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नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ

नवसाम्राज्यवाद की रणनीति, लाभरहित संस्थाओं के विखण्डित जनान्दोलन और नोबल पुरस्कारों के निहितार्थ

मीनाक्षी

इस बार पाकिस्तान की मलाला युसुफ़ज़ई और भारत के कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त रूप से नोबल शान्ति पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह साझा पुरस्कार इन्हें बाल अधिकारों के संरक्षण और सुरक्षा के प्रोत्साहन के लिए मिला है। बाल उत्पीड़न से मुक्त कर बच्चों का बचपन बचाने के लिए कैलाश सत्यार्थी को और लड़कियों की शिक्षा को सुनिश्चित करने के लिए आतंकवादी निशाने पर आयी मलाला युसुफ़ज़ई को। इस चयन को गैरवर्गीय मानवतावाद के अराजनीतिक चश्मे से देखने का दुराग्रह चयन समिति की निष्पक्षता व राजनीतिक तटस्थता के प्रति आश्वस्ति का भाव पैदा तो करता ही है। इस आशंका को भी निर्मूल सिद्ध करने पर तुला रहता है कि ये पुरस्कार शोषणकारी व्यवस्था के सम्पूर्ण खात्मे के बगैर, मात्र कल्याणवादी कार्रवाइयों के आधार पर शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति और सर्वसुलभ शिक्षा की सम्भाव्यता को सामाजिक चेतना में विनयस्त भी करते हैं।

कैलाश सत्यार्थी और उनके ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ की तृणमूल स्तर की समूची कार्रवाइयों को बाल श्रम की मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। अभी तक उन्हें यदा-कदा मुक्त कराये गये बाल मज़दूरों के साथ नत्थी उनकी तस्वीरों और इससे जुड़े अख़बारी बयानों के ही माध्यम से यहाँ महज़ एक छोटे से दायरे में जाना जाता था। शेष दुनिया के लिए वे लगभग अज्ञात ही रह गये थे। उनके कामों की व्यापकता भी ऐसी नहीं थी कि आम लोगों की स्मृतियों में उसकी छवि छाप बनी रहे। एक समय वे चर्चा में तब आये थे जब बच्चों के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक विकास के लिए निर्मित ‘मुक्ति आश्रम’ और ‘मुक्ति प्रतिष्ठान न्यास’ (जिसके अन्तर्गत मुक्ति आश्रम संचालित है) पर उनके कर्मचारियों और न्यासीगण द्वारा भ्रष्टाचार और घनघोर वित्तीय अनियमितताओं का आपराधिक मुकदमा दर्ज किया गया था। अदालती जाँच में भी इसके पुष्ट होने और फलस्वरूप सर्वसम्मति से उनके प्रतिष्ठान से निष्कासन के तथ्य भी सामने आये थे। ऐसे कई तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि उनका तथाकथित बेदाग आचरण या सामाजिक प्रतिबद्धता सन्देह से परे नहीं। इसकी क्या वजह है कि इसी उद्देश्य से संचालित ये संस्थाएँ अपनी सक्रियताओं के उत्कट प्रदर्शन के बावजूद बाल श्रम से मुक्त बच्चों के भौतिक आत्मिक शैक्षिक पुनर्वास के बारे में किन्हीं ठोस परिणामों की जानकारी अभी तक उपलब्ध नहीं करा पायी हैं, जबकि स्वयं सत्यार्थी के शब्दों में उनके गैरसरकारी संगठनों और स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से अब तक 83,525 बच्चे मुक्त कराये जा चुके हैं। मीडिया में जिन मुक्त हुए बच्चों की कथा खुद उनकी मुँहज़ुबानी सामने आयी है उसकी वास्तविकता से अनभिज्ञ लोगों को ‘फोर्ब्स’ पत्रिका की पत्रकार की 2008 की वह रिपोर्ट देखनी चाहिए जिसमें उन्होंने बच्चों के साक्षात्कार के माध्यम से इस झूठ का पर्दाफ़ाश किया था कि किस प्रकार सामान्य घरों के बच्चों को मुक्त हुए बाल श्रमिकों के रूप में प्रस्तुत करने की साज़िश बचपन बचाओ आन्दोलन से जुड़े एक स्वयंसेवी ने की थी।

