बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन

बर्बरता के विरुद्ध संघर्ष पर एक ज़रूरी अवलोकन

 बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

जून, 1935 में पेरिस में हुई ‘संस्कृति की रक्षा के लिए लेखकों की पहली अन्तरराष्ट्रीय कांग्रेस’ में  दिया वक्तव्य

साथियो, मैं विशेष तौर पर कुछ नया कहे बिना उस संघर्ष के बारे में चन्द शब्द कहना चाहता हूँ जो उन ताकतों के विरुद्ध है जो पश्चिमी संस्कृति का दम घोंट उसे खून और मिट्टी में मिलाने पर आमादा है या फिर संस्कृति के उन अवशेषों को जो एक सदी के शोषण के बाद हमारे पास बचे हैं। मैं आपका ध्यान बस एक बात की ओर आकर्षित कराना चाहता हूँ जिस पर मेरी राय में स्पष्टता होना अनिवार्य है अगर हमें उन ताकतों के खि़लाफ़ संघर्ष को प्रभावी तौर पर जारी रखना है और ख़ासतौर पर उनके सम्पूर्ण विनाश के वक़्त तक।

जिन लेखकों ने फ़ासीवाद की क्रूरताओं और अत्याचारों को सीधे तौर पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में झेला है और जो उससे पीड़ित हैं, वे मात्र अपने अनुभव और यातना बोध के कारण इन अत्याचारों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की स्थिति में नहीं हैं। कुछ लोगों का मानना हो सकता है कि अत्याचारों का उल्लेख कर देना पर्याप्त है, ख़ासतौर पर अगर महान साहित्यिक प्रतिभा और विशुद्ध क्रोध विवरण को तात्कालिकता प्रदान करे। और निस्सन्देह ऐसे उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण हैं। उत्पीड़न हो रहा है। ऐसा होने नहीं दिया जा सकता। लोगों को मारा जा रहा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। इसके लिए कौन से लम्बे स्पष्टीकरणों की अपेक्षा की जा सकती है? पाठक निश्चित रूप से उठेगा और उत्पीड़कों का प्रतिरोध करेगा। लेकिन साथियो, स्पष्टीकरण अनिवार्य है।

पाठक उठ खड़ा हो सकता है, यह इतना मुश्किल नहीं है। लेकिन उसके बाद उत्पीड़क का प्रतिरोध करने का छोटा विषय सामने आता है और यह काफी मुश्किल है। क्रोध मौजूद है, दुश्मन की शिनाख़्त हो चुकी है, मगर उसे घुटनों के बल कैसे झुकाया जाये? लेखक यह कह सकता है कि मेरा काम अन्याय का पर्दाफाश करना है, उसके बाबत क्या करना है यह सवाल पाठक के ज़िम्मे है। मगर तब लेखक एक अनोखी खोज करेगा। वह यह पायेगा कि क्रोध  सहानुभूति की तरह कुछ-कुछ परिमाणात्मक होता है, वह इस या उस मात्रा में मौजूद होता है और लुप्त हो सकता है। और सबसे बुरी चीज़ यह है कि जितना ज़्यादा इसकी आवश्यकता होती है, उतनी ही तेज़ी से यह लुप्त होता है। साथियों ने मुझे बताया कि जब हमने पहली बार यह कहा कि हमारे साथियों का क़त्लेआम किया जा रहा है, तब आतंक की चीखें फैल गयीं और बहुत से लोग हमारी मदद के लिए आये। यह तब की बात है जब कुछ सौ लोगों का क़त्लेआम किया गया था। मगर जब हज़ारों को मौत के घाट उतारने के बाद भी क़त्लेआम रुकने का नाम नहीं ले रहा था, तब सन्नाटा पसर गया और चन्द लोग ही हमारी मदद के लिए आये। यह कुछ ऐसा हैः ‘जब अपराध बढ़ते हैं, वे अदृश्य हो जाते हैं। जब यातना असहनीय बन जाती है, तब चीखें सुनायी देना बन्द हो जाती हैं। एक इंसान को मारा जाता है, यह देखने वाला व्यक्ति बेहोश हो जाता है। यह स्वाभाविक है। जब बुराई आसमान से बारिश की तरह बरसती है, तब कोई नहीं चिल्लाता “बस करो”।’

