहीं होता था (अमेरिकी पूँजीवादी यथार्थवाद) लेकिन साथ ही वह कर्तव्य, सम्मान, नैतिकता और आचार संहिताओं से संचालित होता था (अमेरिकी व्यक्तिवादी आध्यात्मिकता) और वह इन बदमाशों (आज के ‘दुष्ट राज्य’) के साथ तत्काल मौके पर न्याय किया करते थे।

वियतनाम युद्ध में अमेरिका की पराजय अमेरिकी अपवाद-वाद (exceptionalism) पर एक गहरी चोट थी। शीत युद्ध के दौरान सोवियत साम्राज्यवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद की प्रतिस्पर्धा में अन्तरिक्ष अनुसन्धान और शस्त्रों की होड़ में भी शुरुआती दौर में अमेरिका का पिछड़ना अमेरिका के लिए एक सदमे जैसा अनुभव था। उससे पहले कोरिया युद्ध में पराजय और क्यूबा की क्रान्ति ने भी अमेरिकी साम्राज्यवादी दम्भ और आत्मविश्वास पर गहरी चोट की थी। इस दौर में अमेरिकी पूँजीवादी राष्ट्र की असुरक्षाओं और आकांक्षाओं को नये रूप में हॉलीवुड की फिल्मों में फैण्टास्टिक अभिव्यक्ति मिली। वेस्टर्न्स का स्थान 1960 के दशक के अन्त और 1970 के दशक की शुरुआत से धीरे-धीरे विज्ञान-सम्बन्धी गल्पकथाओं ने लेना शुरू कर दिया। 1980 के दशक की शुरुआत से विज्ञान गल्पकथाओं के साथ-साथ सुपरहीरो फिल्मों की शुरुआत होती है। 1980 के दशक से लेकर 1990 के दशक के अन्त तक बहुत-सी सुपरहीरो फिल्में बनीं। लेकिन अभी उनके दृश्य विधान, विन्यास और चरित्रों के रूप-रंग पर कॉमिक्स शैली का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था। कह सकते हैं कि सुपरहीरो फिल्मों का स्वर्ण युग 2000 के पहले दशक से ही शुरू होता है और उसमें भी 2006-7 में ढाँचागत साम्राज्यवादी संकट के फूटने के बाद से इनमें ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी आयी है। एक बार फिर अमेरिकी साम्राज्यवाद का संकट ख़तरनाक अनुपातों में जा रहा है। मध्य-पूर्व में इराक़ पर हमला कर अपने लिए अनुकूल सरकार बिठाने की अमेरिकी योजना धरी की धरी रह गयी; अमेरिका को इराक़ से एक प्रकार से मुँह की खाकर भागना पड़ा और इराक़ में आज एक ऐसी सरकार है जिसकी करीबी मध्यपूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवादी धुरी के बजाय ईरान, सीरिया और रूस के साथ बन रही है। अमेरिकी धुरी (इज़रायल-सऊदी अरब-अमेरिका) यमन से लेकर सीरिया तक में काफ़ी कमज़ोर स्थिति में है। सीरिया युद्ध के अन्त में भी कोई अमेरिकी धुरी समर्थक सत्ता वहाँ आयेगी, इसकी उम्मीद नगण्य है। दूसरी तरफ़ ईरान के समक्ष परमाणु ऊर्जा के प्रश्न पर अमेरिका ने घुटने टेके हैं और मध्य-पूर्व में रूस के ज़्यादा हस्तक्षेपकारी होने के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद की पहले से कमज़ोर स्थिति और कमज़ोर हुई है। अमेरिकी साम्राज्यवादी अहं और अपवादवाद पर एक बार फिर से भारी चोटें पड़ रही हैं। अफगानिस्तान में पहले तालिबान को खड़ा करना, फिर उसके भस्मासुर बन जाने के बाद उससे युद्ध करना, फिर युद्ध न जीत पाने की सूरत में ‘अच्छे’ तालिबान और ‘बुरे’ तालिबान का जुमला उछालकर तालिबान से हाथ मिलाने का प्रयास करना ये सभी अमेरिकी साम्राज्यवाद के बढ़ते खोखलेपन की ओर इशारा कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, अमेरिका के आर्थिक वर्चस्व को भी निर्णायक चुनौतियाँ मिल रही हैं और चीन और रूस दोनों ही अपने आपको भविष्य के विश्व के चौधरियों के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में, अमेरिकी साम्राज्यवाद और अमेरिकी पूँजीवादी राष्ट्र के भय, असुरक्षाएँ और आकांक्षाएँ एक बार फिर से एक नये रूप में अभिव्यक्ति पा रही हैं- सुपरहीरो फिल्मों के रूप में।

सुपरहीरो फिल्मों के स्वर्ण-युग की शुरुआत: सर्वाधिक संरचनागत पूँजीवादी संकट के दौर की साम्राज्यवादी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति

सुपरहीरो फिल्मों का नया दौर एक्स मेन के साथ 2000 के पहले दशक के शुरू में प्रारम्भ होता है और यह ‘अवेंजर्स’ फिल्म श्रृंखला के साथ अपने शिखर पर पहुँचता है। 2000 के बाद से हॉलीवुड ने 50 से भी ज़्यादा सुपरहीरो फिल्में बनायी हैं। इनमें से ज़्यादातर ने अद्वितीय कारोबारी सफलता हासिल की है। इस नये दौर में आयी सुपरहीरो फिल्मों की आमूलगामी आलोचना की ज़रूरत जल्द ही महसूस की जाने लगी थी और जल्द ही तमाम सांस्कृतिक आलोचकों ने इस प्रवृत्ति की आलोचनाएँ पेश कीं। ज़िज़ेक से लेकर जेम्सन तक, तमाम बड़े चिन्तकों ने भी इन फिल्मों की आलोचना में उल्लेखनीय योगदान किया। डैन हैसलर फॉरेस्ट ने इस रुझान पर एक पूरी पुस्तक लिखी। फॉरेस्ट लिखते हैं कि आधुनिक सुपरहीरो फिल्में वस्तुतः नवउदारवादी पूँजीवाद के “तमाम अन्तरविरोधों, फन्तासियों और घबराहटों की कुछ सबसे स्पष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं।” फॉरेस्ट के इस मूल्यांकन से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता, “सुपरहीरो फिल्में अक्सर ऐसे अनैतिहासिक, पितृसत्तात्मक और विश्व-के-अन्त-वाली आपदाओं/आतंकवाद के आख्यान होती हैं जो यह दावा करती हैं कि नवउदारवादी पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं हैं।” ज़िज़ेक ने ठीक ही कहा है कि हर दूसरी हॉलीवुड फिल्म दुनिया के विनाश के बारे में होती है; दुनिया के विनाश की कल्पना को सहज और सामान्य बना दिया गया है, लेकिन पूँजीवाद के विनाश की कल्पना की आज्ञा नहीं दी जा सकती।

यहाँ हम तीन प्रमुख सुपरहीरो फिल्मों के बारे में संक्षेप में अपने विचार रखेंगे, जिन्हें हम सुपरहीरो फिल्मों की शैली की तीन प्रातिनिधिक फिल्में कह सकते हैं। इन फिल्मों के आलोचनात्मक विवेचन के दौरान ही हम देखेंगे कि किस प्रकार नीत्शे के उबेरमेंश का सिद्धान्त और कार्ल श्मिट के सार्वभौम का सिद्धान्त इन फिल्मों के रूप में अशुद्ध सांस्कृतिक अभिव्यक्ति पाता है, चाहे इन फिल्मों के निर्माता इस बारे में सचेत हों या न हों। पूँजीवादी संस्कृति उद्योग द्वारा उत्पाद के रूप में पैदा हो रही हर फिल्म अपने ऐतिहासिक दौर और साथ ही प्रभुत्वशाली विचारधारात्मक अधिरचना में जड़ित होती है और उसके पुनरुत्पादन का कार्य करती है। एक रैडिकल या सबवर्सिव फिल्म भी प्रभुत्वशील विचारधारात्मक संरचना और ऐतिहासिक सन्दर्भ से ही जन्म लेती है; लेकिन वह स्थितियों का एक क्रान्तिकारी रूप से पक्षधर, आलोचनात्मक और सबवर्सिव प्रेक्षण और पाठ पेश करती है और इस रूप में वह विचारधारात्मक राज्य उपकरण में जड़ित नहीं होती। लेकिन हम जिन फिल्मों की बात कर रहे हैं वे दुनिया के सबसे बड़े पूँजीवादी फिल्म उद्योग के मानकीकृत और आद्यरूपीय (prototypical) उत्पाद हैं।

पिछले लगभग डेढ़ दशक में दर्जनों सुपरहीरो फिल्में आयी हैं। ज़ाहिर है कि हम यहाँ सभी फिल्मों की समीक्षा या उन पर आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं कर सकते हैं। लेकिन हम यहाँ तीन अलग प्रकार की प्रातिनिधिक सुपरहीरो फिल्मों का एक विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे। पहली फिल्म है सबसे पुराने सुपरहीरो सुपरमैन पर आधारित फिल्म ‘मैन ऑफ़ स्टील’ जिसे हमें हालिया सुपरहीरो फिल्मों में सबसे कमज़ोर और साधारण मान सकते हैं। दूसरी फिल्म है ‘आयरन मैन’ श्रृंखला जिसे हम सबसे बेशर्म, अपराध-बोध मुक्त, नग्न और राजनीतिक रूप से अश्लील साम्राज्यवादी प्रोपेगैण्डा फिल्मों की श्रेणी में रख सकते हैं। और तीसरी है क्रिस्टोफर नोलन की चर्चित बैटमैन त्रयी (बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट, द डार्क नाइट राइज़ेज़) जो हालिया सुपरहीरो फिल्मों में संरचना, बहुस्वरीयता और विन्यास के लिहाज़ से सबसे प्रभावी और जटिल फिल्मों में से एक है।

