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स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श

स्त्री प्रश्न: परम्परा, आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के सन्दर्भ में एक विमर्श

कात्यायनी

सबसे पहले परम्परा और आधुनिकता के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में मैं कुछ बातें करना चाहूँगी। परम्परा और आधुनिकता को द्वन्द्वात्मक युग्मक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। आधुनिकता का विपरीत ध्रुव परम्परा नहीं, बल्कि मध्ययुगीनता, प्राक्-आधुनिकता या परम्परा-पूजा होता है।

            हर सामाजिक परिघटना में निरन्तरता और परिवर्तन के तत्वों का द्वन्द्व मौजूद रहता है। परम्परा से विच्छिन्न आधुनिकता हो ही नहीं सकती। सिद्धान्त के स्तर पर आधुनिकता एक सार्वभौमिक मूल्य है, लेकिन अलग-अलग संस्कृतियों, देशों, राष्ट्रों, समाजों में उनके इतिहास-विकास की गति और विशिष्टता के हिसाब से सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में आधुनिकता-बोध के रूप और प्रकृति में वैविध्य होता है। पश्चिमी समाजों में आधुनिकता के उद्भव और विकास का जो काल और जो प्रक्रिया रही है, वही काल और वही प्रक्रिया औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक समाजों में नहीं रही है। इससे भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिकी महादेशों और इन महादेशों के अलग-अलग देशों में आधुनिकता के इतिहास की गति और प्रकृति की भिन्नताओं को लक्षित किया जा सकता है।

            विश्व इतिहास एक अनवरत जारी यात्रा  है जिसमें अलग-अलग युगों में अलग-अलग भूभाग कभी आगे, कभी पीछे होते रहे हैं। विशेष ऐतिहासिक कारणों से, यूरोप  पुनर्जागरण (रिनेसां), प्रबोधन (एज ऑफ एनलाइटेनमेण्ट) और पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों का रंगमंच बना। पुनर्जागरण-प्रसूत मानववाद और प्रबोधन काल-प्रादुर्भूत भौतिकवादी तर्कणा और जनवाद (स्वतंत्रता-समानता- भ्रातृत्व का त्रिसूत्र) ने मध्यकालीन धर्मकेन्द्रिकता (थियोसेण्ट्रिज़्म) और पारलौकिकता के स्थान पर मानव-केन्द्रिकता (एन्थ्रोपोसेण्ट्रिज़्म) और इहलौकिकता के विचारधारात्मक वर्चस्व को स्थापित किया। यूरोप में आधुनिकता की घटना का समारम्भ वस्तुतः प्रबोधनकाल से ही हुआ।

            स्त्री समुदाय के लिए आधुनिकता की यह क्रान्तिकारी बुर्जुआ परियोजना आरम्भ से ही अन्तरविरोधी और द्विखण्डित थी। एक ओर जहाँ पुनर्जागरण के मानववाद ने सामाजिक व्यवस्था की तमाम दैवी स्वीकृतियों पर प्रश्नचिन्ह उठाकर और इहलौकिकता के मूल्यों-मान्यताओं को स्थापित करके प्रकारान्तर से स्त्रियों की पराधीनता की धार्मिक स्वीकृति के विधानों को भी चुनौती दी, वहीं प्राचीन ग्रीक और रोमन परिवारों के मॉडल और रोमन कानूनों के नमूनों के अनुकरण ने स्त्रियों की घरेलू गुलामी को किसी हद तक बल प्रदान करने का भी काम किया। इसी तरह, प्रबोधनकालीन तर्कणा और जनवाद के राजनीतिक दर्शन ने अमेरिकी और फ्रांसीसी बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों की पूर्वबेला में स्त्रियों में समान नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की चेतना को जन्म दिया, वहीं प्रबोधनकाल के दौरान ही यह बेतुकी मान्यता भी बहुप्रचलित हुई कि समाज की प्रारंभिक अवस्था से ही स्त्री पुरुष के अधीनस्थ थी। फिर भी इस ऐतिहासिक तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियों की सामाजिक आज़ादी और स्त्री-पुरुष समानता की माँग की वैचारिक पूर्वपीठिका पुनर्जागरण और प्रबोधन की सैद्धान्तिकी ने ही तैयार की थी।

            अमेरिकी क्रान्ति (1776-1883) के दौरान मर्सी वारेन और अबिगेल एडम्स ने स्त्रियों के मताधिकार और सम्पत्ति के अधिकार सहित सामाजिक समानता की माँग को संविधान में शामिल करने के लिए वाशिंगटन और जैफ़र्सन पर दबाव डाला था, पर बुर्जुआ वर्ग के एक बड़े हिस्से के विरोध के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। फ्रांसीसी क्रान्ति की पूर्वबेला में पहली स्त्री पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ और ‘क्रान्तिकारी स्त्री क्लबों’ के रूप में स्त्रियों के पहले संगठन अस्तित्व में आये।

            ओलिम्प द गाउजेस ने ‘मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा’ के ऐतिहासिक दस्तावेज के मॉडल पर ‘स्त्रियों और स्त्री नागरिकों के अधिकार की घोषणा’ तैयार की जिसे 1791 में राष्ट्रीय असेम्बली के समक्ष प्रस्तुत भी किया गया। फ्रांसीसी क्रान्ति के अधिकांश नेताओं ने स्त्री-पुरुष समानता के विचारों को खारिज कर दिया, पर साथ ही स्त्रियों की शिक्षा और तलाक लेने में आसानी सहित उन्हें कई नागरिक अधिकार भी इसी दौरान प्राप्त हुए। थर्मिडोरियन प्रतिक्रिया और नेपोलियॉनिक कोड के दौर में, न केवल फ्रांस बल्कि पूरे यूरोप में स्त्रियों के नागरिक अधिकारों को एक बार फिर अतिसीमित कर दिया गया। बुर्जुआ क्रान्तियों के काल में स्त्री आन्दोलन का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज मेरी वोल्सटन क्राफ़्ट की पुस्तक ‘स्त्री अधिकारों का औचित्य प्रतिपादन’ थी, जो ओलिम्प द गाउजेस के दस्तावेज़ के प्रतिपादनों को ही उन्नत रूप में प्रस्तुत करती थी।

            उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यूरोप में सामन्तवाद के विरुद्ध लम्बे समय में विजय हासिल करते हुए पूँजीपति वर्ग जैसे-जैसे अपनी सत्ता का सुदृढ़ीकरण करता गया, वैसे-वैसे भूदासता की जगह उजरती दासता (वेज-स्लेवरी) लेती चली गयी, सम्पत्ति का अधिकार मूल नागरिक अधिकार बनता चला गया और प्रबोधन की मुक्तिकारी आधुनिकता की परियोजना को विकृत और खण्डित करके बुर्जुआ वर्ग ने चर्च से “पवित्र गठबन्धन” कर लिया। पुरुष वर्चस्ववाद का रूप मात्र बदल गया। सीमित सामाजिक आज़ादी के साथ घरेलू दासता और सामाजिक उत्पादन में कामगार स्त्रियों की निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलामी । बुर्जुआ पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे की यही मूल अन्तर्वस्तु थी, जिसकी जीवन्त तस्वीर उन्नीसवीं शताब्दी के कई उपन्यासों में देखने को मिलती है। उन्नत-चेतस स्त्रियों ने महसूस किया कि मताधिकार के बुर्जुआ जनवादी अधिकार को हासिल करना पुरुष वर्चस्व और सामाजिक असमानता के विरुद्ध उनके दीर्घ संघर्ष यात्रा  का पहला मील का पत्थर होना चाहिए। समूची उन्नीसवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों तक पश्चिम में स्त्री आन्दोलन का यही केंद्रीय एजेंण्डा रहा। जनवादी अधिकार के इस आन्दोलन में मध्यवर्गीय स्त्रियों के साथ मज़दूर स्त्रियाँ भी शामिल थीं। 1830 के दशक में अश्वेत लोगों के मुक्ति संघर्ष के दौरान बनी दासता विरोधी स्त्री सोसाइटियों में और ब्रिटेन के चार्टिस्ट आन्दोलन में मेहनतकश स्त्रियों की महत्वपूर्ण भागीदारी थी। 1848-49 की यूरोपीय क्रान्तियों और जून 1848 के पेरिस के प्रथम सर्वहारा विद्रोह में स्त्रियों की प्रभावी भागीदारी के बाद फ्रांस में फिर से स्त्री क्लबों की स्थापना के साथ पहली बार स्त्री मज़दूरों के स्वतंत्र संगठन बने। जुलाई, 1848 में न्यूयार्क में एलिजाबेथ कैण्डी स्टैंटन और लुकेसिया कफिन मोंट की अगुआई में आयोजित पहले स्त्री अधिकार सम्मेलन ने अपने घोषणापत्र में मताधिकार सहित पूर्ण कानूनी समानता, पूर्ण शैक्षिक और व्यावसायिक अवसर, समान मज़दूरी और समान मुआवजे की की माँग उठायी। फिर यह आन्दोलन तेजी से आगे बढ़कर यूरोप तक जा पहुँचा।

            उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे-पाँचवें दशक में फ्रांस में रचे गये क्रान्तिकारी यथार्थवादी साहित्य में हमें स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी और सामाजिक असमानता की तीखी आलोचना देखने को मिलती है। इसमें लेखिका जी- सांद के उपन्यास ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं। इसी विचार-सरणि को आगे बढ़ाते हुए रूसी क्रान्तिकारी जनवादियों में अग्रणी, नारी मुक्ति के सर्वाधिक प्रखर पैरोकार चेर्नीशेव्स्की ने ‘क्या करें’ उपन्यास में पहली बार अपने समय से काफी आगे का एक ऐसा स्त्री चरित्र प्रस्तुत किया जिसने संकीर्ण पारिवारिक दायरे से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र सामाजिक-आर्थिक स्थिति बनायी थी और जो सामाजिक सक्रियताओं में भी संलग्न थी। काफी हद तक स्त्री-प्रश्न पर चेर्नीशेव्स्की के विचार सेंट साइमन, फूरिये और ओवेन जैसे यूटोपियाई समाजवादी विचारकों के निकट थे जिन्होंने पहली बार स्त्रियों को पूर्ण समानता का दर्जा देने को समाज के पुनर्गठन को अपनी परियोजना का एक बुनियादी मुद्दा बनाया।

            मार्क्सवाद ने पहली बार नृतत्वशास्त्र और इतिहास की खोजों के आधार पर स्त्री-पुरुष के बीच असमानता और स्त्री की अधीनस्थता के प्राकृतिक कारणों की धारणा का तर्कसंगत निर्मूलन करते हुए यह सिद्ध किया कि स्त्री की पराधीनता और पुरुष स्वामित्व का जन्म आदिम समाजों में निजी स्वामित्व के जन्म और वर्गों के उद्भव की प्रक्रिया के साथ हुआ जो अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं में रूप-परिवर्तन के साथ बना रहा। इस प्रस्थापना की एक तार्किक निष्पत्ति यह थी कि स्त्री की पराधीनता की पूर्ण समाप्ति निजी स्वामित्व और वर्ग-विभेद की समाप्ति के साथ ही सम्भव हो सकती है। मार्क्स एंगेल्स और लेनिन के अनुसार, पूँजीवाद ने सस्ती श्रम शक्ति निचोड़ने के लिए स्त्रियों के बड़े हिस्से को घरों से बाहर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में धकेलकर वस्तुगत तौर पर एक प्रगतिशील काम किया क्योंकि यह स्त्री मुक्ति की पहली शर्त थी और यह भी आवश्यक था कि समाज की आर्थिक इकाई होने का एकल परिवार का गुण नष्ट कर दिया जाये। लेकिन पूँजीवाद ने घरेलू दासता से अंशत: ही मुक्त करके स्त्रियों को निकृष्टतम कोटि का उजरती मज़दूर तो बनाया। दूसरी ओर सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर उन्हें उन्नत से उन्नत पूँजीवादी जनवाद ने भी वास्तविक समानता नहीं दी। दूसरा पहलू, बुर्जुआ परिवार के स्त्री-उत्पीड़क चरित्र का था। बुर्जुआ परिवारों में गृहिणियाँ ही नहीं, कामकाजू स्त्रियों की भी आंशिक घरेलू दासता घरेलू प्रबन्धन और बच्चों के लालन-पालन के सम्बन्ध में बनी रही। एकनिष्ठ विवाह की सामाजिक मान्यता सभ्यता की एक जीत थी जो पहले ही हासिल की जा चुकी थी। बुर्जुआ समाज में सीमित हद तक स्त्रियों को भी चयन की आज़ादी मिली, लेकिन प्रेम समाप्त हो जाने या बेवफाई की स्थिति में वैवाहिक करार तोड़ने के मामले में स्त्री उतनी स्वतंत्र कभी नहीं रही। कानूनी सुविधा होने पर भी सामाजिक संस्थाएँ और मूल्य उसकी राह में रोड़े थे और बच्चों के पालन की सामाजिक व्यवस्था का अभाव भी एक समस्या था। बुर्जुआ विवाह में सारी एकनिष्ठता वस्तुतः स्त्री के लिए होती है और विवाह को ढोना उसी की विवशता होती है। इन्हीं सन्दर्भों में एंगेल्स ने बुर्जुआ विवाह को एक “संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति” की संज्ञा दी थी। मार्क्स ने सेक्सुअल क्रियाकलाप को “शरीर के सर्वोच्च कार्य” की संज्ञा दी, पर उसे मात्र यौन संसर्ग के रूप में देखने के बजाय उन्होंने व्यक्तिगत यौन प्रेम में दैहिक आकर्षण और तज्जन्य सौन्दर्यात्मक-आत्मिक मनोभावों का संश्लिष्ट अमूर्तन देखा, जहाँ रुचियों और विचारों की एकता के बिना, मात्र साहचर्य से यौनाकर्षण उत्पन्न नहीं होता। इसके बाद मार्क्स ने स्पष्ट किया कि बुर्जुआ समाज में वास्तविक एकनिष्ठ प्यार आम तौर पर इसलिए सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि पण्य-पूजा (कमोडिटी फेटिशिज़्म), और श्रम विभाजन जनित अलगाव (एलियनेशन) मानवीय सेक्सुअल क्रियाकलाप को विरूपित करके, उसे सौन्दर्यात्मिकता, औदात्य और मानवीय सारतत्व से रिक्त करके पाश्विक यौन-तुष्टि मात्र बना डालते हैं। सार्वजनिक जीवन में वस्तुकरण (रीइफिकेशन) और पण्यपूजा की संस्कृति स्त्री श्रम शक्ति को ही नहीं, सदेह स्त्री को ही एक पण्य या माल समझने की पुरुषवर्चस्ववादी संस्कृति को सर्वव्यापी बना देती है। दूसरी बात, वास्तविक प्रेम वास्तव में दो पूर्ण स्वतंत्र नागरिकों के बीच ही सम्भव हो सकता है। बुर्जुआ समाज में स्त्री की दोयम दर्जे की नागरिकता होने के चलते वास्तविक प्रेम की सम्भावना न्यून हो जाती है। इसी आधार पर मार्क्स कहते हैं कि स्त्री को अधीनस्थ बनाकर पुरुष वस्तुतः स्वयं को भी वास्तविक प्रेम न पाने के लिए अभिशप्त बनाता है। जिन्होंने एंगेल्स की ‘परिवार, निजी सम्पत्ति, राज्यसत्ता की उत्पत्ति’ के अतिरिक्त इस प्रश्न पर मार्क्स की ‘हेगेल्स फिलॉसोफी आफ राइट’, ‘होली फैमिली’ और ‘जर्मन आइडियोलॉजी’ से सन्दर्भित अंशों को नहीं पढ़ा है, वे प्रायः फतवा दे देते हैं कि स्त्री प्रश्न पर मार्क्सवाद का नजरिया वर्ग-अपचयनवादी (क्लास-रिडक्शनिस्ट) है और वह स्त्री-उत्पीड़न या जेण्डर- विमर्श के विविध आत्मिक-नैतिक प्रश्नों को नहीं छूता। इस प्रश्न पर विस्तार से मैंने अपनी पुस्तिका ‘प्रेम, परम्परा और विद्रोह’ में चर्चा की है।

            मार्क्सवाद जिस समय स्त्री-प्रश्न की नयी सैद्धान्तिकी और नया नीति शास्त्र (एथिक्स) प्रस्तुत कर रहा था, उसी समय बुर्जुआ समाज का वर्ग-विभेदीकरण स्त्री आन्दोलन को दो धाराओं में बाँटने की ज़मीन तैयार कर रहा था। स्त्रियों के जनवादी अधिकार आन्दोलन में से मध्यवर्गीय प्रबुद्ध स्त्रियों की एक धारा ऐसी पैदा हो रही थी जो स्त्रियों की पराधीनता को सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से विच्छिन्न करके ‘स्त्री बनाम पुरुष’ या मात्र स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी के रूप में देख रही थी। इसी धारा के भीतर से बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में ‘यौन स्वच्छन्दता’ और मुक्त प्रेम की अनैतिहासिक-अवैज्ञानिक धारणाएँ पैदा हुईं। कुछ समय के लिए ‘मुक्त प्रेम’ (यानी स्वच्छंद यौन सम्बन्ध) जैसी धारणाओं का समाजवादी नारी आन्दोलन पर भी प्रभाव पड़ा और अनेसा आरमां और अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई भी इसकी पैरोकार हो गयी थीं, जिसका लेनिन ने तर्कों सहित विरोध किया था। स्त्री अधिकार आन्दोलन के भीतर एक दूसरी धारा स्त्री मज़दूर आन्दोलन की फूटी जो समूची स्त्री समुदाय के जनवादी अधिकारों के साथ ही स्त्री-मज़दूरों की कम मज़दूरी, कार्यस्थल पर उत्पीड़न, प्रजनन अवकाश, बच्चों के लालन-पालन की सुविधा जैसी उन माँगों को भी उठा रही थीं, जिनसे मध्यवर्गीय स्त्रियों का कोई सरोकार नहीं था। ये मज़दूर स्त्रियाँ यूनियन गतिविधियों और मज़दूर संघर्षों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं। पेरिस कम्यून और मज़दूर दिवस आन्दोलन (शिकागो) में स्त्री मज़दूरों की अहम भूमिका एक सर्वज्ञात तथ्य है। 1905-7 और 1917 की रूसी क्रान्ति में भी उनकी व्यापक पैमाने की भागीदारी थी। यूँ तो अधिकांश यूरोपीय देशों में स्त्री मज़दूर संगठन बने थे, पर ऐसा सबसे बड़ा और शक्तिशाली संगठन जर्मन स्त्री मज़दूरों का था।