तो हालात ऐसे हैं। इन्हें बदला कैसे जा सकता है? क्या इंसान को शोषण की तरफ पीठ मोड़ने से रोकने का कोई रास्ता नहीं है? वह पीठ क्यों मोड़ता है? वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे हस्तक्षेप करने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आती। कोई आदमी किसी दूसरे के कष्ट के पलों में ठहरना नहीं चाहेगा अगर वह उसकी मदद करने में असमर्थ हो। आप आघात को रोक सकते हैं बशर्ते आपको पता हो कि प्रहार कब होगा, कहाँ होगा और क्यों, किस उद्देश्य से होगा। और अगर आप आघात को रोक सकते हों, या अगर ऐसा कर पाने की थोड़ी भी सम्भावना मौजूद हो तो उस सूरत में आप पीड़ित के प्रति सहानुभूति महसूस कर सकते हैं। आप ऐसा इसके बिना भी महसूस कर सकते हैं, मगर बहुत देर के लिए नहीं, किसी भी सूरत में उतनी देर के लिए तो नहीं जितनी देर पीड़ित पर कोड़े बरसाये जाते हैं। ये प्रहार क्यों किये जा रहे है? क्यों संस्कृति को किसी नाव से पत्थर या रोड़ी की तरह फिज़ूल समझकर फेंका जा रहा है, संस्कृति के इन अवशेषों को जो हमारे पास बचे हैं। क्यों लाखों लोगों की ज़िन्दगी को, व्यापक बहुसंख्या को, इतना दरिद्र, लाचार बनाया जा रहा है, आधी या पूरी तरह बर्बाद किया जा रहा है? हममें से कुछ लोग इस सवाल का जवाब देने के लिए उत्सुक हैं। उनका जवाब होता है: बर्बरता की वजह से। उनका मानना है कि वे मानवता के एक बड़े और लगातार बढ़ते हिस्से में एक भयानक प्रकोप को अनुभव कर रहे हैं, एक ऐसी भयभीत करने वाली परिघटना जिसका कोई प्रत्यक्ष कारण मौजूद नहीं है, जो अचानक से घटित हो गयी है और सम्भवतः इसी तरह सौभाग्य से लुप्त हो जायेगी। लम्बे समय से दबी हुई या सुषुप्त बर्बरता का विकट उद्भव, एक सहज वृत्ति से जन्मी इच्छा है। जो ये उत्तर देते हैं वे स्वाभाविक रूप से ख़ुद यह समझ जाते हैं कि इससे कुछ ज़्यादा मदद नहीं होती। और वह यह भी समझ जाते हैं कि बर्बरता को प्रकृति की शक्ति या नर्क की अजेय शक्तियों की शक्ल देना भी गलत है। इसलिए वह मानवजाति की उपेक्षित शिक्षा की बात करते हैं। जल्दबाज़ी में कुछ छूट गया या पूरा न किया जा सका। हमें अब उसकी भरपाई करनी होगी। अच्छाई को बर्बरता के विरुद्ध खड़ा होना होगा। हमें उन बड़े शब्दों का आवाहन करना होगा, उस जादुई नुस्खे का जिसने लम्बे समय से प्यार, आज़ादी, गौरव, न्याय की चिरस्थायी अवधारणाओं से हमारी मदद की है, जिनकी प्रभावोत्पादकता की पुष्टि इतिहास ने की है। और इसलिए वे इन महान जादुई नुस्खों का इस्तेमाल करते है। फिर क्या होता है? यह बताये जाने पर कि वह बर्बर है, फ़ासीवाद जवाब में बर्बरता के लिए एक कट्टर जय गीत पेश करता है। कट्टरता का इल्ज़ाम लगाये जाने पर, वह कट्टरता के लिए स्तुति गाता है। तर्क का निषेध करने का आरोप लगाये जाने पर वह प्रसन्नता से तर्क की निन्दा करने के लिए अग्रसर हो जाता है।

क्योंकि फ़ासीवाद भी यही मानता है कि शिक्षा की उपेक्षा हुई है। उसे मानस को प्रभावित करने और दिलों को दृढ़ बनाने की अपनी काबिलियत से बहुत उम्मीदें है। अपने यातना गृहों की बर्बरता के साथ वह अपने स्कूलों, अख़बारों, थिएटरों की बर्बरता को भी जोड़ देता है। वह पूरे राष्ट्र को शिक्षित करता है। हर दिन पूरे राष्ट्र को शिक्षित करता है। उसके पास व्यापक बहुसंख्या को देने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है, इसलिए अहम बात है कि वह उन्हें बहुत ज़्यादा शिक्षित करे। वह खाना मुहैया नहीं करा सकता इसलिए उसे आत्मानुशासन सिखाना पड़ता है। वह उत्पादन का प्रबन्धन नहीं कर पाता और उसे युद्धों की आवश्यकता पड़ती है इसलिए उसे शारीरिक बहादुरी सिखानी पड़ती है। उसे बलिदानों की ज़रूरत पड़ती है इसलिए उसे बलिदान की भावना सिखानी पड़ती है। ये सब भी आदर्श हैं, मानवता से माँगें हैं, इनमें से कुछ ऊँचे आदर्श हैं, मुश्किल माँगें है।