‘मैन ऑफ़ स्टील’ सर्वाधिक अतिसरलीकृत रूप में साम्राज्यवाद और नवउदारवादी पूँजीवाद के प्रभुत्वशील तर्क को रेखांकित करने और अमेरिकी संस्कृति के मानक पर एकलसंस्कृतिकरण का काम करने का प्रयास करती है। यह फिल्म नोलन की बैटमैन त्रयी के अनुसार अन्धकारमय सन्दर्भ में विकल्पहीनता और आशाहीनता के नवउदारवादी यथार्थवादी चित्रण पर आधारित नहीं है। ऊपरी तौर पर यह फिल्म उम्मीद की बात करती है। जैसा कि सुपरमैन (काल एल/क्लार्क केण्ट) का पिता फिल्म में एक दृश्य में सुपरमैन को बताता है कि ‘एस’ के प्रतीक का उनके ग्रह क्रिप्टॉन पर अर्थ है उम्मीद। फिर यही बात सुपरमैन अपनी प्रेमिका लुइस लेन को भी एक अन्य दृश्य में बताता है। लेकिन वास्तव में यह फिल्म उम्मीद के नाम पर कुछ देती नहीं है। यह एकदम नग्न तौर पर अमेरिकी पूँजीवाद के नवउदारवादी और साम्राज्यवादी तर्क को बल देने का प्रयास करती है। जब सुपरमैन का पिता सुपरमैन को क्रिप्टॉन ग्रह की सभ्यता के पतन का कारण बताता है, तो वह कहता है कि पहले उनकी सभ्यता अलग-अलग ग्रहों को औपनिवेशीकृत करती थी और वहाँ के वातावरण को अपने अनुसार ढालती थी। यही उनकी सभ्यता के विस्तार और विकास का कारण था। बाद में, यह सभ्यता अपने औपनिवेशिक विस्तार को छोड़ देती है और यही उसके पतन का कारण बनता है। यह कहीं न कहीं अमेरिका के सतत् विस्तार और सतत् युद्ध के सिद्धान्त को बल देता है। यह इस पक्ष में राय बनाने का काम करता है कि आज अमेरिकी साम्राज्यवाद के समक्ष भी सतत् युद्ध में उलझे रहने के अलावा कोई रास्ता नहीं है और वह अपनी उत्तरजीविता के लिए युद्ध पैदा करता है।

सुपरमैन के पिता जोर-एल और माँ लोर-वॉन शिशु काल-एल (सुपरमैन) और क्रिप्टॉन की सभ्यता के एक अंश को बचाने के लिए उसे एक कैप्स्यूल यान में रखकर पृथ्वी पर भेज देते हैं, जिसके बारे में उन्होंने पहले ही जाँच-पड़ताल कर ली होती है। पृथ्वी पर काल-एल का यान अमेरिका में कैन्सस में गिरता है और वहाँ शिशु सुपरमैन जोनाथन केंट व मार्था केंट को मिलता है। वे एक सामान्य अमेरिकी लड़के की तरह उसका पालन-पोषण करते हैं। धीरे-धीरे वह अपने इतिहास को जानता है, अपनी शक्तियों को पहचानता है। ज़ाहिर है कि इसके बाद वह अक्सर ऐसी जगहों पर मौजूद रहता है जहाँ कोई हादसा होता है और उसके बाद वह एक रखवाले की तरह लोगों की रक्षा करता है! इसी बीच क्रिप्टॉन ग्रह का जनरल ज़ॉड (जिसने सुपरमैन के पिता की हत्या भी की थी) पृथ्वी के अस्तित्व के लिए ख़तरा बन जाता है। वह पृथ्वी पर मनुष्यों की सभ्यता को समाप्त करना चाहता है। इसके लिए वह सुपरमैन को अपने साथ शामिल करने का प्रयास करता है। लेकिन अन्ततः सुपरमैन इससे इंकार कर देता है और जनरल ज़ॉड से पृथ्वी की सभ्यता (जिसका अर्थ कुल मिलाकर उद्देश्यों के लिए अमेरिकी पूँजीवादी सभ्यता है) को बचाता है। इस बीच एक दृश्य है जिसमें सुपरमैन सपना देखता है कि वह मनुष्यों के कंकालों के बीच डूब रहा है। इसके बाद वह जनरल ज़ॉड के साथ शामिल न होने और उससे पृथ्वी को बचाने का फैसला लेता है। वास्तव में, सपने में जनरल ज़ॉड अपनी जिस योजना को अमली जामा पहना रहा है, उसकी तुलना अगर किसी चीज़ से की जा सकती है तो वह है यूरोपीय पूँजीवाद द्वारा अमेरिका की मूल सभ्यता का विनाश और मूल रेड इण्डियंस का कत्ले-आम। लेकिन फिल्म में यह रूपक पूरी सच्चाई को पलट देता है। यहाँ श्वेत अमेरिका पीड़ित बन जाता है और इस रूप में सुपरमैन की मदद का अधिकारी भी। जनरल ज़ॉड के हमले के दृश्य को देखते ही आपको अपने टेलीविज़न स्क्रीन पर देखे हुए 11 सितम्बर 2001 के वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के हमले के दृश्य याद आते हैं। यह पूरा दृश्य लगभग वैसा ही है जिसमें इमारतें तबाह हो रही हैं और लोग अपनी जान बचाने के लिए सड़कों पर भाग रहे हैं। फिल्म में उस शहर का नाम मेट्रोपोलिस है, लेकिन आप आसानी से समझ सकते हैं कि वह वास्तव में न्यूयॉर्क है। इस प्रकार अमेरिका एक बार फिर बाह्य आतंकवादी हमले के शिकार के तौर पर प्रकट होता है, जिसके विरुद्ध कोई भी जवाबी कार्रवाई लाज़िमी है। यह आतंकवाद के पैदा होने को दूसरी दुनिया से आये एक शैतान जनरल ज़ॉड की हरक़तों का परिणाम मानती है और इस प्रकार मध्यपूर्व में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद को पैदा करने, पालने-पोसने और एक भस्मासुर में तब्दील करने में अमेरिकी भूमिका को पूरी तरह नज़रन्दाज़ भी कर देती है और साथ ही ‘वॉर ऑन टेरर’ को वैधता प्रदान करने का प्रकार्य भी करती है। अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को यह फिल्म आत्मरक्षा के युद्ध के तौर पर पेश करने का प्रयास करती है। सुपरमैन स्वयं एक दैवीय चरित्र है जो दूसरी दुनिया से आया और उसके पास पृथ्वी पर ईश्वर जैसी शक्तियाँ हैं। इस तरह से साम्राज्यवादी हस्तक्षेप में अमेरिका को ईश्वर का समर्थन भी प्राप्त है, जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति अक्सर कहा करते हैं, ‘गॉड इज़ विद अमेरिका’।

ज़ाहिर है इस सुपरहीरो के आत्मान्वेषण की पूरी यात्रा  पौरुष के आत्मान्वेषण की यात्रा  होती है। एक साम्राज्यवादी-पूँजीवादी राज्यसत्ता का जेण्डर हमेशा पुरुष ही होता है। नतीजतन, जैसे-जैसे सुपरमैन अपनी शक्तियों की पहचान करता जाता है और उसमें अपने जीवन के उद्देश्य की समझ आती है, वैसे-वैसे वह अपने दोनों पिताओं (जोर-एल और जोनाथन केंट) के गौरव को पुनर्स्थापित करने के बारे में सोचता है। यह पौरुष का आत्म-बोध वास्तव में किसी भी मर्दाना (masculine) चरित्र के आत्म-बोध की साँचाबद्ध (typical) यात्रा है। यह पौरुषपूर्ण आत्म-बोध ही तो वह चीज़ है जो पुरुषों को सौष्ठवपूर्ण, वीर और आकर्षक बनाती है! और सुपरमैन को एक महानायक के तौर पर स्त्रियों में लोकप्रिय तो होना ही है। इस रूप में सुपरमैन के पूरे चरित्र को एक पिटे-पिटाये फॉर्मूले के आधार पर विकसित किया जाता है। यही कारण है कि लुइस लेन को फिल्मकार एक स्वतन्त्र स्त्री के तौर पर चिह्नित करता है, मगर अन्त में आपको पता चलता है कि ऐसा तो सिर्फ़ परिघटनात्मक स्तर पर किया जा रहा था। वास्तव में, सुपरमैन अन्ततः लुइस लेन को और दुनिया को बचाता है और लुइस लेन को अन्ततः एक सुपरहीरो बॉयफ्रेण्ड मिल जाता है।

इसके अलावा, जैसा कि पूँजीवादी संस्कृति उद्योग के उत्पाद के तौर पर बनी आज की लगभग सभी फिल्मों में होता है, इसके तमाम दृश्य विभिन्न उपभोक्ता सामग्रियों के प्रचार से भरे होते हैं। जैसे कि ‘मैन ऑफ स्टील’ में नोकिया, अमेरिकी सेना और सेवेन-इलेवन आदि के प्रचार आप लगातार फिल्म के पर्दे पर देख सकते हैं। और ये दृश्य सिर्फ़ उत्पाद का प्रचार नहीं हैं बल्कि समूची साम्राज्यवादी व नवउदारवादी उपभोक्तावादी संस्कृति और माल अन्धभक्ति का प्रचार करते हैं।