सत्यार्थी ने बाल अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए भारत समेत नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान जैसे दक्षिण एशिया के देशों में कार्यरत स्वयंसेवी संस्थाओं के गठबन्धन से साउथ एशियन कोलिशन ऑन चाइल्डहुड सर्विस (साक्स) संस्था का गठन भी किया है। ये सभी स्वयंसेवी संस्थाएँ अपने-अपने देशों में उन तथाकथित सामाजिक उद्यमियों द्वारा समाज कल्याण के नाम पर गठित की गयी हैं जो गैरक्रान्तिकारी बदलाव के लिए ‘क्रान्तिकारी’ तरीकों के प्रयोग में ही रुचि रखते हैं। सत्यार्थी जी के एसोसिएशन फॉर वालण्टरी ऐक्शन (आव) का उद्देश्य भी ऐसी ही सुधारवादी कार्रवाइयाँ संचालित करते रहना है जिससे बदलाव का भ्रम बना रहे। यानी क्रान्तिकारिता के आवरण तले सुधारवादी गैरक्रान्तिकारी बदलाव! कैलाश जी ऐसी ही एक और संस्था ‘अशोका’ से भी जुड़े हैं जिसकी स्थापना बिल ड्रायटन ने उनके जैसे ‘सामाजिक उद्यमियों’ का एक विशाल तानाबाना खड़ा करने के लिए की थी। क्या यह महज़ इत्तफ़ाक है कि अर्थशास्त्र के विगत नोबल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनुस भी इसी संस्था से जुड़े हुए हैं और मलाला युसुफ़ज़ई के एक शिक्षक और परामर्शदाता भी। सत्यार्थी जी ने अपनी इस ‘सामाजिक उद्मिता’ का इस्तेमाल ‘रगमार्क’ के व्यावसायिक निशानवाली कम्पनी की स्थापना करने में (जो अब गुडवीव के नाम से भी जानी जाती है) भी किया। एक ओर उन्होंने इस ट्रेडमार्क कम्पनी के माध्यम से उन भारतीय कालीनों के अन्तर्राष्ट्रीय बहिष्कार की अपील की जिनमें बाल श्रम लगा हुआ हो, और दूसरी ओर वे बच्चों के प्रति उसी तर्ज पर ‘मानवीय भावना का भूमण्डलीकरण’ करने की बात करने लगे जिस तर्ज पर लम्पट और भ्रष्ट अमेरिकी राजनीतिज्ञ बिल क्लिंटन, सन्तुष्ट सिने अदाकारा एंजिलिना जोली और नूरीना हर्ट्ज़ जैसे सम्पन्नता से अघाये लोग मानवीय पूँजीवाद और तथाकथित ‘तीसरा रास्ता’ की वकालत करते हैं। उन्होंने इस पूरे कारोबार को यहाँ तक पहुँचा दिया कि कालीन पर रगमार्क का लेबल बाल श्रम की अप्रयुक्तता निर्धारित करने का मानदण्ड बन गया। प्रश्न यह है कि भदोही जैसे बड़े कालीन उद्योग में लगे बाल श्रम के खात्मे का एजेण्डा छोड़कर रगमार्क के जरिये बालश्रम से मुक्त कालीन का अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए प्रोत्साहन और पश्चिमी देशों द्वारा इसकी स्वीकार्यता का औचित्य क्या हो सकता है। बालश्रम से मुक्त निर्यातयोग्य कालीन के व्यापार प्रोत्साहन में पश्चिमी जगत विशेषकर जर्मनी की गहरी रुचि है। यह तथ्य भी निर्विवाद है कि बाल श्रम के विरोध में जागरूकता के प्रचार-प्रसार के लिए सत्यार्थी द्वारा आयोजित ‘ग्लोबल मार्च’ को जर्मन और अमेरिकी फाउण्डेशन द्वारा 20 लाख डालर का अनुदान प्राप्त हुआ था। दुनिया के कई देशों पर थोपे गये भयंकर युद्धों और ड्रोन हमलों में लाखों बच्चों का कत्लेआम करनेवाले साम्राज्यवादी देश आज बाल अधिकारों के प्रति इतने संवेदनशील क्यों हो उठे हैं!