अब हम जानते हैं कि इन आदर्शों का उद्देश्य क्या है, कौन यह शिक्षण दे रहा है, और किन्हें इस शिक्षा से फायदा पहुँचेगा। निश्चित तौर पर उन्हें नहीं जिनको शिक्षित किया जा रहा है। हमारे अपने आदर्शों की क्या स्थिति है, जो इन सबसे कहीं ज़्यादा मानवीय हैं? वे निस्सन्देह भिन्न हैं, मगर फिर भी क्या यह सम्भव नहीं कि जब हम अपने आदर्श गढ़ते हैं तब हमारे दुश्मन और हमारे बीच कुछ समानताएँ हों? यहाँ तक कि हममें से जो निष्ठुरता और बर्बरता में आधारभूत बुराई देखते हैं, वे भी ऐसे बात करते हैं जैसे हमने ऊपर देखा, केवल शिक्षा के बारे में, केवल लोगों के मस्तिष्क में हस्तक्षेप करने के बारे में, इसके अलावा किसी और प्रकार के हस्तक्षेप के बारे में नहीं। वे लोगों को अच्छा बनाने के लिए शिक्षित करने की बात करते हैं। मगर अच्छाई अच्छा बनने की माँग से नहीं आयेगी, सबसे कठोर परिस्थितियों में भी अच्छा रहने की माँग करना, ठीक वैसे ही है जैसे यह कि बर्बरता सिर्फ बर्बरता से पैदा नहीं होती।

            मैं ख़ुद बर्बरता के लिए बर्बरता में यकीन नहीं रखता। इस आरोप से मानवता की रक्षा होनी चाहिए कि अगर बर्बरता के लाभ इतने आकर्षक न हों तो भी वह बर्बर ही रहेगी। मेरे मित्र फुख़्तवैंगर (Feuchtwanger) की यह बात एक मज़ाकिया उलटबाँसी है कि नीचता आत्महित पर हावी हो जाती है, मगर वे सही नहीं हैं। बर्बरता बर्बरता से पैदा नहीं होती बल्कि उन व्यापारिक समझौतों से पैदा होती है जिन्हें बर्बरता के बिना अंजाम दे पाना सम्भव नहीं होता।

जिस छोटे देश से मैं आता हूँ वहाँ कई अन्य देशों के मुकाबले परिस्थितियाँ इतनी भयावह नहीं हैं। मगर फिर भी हर सप्ताह माँस के लिए पाले गये 5000 स्वस्थ पशुओं को नष्ट कर दिया जाता है। यह एक भयानक बात है, मगर यह किसी आकस्मिक रत्तपिपासा का विस्फोट नहीं है। अगर ऐसा होता, तो शायद हालात इतने भयावह नहीं होते। मांस के लिए पाले गये पशुओं को नष्ट करना और संस्कृति को नष्ट करना किसी बर्बर प्रवृत्ति के कारण नहीं हैं। दोनों सूरतों में माल का एक हिस्सा जिसे बनाने में बहुत मेहनत लगी है, नष्ट किया गया है क्योंकि वह एक बोझ बन गया है। जितनी भुखमरी पाँचों महाद्वीपों पर फैली हुई है उसके मद्देनज़र ऐसे उपाय निसन्देह एक अपराध हैं , मगर इनका उपद्रव से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। पृथ्वी पर आज ज़्यादातर देशों में ऐसी सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जिनमें हर तरह के अपराधों को पुरस्कृत किया जाता है और गुणों का ऊँचा दाम लगाया जाता है। ‘अच्छा आदमी निराश्रय है और निहत्थे आदमी को पीट-पीट कर मिट्टी में मिला दिया जाता है मगर बर्बरता से आप कुछ भी हासिल कर सकते हैं। नीचता 10,000 साल के राज के लिए तैयारी कर रही है। दूसरी तरफ अच्छाई को अंगरक्षक की ज़रूरत है मगर वह निराश्रय है।’

हमें लोगों से सिर्फ अच्छाई की माँग करने के ख़िलाफ़ ध्यान देना चाहिए! आखिरकार हमें भी असम्भव की माँग करने की कोई इच्छा नहीं है। हमें भी खुद को तिरस्कार की उस हद तक नहीं ले जाना चाहिए जहाँ हम भी इंसानों से महामानव बनने की अपीलें करें। यानी कि महान गुणों का इस्तेमाल करते हुए भयावह परिस्थितियों को झेलने का आह्वान करें जिन्हें, हालाँकि बदला जा सकता है, बदला नहीं जाना चाहिए। हमें सिर्फ संस्कृति के पक्ष से बात नहीं करनी चाहिए। हमें संस्कृति पर दया करनी चाहिए मगर उससे पहले हमें मानवता पर दया दिखानी चाहिए। जब मानवता की हिफ़ाजत की जायेगी तब संस्कृति भी महफूज रहेगी। हमें भावना में बहकर यह दावा नहीं करना चाहिए कि इंसान संस्कृति के लिए बना है न कि संस्कृति इंसान के लिए।