            उन्नीसवीं शताब्दी में मताधिकार सहित जिन जनवादी अधिकारों के लिए पश्चिम में स्त्री समुदाय संघर्ष कर रहा था, उनमें से अधिकांश उसे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हासिल हो चुके थे। उनकी सामाजिक स्थिति में भी भारी बदलाव आये थे, हालाँकि स्त्री उत्पीड़न और पुरुष स्वामित्ववाद के नये-पुराने रूप अभी भी मौजूद थे। पूँजीवादी संकट और पतनशीलता की उपज फासीवाद तीसरे दशक से तेजी से फला-फूला। फासीवाद के धुर नारी-विरोधी विचारों का विरोध तीसरे-चौथे दशक में स्त्री आन्दोलन के एजेण्डे पर प्रमुख कार्यभार था। सोवियत संघ में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में आये परिवर्तनों ने यूरोप के प्रमुख मध्यवर्गीय स्त्रियों की बड़ी आबादी को भी समाजवाद की ओर आकृष्ट किया।

            लेकिन बीसवीं शताब्दी के मध्य से, यानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के दौर में, पश्चिम में आधुनिक बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलन की धारा का विकास शुरू हुआ। 1946 में फ्रांसीसी में और 1953 में अंग्रेजी भाषा में सिमोन द बोउवा की प्रसिद्ध कृति ‘द सेकेण्ड सेक्स’ का प्रकाशन हुआ जिसमें पुरुष-वर्चस्व वाले सामाजिक परिवेश द्वारा स्त्री मानस के अनुकूलन और नारी उत्पीड़न के कई सूक्ष्म पहलुओं को उद्घाटित करते हुए यह प्रस्तावना दी गयी थी कि स्त्रियों की मुक्ति में ही पुरुषों की भी मुक्ति है जो स्वयं पुरुष स्वामित्व की मानवद्रोही मानसिकता के दास हैं। इस सटीक प्रस्थापना के बावजूद, इस पुस्तक में स्त्री-पराधीनता के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण, स्त्री-मुक्ति की ठोस परियोजना और स्त्री आन्दोलन के सुस्पष्ट कार्यक्रम का अभाव था। इसके बाद बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलन की वैचारिकी क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से विमुख होती चली गयी। यदि सूत्रवत् कहा जाये तो विभिन्न नारीवादियों ने स्त्री के मुख्य शत्रु के रूप में (1) पुरुष को (2) स्त्री के जैविक प्रजनन कार्य को (3) परिवार को और (4) पितृसत्तात्मक समाज को रेखांकित किया।

            बेट्टी फ्रीडन ने अपनी पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टिक’ (1963) में स्त्रियों की घरेलू दासता और पुरुष स्वामित्व को स्वीकार करने के लिए उनके मानसिक अनुकूलन की प्रक्रिया की उग्र लेकिन एकांगी और अनैतिहासिक आलोचना प्रस्तुत की। ‘सोसाइटी फॉर कटिंग अप मैन’, ‘वाटफोर्ड विमेन्स लिबरेशन वर्कशॉप’ और ‘नाटिंघम विमेन्स लिबरेशन ग्रुप’ जैसे मंचों ने धनी और गरीब सभी स्त्रियों को समान रूप से उत्पीड़न का शिकार बताते हुए पुरुषों को अपना शत्रु बताया। इसके जो समाधान उन्होंने सुझाये उनका दायरा हवाई अतिवाद से लेकर निम्न बुर्जुआ सुधारवाद तक फैला हुआ था। एक समाधान बताया गया कि पुरुषों को औकात में लाने के लिए सत्ता केन्द्रों पर शक्तिशाली स्त्री नेत्रियों को काबिज़ होना चाहिए। दूसरा समाधान स्त्रियों की एक विश्व सरकार बनानी होगी। तीसरा समाधान  महिलाओं की बैंकिंग, स्टाक एक्सचेंज में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी, टैक्स कानूनों व अन्य कानूनों में सुधार। जाहिर है इन आधारों पर बुर्जुआ फैशनपरस्ती और सुधारवाद से आगे कोई आन्दोलन खड़ा ही नहीं हो सकता था।

            1971 में जर्मेन ग्रीयर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फीमेल यूनक’ प्रकाशित हुई और 1978 में ईवा फिग्स की पुस्तक ‘पैट्रियॉर्कल एटिट्यूड्स’ प्रकाशित हुई। ग्रीयर और फिग्स ने (तर्क-प्रणाली की कतिपय भिन्नताओं के साथ) मूलतः विवाह संस्था और पितृसत्तात्मक परिवार को ही स्त्री-उत्पीड़न का मूल कारण बताया और इनके उन्मूलन के मूल रूप में एक निहायत यूटोपियाई समाधान प्रस्तुत किया। दोनों ही लेखिकाओं ने सामाजिक उत्पादन-प्रक्रिया के विकास के साथ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और परिवार के विकास और स्वरूप-परिवर्तन के नृतत्वशास्त्रीय और ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना करते हुए इन्हें अपरिवर्तनशील प्रकृति का बताया, वर्गीय शोषण के साथ स्त्री उत्पीड़न का कोई सम्बन्ध नहीं देखा। जर्मेन ग्रीयर ने राजनीतिक अधिरचना और परिवार की सामाजिक-आर्थिक इकाई के बीच सम्बन्धों को सिर के बल खड़ा करते हुए यह स्थापना दी कि यदि पितृसत्तात्मक परिवार का उन्मूलन कर दिया जाये तो इससे राज्यसत्ता की एक उपसंरचना का भी अतिक्रमण हो जायेगा। नारीवादियों के ब्रिस्टल समूह और एलेन एडम्स जैसी नारीवादी लेखिकाओं के विचार भी कुछ ऐसे ही थे।

            अपनी पहली ही पुस्तक ‘डायलेक्टिक्स ऑफ सेक्स’ (1972) से चर्चित नारीवादी लेखिका शुलास्मिथ फायरस्टोन के तर्क तो और अधिक अनैतिहासिक हैं। वे स्त्री उत्पीड़न का मूल कारण स्त्री-पुरुष के बीच की जैविकीय भिन्नता और स्त्री के प्रजनन कार्य को मानती हैं। उनका मानना है कि गर्भाधान और बच्चे के पालन-पोषण की नीरस विवशता स्त्री-दासता को जन्म देती है। बेशक, बच्चे के पालन-पोषण और घरेलू कामों का निकृष्ट-नीरस बोझ स्त्री को कुचल देता है, पर यह स्त्री की नारकीय परवशता का एक रूप है, मूल कारण नहीं। मूल कारण निजी स्वामित्व वाली वर्गीय संरचना में एकल परिवार का ढाँचा है। मार्क्सवादी साहित्य में इसकी काफी चर्चा है और यह बताया गया है कि इसका अन्तिम समाधान तभी हो सकता है जब उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के समाजीकरण के बाद बड़े पैमाने पर सार्वजनिक भोजनालय, शिशुशालाएँ और पालनाघर आदि स्थापित हों और तुच्छ घरेलू कामों की ज़िम्मेदारी से मुक्त स्त्री समुदाय सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र में प्रवेश करे। लेकिन शुलास्मिथ और उन जैसी नारीवादी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि (1) स्त्रियों को यथासम्भव प्रजनन के आतंक से मुक्त होना होगा, (2) सभी स्त्रियों को यौन स्वतंत्रता होनी चाहिए, (3) गर्भपात और गर्भनिरोध की पूरी आज़ादी होनी चाहिए। बेशक गर्भपात और गर्भनिरोध की आज़ादी एक जनवादी अधिकार है, पर यह स्त्री उत्पीड़न का समाधान कदापि नहीं। आज यह अधिकार जिन देशों में मिल चुका है, वहाँ भी स्त्रियाँ उत्पीड़ित ही हैं। दूसरी बात, खाते-पीते घरों की जो स्त्रियाँ बाहर काम करती हैं और आया-गवर्नेस आदि रखकर बच्चे के लालन-पालन के बोझ से मुक्त हैं, ऐसा नहीं कि परिवार और समाज के भीतर उनकी दोयम दर्जे की नागरिकता की स्थिति समाप्त हो गयी हो। रही बात, यौन-स्वतंत्रता की, तो यह एक मानवीय प्रेम की उदात्त आत्मिक अवधारणा के विपरीत धारणा है, इस मार्क्सवादी सोच की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। जीवन-साथी के चयन और सम्बन्ध विच्छेद की स्वतंत्रता एक बात है और स्वच्छन्द यौन-सम्बन्ध, प्रेम के बिना यौन सम्बन्ध या एक ही समय में एकाधिक लोगों से प्रेम सम्बन्ध एक बुर्जुआ मानसिक विकृति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता। सुसंस्कृत मनुष्य का आदर्श केवल एकनिष्ठ प्रेम ही हो सकता है।