बाल श्रम निर्मित कालीन बहिष्कार की यह गुत्थी उसके राजनीतिक अर्थशास्त्र में छिपी हुई है। यह सर्वविदित है कि साम्राज्यवादी पूँजी और विकसित प्रौद्योगिकी के दम पर विश्व बाज़ार पर नियंत्रणकारी सत्ता स्थापित करनेवाले ये देश भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों को बाज़ार में टिकने नहीं देते। परन्तु संकटकाल और आर्थिक मन्दी के दौर में वैश्विक स्तर पर अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदारी बढ़ाने को लेकर दोनों के बीच खींचातानी बढ़ जाती है। कालीन और तैयारशुदा वस्त्रों का उत्पादन करनेवाले भारत और तीसरी दुनिया के देशों के लिए ऐसे समय में अपने-अपने देशों की गरीबी के मार से सर्वाधिक त्रस्त आबादी ख़ासकर स्त्रियों और बच्चों के सस्ती से सस्ती दर पर निचोड़े गये श्रम की बदौलत उत्पादन लागत को इतना अधिक घटाना सम्भव हो जाता है कि विश्व बाज़ार में वे येन केन प्रकारेण जगह बना लेते हैं। तब उन्हें बेदखल करने और अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए साम्राज्यवादी देश अन्तर्राष्ट्रीय दाता एजेंसियों और उनके फण्ड पर चलनेवाली ऐसी ही स्वयंसेवी संस्थाओं या एनजीओ के माध्यम से जनकल्याण के आवरण में अपना हित साधते हैं। बाज़ार पर नियंत्रण की पुनर्बहाली की इस साम्राज्यवादी कोशिश को मदद पहुँचाना ऐसे तथाकथित कल्याणकारी अभियानों और परियोजनाओं के केन्द्र में होता है। समझा जा सकता है कि कैलाश सत्यार्थी और उनकी स्वयंसेवी संस्थाएँ किस तरह अमेरिकी और यूरोपीय दाता एजेंसियों के पे-रोल पर ‘क्लेशकारी उद्योग’ के उद्धारक की भूमिका निभा रही हैं। इसके लिए उन्हें राबर्ट केनेडी सहित कई यूरोपीय और अमेरिकी पुरस्कार भी मिले हैं।

‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ की गतिविधियों का संचालन वेतनभोगी स्टाफ के माध्यम से होता है। उनकी नियुक्ति भी औपचारिक ढंग से की जाती है। परियोजना अधिकारी, कार्यकारी अधिकारी, कार्यकारी सहायक जैसी कई रिक्तियों के लिए आमंत्रित आवेदन सम्बन्धी विज्ञापन देवनेट जाब्स इण्डिया की वेबसाइट पर देखा भी जा सकता है जिसमें ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ ने अपने आपको समान अवसर प्रदान करनेवाले नियोक्ता के रूप में प्रस्तुत किया था। इसलिए यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या किसी भी सामाजिक उपक्रम या क्रान्तिकारी आन्दोलन का संचालन वेतनभोगी कर्मचारियों के बलबूते किया जा सकता है। तर्क यही बताता है कि स्वयं सामाजिक सेवा ही जब आय का ज़रिया बन जाये तो तमाम सदिच्छाओं के बावजूद धन का पहलू कालान्तर में प्रधान बन जाता है और सामाजिक सक्रियता गौण। दूसरे, सम्भावना-सम्पन्न रैडिकल तत्व अनजाने ही इस तरह की स्वयंसेवी संस्थाओं के जाल में फँसकर क्रान्तिकारी धारा से दूर हो जाते हैं क्योंकि यहाँ उन्हें सामाजिक सेवा की गौरवानुभूति तो होती ही है, सुरक्षित जीवन की बेफिक्री भी मिलती है। ऐसे में कोई भी क्रान्तिकारी सामाजिक आन्दोलन किसी भौतिक प्रोत्साहन से नहीं बल्कि पूर्णकालिक समर्पित कार्यकर्ताओं के भरोसे ही खड़ा किया जा सकता है।