साथियो, हमें इस बुराई की जड़ पर विचार करना होगा।

आज एक महान सिद्धान्त हमारी धरती पर जन-साधारण के लगातार बढ़ रहे हिस्से के बीच अपनी पैठ बना रहा है। यह सिद्धान्त जो खुद बहुत नवीन है हमें सिखाता है कि सारी बुराईयों की जड़ स्वामित्व की शर्तों में है। हर महान सिद्धान्त की तरह इस सरल सिद्धान्त ने जनता के उस हिस्से के बीच अपनी पैठ बना ली है जो मौजूदा सम्पत्ति सम्बन्धों और उनकी रक्षा के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले बर्बर तरीकों के जुए तले पिस रहे हैं। एक देश जो पृथ्वी के कुल क्षेत्रफल के छठवें हिस्से पर फैला है, जहाँ शोषित और सम्पत्तिहीन वर्ग ने सत्ता को अपने हाथों में ले लिया है वहाँ इस सिद्धान्त को व्यवहार में उतारा जा रहा है। वहाँ न तो खाना नष्ट किया जाता है और न ही संस्कृति।

            हममें से कई लेखक जिन्होंने फ़ासीवाद की बर्बरता को अनुभव किया है और उससे भयाकुल हुए हैं उन्होंने  भी इस सिद्धान्त को अभी तक नहीं समझा है। उन्होंने अभी तक इस बर्बरता की जड़ की खोज नहीं की है जो उन्हें इस कदर भयभीत करती है। उनके लिए यह खतरा मंडराता रहता है कि वह फ़ासीवाद की बर्बरता को अनावश्यक बर्बरता मान लेंगे। वह सम्पत्ति स्वामित्व के सम्बन्धों से यह समझ कर चिपके रहते हैं कि फ़ासीवाद की बर्बरता इन सम्पत्ति सम्बन्धों की रक्षा करने के लिए आवश्यक नहीं है। लेकिन अगर मौजूदा सम्पत्ति स्वामित्व की शर्तों को बरकरार रखना है तब निःसन्देह यह बर्बरता आवश्यक है। यहाँ विशिष्टतः फ़ासीवादी झूठ नहीं कह रहे बल्कि सच बोल रहे हैं। हमारे वे दोस्त जो फ़ासीवाद की बर्बरता से उतने ही भयभीत हैं जितने हम, मगर जो सम्पत्ति स्वामित्व की शर्तों को सुरक्षित रखना चाहते हैं या फिर उनके बचाव के प्रति उदासीन हैं वह बर्बरता के ख़िलाफ़ पर्याप्त रूप से सशक्त या निरन्तर संघर्ष नहीं कर सकते जिसकी अभी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। क्योंकि वे न तो उन सामाजिक परिस्थितियों को नाम दे सकते है न ही उनके निर्माण में सहायता कर सकते हैं जिनमें बर्बरता के लिए कोई जगह नहीं होगी। वे जिन्होंने इस बुराई की जड़ की अपनी खोज में सम्पत्ति स्वामित्व के सम्बन्धों को मौजूद पाया, उन्होंने खुद को बर्बरता के नरक में और गहरे उतरते हुए पाया जब तक वे उस जगह नहीं पहुँच गये जहाँ मानवजाति के एक छोटे से टुकड़े ने अपना बेरहम राज काबिज किया हुआ है। उन्होंने इस राज को निजी सम्पत्ति अधिकारों में निहित किया हुआ है जो दूसरे इंसान पर शोषण करने में उनकी मदद करता है और जिस अधिकार की रक्षा वे आखिरी दम तक करते हैं। एक ऐसी संस्कृति की कीमत पर जिसने प्रतिरक्षा करना छोड़ दिया है या जो आत्मरक्षा करने में असमर्थ है। हर उस इंसानी सहास्तित्व के नियम की कीमत पर जिसके लिए मानवता ने बेहद बहादुरी और उग्रता से लम्बे समय तक संघर्ष किये।

साथियों हमें सम्पत्ति स्वामित्व की शर्तों के बारे में बात करनी चाहिए।

बर्बरता के उदय के विरुद्ध संघर्ष के विषय के सम्बन्ध में मुझे यही कहना था, ताकि यहाँ भी यही कहा जाये या फिर मुझे भी यही कहना चाहिए था।

अनुवादः अमित

  • नान्दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

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