            सत्तर के दशक में जिस नारीवादी विचारक की सबसे अधिक चर्चा रही वह केट मिलेट थीं, जिनकी पहली पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ 1970 में प्रकाशित हुई, पर अमेरिकी नारीवादी आन्दोलन में वह ’60 के दशक से ही सक्रिय थीं। केट मिलेट यौनिकता और इतरलैंगिकता (हेटेरोसेक्सिज्म) का विस्तृत विश्लेषण 1830 के दशक के सीमित ऐतिहासिक काल की साहित्यिक कृतियों (मुख्यतः डी-एच-लारेंस, हेनरी मिलर और नॉर्मन मेलर) के आधार पर करती हैं जो अपने आप में दिलचस्प है। पर मॉर्गन और एंगेल्स की स्थापनाओं पर बिना कोई तर्क किये वह यह स्थापना देती है कि आदिम काल में पितृसत्ता से पूर्व की कोई अवस्था नहीं थी (यानी पितृसत्ता शुरू से ही मौजूद रही है)। पितृसत्ता के जैविक आधार को तो वह खारिज करती हैं, लेकिन उत्पादन प्रक्रिया, निजी सम्पत्ति और वर्गों के ऐतिहासिक विकास से भी इसके रिश्ते को वह स्वीकार नहीं करतीं। इसे वह समाजीकरण की प्रक्रिया की देन मानती हैं जो केवल ‘आस्था’ पर आधारित सोच को इस प्रकार प्रस्तुत करती है मानो वह सोच पूर्णतः एक मूल्य व्यवस्था पर आधारित हो। इस तरह केट मिलेट के पूरे फ्रेमवर्क में पितृसत्ता के सामाजिक-आर्थिक संरचना के साथ अन्तर्सम्बन्ध और राज्यसत्ता के  साथ उसके सम्बन्ध का कोई स्थान नहीं है। अन्ततोगत्वा उनके निशाने पर पितृसत्तात्मक परिवारों की इकाइयों से संघटित समाज ही आता है। व्यावहारिक स्तर पर स्त्रियों द्वारा पुरुष स्वामित्व का प्रतिरोध करने से आगे स्त्री मुक्ति की कोई भी ठोस परियोजना वह प्रस्तुत नहीं करतीं।

            1960 और ’70 के दशक में नारीवादी आन्दोलन का जो उभार आया था, उसमें ये सभी विचार-सरणियाँ घुली-मिली थीं। इनमें जनवादी अधिकार की माँगों से लेकर यौन स्वच्छन्दतावादी अन्धविद्रोह की अभिव्यक्तियाँ तक शामिल थीं। इनका मुख्य जोर बहनापा (सिस्टरहुड), किसी प्रकार के संगठन या राजनीतिक विचारधारा के विरोध और स्वयंस्फूर्तता पर था। इनकी जनवादी अधिकारों की माँगों का दायरा भी निम्न बुर्जुआ दायरे तक सीमित था। वस्तुगत तौर पर यदि इनका कोई सीमित सकारात्मक प्रभाव पड़ा तो इतना कि स्त्रियों को प्राप्त जनवादी अधिकारों का दायरा थोड़ा विस्तारित हो गया और जड़ीभूत धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों की जकड़बन्दी थोड़ी और ढीली हो गयी।

            वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा से प्रभावित स्त्री आन्दोलन पर सोवियत संघ में 1956 में ख्रुश्चेव के नेतृत्व में शुरू हुई पूँजीवादी पुनर्स्थापना का गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। समाजवादी मुखौटे वाली राजकीय एकाधिकारी पूँजीवादी सत्ता के अन्तर्गत सामाजिक- सांस्कृतिक विपर्यय की एक लहर चली। घरेलू काम, मातृत्व आदि का महिमामण्डन करते हुए स्त्रियों को फिर चारदीवारी के पीछे धकेला जाने लगा। सार्वजनिक उत्पादन में भी उनकी स्थिति दोयम दर्जे की होने लगी। स्त्री विरोधी अपराध और वेश्यावृत्ति फिर से अस्तित्व में आ गये। इस ख्रुश्चेवी लहर का विश्वव्यापी प्रभाव भी पड़ा। जुझारू स्त्री संगठन मध्यवर्गीय सुधारवादी फैशनपरस्त क्लब बनने लगे। स्त्री मज़दूर संगठनों में भी एक किस्म की ट्रेड यूनियन नौकरशाही पैदा होने लगी। चीन में आयी “बाज़ार समाजवाद” की पूँजीवादी लहर और 1980 के दशक में गोर्बाचोव काल से लेकर सोवियत संघ के विघटन तक के दौर में वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीय अश्वमेघ का घोड़ा जब निर्बन्ध पूरी पृथ्वी पर दौड़ने लगा तो विश्व पूँजी के थिंक टैंकों ने संस्कृति के अन्य क्षेत्रों की तरह स्त्री आन्दोलन की एक नयी वैचारिकी तैयार की और एन.जी.ओ.  एवं तथाकथित ‘नये सामाजिक आन्दोलनों’ (न्यू सोशल मूवमेण्ट्स’) के साम्राज्यवादी वित्तपोषित संजाल द्वारा उसे पूरी दुनिया में सुधारवादी स्त्री आन्दोलन की नयी लहर के रूप में फैलाया।

            इस उत्तर नारीवाद की मूल सैद्धान्तिकी अस्मिता-राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स) थी, जो वस्तुतः उत्तर आधुनिकतावादी प्रस्थापनाओं पर आधारित थी। इसलिए उत्तर आधुनिकतावाद के इतिहास-दर्शन की कुछ  बुनियादी प्रस्थापनाओं के उल्लेख के बिना इसकी चर्चा नहीं की जा सकती। उत्तर आधुनिकतावादी इतिहास-दृष्टि के अनुसार, आज के युग में प्रबोधनकालीन आदर्शों का वर्चस्वकारी मिथक खण्डित हो चुका है और क्रान्तियों (बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति, सर्वहारा क्रान्ति, राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति । सभी) के महाख्यानों (मेटा-नैरेटिव्स) का विसर्जन हो चुका है। इसके अनुसार, किसी भी प्रकार का सार्विकीकरण (यूनिवर्सलाइजे़शन), सामान्यीकरण (स्टैण्डर्डाइज़ेशन) या प्रतिमानपरकता (नॉर्मेटिवनेस) दमनकारी होता है। प्रबोधन वास्तव में एक षड्यंत्र था। आधुनिकता, तर्कणा, जनवाद आदि इसकी विशेषताएँ वस्तुतः इसी षड्यंत्र का हिस्सा हैं जिनके नाम पर पश्चिम ने प्राच्य विश्व को अपना गुलाम बनाया। जाहिरा तौर पर उत्तर आधुनिकतावाद प्रबोधनकालीन आधुनिकता की परियोजना के विस्तार के तौर पर समान आरोपों के साथ समाजवाद को भी खारिज करता है। यह पूरा तर्क समाज विकास के नियमसंगति और आर्थिक पहलू को पूरी तरह खारिज करता है। पूँजीवाद के सभी दुष्कर्मों के लिए यह प्रबोधन के महान आदर्शों को ही दोषी ठहरा देता है और प्रथम चक्र के समाजवादी प्रयोगों के पतन-विघटन की भी सामाजिक-आर्थिक पड़ताल किये बिना ही, इस आधार पर मार्क्सवादी विचारधारा को ही विफल घोषित कर देता है। इन सभी विचारों को एक साथ पश्चिमी औपनिवेशिक विमर्श की श्रेणी में रखते हुए उनके बरक्स उत्तर आधुनिकतावाद “प्राच्य मासूमियत”, देशी पारम्परिक सामुदायिक, भाषाई, सांस्कृतिक अस्मिताओं और परम्पराओं को महिमामण्डित करता है। यानी एक तरफ तो यह हर तरह के सारभूतीकरण (एस्सेंशियलाइजे़शन) का विरोध करता है, लेकिन आधुनिकता की परियोजना का विरोध करते हुए स्वयं तमाम प्राक्-आधुनिक पहचानों का सकारात्मक निरपेक्षीकरण (पॉज़िटिव एब्सोल्यूटाइजेशन) करता है। यानी जो आधुनिक है, वह बुरा है, जो प्राक्-आधुनिक है, वह अच्छा है। ल्योतार से शुरू हुए इस चिन्तन को फिर फूको, देरिदा आदि ने आगे बढ़ाया और एक दूसरे से जुड़ी कई उत्तर-विचार-सरणियाँ अस्तित्व में आयीं। उत्तर आधुनिकतावाद के अगले पुरोधा मिशेल फूको ने यह स्थापना दी कि सत्ता (पावर) पोर-पोर में समायी होती है, दैनन्दिन जीवन में सर्वव्याप्त होती है, विकेन्द्रित होती है और लोगों द्वारा आभ्यन्तरीकृत (इण्टर्नलाइज़) कर ली जाती है। अतः यह अप्रतिरोध्य है। लोग यदि सामाजिक रूपान्तरण के लिए कोई सामूहिक प्रतिरोध करते भी हैं, तो उससे सिर्फ ’ सत्ता का नया रूप ’ पैदा होता है, जो स्वयं दमनकारी होता है। अतः सत्ता का कोई भी संगठित सामूहिक प्रतिरोध व्यर्थ है। आगे फूको बताते हैं कि सत्ता और दमन के मूल में भी सार्विकीकरण, मानकीकरण, सामान्यीकरण की अवधारणा होती है, अतः आप सिर्फ यह कर सकते हैं कि व्यक्तिगत जीवन में हर प्रकार के ‘नार्म’ और ‘यूनिवर्सल’ का खण्डन करते हुए सत्ता और दमन का प्रतिरोध करें, निजी जीवन में जाति, जेण्डर, धर्म आदि से जुड़ी अस्मिता से सम्बन्धित हर ‘नॉर्म’ का विरोध करें। इस चिन्तन को नयी उँचाई तक उत्तर मार्क्सवादी विचारक अर्नेस्टो लाक्लाऊ और शैंटेल माऊफ़ ने यह स्थापना देते हुए पहुँचाया कि हर प्रकार का दमन आत्मगत होता है, इसका ठोस वस्तुगत यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं होता। नतीजा वही, कि सत्ता-संरचनाएँ अप्रतिरोध्य है।