‘आयरन मैन’ श्रृंखला सुपरहीरो फिल्मों में एक ख़ास स्थान रखती है। आयरन मैन सम्भवतः सबसे जेनुइन अमेरिकी सुपरहीरो है। यह अमेरिकी पूँजीवादी समाज और संस्कृति के सबसे प्रातिनिधिक मूल्यों का सबसे ग़ैर-विचारधारात्मक तौर पर प्रतिनिधित्व करता है। आयरन मैन की कहानी अमेरिकी पूँजीवादी व्यक्तिवाद के विजय की गाथा है। इस चरित्र में एक निजी जासूस या जाँचकर्ता, योद्धा, विजिलान्ते और वैज्ञानिक तथा तकनोलॉजिकल महाप्रतिभा का मिश्रण है। यह अमेरिकी व्यवहारवादी सोच का भी सबसे खुले तौर पर प्रतिनिधित्व करता है। आयरन मैन उर्फ टोनी स्टार्क क्लिंट ईस्टवुड के अमेरिकी नायक और स्टीव जॉब्स का एक मिश्रित रूप भी है। वह क्लिंट ईस्टवुड के नायक के समान किसी भी संकट या समस्या के समाधान के लिए द्रुत, हिंसक और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से समाधान का हिमायती है। आयरन मैन एक ऐसे दौर में अमेरिकी अपवाद-वाद के मिथक का पुनर्सृजन करने का प्रयास करता है, जिस दौर में यह अमेरिकी अपवाद-वाद पूर्णतः ध्वस्त हो चुका है। वियतनाम युद्ध में अमेरिका की शर्मनाक पराजय और इराक़ से लेकर अफगानिस्तान तक में उसकी किरकिरी के बाद आयरनमैन अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके अपवाद-वाद की एक ‘विश-फैण्टेसी’ के रूप में प्रकट होता है। आयरन मैन किसी भी रूप में आदर्शवादी सुपरहीरो नहीं है। वह अक्सर व्यंग्य की मुद्रा में रहता है। जीवन के हर नये परिवर्तन को बिन्दास तरीके से लेता है। वह अपने अत्यधिक धनी होने, उपभोक्तावादी होने को लेकर किसी शर्म या अपराध-बोध से ग्रस्त नहीं है। उल्टे वह एक रसिया किस्म का अतिधनाढ्य है जो कि अपने भोगवाद, लम्पटई और ऐशो-आराम का जश्न मनाता है, उसका दिखावा करता है। लेकिन साथ ही वह अच्छाई का प्रतिनिधित्व करता है; उसका एक कर्तव्य-बोध और नैतिकता है। यहाँ आपको नीत्शे का उबेरमेंश का सिद्धान्त याद आ सकता है। आयरन मैन भी उत्पादन ही नहीं बल्कि शासन करने के श्रम से भी मुक्त है और उसके अन्दर शक्ति की ज़बर्दस्त व्यक्तिवादी आकांक्षा है। इस रूप में वह अमेरिकी साम्राज्यवाद का आधुनिक काउबॉय भी है। वह अमेरिकी सामाजिक डार्विनवाद और बीमार व्यक्तिवाद का बेशर्मी से समर्थन और हिमायत करता है। टोनी स्टार्क एक हथियार बनाने की कम्पनी चलाता है। जब अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के लिए अपने एक बेहद विनाशकारी हथियार का प्रदर्शन करने के दौरान वह आतंकवादी हमले में घायल हो जाता है तो वह ग़ौर करता है उस पर हमले के लिए भी उसी की कम्पनी के बनाये हथियारों का इस्तेमाल किया गया है जिसका कारण यह है कि उसी के कम्पनी के एक बुरे व्यक्ति ने देश के हितों को तिलांजलि देकर आतंकवादियों को हथियार मुहैया कराये थे। यहाँ पर आप देख सकते हैं कि बुरे पूँजीपति को अच्छे पूँजीपति टोनी स्टार्क से अलग दिखाया जा रहा है। बहरहाल, टोनी स्टार्क आतंकवादियों की कैद में ही आयरन मैन में तब्दील होता है। यहाँ आप नीत्शे के तकलीफ़ के कल्ट के सिद्धान्त को देख सकते हैं। तकलीफ़ें ही महानता पैदा करती हैं। उबेरमेंश तकलीफ़ों की भट्ठी में पनपता है। लेकिन टोनी स्टार्क तकलीफ़ों के इस अनुभव के बाद हथियारों की मैन्युफैक्चरिंग बन्द कर देता है। लेकिन ऐसा वह इसलिए नहीं करता कि उसका हृदय-परिवर्तन हो गया है और वह शान्तिवादी बन गया है। अब वह अपने वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल संसाधनों और मेधा का इस्तेमाल आयरन मैन का सूट बनाने में करता है।

आयरन मैन का असली मकसद है अमेरिकी वर्चस्व को और वैश्विक हवलदार की उसकी भूमिका को पुनर्स्थापित करना। इसके लिए ऐसी चीज़ें करने की आवश्यकता है जो कि अमेरिकी सेना तमाम किस्म के नियमों और कानूनों में बँधी होने के कारण नहीं कर सकती है। ये काम एक कारपोरेट शस्त्र व्यवसायी कर सकता है। आगे आयरन मैन अमेरिकी सेना के साथ मिलता हुआ दिखता है और अमेरिकी सेना से तालमेल में काम करता है। अमेरिकी सेना स्वयं ऐसे आयरन मैन सूट का इस्तेमाल करने लगती है और आयरन मैन और अमेरिकी सेना मिलकर शत्रुओं का संहार करते हैं। इस रूप में यह कारपोरेट राज्य की मुसोलिनी की अवधारणा का एक अमेरिकी संस्करण निर्मित करता है जिसमें कारपोरेट हित और पूँजीवादी राज्यसत्ता का फ़्यूज़न हो गया है। आप कह सकते हैं कि यह अमेरिकी साम्राज्यवाद और अमेरिकी पूँजीवादी जनवाद के साथ एक कारपोरेट राज्य है। ‘अवेंजर्स असेम्बल’ में आयरन मैन को शीत युद्ध के दौर में सबसे प्रतीकात्मक नायक कैप्टन अमेरिका और दिव्य सहायता के रूप में थोर का साथ भी मिलता है!

टोनी स्टार्क बेहद अमीर है। वह असाधारण वैज्ञानिक और तकनोलॉजिक प्रतिभा का धनी है। वह अपने प्रतिभावान पिता की सच्ची औलाद है। यहाँ हम पूँजीवादी उत्तराधिकार और विरासत का भी एक साँचाबद्ध चित्रण देख सकते हैं। महानता वंश में ही होती है! और इसके साथ अगर अमेरिकी मेहनतीपन, ढेर सारा पैसा, वैज्ञानिक-तकनोलॉजिकल प्रतिभा का मिश्रण हो जाय तो व्यक्तिगत महानता की एक नयी कहानी लिखी जा सकती है। टोनी स्टार्क की कहानी भी अमेरिकी पूँजीवादी व्यक्तिवाद की सेंसेशनल विजय की कहानी है। वह सुपरमैन जैसा नैतिक होने की बजाय एक काउबॉय जैसी नैतिकता में यक़ीन रखता है और इसलिए अपने एकल व्यक्तिवाद के साथ वह जेम्स बॉण्ड मार्का उपभोक्तावाद और साथ ही क्लिंट ईस्टवुड जैसे काउबॉय का मिश्रण करता है। अमेरिकी वेस्टर्न्स के समान यहाँ भी अमेरिकी पूँजीवाद के विस्तार के लिए एक अनन्त विस्तार को चित्रित किया गया है। लेकिन यह विस्तार अब अमेरिकी महाद्वीप के भीतर अमेरिकी पूँजीवादी सभ्यता का पश्चिमी सीमान्त नहीं है। बल्कि अमेरिकी पूँजीवाद के अनन्त विस्तार के लिए अन्तहीन खुला मैदान अब पूरी पृथ्वी है। आयरन मैन जब चाहे दुनिया के किसी कोने में जाकर किसी भी शत्रु का ख़ात्मा कर सकता है। दुनिया के बाकी देश इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते और इस आधुनिक अमेरिकी काउबॉय से निपटने की ताक़त उनके पास नहीं है। काउबॉय फिल्मों के मूल निवासी खलनायकों और बुरे श्वेत खलनायकों की जगह अब दूसरे ‘दुष्ट’ राष्ट्रों ने ले ली है। साथ ही, कुछ बुरे पूँजीपतियों को भी आयरन मैन ठिकाने लगाता है, जो कि देशभक्त नहीं रह गये हैं!

आयरन मैन का चरित्र रॉबर्ट डाउनी जूनियर ने अपनी विशिष्ट आकर्षक शैली में निभाया है। उसका स्टाइल उसे लोकप्रिय बनाने में काफ़ी मदद करता है। इसलिए आयरन मैन फिल्मों द्वारा साम्राज्यवादी विस्तारवाद, हस्तक्षेप, युद्ध और नवउदारवादी भोगवाद, माल अन्धभक्ति का बेशर्म, अपराध-बोध मुक्त और अश्लील चित्रण भी युवाओं के बीच आयरन मैन को लोकप्रिय बनाता है। इस रूप में आयरन मैन फिल्में अमेरिकी बीमार व्यक्तिवाद, सामाजिक डार्विनवाद और ‘विनर्स टेक ऑल’ की विचारधारा के एक प्रभावी वाहक का काम करती हैं और अमेरिकी साम्राज्यवाद की ज़्यादतियों और नरसंहारों का नैसर्गिकीकरण कर उन्हें स्वीकार्य बनाने का प्रयास करती हैं।

अगर सुपरहीरो फिल्मों की बात की जाये तो सम्भवतः इस शैली में बनी तमाम फिल्मों में सबसे प्रभावी और सफल फिल्मों में सबसे पहले क्रिस्टोफर नोलन की बैटमैन त्रयी (बैटमैन बिगिन्स, द डार्क नाइट और द डार्क नाइट राइज़ेज़) का नाम आयेगा। बैटमैन त्रयी को दरअसल एक फिल्म और एक कहानी के तौर पर देखा जाना चाहिए। इस एक कहानी में सुपरहीरो बैटमैन यह सीखता है कि एक सच्चे पूँजीवादी सार्वभौम होने का अर्थ क्या है और इसके लिए उसे क्या करना होगा। बैटमैन त्रयी की फिल्मों में पूँजीवादी विजयवाद अपने नग्न रूप में प्रकट नहीं होता है। इनमें पूँजीवादी समाज की पतनशीलता, हताशा, भ्रष्टाचार और असमानता को छिपाने का प्रयास नहीं किया गया है। फिल्म कभी यह नहीं बोलती कि पूँजीवादी समाज में मूलतः सबकुछ ठीक-ठाक है। लेकिन इस फिल्म का सबसे पहला सन्देश यह है कि पूँजीवादी समाज में असमानता, शोषण, भ्रष्टाचार के बावजूद इसका कोई विकल्प नहीं है; यदि इसका कोई विकल्प पेश करने का प्रयास किया गया तो अन्ततः वह अराजकता और आतंकवाद में समाप्त होगा। इस रूप में यह फिल्म छद्म युग्मों की एक बाइनरी पेश करती हैः पतनशील पूँजीवाद बनाम अराजकता। तीसरा कोई विकल्प नहीं है। इस रूप में यह छद्म बाइनरी किसी भी विकल्प की सम्भावना से इंकार करती है।