ऐसे गैर सरकारी और गैर पक्षधर संगठनों की यह निजी स्वैच्छिक कार्रवाइयाँ परोपकारिता और मानवता का एक ऐसा आभामण्डल उत्पन्न करती हैं जो राज्य द्वारा क्रमशः कल्याणकारी नीतियों के परित्याग और नवउदारवादी नीतियों के विनाशकारी प्रभाव के प्रति जनता को उदासीन बनाने के काम में निरन्तर सक्रिय है। अतः यह स्पष्ट है कि संसदीय वामपंथियों और संशोधनवादी या सुधारवादी राजनीतिक दलों (जिन्हें लेनिन ने सामाजिक जनवादी कहा था) के नेपथ्य में खिसकने के बाद पूँजीवाद की दृढ़ सुरक्षापंक्ति के रूप में इन स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका अत्यन्त प्रभावी हो उठी है। गैर क्रान्तिकारी परिवर्तन के पक्षधर बुर्जुआ धड़े के ऐसे सुधारवादी ‘क्रान्तिकारियों’ को मार्क्स ने बुर्जुआ समाजवादी कहा है और इनपर तथा इनके दर्शन दारिद्र्य पर सटीक टिप्पणी की है-

‘बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा समाज की बुराइयों को इसलिए दूर करने का इच्छुक बन जाता है ताकि बुर्जुआ समाज के अस्तित्व को बरकरार रखा जा सके। अर्थशास्त्री, परोपकारी, मानवतावादी, श्रमजीवी वर्गों की हालत सुधारने के आकांक्षी, खैरात बँटवानेवाले प्रबन्धक, पशु-रक्षा समितियों के सदस्य, नशे के दुराग्रही, हर कल्पनीय प्रकार के छोटे-मोटे सुधारक -सभी इसी श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा, इस तरह के समाजवाद का एक सम्पूर्ण पद्धति के रूप में विशदीकरण तक कर दिया गया है …

“बुर्जुआ समाजवादी आधुनिक सामाजिक अवस्थाओं का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं, लेकिन आधुनिक अवस्थाओं में अनिवार्यतः उत्पन्न संघर्षों और खतरों से दूर रह कर ही। वे मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को चाहते हैं लेकिन बगैर उसके कान्तिकारी और विघटनशील तत्व के ही।

“इस समाजवाद का एक दूसरा, अधिक व्यावहारिक परन्तु कम व्यवस्थित रूप वह है जो प्रत्येक क्रान्तिकारी आन्दोलन को मज़दूर वर्ग की दृष्टि में यह दिखाकर गिराना चाहता है कि उसे मात्र राजनीतिक सुधारों द्वारा नहीं, अपितु जीवन के भौतिक अवस्थाओं, आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन द्वारा ही कोई लाभ हो सकता है। लेकिन जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन से इस समाजवाद का मतलब यह कदापि नहीं है कि उत्पादन की पूँजीवादी पद्धतियों को समाप्त कर दिया जाये, जिसे क्रान्ति के जरिये ही समाप्त किया जा सकता है, बल्कि उसका मतलब इन्हीं सम्बन्धों पर आधारित प्रशासकीय सुधारों से है, अर्थात ऐसे सुधारों से जो किसी हालत में पूँजी और श्रम के सम्बन्धों में परिवर्तन नहीं लाते और ज़्यादा से ज़्यादा बुर्जुआ सरकार का खर्च कम कर देते हैं और उसके प्रशासकीय कार्यों को कुछ सरल बना देते हैं।”

मार्क्स की यह टिप्पणी कैलाश सत्यार्थी और उनके जैसे ‘क्रान्तिकारियों’ पर, जो पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों पर षड्यन्त्रकारी चुप्पी साधकर मानवता, करुणा, जीवन स्थितियों में सुधार आदि की शेखचिल्ली जैसी बातें करते हैं, आज भी उतनी ही सटीकता से लागू होती है जितना 170 साल पहले।