            अब देखिये, इस पूरी विचार-सरणि से उत्तर-नारीवाद की कई, उपधाराएँ और अस्मितावादी स्त्री आन्दोलन की विचार-पीठिका किस प्रकार फूटकर निकलती हैं। चूँकि क्रान्तियों के ‘महाआख्यान अविश्वसनीय हैं’, वे विसर्जित हो चुके हैं और चूँकि दमनकारी सत्ता के एकजुट, संगठित प्रतिरोधों ने दमनकारी सत्ताओं को ही जन्म दिया, इसलिए अब छोटे-छोटे विखण्डित, परिधिगत, अस्मिता आधारित संघर्षों का समय है। जैसे स्त्रियों का संघर्ष, दलितों का संघर्ष, आदिवासियों का संघर्ष, मूल निवासियों का संघर्ष आदि। विकल्प एक है और वह यह कि इसी व्यवस्था के भीतर इन परिधिगत अस्मिताओं के लिए स्वायत्त स्पेस बनाना है। इसी आधार पर ये तमाम तथाकथित ‘न्यू सोशल मूवमेण्ट्स’ चल रहे हैं, जिनके कर्ता-धर्ता लाखों साम्राज्यवादी वित्तपोषित एन.जी.ओ. हैं। ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ इन्हीं कथित ‘नये सामाजिक आन्दोलनों’ का एक वैश्विक मंच है। इनका मूल उद्देश्य वर्ग संघर्ष की चेतना को कुन्द करना, राज्यसत्ता के प्रश्न को दृष्टिओझल करना और संगठित जन प्रतिरोध की सम्भावनाओं को विसर्जित करके इसी व्यवस्था के दायरे में सुधारवाद की चौहद्दियों में कैद कर देना है।

            उत्तर नारीवाद की दूसरी उपधारा फूको की इस स्थापना से निकलती है कि हमें निजी जीवन में हर प्रकार के जेण्डरगत, जातिगत, धार्मिक आदि अस्मिताओं से सम्बन्धित मानक (‘नॉर्म) और सार्वभौम (‘यूनिवर्सल’) के विरुद्ध विद्रोह करना है क्योंकि लोगों द्वारा आभ्यन्तरीकृत, पोर-पोर में समायी सत्ता का इसी प्रकार विरोध किया जा सकता है। इसे उसने ‘क्वियर थियरी’ का नाम दिया। स्त्री प्रश्न के सन्दर्भ में इसे मुख्यतः जुडिथ बटलर ने और उनके अतिरिक्त ग्लारिया अंजाल्दुआ, ईव कोसोफस्की, सेडविक इस्तेबान मुनोज, जोस तथा लॉरेन बर्लान्त आदि ने लागू करते हुए यह स्थापना दी कि जेण्डर किसी व्यक्तित्व का सारभूत स्व (‘एस्सेंशियल सेल्फ’) है और सेक्स (यानी सेक्सुअल क्रियाएँ और अस्मिताएँ) सामाजिक निर्मिति (‘कंस्ट्रक्ट’) हैं। समाज में कुछ सेक्सुअल व्यवहारों को मानक और कुछ को विचलनशील (‘डेविएंट’) मानने की धारणा ही दमनकारी और वर्चस्ववादी है। अतः इस सन्दर्भ में भी हमें ‘मानक’ और ‘सार्वभौम’ का विरोध करना चाहिए। इसी आधार पर तमाम एन.जी.ओ. वैकल्पिक जेण्डर अस्मिता को लेकर काम कर रहे हैं और एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन-गे-बाईसेक्सुअल-ट्रांसजेण्डर) समुदाय का आन्दोलन खड़ा कर रहे हैं। भारत में भी यह समुदाय बढ़ रहा है और जुडिथ बटलर को लेखिका अर्चना वर्मा के रूप में एक प्रचण्ड समर्थक भी मिल गया है। हमें आशा है कि जल्दी ही इस तर्क के आधार पर पशुओं से यौन सम्बन्ध को स्वाभाविक मानने के हिमायती भी पैदा हो जायेंगे और साक्ष्य दिया जायेगा कि समलैगिंकता की तरह यह चीज भी समाज में आदिकाल से मौजूद रही है। आजकल तो बहुत सारे मार्क्सवादी भी एल.जी.बी.टी. समर्थक हो गये हैं। एल.जी.बी.टी. लोगों के राज्य और समाज द्वारा उत्पीड़न के तो हम विरोधी हैं, पर उनके सेक्सुअल व्यवहार को वैज्ञानिक कत्तई नहीं मानते। यह एक अलग से विस्तृत चर्चा का विषय है कि सेक्सुअल व्यवहार के सामाजिक प्रतिमान समाज-विकास के साथ-साथ कैसे विकसित हुए और क्यों स्त्री-पुरुष के बीच एकनिष्ठ प्यार आधारित यौन-सम्बन्ध ही स्वस्थ सामाजिक मानस की निशानी है। मानक व्यवहार के साथ विचलनशील सेक्सुअल व्यवहार मानव समाज में हमेशा से रहे हैं और विशेष तौर पर युग विशेष के पतनशील दौरों में उसकी बहुलता देखने को मिलती रही है, पर यह शायद पहली बार हुआ है कि पतनशील पूँजीवाद ने इसका इतना सांगोपांग सैद्धान्तिकीकरण किया है। जुडिथ बटलर जैविक पुनरुत्पादन से शुरू हुए स्त्री-पुरुष यौन-सम्बन्ध में यौन भावना के प्रेम में अमूर्तन और प्रेम के मनोगत भाव के अमूर्तन और ऐतिहासिक विकास की पूरी तरह अनदेखी करती हैं, और प्रेम की पूरी परिघटना को ही यौन-क्षुधा पूर्ति में अपचयित करके मनुष्य को फिर उसकी आदिम अवस्था में पहुँचा देती हैं- यानी उसे अपने युग के हिसाब से भी ‘डेवियेंट’ (विचलनग्रस्त) सेक्सुअल व्यवहार करने वाला असामाजिक आदिमानव बना देती हैं।