नोलन की बैटमैन त्रयी की पहली कड़ी में ही मौजूदा आर्थिक संकट का विस्तृत चित्रण है। लेकिन यह संकट पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक गति और आन्तरिक ढाँचे से पैदा हुआ संकट नहीं है। यह ‘लीग ऑफ़ शैडोज़’ द्वारा किये गये षड्यन्त्र का परिणाम है। पहली फिल्म में बैटमैन के बैटमैन बनने की कहानी को दिखलाया गया है। बैटमैन वास्तव में एक कारपोरेट पूँजीपति ब्रूस वेन है। उसके मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा हथियारों की मैन्युफैक्चरिंग और स्टॉक बाज़ार में सट्टेबाज़ी से आता है। इस विरोधाभास को हल करने के लिए फिल्म साथ ही ब्रूस वेन को एक मानवतावादी और फिलैन्थ्रोपिस्ट के रूप में भी पेश करती है जो दान-कर्म करने और अनाथालय वगैरह भी चलाने के लिए पैसे देता है। अनाथालय चलाने के लिए वह इसलिए भी पैसे देता है क्योंकि वह स्वयं भी बचपन में अनाथ हो गया था, जब उसके माता-पिता को एक गुण्डे ने बचपन में मार दिया था। ब्रूस वेन के बैटमैन बनने की प्रेरणा उसी घटना से आती है। बहरहाल, इस अच्छे पूँजीपति को इस फिल्म त्रयी में हमेशा बुरे और भ्रष्ट पूँजीपति के बरक्स खड़ा किया जाता है जैसे कि डॉक्टर ईथन क्रेन और डैगेट। ये बुरे पूँजीपति फिल्म में लुटेरे, देशभक्ति से रिक्त और भ्रष्ट पूँजीवाद के प्रतीक के रूप में दिखते हैं, जबकि ब्रूस वेन और उसके कम्पनी के कई डायरेक्टर या पूँजीवादी टेक्नोक्रैट लूसियस फॉक्स अच्छे, ज़िम्मेदार, मानवतावादी और नैतिक पूँजीवाद के प्रतीक के रूप में दिखलाये जाते हैं। लूसियस फॉक्स तो उस समय बैटमैन की अन्तरात्मा की आवाज़ बनने का प्रयास भी करता है जब बैटमैन एक श्मिटियन सार्वभौम बनने की प्रक्रिया में गॉथम के सारे नागरिकों के मोबाइल को टैप और ट्रैक करता है, ताकि वह जोकर को पकड़ सके। फॉक्स कहता है, “यह अनैतिक है—यह एक व्यक्ति के हाथ में बहुत अधिक शक्ति है।” लेकिन बैटमैन स्पष्ट कर देता है कि वह इस शक्ति को सदा अपने हाथ में केन्द्रित नहीं रखेगा और इसका प्रयोग केवल लूसियस फॉक्स ही कर सकता है। यहाँ यह भी दिखलाया जाता है कि अभी बैटमैन नैतिकता के बन्धनों से पूर्ण रूप से मुक्त हो एक सच्चा पूँजीवादी सार्वभौम बनने को तैयार नहीं है।

बहरहाल, लीग ऑफ़ शैडोज़ के खलनायक (रास अल गुल व बेन तथा जोकर) भ्रष्ट और बुरे पूँजीवाद का इस्तेमाल करके ही अपने कुकर्मों को अंजाम देते हैं। लेकिन बैटमैन त्रयी के खलनायक पैसे या सत्ता में दिलचस्पी रखने वाले खलनायक नहीं हैं। रास अल गुल, बेन और जोकर को पैसों में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है और इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए फिल्म हर कड़ी में कुछ विशेष वाकयों को पेश करती है, जैसे कि जोकर द्वारा नोटों के ढेर को जलाया जाना या फिर बेन द्वारा पूँजीपति डैगेट को यह सन्देश देना कि वह पैसों से उसे ख़रीद नहीं सकता। साथ ही, बैटमैन को भी एक पूँजीपति होने के बावजूद पैसों में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसीलिए वह वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत के निर्माण के लिए पहले एक काफ़ी ख़र्चीले न्यूक्लियर रिएक्टर का निर्माण करता है और जब उसे पता चलता है कि इसे एक ख़तरनाक परमाणु बम में भी तब्दील किया जा सकता है तो वह उस परियोजना को ही बन्द कर देता है हालाँकि इससे ब्रूस वेन की कम्पनी दिवालियेपन की हालत में पहुँच जाती है। यह वास्तव में दो अतिमानवों के टकराव को पेश करता हैः बैटमैन फिल्म के खलनायक भी एक रूप में उबेरमेंश की भूमिका में ही हैं, जो कि परिघटनात्मक स्तर पर पूँजीवादी समाज को चुनौती पेश करते दिखलाये गये हैं और बैटमैन वह उबेरमेंश है जो कि पूँजीवादी जनवाद के रखवाले के तौर पर पेश किया जाता है। बल्कि कह सकते हैं कि बैटमैन के तीनों प्रमुख शत्रु ही उसे वास्तव में एक पूँजीवादी उबेरमेंश, एक पूँजीवादी सार्वभौम बनने में मदद करते हैं। बैटमैन स्वयं पूँजीपति वर्ग के प्रति सशंकित है। वह बुर्जुआ वर्ग का एक आदर्शवादी और नैतिक हिरावल है और उसके और आम पूँजीपतियों के बीच के फर्क को फिल्म बार-बार रेखांकित करती है। इस रूप में बैटमैन और उसके शत्रुओं में हम नैतिकता की एक विशिष्ट प्रवृत्ति को देख सकते हैं। यह बात जोकर के विषय में ऊपरी तौर पर लागू होते हुए नहीं दिखती है। लेकिन फिर भी, जोकर में भी पूँजीवादी पतन के बरक्स एक विशिष्ट नैतिकता की पहचान की जा सकती है।

इन फिल्मों में बार-बार गॉथम, जो कि बैटमैन का शहर है और शान्ति और व्यवस्था का प्रतीक है, में सतह के नीचे सुलगते असन्तोष को दिखलाया गया है। ऊपर से नज़र आ रही शान्ति तूफ़ान के आने के पहले का सन्नाटा है। तीसरी फिल्म में सेलीना काइल (ऐन हैथवे) ब्रूस वेन से कहती है कि एक तूफ़ान आ रहा है जिसके आने पर तुम लोग (धनी लोग) अपने आपसे पूछोगे कि तुम लोग इतने समय तक इतने प्राचुर्य और ऐश्वर्य के साथ कैसे जीते रह सकते थे, जबकि हम जैसे आम लोगों के लिए तुम इतना कम छोड़ रहे थे। फिल्म में सेलीना काइल एक टुटपुँजिया लेकिन बेहद तेज़-तर्रार चोर है और वह निचले वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही है। वह स्वयं बेन के दिखावटी क्रान्तिकारी जुमलेबाज़ी से शुरू में प्रभावित हो जाती है, जो कि धनिक वर्ग के पतनशील ऐश्वर्य के विरुद्ध अराजकतापूर्ण बग़ावत का आह्नान करता है। बाद में, वह इस अराजकतावादी विद्रोह की विद्रूपता को देखती है और बैटमैन के साथ आ जाती है।

बैटमैन का एक उसूल है कि वह कभी बन्दूक का इस्तेमाल नहीं करता और साथ ही वह किसी अपराधी को मारता नहीं है। वह बस उसे कानून के हवाले करने में मदद करता है। लेकिन फिल्म इस नियम या आत्म-आरोपित नैतिक बाध्यता को एक सुपरहीरो, एक उबेरमेंश की भूमिका में एक बाधा के तौर पर पेश करती है। त्रयी के पहले हिस्से ‘बैटमैन बिगिन्स’ में रास अल गुल गॉथम को बरबाद करने के लिए उस पर हमला करता है और इस हमले के लिए वह ब्रूस वेन के औद्योगिक ढाँचे का ही इस्तेमाल करता है। रास अल गुल लीग ऑफ शैडोज़ से है जो कि एक सदियों पुराना संगठन है। यह संगठन यह मानता है कि जब सभ्यता अपनी पतनशीलता के चरम पर पहुँच जाती है तो एक बार उसके विनाश की आवश्यकता होती है। इसके ज़रिये काउण्टर को दुबारा ज़ीरो पर रीसेट कर दिया जाता है और फिर नये सिरे से शुरू से शुरुआत होती है! आप देख सकते हैं कि पूँजीवादी पतनशीलता के विकल्प के तौर पर किसी ‘एग्ज़ॉटिक’ मूर्खता को पेश किया गया है! ख़ैर, गॉथम चूँकि पूँजीवादी पतनशीलता का एक प्रतीक है इसलिए रास अल गुल गॉथम पर हमला करता है। ब्रूस वेन भी लीग ऑफ शैडोज़ में ही प्रशिक्षित होता है और बैटमैन बनने की क्षमता अर्जित करता है। लेकिन वह लीग ऑफ़ शैडोज़ के रास्ते का परित्याग कर गॉथम वापस आ जाता है और बैटमैन बनता है। बहरहाल, रास अल गुल ने गॉथम पर हमले में ब्रूस वेन के उद्योगों के ढाँचे का इस्तेमाल किया जो कि ब्रूस वेन के नियन्त्रण में था और वेन उसके बारे में कहीं ज़्यादा अच्छी तरह से जानता था। इसके कारण अन्ततः ब्रूस वेन रास अल गुल को हरा देता है, लेकिन वह रास अल गुल को मारता नहीं, बल्कि उसे ‘मरने देता है’। बैटमैन कहता है, ‘मैं तुम्हें मारूँगा नहीं, लेकिन तुम्हें बचाना मेरी मजबूरी नहीं है।’ लेकिन स्पष्टतः यह कोई प्रभावी तर्क नहीं है। रास अल गुल बैटमैन को अपने आपको मारने की ही चुनौती देता है और अलग-अलग समय पर वह बैटमैन को एक सार्वभौम, एक सच्चे उबेरमेंश की अपनी भूमिका को अपनाने के लिए उकसाता है। वह कहता है, ‘तुम अभी तक समझ नहीं पाये कि क्या करना अनिवार्य है।’ श्रृंखला की पहली फिल्म में तो बैटमैन रास अल गुल को अपने हाथों से मारने से बच जाता है। लेकिन बैटमैन की नैतिक बाध्यताओं और बन्धनों पर पहली फिल्म में ही सवाल खड़े कर दिये गये हैं। फिल्म स्पष्ट तौर पर यह प्रश्न पूछती है कि क्या नैतिक बन्धनों और बाध्यताओं के साथ पूँजीवादी राज्यसत्ता वास्तव में सार्वभौम हो सकती है? क्या प्रबोधन के जनवाद और समानता के उसूलों के साथ पूँजीवादी सार्वभौम या उबेरमेंश व्यवस्था को बरक़रार रखने का काम कर सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि सार्वभौम व्यवस्था से दूरी लेकर, उससे अलग होकर भी व्यवस्था की रक्षा करे?

