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नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

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हमारी बात

क्या हमारे देश के जनपक्षधर संस्कृतिकर्मी आसन्न युद्ध के लिए तैयार हैं?

अभिलेख

बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन – बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

सिनेमा वैचारिकी

पूँजीवाद का संकट और ‘सुपर हीरो’ व ‘एंग्री यंग मैन’ की वापसी (दूसरी क़िस्त) – अभिनव सिन्हा

मीडिया वैचारिकी

पूँजीवाद में विज्ञापनों की विचारधारा और पूँजीवादी विचारधारा का विज्ञापन – शिवानी

संगीत

एक नयी संगीत संस्कृति के निर्माता – हान्स आइस्लर

साहित्य जगत

साहित्य में अवसरवादी घटाटोप के सामाजिक-आर्थिक कारण – कविता कृष्णपल्लवी

उद्धरण – नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

स्‍त्री प्रश्न

स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श – कात्यायनी

सामयिकी

कला-संस्कृति, शिक्षा एवं अकादमिक जगत पर भगवा फासिस्टों का बर्बर हमला – आनन्द सिंह

नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ – मीनाक्षी

साहित्य में अवसरवादी घटाटोप के सामाजिक-आर्थिक कारण

पूँजीवादी सत्ता की नीतियों में आये परिवर्तन से भी अधिक उन सामाजिक-आर्थिक कारणों का अध्ययन महत्वपूर्ण है, जिनके कारण बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा आज आसानी से व्यवस्था द्वारा खरीद-फरोख्त, सौदेबाज़ी और सहयोजन का सहर्ष शिकार होने लगा है। यह अनायास नहीं है कि 1990 के दशक में नवउदारवाद की चौतरफा लहर के बाद यह परिघटना ज़्यादा बड़े पैमाने पर, एक आम प्रवृत्ति बनकर उभरी है। read more

हान्स आइस्लर – एक नयी संगीत संस्कृति के निर्माता

मज़दूरों के संगीत आन्दोलन में विशेषज्ञों का यह काम है कि वे क्रान्तिकारी कला के नये कार्यों में निहित भौतिक परिवर्तनों का परीक्षण करें। साथ ही मज़दूरों की व्यापक आबादी और उनके पदाधिकारियों को अपने विशेषज्ञों को बाध्य करना चाहिए कि वे यह विश्लेषण ज़रूर करें और इसके नतीजों को अमल में लागू करके उनका नियंत्रण तथा आलोचनात्मक परीक्षण करें। read more

पूँजीवाद में विज्ञापनों की विचारधारा और पूँजीवादी विचारधारा का विज्ञापन

विज्ञापन न सिर्फ पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका अदा करते हैं बल्कि वे पूँजीवादी विचारधारात्मक उपकरण के रूप में पूँजीवादी दृष्टिकोण, मनोविज्ञान और संस्कृति का बेहद चालाकी और बारीकी के साथ प्रचार-प्रसार भी करते हैं। विज्ञापन अत्यन्त वर्चस्वकारी तरीके से एक ख़ास नज़रिये से सोचने के लिए लोगों (जिसे कि वे महज़ उपभोक्ता के रूप में देखते हैं) की सहमति लेने का काम करते हैं। read more

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन

हमारे वे दोस्त जो फ़ासीवाद की बर्बरता से उतने ही भयभीत हैं जितने हम, मगर जो सम्पत्ति स्वामित्व की शर्तों को सुरक्षित रखना चाहते हैं या फिर उनके बचाव के प्रति उदासीन हैं वह बर्बरता के ख़िलाफ़ पर्याप्त रूप से सशक्त या निरन्तर संघर्ष नहीं कर सकते जिसकी अभी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। क्योंकि वे न तो उन सामाजिक परिस्थितियों को नाम दे सकते है न ही उनके निर्माण में सहायता कर सकते हैं जिनमें बर्बरता के लिए कोई जगह नहीं होगी। read more