            उत्तर नारीवाद की जो तीसरी उपधारा फूटती है, वह और भी खतरनाक है। चूँकि आधुनिकता की हर सोच पश्चिमी वर्चस्ववादी परियोजना का अंग है, इसलिए स्त्रियों को भी जाहिरा तौर पर प्राक्-आधुनिक अस्मिताओं तक, संस्थाओं और मूल्यों तक जाना होगा, अनछुई ‘प्राच्य मासूमियत’ (खाप पंचायतें, दलित उत्पीड़न, स्त्री उत्पीड़न, स्त्री-विरोधी रूढ़ियाँ । ये सब कितनी “मासूम चीजें” हैं!) को अपना शरण्य बनाना होगा। इसके पुरजोर तर्क गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक से लेकर ‘सबआल्टर्न’ धारा के इतिहासकार पार्थ चटर्जी और दीपेश चक्रवर्ती भी देते हैं। पार्थ चटर्जी एक विचित्र नया युग्म पेश करते हैं । ‘भौतिक’ बनाम ‘आत्मिक’। जो बाहरी, ‘अघरेलू’ और पौरुषपूर्ण है, वह ‘भौतिक’ है। जो आन्तरिक , घरेलू और स्त्रैण है, वह ‘आत्मिक’ है। ‘भौतिक’ को उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद द्वारा सहयोजित कर लिया जाना सम्भव है, पर ‘आत्मिक’ ‘सब्जेक्ट’ अपनी स्वायत्तता कायम रखता है। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए दीपेश चक्रवर्ती ‘कुल’ और ‘गृहलक्ष्मी’ के घरेलू महिमा-मण्डन में “सुन्दरता” की ‘इर्रिड्यूसिबल’ (अनअपचयनीय) श्रेणियाँ तलाशते हैं और इन्हें स्वायत्त, गैरबुर्जुआ वैयक्तिकता के आदर्श के रूप में देखते हैं। इस अनैतिहासिक, मिथ्याभासी तर्कलीला का कुल निष्कर्ष यह निकलता है कि मध्ययुगीन सामन्ती पारिवारिक संस्था और मूल्यों को शरण्य बनाकर स्त्री आधुनिकता द्वारा आरोपित सत्ता के वर्चस्व और पुरुष वर्चस्व का सामना करते हुए अपना स्वायत्त स्पेस बना और बचा सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह विचार कितनी भयानकता के साथ धुर दक्षिणपंथी धार्मिक कट्टरपंथी फासीवादी राजनीति के पक्ष में जाकर खड़ा होता है।

दरअसल उत्तर आधुनिकतावाद और उसकी तमाम अन्य सहोदरा विचार-सरणियों की तरह उत्तर-नारीवाद भी उत्तर आधुनिक नहीं है बल्कि प्राक्-आधुनिक की ओर एक प्रतिक्रियावादी वैचारिक पश्चगमन है। आधुनिकता की परियोजना का अर्थ है-जीवन पर तर्कणा और विज्ञान का प्राधिकार, हर नागरिक की व्यक्तिगत आज़ादी और जनवाद। बुर्जुआ वर्ग ने पश्चिम में इन्हीं प्रबोधनकालीन आदर्शों को सत्तासीन होते ही छोड़ दिया और इनका खण्डित, विकृत-विरूपित और काफी हद तक मिथ्याभासी रूप ही अस्तित्व में आया। वैज्ञानिक समाजवाद ने इन्ही प्रबोधनकालीन आदर्शों के धूल में फेंक दिये गये झण्डे को फिर से उठाया। उसने इन आदर्शों को नया ऐतिहासिक-वैज्ञानिक आधार दिया और उन्हें साकार करने की इतिहास-यात्रा  की एक पथरेखा निर्दिष्ट की। वह एक लम्बी यात्रा  थी, जिसका प्रथम चक्र ही अभी पूरा हुआ है। फिलहाल गतिरोध और विपर्यय का एक संक्रमण काल है। अभी अतीत के अनुभवों के आधार पर आगे की यात्रा  के मानचित्र को ठीक से तैयार करना है। आधुनिकता की ऐतिहासिक परियोजना का बुर्जुआ जनवादी चरण तो बहुत छोटा था। वास्तव में समाजवाद ही इस परियोजना को साकार कर सकता है, वह भी एक लम्बी संक्रमण अवधि से गुजरकर। इतिहास का आधुनिक काल ही अभी जारी है और लम्बे समय तक जारी रहेगा। उत्तर आधुनिकता वास्तव में प्राक्आधुनिकता की तरफ पश्चगमन की सैद्धान्तिकी है। यह असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त, चरम मानवद्रोही विश्व पूँजीवाद की वैचारिकी है। इससे प्रभावित आज का स्त्री आन्दोलन और उत्तर-नारीवादी विचार स्त्रियों के मुक्ति-स्वप्नों के अपहरण का एक षड्यंत्र है, उन्हें एक वैचारिक छलावे का शिकार बनाने का प्रपंच है और अपनी नये किस्म की गुलामी को स्वीकारने के लिए उनके मानसिक अनुकूलन का एक उपकरण है। स्त्री आन्दोलन को आज एक नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण के लिए प्रबोधन काल और फ्रांसीसी क्रान्ति के दौर के स्त्री-मुक्ति विषयक विचारों और प्रयासों तथा उन्नीसवीं शताब्दी के स्त्रियों के जनवादी अधिकार संघर्षों की परम्परा का पुनर्संधान करना होगा, उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी की समाजवादी धारा के स्त्री आन्दोलन और स्त्री मज़दूरों के संघर्षों से अपनी परियोजना को जोड़ने वाले योजक-सूत्र ढूँढ़ने होंगे तथा तथा स्त्री-पराधीनता के ऐतिहासिक अध्ययन से इस तथ्य को भली-भाँति समझना होगा कि सामाजिक मुक्ति संघर्ष की सफलता की नियति अविभाज्यतः जुड़ी हुई है।

लेकिन परम्परा और आधुनिकता-बोध पर स्त्री-प्रश्न-सन्दर्भ में हमारा विमर्श तबतक अधूरा रहेगा, जबतक हम अपने देश के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सांस्कृतिक सामाजिक पारिस्थितिक सन्दर्भों में इसकी चर्चा न करें। सैद्धान्तिकी ऐतिहासिक सन्दर्भ में सार्वभौमिक होती है पर हर देश का अपना देशज सन्दर्भ आन्दोलनों को विशिष्ट साँचे और रंग-रूप में ढालता है और मूल विचार के कुछ उपप्रमेय भी विकसित करता है। भारत जैसे उपनिवेशों में बुर्जुआ विकास का स्वरूप यूरोप जैसा नहीं रहा। यहाँ अपनी स्वतंत्र नैसर्गिक आन्तरिक गति से मध्ययुगीन सामाजिक-आर्थिक संरचना की कोख से पूँजीवाद जन्म लेता (उसका भ्रूण विकसित हो रहा था) और पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति जैसी कोई प्रक्रिया गति पकड़ती, इसके पहले ही औपनिवेशीकरण हो गया। देशी सामाजिक-आर्थिक संरचना को नष्ट करके एक औपनिवेशिक आर्थिक-सामाजिक संरचना आरोपित कर दी गयी। इस संरचना में एक मरियल, विकलांग, समझौतापरस्त पूँजीवाद पैदा हुआ जिसने क्रान्तिकारी संघर्ष के बजाय समझौता-दबाव-समझौता की नीति अपनायी, बार-बार जनाकांक्षाओं के साथ विश्वासघात किया और अनुकूल विश्व परिस्थितियों में उपनिवेशवादियों से सौदा करके राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इसने साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। यहाँ के बुर्जुआ वर्ग और निम्न बुर्जुआ वर्ग के एक हिस्से का राष्ट्रवाद रुग्ण-विकलांग था और जनवादी मूल्य अत्यन्त कमजोर थे। जो निम्न बुर्जुआ वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन था, वह भी 1920 के दशक तक पुनरुत्थानवादी अतीतोन्मुखता से ग्रस्त था। कम्युनिस्ट आन्दोलन शुरू से ही विचारधारात्मक दुर्बलता का शिकार था और मेहनतकशों के शौर्यपूर्ण संघर्षों के बावजूद कम्युनिस्ट नेतृत्व कभी भी राष्ट्रीय आन्दोलन के बुर्जुआ नेतृत्व को चुनौती देने की स्थिति में नहीं आ सका। राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में जुझारू जनवादी मूल्यों के बजाय मध्ययुगीनता के साथ समझौते की प्रवृत्ति आद्यन्त बनी रही। भारतीय स्त्री आन्दोलन के उद्भव एवं विकास की प्रक्रिया और उसका चरित्र इतिहास विकास की इसी विशिष्टता से काफी हद तक निर्धारित हुआ।