श्रृंखला की दूसरी फिल्म में बैटमैन का मुकाबला एक ऐसे खलनायक से होता है जो कि पूर्ण अराजकता में विश्वास करता है। वह रास अल गुल और लीग ऑफ़ शैडोज़ के समान सभ्यता का इसलिए विनाश नहीं करना चाहता कि सभ्यता पतनशीलता के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गयी है और उसे फिर से शुरू करना होगा। उसका पूँजीवादी सभ्यता, पूँजीवादी नैतिकता, पूँजीवादी संरचनाओं में कोई यक़ीन ही नहीं है। वह एक सर्वखण्डनवादी अराजकतावाद का हिमायती है और उसका कोई सकारात्मक प्रस्ताव नहीं है। वह अस्तित्व और सभ्यता की ही अर्थहीनता को दिखला देना चाहता है। इस रूप में वह कोई विकल्प नहीं रखता। वह मानता है कि केवल ‘अराजकता ही न्यायपूर्ण होती है।’ यह क्रान्तिकारी अराजकतावाद से कोसों दूर है जो कि मज़दूर वर्ग में एक टुटपुँजिया क्रान्तिकारिता के ट्रेण्ड के रूप में पैदा हुई थी। यह पूँजीवादी सभ्यता के मरणासन्न और पतनशील दौर में पैदा हुई एक पैथोलॉजिकल, सर्वखण्डनवादी अराजकतावादी प्रतिक्रिया है। जोकर एक प्रसंग में अस्पताल में पड़े हार्वी डेंट को एक नीत्शेइयन मोनोलॉग बोलता है जिसमें कि वह अपने सर्वखण्डनवादी अराजकतावाद को स्पष्ट करता है। वह कहता है कि वह अराजकता का अभिकर्ता है; वह योजनाएँ और स्कीमें बनाने में यक़ीन नहीं करता, वह बस करता है। जोकर आगे कहता है कि पुलिस कमिश्नर गॉर्डन जैसे लोग स्कीमें बनाते हैं। लेकिन स्कीमें बनाने वालों में वह बैटमैन का नाम नहीं लेता। जोकर भी बैटमैन को सार्वभौम बनने के लिए प्रेरित करता और चुनौती देता है। वह एक जगह बैटमैन को कहता है, “उन लोगों की तरह बात मत करो! तुम जानते हो कि तुम उनमें से नहीं हो।” आप कह सकते हैं कि बैटमैन त्रयी में सभी खलनायक एक उपकरण हैं जो कि बैटमैन को एक श्मिटियन पूँजीवादी सार्वभौम बनने के लिए प्रेरित करते हैं और उसे समझाते हैं कि इसके अलावा पूँजीवादी राज्यसत्ता, पूँजीवादी उबेरमेंश के लिए और कोई रास्ता नहीं है। एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था, एक ग़ैर-बराबरी वाले समाज में कानून और व्यवस्था को बरक़रार रखने का काम कानून और व्यवस्था से इतर होकर ही किया जा सकता है! बैटमैन व्यवस्था के आन्तरिक संकट और पूँजीवादी समाज की पतनशीलता को देख रहा है और समझ रहा है। उसके बावजूद वह कानून और व्यवस्था को बरक़रार रखने, यानी कि इसी व्यवस्था को बरक़रार रखने पर बल देता है। वहीं दूसरी ओर वह अपनी नैतिक दुविधाओं और ज़ंजीरों से भी मुक्त नहीं हो पाता है। जोकर इन्हीं अन्तरविरोधों का लाभ उठाता है और इस प्रक्रिया का पर्याप्त आनन्द लेता है। वह बैटमैन के सामने दो विकल्प रखता है या तो वह अपने नैतिक नियमों को तोड़कर जोकर की हत्या करे और एक पूर्ण पूँजीवादी सार्वभौम में तब्दील हो जाये या फिर वह अपने नैतिक नियमों और बुर्जुआ जनवाद के बन्धनों में बँधा रहे और जोकर द्वारा लायी जा रही तबाही को जारी रहने दे। यहाँ हम जो प्रक्रिया घटित होते देख रहे हैं वह है व्यवस्था का निषेध (Negation) या फिर उसकी पुष्टि (Affermation)। जोकर व्यवस्था के सिर्फ़ शुद्ध निषेध का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि बैटमैन व्यवस्था की शुद्ध पुष्टि का प्रतिनिधित्व करता है। इन दोनों के बीच की ग़ैर-द्वन्द्वात्मक बाइनरी जानबूझकर पेश की गयी है क्योंकि ऐसी बाइनरी वास्तव में किसी भी बदलाव की गुंजाइश को समाप्त कर देती है। परिवर्तन की प्रक्रिया न तो शुद्ध रूप से निषेध की प्रक्रिया होती है और न ही शुद्ध रूप से पुष्टि की प्रक्रिया। ऐसी कोई भी प्रक्रिया मूलतः निषेध का निषेध (Negation of Negation) की प्रक्रिया ही हो सकती है।

ज़ाहिर है कि तमाम सुपरहीरो फिल्मों में हमेशा बुरे और अच्छे के बीच के टकराव को आदर्श रूप में चित्रित किया जाता है। बुरा क्यों बुरा है इसकी आम तौर पर कोई कारणात्मक व्याख्या नहीं होती; बुरा बस बुरा होता है; यही बात अच्छाई के चित्रण पर भी लागू होती है। और उसे एक प्रकार के छद्म (पूँजीवादी) यथार्थवाद के ज़रिये पेश किया जाता हैः ‘ऐसा ही होता है! कुछ लोग बुरे होते हैं और वे बुरे कामों को अंजाम देते हैं! इसीलिए हमें हमारे सुपरहीरोज़ की आवश्यकता होती है।’ ‘दि डार्क नाइट’ में भी जोकर किसी विकल्प के प्रस्ताव के बग़ैर पूँजीवादी समाज की खोखली नैतिकता, असमानता, अन्याय और रूपवाद का मज़ाक उड़ाता है और उसकी आलोचना करता है। चूँकि यह आलोचना अपने आप में पूँजीवादी समाज की मरणासन्नता और खोखलेपन के तमाम पहलुओं को उजागर करती है इसलिए जोकर का चरित्र दुनिया भर में पूँजीवाद-विरोध का एक प्रतीक बन गया है। यही कारण है कि फिल्म के जिस हिस्से में पूँजीवादी समाज की नैतिकता की जोकर की आलोचना को ग़लत दिखाया जाता है वह पूरी फिल्म का सबसे कमज़ोर दृश्य है। यह दृश्य वह है कि जिसमें कि जोकर दो नावों में बम लगा देता है; इन नावों में से एक में गॉथम शहर के ख़तरनाक अपराधी होते हैं और दूसरे में सामान्य नागरिक होते हैं; पहली नाव के बम का डेटोनेटर जोकर दूसरी में सवार लोगों के हवाले कर देता है और दूसरी नाव के बम का डेटोनेटर पहली नाव के लोगों के हाथ और दोनों पर ही सवार लोगों को एक निश्चित समय में एक-दूसरे की नाव को उड़ा देने के लिए कहता है, अन्यथा वह दोनों ही नावों को उड़ा देने की धमकी देता है। अन्ततः, दोनों ही नावों के लोगों पर अन्तरात्मा का आकस्मिक हमला होता है और वे एक-दूसरे की जान नहीं लेते! यह दृश्य दर्शकों को सहमत करने में असफल होता है। जोकर इस पर यह टिप्पणी करता है, “आजकल आप किसी भी चीज़ पर भरोसा नहीं कर सकते!” जोकर का चरित्र निश्चित रूप से बहुत ही प्रभावी ढंग से गढ़ा गया चरित्र है और एक बहुत ही स्वयंस्फूर्त सर्वखण्डनवादी अराजकतावाद है, जो पूँजीवादी व्यवस्था के रूपवाद और नकली नैतिकता से बेतरह नफ़रत करता है। इस चरित्र को हीथ लेजर ने जिस तरीके से पर्दे पर उतारा है, उसे हॉलीवुड फिल्मों के इतिहास के सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंस में से एक कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