कला-संस्कृति, शिक्षा एवं अकादमिक जगत पर भगवा फासिस्टों का बर्बर हमला

फासीवाद का मुक़ाबला सिर्फ़ मानवतावादी गुहारों के ज़रिये लोगों के दिलो-दिमाग में दख़ल करने के सौन्दर्यशास्त्रीय तरीके से नहीं किया जा सकता। फासीवाद के खि़लाफ़ एक जुझारू सांस्कृतिक आन्दोलन खड़ा करने के लिए कला और संस्कृति के मोर्चे को कहीं अधिक गम्भीरता से लेने की ज़रूरत है। कुलीनतावादी, अकर्मक, सांकेतिक, अनुष्ठानधर्मी, पैसिव एवं रक्षात्मक तरीकों से फासीवाद का मुक़ाबला कतई नहीं किया जा सकता। read more

उद्धरण – नान्‍दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

संकट ठीक इसी तथ्य में निहित है कि पुराना मर रहा है और नये का जन्म नहीं हो सकता; इस सन्धिकाल में तमाम किस्म के रुग्ण लक्षण उभर आते हैं।

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नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ

नोबल शान्ति पुरस्कार वास्तव में साम्राज्यवादी एजेण्डा है। इसके हकदार वे लोग और वित्तपोषित ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएँ होती हैं जो जनता के बीच नवउदारवादी नीतियों की स्वीकार्यता बनाने में ‘विचारधारात्मक पारगमन टिकट’ के तौर पर काम कर सकें। यानी वर्ग संघर्ष से वर्ग सहयोग की ओर! यह नवसाम्राज्यवाद का जनविद्रोह-विरोधी रणनीति है। बाल अधिकारों के प्रति साम्राज्यवादी देश, उनकी सेवा में सन्नद्ध अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और देशी विदेशी अनुदान से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं के मानव प्रेम का पहलू आज इसीलिए इतना मुखर हो उठा है ताकि नवउदारवादी नीतियों के अमल से जन्मे स्वतःस्फूर्त जन उभारों और जनआन्दोलनों को व्यवस्था के भीतर ही संगठित करके एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण किया जा सके और मौजूदा चौहद्दी में ही अर्थव्यवस्था के विकास के नाम पर अनुग्रहवादी व गरीबी कार्यक्रम को फण्ड देकर जन समर्थन हासिल किया जा सके। read more

स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श

हर सामाजिक परिघटना में निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों का द्वन्द्व मौजूद रहता है। परम्परा से विच्छिन्न आधुनिकता हो ही नहीं सकती। सिद्धान्त के स्तर पर आधुनिकता एक सार्वभौमिक मूल्य है, लेकिन अलग-अलग संस्कृतियों, देशों, राष्ट्रों, समाजों में उनके इतिहास-विकास की गति और विशिष्टता के हिसाब से सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में आधुनिकता-बोध के रूप और प्रकृति में वैविध्य होता है। पश्चिमी समाजों में आधुनिकता के उद्भव और विकास का जो काल और जो प्रक्रिया रही है, वही काल और वही प्रक्रिया औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में नहीं रही है। इससे भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी महादेशों और इन महादेशों के अलग-अलग देशों में आधुनिकता के इतिहास की गति और प्रकृति की भिन्नताओं को लक्षित किया जा सकता है।

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पूँजीवाद का संकट और ‘सुपर हीरो’ व ‘एंग्री यंग मैन’ की वापसी (दूसरी क़िस्त)

पूँजीवादी आर्थिक व राजनीतिक संकट के दौर में पलायनवादी कल्पनाओं के रूप में और वास्तविक समस्याओं के फैण्टास्टिक समाधान प्रस्तुत कर यथार्थ में अनुपस्थित मूल्यों व अभाव (lack) की एक प्रतिगामी पूर्ति कर सुपरहीरो फिल्में समूची पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था की सेवा करती हैं और जनता की पहलकदमी की भावना (वह जिस मात्रा में भी हो या सम्भावना के रूप में हो) को ख़त्म करने और उस पर चोट करने का काम करती हैं। इनमें बैटमैन त्रयी जैसी फिल्में इस कार्य को कई स्तरों पर व्यवस्था के लिए वैधीकरण तैयार करते हुए करती हैं। ये फिल्में छद्म विकल्पों का द्वन्द्व पेश कर जनता के समक्ष एक विकल्पहीनता की स्थिति के पक्ष में राय बनाती हैं और यह यक़ीन दिलाने का प्रयास करती हैं कि जो है वह सन्तोषजनक नहीं है, लेकिन यही वह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है, जिसकी हम उम्मीद कर सकते हैं। read more