भारत में सावित्री बाई फुले सम्भवतः पहली महिला थीं जिन्होंने जाति प्रथा के साथ ही स्त्री पराधीनता के विरुद्ध भी आवाज उठायी। शिक्षा सहित सुधार के अन्य क्षेत्रों में उनकी पहल गरीब तबकों की स्त्रियों पर केन्द्रित थी। उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में पण्डिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, आनन्दी बाई जोशी, फ्रानना सारोबजी, रुक्मा बाई, स्वर्ण कुमारी आदि उच्च मध्यवर्गीय स्त्रियों ने स्त्री अधिकारों के पक्ष में और रूढ़ियों के विरोध में जो आवाज उठायी, उसका प्रभाव विस्तार पूरे देश में समाज के आम मध्यवर्गीय संस्तरों तक धीरे-धीरे हुआ। बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में बंगाल की लेखिका रुकैया सखावत हुसैन ने अपनी कहानी ‘सुलताना का सपना’ (अंग्रेजी में, 1905) में रूढ़ियों में कैद भारतीय नारी, वह भी मुस्लिम समाज की नारी की मुक्ति की सपना देखने का साहस किया था। यही समय था, जब हिन्दी में बंग महिला पुराणपंथी साहित्य-पण्डितों और दिग्गज सम्पादकों की असहमतियों और कोप का सामना करते हुए स्त्रियों पर लादे जाने वाले नैतिक बन्धनों, विधवाओं की स्थिति, पुरुष-प्रधान पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे में स्त्रियों की गुलामी और स्त्री-शिक्षा सम्बन्धी वर्जनाओं पर प्रश्न उठा रही थीं। यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि आर्यसमाज से नास्तिकता से होते हुए मार्क्सवाद तक की यात्रा  करने वाले राधामोहन गोकुल ने अन्य रूढ़ियों के साथ ही स्त्री पराधीनता के विविध पक्षों पर 1880 के दशक से लेकर 1920 के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में जो उग्र लेख लिखे, उन्होंने पढ़ी-लिखी स्त्रियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। उन्हीं की परम्परा में आगे सत्यभक्त, राहुल, रमाशंकर अवस्थी आदि का भी नाम आता है। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान स्त्री स्वातंत्र्य-चेतना की एक नयी लहर पूरे देश में आयी, जो 1940 के दशक तक विशेष तौर पर भारतीय भाषाओं में छपने वाली पत्र-पत्रिकाओं में लगातार दीखती रही। ‘अभ्युदय’ ‘सुधा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’, ‘चाँद’, ‘जागरण’, ‘स्वदेश’ आदि दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी, धार्मिक रूढ़ियों, पुरुष वर्चस्व के विविध रूपों, प्रेम और विवाह के मामलों में स्वतंत्र निर्णय जैसे विषयों पर स्त्री रचनाकारों के लेख छपते थे। रामेश्वरी नेहरू सम्पादित ‘स्त्री दर्पण’ पत्रिका की नियमित लेखिका उमा नेहरू तो यूरोपीय नारीवादियों की तरह इतने उग्र रूढ़िभंजक लेख लिखती थीं कि यदि आज का असहिष्णु समय होता तो धार्मिक कट्टरपंथी पत्रिका की प्रतियाँ जलाने लग जाते। इन पत्रिकाओं में नियमित लिखने वाली हृदय मोहिनी, हुक्मा देवी, सत्यवती, सौभाग्यवती आदि दर्जनों प्रबुद्ध स्त्रियों के नाम आज भुलाये जा चुके हैं। यह है अपनी परम्परा के प्रति हमारी संवेदनशीलता। यह है हमारे हिन्दी बौद्धिक समाज का इतिहास बोध। उल्लेखनीय है कि इन अधिकांश पत्रिकाओं में स्त्री प्रश्न पर लगातार लेखों-टिप्पणियों के साथ यूरोप-अमेरिका के स्त्री अधिकार आन्दोलन के इतिहास और वर्तमान के बारे में लेख छपते रहते थे। यह अजीब बात है कि अपनी कविताओं से अलग ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ के निबन्धों में महादेवी वर्मा स्त्री प्रश्न की एक प्रखर और सुलझी हुई विचारक के रूप में सामने आती हैं। इन निबन्धों में महादेवी जी ने स्त्रियों की आर्थिक-सामाजिक- सांस्कृतिक-पारिवारिक गुलामी का सन्तुलित विश्लेषण करते हुए स्त्रियों के सामाजिक चेतना का विस्तार, आर्थिक स्वावलम्बन और सामाजिक रूढ़ियों के प्रतिकार पर विशेष बल दिया है। निस्सन्देह इन निबन्धों में उन्होंने राष्ट्रीय जागरण काल की नारी-प्रबोधन की जनवादी मुक्ति चेतना को एक प्रतिनिधि स्वर दिया है। फिर कहानीकार कमला देवी चौधरानी को भी नहीं भुलाया जा सकता जो गाँधीवादी राजनीति की धारा से जुड़ी थीं, पर उनकी कहानियों की मुख्य पात्र प्रायः सुधारवाद के प्रचलित तर्कों से हटकर रूढ़ियों के प्रतिकार का रास्ता चुनती थीं और उसकी कीमत चुकाती थी। साहित्य पर प्रगतिवाद के प्रभाव ने एक ओर उर्दू में रशीद जहाँ और इस्मत चुगताई के उग्र रूढ़िभंजक स्वर को जन्म दिया, दूसरी ओर हिन्दी में हेमवती देवी, चन्द्रकिरण सोनरिक्सा, कंचनलता सब्बरवाल आदि का कथा-लेखन भी इस प्रभाव से अछूता नहीं था।

‘लेबर हिस्ट्री’ में इधर जो नये शोध-अध्ययन हुए हैं, वे बताते हैं कि कलकत्ता और बम्बई में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में ही स्त्री मज़दूर संघर्षों में भागीदारी करने लगी थीं। यह भागीदारी बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक लगातार बढ़ती रही। लेकिन चौथे दशक से कुल श्रम शक्ति में उनका अनुपात भी घटने लगा और आन्दोलनों में भागीदारी भी कम होने लगी। कम्युनिस्ट पार्टी ने स्त्री मज़दूरों को अलग से संगठित करने और ट्रेड यूनियनों में सक्रिय मज़दूरों की पुरुष-वर्चस्ववादी मानसिकता के विरुद्ध सांस्कृतिक मुहिम चलाने के लिए वस्तुतः कोई पहल नहीं ली।

राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश की मध्यवर्गीय बौद्धिक आबादी नेहरूवादी “समाजवाद” के सुनहरे सपनों के साकार होने के मुगालते में जी रही थी, किसान-मज़दूर कुछ विभ्रम-संशय के शिकार थे और कुछ ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी ख्रुश्चेवी लहर आने के पहले ही संसद मार्ग पर प्रयाण कर चुकी थी। नये सत्तासीन बुर्जुआ वर्ग ने स्वस्थ जनवादी मूल्यों और आधुनिकताबोध के लिए सामाजिक आन्दोलन की राह चुनने की जगह सभी मध्ययुगीन रूढ़ियों और प्राक् आधुनिक मूल्यों-संस्थाओं के साथ समझौता कर लिया। कालान्तर में पूँजीवादी विकास की स्वतंत्र गति से जो बुर्जुआ संस्कृति पैदा हुई, वह स्वस्थ जनवादी मूल्यों से रिक्त थी। तमाम प्राक् आधुनिक मूल्यों-संस्थाओं को परिष्कृत करके उसने सहयोजित (कोऑप्ट) कर लिया और पूँजी की सेवा में सन्नद्ध कर दिया। व्यवस्था के बढ़ते संकट के साथ इस बुर्जुआ संस्कृति के रहे-सहे जनवादी तत्व भी क्षरित-विघटित होते चले गये और उनकी जगह घोर मानवद्रोही निरंकुश संस्कृति लेती चली गयी।

स्वातंत्र्योत्तर काल में भारतीय स्त्री आन्दोलन की स्थिति को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा जा सकता है। दो दशकों की शीतनिद्रा के बाद, नक्सलबाड़ी से लेकर 1974 के जनान्दोलन तथा आपातकाल और उसके प्रतिरोध का मिले-जुले प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव स्त्रियों पर भी पड़ा और सत्तर के दशक में कुछ मुद्दों और कुछ घटनाओं को लेकर स्त्री आन्दोलन की सुगबुगाहट फिर से शुरू हुई। मध्यवर्गीय स्त्रियों के ऐसे स्वतंत्र संगठन बनने लगे जो किसी संसदीय पार्टी की स्त्री शाखा नहीं थे। नक्सलबाड़ी किसान-संघर्ष से पैदा हुई धारा में, भूमिहीन किसान स्त्रियों की काफी सक्रिय भागीदारी थी और मध्यवर्गीय युवा स्त्रियों की भी एक हद तक भागीदारी थी। क्रान्तिकारी छात्र राजनीति में भी स्त्री समुदाय की सक्रियता बढ़ गयी थी। लेकिन अस्सी के दशक में कई प्रतिकूल प्रभाव वाली घटनाएँ एक साथ घटीं। एक, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा का बिखराव बढ़ता ही जा रहा था। दो, गोर्बाचोव के ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रेइका से लेकर सोवियत संघ के विघटन तक का विश्वव्यापी प्रभाव। तीन, नवउदारवादी नीतियों की पूर्वपीठिका तैयार हो चुकी थी। चार, एक सुनिश्चित साम्राज्यवादी परियोजना के तहत स्त्री आन्दोलन और सभी सामाजिक आन्दोलनों में एन.जी.ओ. की भारी घुसपैठ। इस एन.जी.ओ. सेक्टर की सैद्धान्तिकी (जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है) पश्चिम में तैयार हो चुकी थी, भारत में उसपर चर्चा-परिचर्चा और बहस-विमर्श का फैशन 1990 के दशक में शुरू हुआ। 1980-90 के दशकों में जो स्त्री आन्दोलन का उभार दीखता है, वह मूलतः मध्यवर्गीय एन-जी-ओ-पंथी सुधारवादी स्त्री आन्दोलन ही था जिसकी सैद्धान्तिकी अस्मिता राजनीति और उत्तर-नारीवाद से तैयार हुई थी। 1960 के दशक में पश्चिम के अराजकतावादी नारीवादी उभार के तो कुछ सीमित सकारात्मक पहलू भी थे, पर आज का जो यह नया अस्मितावादी नारी आन्दोलन है, यह आमूलचूल प्रतिक्रियावादी है और भूमण्डलीकरण के दौर की साम्राज्यवादी-पूँजीवादी विकृत सांस्कृतिक मूल्यों, मुक्ति की भ्रामक व रुग्ण अवधारणा तथा घोर सुधारवाद से यह रचा-बसा है। भूमण्डलीकरण के दौर की एक ख़ास बात यह है कि पूर्व से पश्चिम का भेद इस मामले में मिट गया है कि स्त्री आन्दोलन की यही धारा अपनी विविध उपधाराओं के साथ सर्वत्र गतिमान है। इसकी पहुँच केवल प्रबुद्ध मध्यवर्गीय स्त्रियों तक ही नहीं है। एन.जी.ओ. के कार्यक्षेत्र वाले अलग-अलग इलाकों की ग्रामीण गरीब स्त्रियों और शहरी मज़दूर बस्तियों तक यह सुधारवाद की बयार लेकर जा रही है और आमूलगामी परिवर्तन की एक भारी आरक्षित शक्ति को प्रभावित करने के साथ ही स्त्री समुदाय के मुक्ति-स्वप्नों को बुर्जुआ सीमान्तों की बन्दी बना रही है। जीवन के हर क्षेत्र की तरह फिलहाल स्त्रियों के मोर्चे पर भी क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है, गतिरोध, विघटन और विपर्यय का अन्धकार है।