लेकिन फिर भी जोकर द्वारा पूँजीवादी नैतिकता और आचार की यह आलोचना कोई प्रगतिशील वैज्ञानिक आलोचना नहीं है जो कि आलोचना की प्रक्रिया में ही एक विकल्प को पेश करती है, बल्कि यह नीत्शे की ‘जीनियॉलजी ऑफ मॉरल्स’ के मानवतावाद-विरोध और सर्वखण्डनवादी अराजकतावाद का एक प्रतिगामी मिश्रण है, जो केवल परिघटनात्मक तौर पर रैडिकल दिखता है। बहरहाल, जोकर पूँजीवादी सार्वभौमता के समक्ष जो चुनौती पेश करता है और बैटमैन के अन्तरविरोधों को जिस तरह उजागर करता है, उसे फिल्म के अन्त में पुलिस कमिश्नर गॉर्डन और बैटमैन एक प्रकार से स्वीकार करते हैं। वे एक प्रकार से यह मानते हैं कि पूँजीवादी सार्वभौमता कभी भी नैतिक नहीं हो सकती है। नतीजतन, एक संसदीय आपातकाल (‘अपवादस्वरूप स्थिति’) लागू कर दी जाती है, जिसके कानूनी प्रावधान डेंट कानून के रूप में सामने आते हैं और डेंट कानून एक प्रकार से बैटमैन की असफल सार्वभौमता का विकल्प बनते हैं, जो कि फर्जी नैतिकता में फँसी हुई थी। बैटमैन अभी तक, रास अल गुल के शब्दों में, यह समझ नहीं सका था कि क्या करना अपरिहार्य और अनिवार्य है। लेकिन जैसा कि होता है, कोई भी संवैधानिक कानूनी प्रावधान किसी न किसी प्रकार की नैतिक बाध्यता में फँसा ही होता है। इस रूप में डेंट कानून भी क्रमिक प्रक्रिया में निष्प्रभावी हो जाता है। वैसे भी यदि कानूनी संवैधानिक ढाँचे में डेंट कानून जैसा कोई कानून लागू किया जाता है तो वह राज्यसत्ता की हिंसा को ऐसी व्यापकता देता है जो कि उसके वर्चस्व के लिए ही एक ख़तरा बन जाता है। वर्चस्वकारी प्राधिकार का एक ही अर्थ हो सकता है बिना ज़ोर-ज़बर्दस्ती के लोगों को ऐसी स्थिति में रखना जिससे कि वे बिना प्रश्न उठाये प्राधिकार को स्वीकार करें। डेंट कानून जैसे कानून के ज़रिये ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए संवैधानिक पूँजीवादी राज्यसत्ता की ही अपनी एक सीमा होती है और वह अपवादस्वरूप स्थिति पर निर्णय लेने में आन्तरिक रूप से अक्षम होती है। पूँजीवाद के राजनीतिक व आर्थिक संकट के दौर में यह बात और भी ज़्यादा लागू होती है। यही कारण है कि एक ऐसे प्राधिकार (सार्वभौम) की आवश्यकता होती है, जो कि पूँजीवादी राज्यसत्ता से अलग भी रहे और पूँजीवादी शासन की ही रक्षा भी करे। यह कार्य एक श्मिटियन सार्वभौम ही कर सकता है, जिसका एक वास्तविक अवतरण, श्मिट के अनुसार हिटलर था!

बैटमैन त्रयी में संवैधानिक पूँजीवादी राज्यसत्ता का सार्वभौमता पर दावा जानबूझकर कमज़ोर दिखलाया गया है। मिसाल के तौर पर, राज्यसत्ता हर जगह कमज़ोर, भ्रष्ट, निष्प्रभावी निकाय के तौर पर प्रदर्शित की गयी है। इस राज्यसत्ता को बाईपास करने के रास्ते अपराधियों ने निकाल लिये हैं। वे उससे डरते नहीं। डेंट कानूनों के बाद पैदा किया गया राज्यसत्ता का भय भी लघुजीवी रहा और अपराधियों ने अपने तौर-तरीके बदलकर उससे बच निकलने के रास्ते निकाल लिये। बैटमैन इस रूप में एक सार्वभौम था कि उसे अपने प्राधिकार की स्वीकार्यता के लिए किसी प्रकार की ज़ोर-ज़बर्दस्ती की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन वह सार्वभौमता की सभी शर्तों को पूर्ण करने के लिए तैयार नहीं था। तीसरी फिल्म ‘दि डार्क नाइट राइज़ेज़’ में अन्ततः बैटमैन सार्वभौमता की सारी शर्तों को पूरा करने और इस ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार होता दिखता है। तीसरी फिल्म में एक बार फिर विकल्प के तौर पर एक ऐसी अराजकता का चित्रण किया गया है जिससे कि लोग इस कदर डर जायें कि वे पूँजीवादी समाज की दमनकारी, अन्यायपूर्ण और शोषणकारी “स्थिरता” और “सुरक्षा” को ही स्वीकार कर लें। इस फिल्म का मुख्य खलनायक है बेन। बेन ‘लीग ऑफ शैडोज़’ का सदस्य है और वह रास अल गुल की ही पुरानी योजना को अमल में लाने के लिए आता है। लेकिन बाद में पता चलता है कि वह इतनी मेहनत अपने संगठन के विचारों से प्रेरित होकर नहीं बल्कि रास अल गुल की बेटी तालिया से प्रेम की वजह से कर रहा था! यहाँ यह फिल्म यह भी टिप्पणी करती नज़र आती है कि वास्तव में विचारधारात्मक प्रेरण कभी भी लोगों को प्रेरित नहीं करता; कोई न कोई व्यक्तिगत या निजी चाहत ही अन्ततः लोगों को संचालित करती है। बहरहाल, बेन रास अल गुल और जोकर के विपरीत एक प्रकार का अराजकतावादी विद्रोह संगठित करता है। लेकिन आप पाते हैं कि उसके विद्रोही सिपाही वास्तव में सशस्त्र भाड़े के गुण्डे हैं! उनमें सामान्य मेहनतकश जनता, मज़दूर आदि नहीं शामिल हैं! वास्तव में, मेहनतकश जनता और मज़दूर वर्ग तो इन तीनों ही फिल्मों में या तो अनुपस्थित है या उसका चित्रण जान बचाने के लिए भागती भीड़ आदि के रूप में ही किया गया है। दूसरी ओर, बेन के अराजकतावादी विद्रोह को इस रूप में चित्रित किया गया है कि उसकी तुलना आप कई ऐतिहासिक घटनाओं से कर सकते हैं, जैसे कि बास्तीय किले पर धावा, बोल्शेविक क्रान्ति के ठीक पहले, उसके दौरान और उसके ठीक बाद फैली “अराजकता” और बुर्जुआ वर्ग की सम्पत्ति की ज़ब्ती आदि, मॉस्को मुकदमे का वह चित्र जो कि पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया ने बहुप्रचारित किया है और साथ ही ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आन्दोलन। मिसाल के तौर पर, एक दृश्य में बेन गॉथम की एक मुख्य जेल पर हमला कर डेंट कानूनों के तहत बन्दी बनाये गये कैदियों को छुड़वा लेता है। जो खून की प्यासी भीड़ उस जेल से बाहर आती दिखलायी जाती है उसमें अधिकांश लोग काले, मुलैटो, चिकानो आदि हैं। एक दूसरे दृश्य में बेन को वॉल स्ट्रीट को ऑक्युपाई करते हुए दिखलाया गया है! हालाँकि, यह कब्ज़ा बेन सशस्त्र भाड़े के गुण्डों के अपने गिरोह द्वारा करता है! लेकिन चूँकि ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट जनता के बीच लोकप्रिय आन्दोलन था इसलिए इसके बिम्बों का इस्तेमाल बैटमैन के पक्ष में भी किया जाता है। जैसे कि बैटमैन के प्रतीक की छाया को एक इमारत पर डाला जाना जो कि वास्तव में आपको उस वाकये की याद दिलाता है जबकि ऑक्युपाई आन्दोलन के नारे को वेरिज़ॉन वायरलेस की इमारत पर प्रोजेक्ट किया गया था। इस रूप में फिल्म ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आन्दोलन के एक ख़ास पहलू पर हमला करती है, जिसमें कि दार्शनिक और ऐतिहासिक तौर पर हिंस्र सम्भावना-सम्पन्नता थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस आन्दोलन में आन्दोलनकारियों द्वारा कोई हिंसा नहीं की गयी थी। लेकिन ‘ऑक्युपाई’ करना राज्यसत्ता के दृष्टिकोण से अपने आप में एक हिंसक कार्रवाई थी जोकि एक संकटग्रस्त, मरणासन्न और खोखले हो चुके शासक वर्ग को भयभीत करने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए ऑक्युपाई आन्दोलन के बिम्बों और छवियों पर फिल्म में दोनों पक्षों से दावा पेश किया गया है और बताया गया है कि इस आन्दोलन का हिंस्र पहलू उसी तरह से विपदा लाने वाला है, जिस तरह से बेन गॉथम पर विपदा लाता है। यही कारण है कि वॉल स्ट्रीट पर बेन के हमले को भयावह रूप में चित्रित किया गया है, जो कि किसी भी सम्पत्तिधारी (चाहे वह टुटपुँजिया ही क्यों न हो!) को भयाक्रान्त करने के लिए पर्याप्त है। हालाँकि बेन इस प्रक्रिया में पूँजीवादी सट्टेबाज़ी और बुरे पूँजीवाद पर टीका-टिप्पणी भी करता रहता है, लेकिन इससे उस दृश्य की प्रमुख प्रभावोत्पादकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

बेन के इस हमले से पैदा होने वाली असुरक्षा ही वह कारक बनती है जो कि अन्त में बैटमैन को सभी लोगों को एक व्यवस्था-समर्थक एकता में बाँधने में कामयाब बनाती है। लोग अराजकतावादी “आज़ादी” के ख़तरों की बजाय पूँजीवादी “सुरक्षा” के इत्मीनान को अपनाते हैं। बेन पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध अराजकतावादी विद्रोह के ज़रिये गॉथम को नष्ट करना चाहता है। गॉथम के लोगों का चित्रण, जैसा कि हमने बताया, एक विशेष प्रकार है जिसमें कि वास्तविक जनता ग़ायब है। जनता या तो लम्पट टुटपुँजिया या लम्पट ग़रीब लोगों के रूप में सामने आती है, जोकि बेन द्वारा गॉथम के लोगों को “शहर पर अपना दावा पुनः पेश करने की आज़ादी” का लाभ उठाते हुए शहर भर में लूटपाट मचा रहे हैं, या फिर वह पत्रकारों की भीड़ है जो कि बेन द्वारा जेल पर हमले के दौरान भाग रहे हैं। इस तरह से जनता फिल्म में एक आकारहीन और अनिश्चयपूर्ण निकाय है जिसे कि बेन जैसे षड्यन्त्रकारी आसानी से अपनी जुमलेबाज़ी का शिकार बना लेते हैं।

इस फिल्म का खलनायक भी बैटमैन को पूर्ण सार्वभौम बनने की चुनौती देता है और इस रूप में बैटमैन को पूर्ण सार्वभौम बनाने का एक उपकरण है। फिल्म की शुरुआत में ही बैटमैन की सार्वभौमता की कमज़ोरी को दिखलाने के लिए ब्रूस वेन को बीमार, कमज़ोर हो चुके व्यक्ति के रूप में दिखलाया जाता है। और उसके विपरीत लीग ऑफ शैडोज़ के मुखिया बेन को दर्शाया जाता है जो अत्यधिक शक्तिशाली है, जो कि किसी भी नैतिकता, नियम और कानून को त्यागने को तैयार है और इस रूप में सार्वभौम की भूमिका को पूर्ण रूप से अपनाने के लिए तैयार है। उसकी यह शक्ति ही उसे बैटमैन को लड़ाई में हराने और बैटमैन की कमर तोड़ने में सक्षम बनाती है। लेकिन वह बैटमैन को मारने की बजाय उस जेल में डाल देता है जिससे भागना नामुमकिन है और जिसमें वह स्वयं था। वहाँ वह बैटमैन को कहता है कि तुम्हें यहाँ पड़े रहकर गॉथम की तबाही देखनी होगी और फिर तुम्हें मेरी ओर से मरने की इजाज़त है। यह एक ओर स्वयं के सच्चे सार्वभौम होने की अभिव्यक्ति है (जबकि अधीनस्थ व्यक्ति का खुद के जीवन पर भी नियन्त्रण नहीं रह जाता) लेकिन साथ ही यह बैटमैन को एक सार्वभौम बनने की चुनौती भी है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को एक चुनौती है कि यदि वह सभी प्रकार के बुर्जुआ जनवादी बाध्यताओं और नियम-कानूनों का परित्याग करने को तैयार नहीं है तो आने वाले समय में उसका अस्तित्व ही संकट में पड़ जायेगा क्योंकि पूँजीवादी समाज अपने भयंकर असमानता, अन्याय और शोषण के साथ हमेशा शान्ति से नहीं चल सकता है। जब बैटमैन इस चुनौती को स्वीकार करता है और जेल में अपनी शक्ति पुनः अर्जित करता है, तो उसके भीतर भी एक बदलाव आता है। अब वह सार्वभौम बनने और उसके लिए सभी नैतिकताओं का परित्याग करने को तैयार है। बैटमैन वापस आकर बेन को हराता है और फिर वही बात बेन को कहता है, ‘अब तुम्हें मेरी ओर से मरने की आज्ञा है।’ तभी बेन की प्रेमिका और रास अल गुल की बेटी तालिया बैटमैन को चाकू भोंक देती है। लेकिन तभी सेलीना काइल बैटमैन की बैट मोबील पर प्रकट होती है और बेन को मार डालती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बैटमैन को बेन को अपने हाथों से नहीं मारना पड़ा। बैटमैन का यह कहना ही कि तब तुम्हें मरने की इजाज़त है, यह दिखलाता है कि बैटमैन अब पुराना बैटमैन नहीं रहा। ब्रूस वेन अपनी इच्छा के विपरीत पाता है कि उसे व्यवस्था से इतर होकर व्यवस्था की रक्षा करने की भूमिका यानी कि एक सच्चे सार्वभौम की भूमिका निभानी होगी। लेकिन वह स्वयं इसके लिए तैयार नहीं है। इसलिए अन्त में वह गॉथम को परमाणु बम से बचाते हुए मारे जाने का स्वाँग करता है (या सम्भवतः सच में मारा जाता है क्योंकि बाद में अल्फ्रेड का एक कॉफी हाउस में ब्रूस वेन और सेलीना काइल को एक नयी ज़िन्दगी जीते हुए देखना एक सपना भी हो सकता है)। पुलिस बल का एक जूनियर ऑफिसर ब्लेक अब नया बैटमैन बनने की प्रक्रिया में दिखलाया जाता है। यानी ब्रूस वेन ने बैटमैन के रूप में पूर्ण सार्वभौम की भूमिका को स्थायी तौर पर अपनाने से इंकार कर दिया है। लेकिन एक पूँजीवादी व्यवस्था को पूर्ण सार्वभौम चाहिए ही होता है। इसलिए बैटमैन ख़त्म नहीं होता। इस पूर्ण सार्वभौम की भूमिका को अपनाने के लिए ऑफिसर ब्लेक आगे आता है और पुलिस बल से इस्तीफ़ा देते हुए वह पुलिस कमिश्नर गॉर्डन के शब्दों को दुहराते हुए कहता है, “कभी-कभी संरचनाएँ बेड़ियाँ बन जाती हैं।” यह फिल्म का प्रतीकात्मक कथन है और उसका सन्देश है।

इस तरह से यह फिल्म वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था और समाज के शोषण, असमानता और अन्याय को छिपाने का प्रयास नहीं करती क्योंकि ऐसा करना व्यर्थ होगा। इसलिए यह फिल्म पूँजीवादी यथार्थवाद के साथ इस तथ्य को स्वीकार करती है। लेकिन साथ में बेन के रूप में एक छद्म विकल्प को पेश करती है। इस फिल्म त्रयी की हर फिल्म एक छद्म विकल्प पेश करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था को एकमात्र सम्भव विकल्प के रूप में पेश करती है और वास्तव में सम्भव विकल्पों का एक ऐसा कैरीकेचर पेश करती है, जो कि जनता की निगाह में उन्हें डिस्क्रेडिट करे। मिसाल के तौर पर, त्रयी की आखि़री फिल्म में, जैसा कि हमने ऊपर बताया, फ्रांसीसी क्रान्ति और रूसी क्रान्ति के बिम्बों का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया है। जेल पर बेन का हमला और उसके बाद की अराजकता एक मँडराते हुए संकट का भय पैदा करने वाला दृश्य  है। साथ ही, मॉस्को मुकदमे के विषय में साम्राज्यवादी दुष्प्रचार पर आधारित बेन द्वारा चलाये जा रहे जन ट्रिब्यूनल का दृश्य यह दिखलाता है कि जनता न्याय करने में अक्षम है। केवल पूँजीवादी जनवाद की तयशुदा प्रणालियों के ज़रिये ही न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है, चाहे वह अधमरा और निहायत देर से मिलने वाला न्याय हो। जनता का द्रुत न्याय भयंकर और भयावह है। बुनियादी सन्देश यह है कि आप उन लोगों पर भरोसा करें जो सत्ता चला रहे हैं, चाहे यह सत्ता कितनी ही दोषपूर्ण क्यों न हो।

साथ ही, चलते-चलते फिल्म एक प्रकार से विकीलीक्स और स्नोडेन के खुलासों पर भी टिप्पणी करती है। फिल्म का यह सन्देश कई दृश्यों में उभरकर सामने आता है कि जनता सत्य के लिए तैयार नहीं है! जनता के सामने यदि सत्य को तत्काल उजागर किया गया तो यह विनाशकारी होगा। और जो ये सच्चाइयाँ उजागर करते हैं, वे दरअसल देशद्रोही और बुरे लोग हैं। मिसाल के तौर पर, गॉर्डन का गुप्त पत्र जो कि यह बताता है कि गॉथम का ‘व्हाइट नाइट’ हार्वी डेंट एक अपराधी बन चुका था, बेन द्वारा जनता के सामने उजागर कर दिया जाता है और नतीजतन पूरी बुर्जुआ व्यवस्था और न्याय पर से ही जनता का भरोसा उठ जाता है और इससे बेन को अवसर मिल जाता है कि वह अपनी आतंकवादी अराजकता फैला सके। साथ ही, ब्रूस वेन का न्यूक्लियर रिएक्टर सूचना लीक होने की वजह से ही बेन के हाथ लग जाता है क्योंकि तालिया बेन को इस रिएक्टर के बारे में बता देती है, जिसे कि ब्रूस वेन अपना साथी मानता था। तालिया की मुखबिरी का नतीजा यह होता है कि बेन उस रिएक्टर को गॉथम को नष्ट करने के लिए एटम बम बनाने में इस्तेमाल करता है। इस प्रकार वह झीना पर्दा उठ जाता है जिसे बैटमैन और कमिश्नर गॉर्डन गिराये रखना चाहते थे, यानी न्याय और जनवाद का वह झीना पर्दा जो पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को छिपाता है। और पूँजीवादी व्यवस्था के इस सत्य के उजागर होने से वह पूरी व्यवस्था ही संकट में पड़ जाती है जो कि अपनी तमाम कमियों के बावजूद एक स्थिरता, सुरक्षा और निश्चितता दे रही होती है; वह सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था जिसकी मानव जाति उम्मीद कर सकती है। इस रूप में बैटमैन फिल्म त्रयी सही मायने में उत्तरआधुनिक फिल्में हैं।