इस परिदृश्य का परावर्तन साहित्य के क्षेत्र में भी देखा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद दशकों तक, कृष्णा सोबती जैसी कुछ लेखिकाओं के प्रखर रूढ़िभंजक नारीवादी लेखन को छोड़ दें, तो स्त्री रचनाकारों का लेखन मध्यवर्गीय पारिवारिक परिवेश में दाम्पत्य, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की जटिलताओं, स्त्रियों के अलगाव आदि के ही इर्दगिर्द कथाबन्ध बुनता रहा और व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य से विच्छिन्न करके पुरुष वर्चस्व को उठाता रहा। फिर अस्सी के दशक में, विशेषकर राजेन्द्र यादव जब ‘हंस’ पत्रिका के साथ दलित अस्मिता और स्त्री अस्मिता का परचम लेकर मैदान में उतरे तो स्त्री मुक्ति के नाम पर ग्राफिक यौन आख्यानों से रसरंजन करने वाली, यौन-मुक्ति की क्रान्ति करने वाली और उसी में अपने स्वतंत्र अस्मिता की तलाश करने वाली वीरांगना नायिकाओं से भरी कहानियों-उपन्यासों का शोर दिग्दिगन्त में गूँज उठा। जुडिथ बटलर की भाष्यकार बनकर अर्चना वर्मा भी यौन-क्रान्ति की और आगे की सैद्धान्तिकी लेकर आ गयीं। कवयित्रियाँ भी क्यों पीछे रहें। पुराने नख-शिख वर्णन का उत्तर-आधुनिक संस्करण अपनी एक कविता में अनामिका भी लेकर आ गयीं, जिसपर ‘कथादेश’ में चली बहस और शालिनी माथुर की तीक्ष्ण आलोचना से शायद आप परिचित हों। अभी ऐसी ही यौन रसरंजित कथाकृतियों की सटीक आलोचना करते हुए शालिनी माथुर ने एक और लेख लिखा है। दिलचस्प बात यह है कि यौन मुक्ति के ज़रिये वर्जना-भंजन करने वाली इन कहानियों के बीच वैसी कहानियाँ और कविताएँ भी दीख जाती हैं जहाँ आधुनिकता के तमाम प्रहारों का सामना करने के लिए एक आधुनिक नायिका पुरुष के समक्ष स्वाभाविक समर्पिता या भावाकुल प्रेमयाची बनती यूँ दीखती है मानो रीतिकाल या छायावाद की आत्मा उसमें प्रविष्ट हो गयी हो। यह वही ‘प्राच्य मासूमियत’ और प्राक्-आधुनिकता को शरण्य बनाने का मार्ग है जो पार्थ चटर्जी, दीपेश चक्रवर्ती जैसे इतिहासकार तथा गायत्री चक्रवर्ती स्पिवॉक और अन्य कुछ उत्तर आधुनिकतावादी नारीवादी सुझाते हैं। यह जो नयी विद्रोही नायिका है, प्रायः इसका कोई राजनीतिक-सामाजिक सरोकार नहीं होता। और ये नायिकाएँ किस बर्बर समय में यौन क्रान्ति के क्रीड़ा-कल्लोल में निमग्न हैं? जब खाप पंचायतों द्वारा प्रेमी जोड़ों की हत्या से लेकर सामूहिक बलात्कार तक की सजाएँ सुनाई जा रही हैं, जब दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड जैसी घटनाएँ देश के कोने-कोने में हो रही हैं, जब गुजरात से लेकर मुज़फ्फ़रनगर तक दंगों में स्त्रियों को बर्बर हमले का निशाना बनाया जा रहा है और जब पार्कों में बैठे प्रेमी जोड़ों को धार्मिक कट्टरपंथी गिरोह ही नहीं, पुलिस भी दौड़ा-दौड़ाकर पीट रही है। भूमण्डलीकरण के दौर में पूरी दुनिया में और हमारे देश में स्त्री विरोधी बर्बर अपराधों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है।

सामाजिक परिदृश्य में एक और गौरतलब बदलाव आया है। आँकड़ों के अनुसार, पिछले करीब पच्चीस वर्षों के दौरान टेक्सटाइल, गारमेण्ट, होजरी और इलेक्ट्रानिक्स से लेकर मशीनरी उद्योग में काम करने वाली स्त्री मज़दूरों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। उनमें से 98 प्रतिशत दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीस रेट पर, बेहद कठिन परिस्थितियों में खटने वाली मज़दूर हैं और यूनियनों के दायरे में नहीं हैं। आम मध्यवर्गीय घरों की स्त्रियाँ भी बड़े पैमाने पर नौकरी कर रही हैं और आर्थिक शोषण के साथ ही कदम-कदम पर पुरुष वर्चस्ववादी उत्पीड़न को झेल रही हैं। इनकी घुटन और विद्रोह की भावना को पूरी सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध निर्देशित करके ही एक सच्चा क्रान्तिकारी स्त्री आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।

आवश्यकता इस बात की है कि मेहनतकश और आम मध्यवर्गीय स्त्रियों को एक साथ पुरुष वर्चस्व की संस्कृति, मध्ययुगीन बर्बरता और आधुनिक बर्बरता के विरुद्ध संगठित किया जाये और एक व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और जनवादी अधिकार आन्दोलन की नयी शुरुआत की जाये। साथ ही स्त्री मज़दूरों को अलग से भी संगठित करने की ज़रूरत है, क्योंकि यूनियनों में पुरुषवर्चस्ववाद उन्हें पीछे धकेल देता है और उनकी विशिष्ट माँगों को दरकिनार कर देता है और आम स्त्री संगठनों में वे प्रबुद्ध मध्यवर्गीय स्त्रियों का झोला ढोने लगती हैं। एक जगह वे जेण्डर के आधार पर मारी जाती हैं और दूसरी जगह वर्ग के आधार पर। जब उनके स्वतंत्र संगठन होंगे तभी यूनियनों और आम स्त्री संगठनों में भी उनकी प्रभावी भागीदारी हो सकेगी।

आज के बेहद कठिन और गतिरुद्ध समय में यह सोच एक मंसूबावादी सोच लग सकती है। पर समय ऐसा ही नहीं रहेगा। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लगातार भड़कते स्वतःस्फूर्त जनविद्रोह और उनमें स्त्रियों की भागीदारी भविष्य का पूर्वसंकेत दे रही है। दुनिया की बदली परिस्थितियों का सही-सटीक आकलन करने वाली क्रान्तिकारी हरावल शक्तियाँ फिर से उठ खड़ी होंगी ही, क्योंकि गम्भीर वैचारिक मंथन और छोटे-छोटे नये सामाजिक प्रयोगों का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। ये शक्तियाँ स्त्री समुदाय को नये सिरे से संगठित किये बिना विद्रोहों को क्रान्ति में रूपान्तरित नहीं कर सकतीं। और यह पुरानी बात आज भी सही है और हमेशा सही रहेगी कि आधी आबादी की मुक्ति की लड़ाई को साथ जोड़े बिना समस्त शोषित-उत्पीड़ित जनों की मुक्ति के बाद नये समतामूलक समाज के निर्माण के बिना स्त्रियों की पराधीनता और पुरुषवर्चस्ववाद का समूल उच्छेद सम्भव नहीं।

  • नान्दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016