यह संयोग नहीं है कि नोलन बैटमैन त्रयी की अपनी तीसरी फिल्म में चार्ल्स डिकेन्स के ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज़’ के दृश्यों से प्रभावित दृश्य खड़े करते हैं। स्लावोय ज़िज़ेक ने अपनी समीक्षा में दिखाया है कि अल्फ्रेड ब्रूस वेन के अन्तिम संस्कार पर इसी उपन्यास की आख़िरी पंक्तियाँ पढ़ता है। वास्तव में, ये तीनों ही फिल्में अच्छे पूँजीपति और बुरे पूँजीपति के बीच के अन्तर को जिस रूप में इस्तेमाल करती हैं, उसे भी डिकेन्सियन कहा जा सकता है। बुरा पूँजीवाद किस प्रकार के विनाशकारी जनविद्रोह की ओर ले जा सकता है, ‘ए टेल ऑफ टू सिटीज़’ में डिकेन्स इसका वर्णन करते हैं। बैटमैन त्रयी की तीसरी फिल्म में बेन के अराजकतावादी विद्रोह का चित्रण काफ़ी-कुछ वैसा ही है। यहाँ नोलन की उदारवादी चिन्ताएँ भी प्रकट हो रही हैं। नोलन पूँजीपति वर्ग को चेता भी रहे हैं कि इस प्रकार की पतनशीलता अन्ततः घातक हो सकती है। लेकिन चूँकि नोलन भी कहीं न कहीं जानते हैं कि ऐसी चेतावनियों का आदमखोर पूँजीवाद पर कोई विशेष असर नहीं पड़ने वाला है, इसलिए वे साथ में समस्या का एक निदान भी सुझाते हैं जो और कुछ नहीं बल्कि एक श्मिटियन पूँजीवादी सार्वभौम ही हो सकता है। लेकिन साथ ही नोलन अराजकतावादी विद्रोह की हिंसा से सभी को भयभीत करना चाहते हैं। वह याद दिलाते हैं कि रॉब्सपियेर के ‘आतंक के राज्य’ में क्या हुआ था! इस रूप में वह हिंसा के प्रश्न को ही वर्गेतर बना देते हैं; जनता की हिंसा का एक ख़ास विकृत चित्रण किया जाता है और राज्यसत्ता की हिंसा को जवाबी हिंसा और कानून, व्यवस्था और शान्ति पुनर्स्थापित करने की हिंसा के रूप में दिखलाया जाता है; यह दिखलाया जाता है कि लोग बेन के अराजकतावादी विद्रोह (के ढोंग) की हिंसा को देखकर सुरक्षा की चाहत में किस प्रकार बैटमैन और पुलिस के साथ एकजुट हो जाते हैं। हिंसा के प्रश्न का यह ट्रीटमेण्ट स्पष्टतः पूँजीवादी व्यवस्था की सतत् जारी हिंसा को अप्रासंगिक बना देता है। ज़िज़ेक ने मार्क ट्वेन की प्रसिद्ध रचना ‘ए कनेक्टिकट यांकी इन किंग आर्थर्स कोर्ट’ के इस उद्धरण को पेश करते हुए इस चित्रण पर सही टिप्पणी की है, हालाँकि फिल्म की उनकी कुल आलोचना से सहमत होना थोड़ा मुश्किल हैः

“अगर हम याद करें और इस पर विचार करें तो हम पाते हैं कि ‘आतंक का राज्य’ एक नहीं बल्कि दो हैं; एक वह जो कि उबलते आवेग में ढला हुआ था, और दूसरा जो कि हृदयहीनता और ठण्डेपन से भरा हुआ था—हमारे कन्धे मामूली ‘आतंक’, क्षणिक ‘आतंक’ की ‘भयावहताओं’ पर काँप उठते हैं; अगर ग़ौर किया जाय तो कुल्हाड़ी के हाथों अचानक द्रुत मौत, भूख, ठण्ड, अपमान, क्रूरता और गहरे शोक के हाथों जीवन भर चलने वाली मौत की तुलना में क्या है? एक शहर का कब्रिस्तान उस संक्षिप्त से ‘आतंक’ से भरे गये ताबूतों को जगह देने के लिए पर्याप्त है जिसके नाम पर काँप उठने और मातम मनाने के लिए हमें इतनी श्रमसाध्यता के साथ प्रशिक्षित किया गया है; लेकिन उस ज़्यादा पुराने और वास्तविक आतंक के कारण भरे गये ताबूतों के लिए सारा फ्रांस छोटा पड़ेगा, वह अकथ्य रूप से कड़वा और भयंकर आतंक, जिसे उस व्यापकता या करुणा के साथ देखना हममें से किसी को भी नहीं सिखाया गया, जिसका कि वह अधिकारी है।”

मानव इतिहास में किसी भी मुक्तिकामी, वास्तव में मुक्तिकामी प्रक्रिया में कुछ न कुछ बल प्रयोग, आतंक या हिंसा होती ही है। वर्ग समाज का यह अकाट्य ऐतिहासिक सत्य है। यह फिल्म हिंसा की भयावहता को पूँजीवादी परिप्रेक्ष्य से दिखाकर हर प्रकार के मुक्तिकामी जनान्दोलन पर ही चोट करती है और जनता में भी उसके प्रति भय पैदा करती है। इस रूप में यह फिल्म कई स्तरों पर काम करती है और उसका पूरा बिम्ब-विधान क्रिस्टोफर नोलन ने बड़े ही करीने से रचा है। वैसे तो इस फिल्म में मॉडर्निस्ट स्थापत्य-कला, रंगों के प्रयोग, ध्वनियों और पार्श्व संगीत के प्रयोग पर भी विस्तार से लिखा जाना चाहिए। लेकिन अभी यह हमारे लेख की सीमा से परे है। इस फिल्म में, हम कह सकते हैं, कि नोलन एक सच्चे और उम्दा कंज़र्वेटिव कलाकार के समान फिल्म की विधा का सूक्ष्मतम, व्यापकतम और कुशलतम इस्तेमाल करते हैं और इसीलिए यह फिल्म बहुसंस्तरीय है, बहुस्वरीयता से परिपूर्ण है और ख़तरनाक तरीके से साम्राज्यवादी नवउदारवादी तर्कों का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करती है। और यही कारण है कि सुपरहीरो फिल्मों में नोलन की बैटमैन त्रयी एकदम अलग और विस्तृत आलोचनात्मक समीक्षा की माँग करती है। यहाँ हमारा मकसद केवल इस फिल्म की समीक्षा नहीं बल्कि सुपरहीरो फिल्मों की शैली के रूप और अन्तर्वस्तु की आलोचनात्मक पड़ताल था। इसीलिए इस फिल्म की एक बेहद संक्षिप्त और असन्तुष्ट करने वाली समीक्षा हमने यहाँ रखी है।

अन्त में, हम कहना चाहेंगे कि पूँजीवादी आर्थिक व राजनीतिक संकट के दौर में पलायनवादी कल्पनाओं के रूप में और वास्तविक समस्याओं के फैण्टास्टिक समाधान प्रस्तुत कर यथार्थ में अनुपस्थित मूल्यों व अभाव (lack) की एक प्रतिगामी पूर्ति कर सुपरहीरो फिल्में समूची पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था की सेवा करती हैं और जनता की पहलकदमी की भावना (वह जिस मात्रा में भी हो या सम्भावना के रूप में हो) को ख़त्म करने और उस पर चोट करने का काम करती हैं। इनमें बैटमैन त्रयी जैसी फिल्में इस कार्य को कई स्तरों पर व्यवस्था के लिए वैधीकरण तैयार करते हुए करती हैं। ये फिल्में छद्म विकल्पों का द्वन्द्व पेश कर जनता के समक्ष एक विकल्पहीनता की स्थिति के पक्ष में राय बनाती हैं और यह यक़ीन दिलाने का प्रयास करती हैं कि जो है वह सन्तोषजनक नहीं है, लेकिन यही वह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है, जिसकी हम उम्मीद कर सकते हैं। ये फिल्में वर्तमान साम्राज्यवाद के कुकर्मों को सूक्ष्म सिनेमैटिक रूपकों के ज़रिये सही ठहराने का प्रयास करती हैं। साथ ही, ऐसी तमाम फिल्में समाज में किसी उबेरमेंश की वांछनीयता के लिए स्वीकार्यता बनाकर प्रतिक्रिया की ज़मीन भी पैदा करती हैं। यह संयोग नहीं है कि तमाम दक्षिणपंथी और फासीवादी राजनीति के नेताओं को राजनीतिक प्रचार अभियानों के दौरान सुपरमैन, बैटमैन, आयरन मैन या किसी और सुपरहीरो के रूप में पेश किया जाता है जो कि अपनी निर्णायकता, द्रुत और हिंस्र न्याय, आदि के ज़रिये सबकुछ ठीक कर सकता है। इनमें से एक-एक फिल्म की व्यापक और सूक्ष्म आलोचना की आवश्यकता है और जनपक्षधर सांस्कृतिक आलोचकों को यह कार्य हाथ में लेना चाहिए। वैसे तो दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यवादी संस्कृति उद्योग हॉलीवुड के हर उत्पाद की ही करीबी से आलोचनात्मक पड़ताल की जानी चाहिए।

  • नान्दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

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साम्राज्यवाद, दमन, शोषण, उत्पीड़न, यातना शिविर…? जी नहीं जनाब! ये सब आपकी आँखों का धोखा है! मार्टिन स्कॉर्सेज़ी पिछले कुछ दशकों से हॉलीवुड के अग्रणी निर्देशकों में से एक रहे हैं। उनके नाम ‘रेजिंग बुल’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘मीन स्ट्रीट्स’, ‘गुडफेलाज़’, ‘दि डिपार्टेड’, आदि जैसी प्रसिद्ध और आलोचकों द्वारा सराही गयी फिल्में दर्ज़ हैं। मार्टिन स्कॉर्सेज़ी इतालवी मूल के हैं और उनका बचपन इटली के जिस हिस्से में बीता वहाँ एक प्रकार से माफ़ियाओं का राज चलता था। एक बार स्कॉर्सेज़ी ने कहा था कि माफ़िया क्या होता है, यह देखने के लिए उन्हें सिर्फ अपनी खिड़की से पर्दा हटाने की ज़रूरत थी। read more

आइज़ेंस्ताइन का फ़िल्म–सिद्धान्त और रचनात्मक प्रयोग

यह तथ्य तो आज स्थापित हो ही चुका है कि आइज़ेंस्ताइन सर्वहारा सिनेमा के एक महानतम सिद्धान्तकार और प्रयोगकर्ता थे। लेकिन सच सिर्फ़ इतना ही नहीं है। सच तो यह है कि कलात्मक सृजन के वैचारिक तथा ज्ञान मीमांसीय तथा सौन्दर्यात्मक पहलुओं पर, सामाजिक यथार्थ के कलात्मक संज्ञान और कलात्मक पुनसृजन के प्रश्न पर, तथा, कला की सामाजिक भूमिका के प्रश्न पर आइजे़स्ताइन का मौलिक चिन्तन कला की मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी को और सौन्दर्यशास्त्र को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने वाला है। एक विडम्बना यह भी है कि आइज़ेंस्ताइन का जो लेखन वक्तव्यों, डायरियों, पत्रों, लेखों के संकलनों और पुस्तकाकार प्रबन्धों के रूप में हमारे सामने मौजूद है, वह, बहुत अधिक लगने के बावजूद, उनके सम्पूर्ण कृतित्व का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है। read more