सत्यार्थी जी को आईएलओ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टें ही यह बता देंगी कि पिछले 15 सालों में भारत समेत दुनियाभर में बाल मज़दूरी के आंकड़ों में इज़ाफ़ा हुआ है। 5 से 7 साल जैसी छोटी आयु में भी मज़दूरी के लिए बाध्य बच्चों की संख्या ही इस रिपोर्ट के अनुसार 21 करोड़ 50 लाख तक पहुँच गयी है। इनमें 14 साल तक के बाल मज़दूरों को भी जोड़ दिया जाये तो यह संख्या और भी अधिक हो जायेगी। सत्यार्थी जी और बाल अधिकारों के लिए ‘संघर्ष’ करनेवाली अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के ‘निजी स्वैच्छिक गतिविधियों’ और ‘जन सहभागिता व जन पहलकदमी द्वारा विकास’ के बावजूद आज भारत में बाल मज़दूरों की संख्या 10 से 16 करोड़ तक जा पहुँची है और आगे भी यह दर बढ़ती जायेगी। यह बिल्कुल साफ हो चुका है कि मानवीय भावना के भूमण्लीकरण जैसे आडम्बरपूर्ण नारे या महज़ मुक्ति अभियानों का सिलसिला अव्वलन तो इन बाल मज़दूरों को उनके नारकीय जीवन से मुक्ति नहीं दिला सकता और यदि एकबारगी इन्हें मुक्ति मिल भी जाये तो नवसाम्राज्यवादी नीतियाँ उनकी जगह बाल मज़दूरों की उसी विशाल संख्या को फिर से लाकर खड़ा कर देंगी। मन्दी के संकटग्रस्त समय में आज खुले बाज़ार की व्यवस्था अधिक से अधिक निचोड़े गये सस्ते श्रम की बदौलत ही अपना अस्तित्व बचाये रख सकती है। बालश्रम के उद्गम को प्रश्नाकिंत किये बिना कैलाश सत्यार्थी और उनके बचपन बचाओ आन्दोलन के लिए बचपन बचाने की कार्रवाई वास्तव में नवउदारवाद की नीतियों के अनुरूप ही है।

नोबल शान्ति पुरस्कार की साझी विजेता मलाला युसुफ़ज़ई साहसिकता को तिलांजलि देकर शान्ति कपोत के रूप में साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा सहयोजित कर ली गयी हैं। पुरस्कार के लिए उन्हें चुनकर आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक के तौर पर उनका इस्तेमाल अत्यन्त चतुराई से किया गया है। इसका असर यह रहा कि पश्चिमी जगत को तालिबान और आईएस जैसे अपने ही पैदा किये हुए आतंकवादी संगठनों के खिलाफ़ माहौल निर्माण करने में सहायता मिली, जिनकी आतंकवादी कार्रवाइयाँ अब ख़ुद उनके लिए परेशानी का सबब बन गयी हैं। यदि मलाला मार दी गयी होती तो दुनिया के लिए वह अनजानी ही रहती ठीक वैसे ही जैसे युद्धों और ड्रोन हमलों द्वारा सामूहिक कब्रों में दफन कर दिये गये पाकिस्तान, लीबिया, यमन और सीरिया के वे बच्चे जो अनाम ही रह गये। इसके साथ ही इस पुरस्कार की एक और भूमिका बनी। शिक्षा के लिए लड़नेवाली एक बेचारी लड़की को उसके देश के बर्बरों से बचाकर, एक कल्याणकारी संघर्ष के प्रति उसकी निष्ठा के लिए पुरस्कार देने का यह काम लोगों के भीतर ‘मानवीय पूँजीवाद’ की स्वीकार्यता पैठाने के भी काम आ गया।

बर्बर इसरायली आक्रमण में मारी गयीं फिलिस्तीनी स्त्रियाँ और बच्चे, अमेरिकी सैनिकों द्वारा बलात्कृत स्त्रियाँ और वह 14 वर्षीय इराकी लड़की अबीर जो 5 अमेरिकी सैनिकों के बलात्कार का उस समय शिकार बनी जब वह शिक्षा के लिए स्कूल जा रही थी-शान्ति के लिए पुरस्कृत मलाला को अब ये घटनाएँ मथती नहीं। बच्चियों के अधिकारों के बारे में अब वह अधिक से अधिक संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं से हस्तक्षेप की अपील भर कर सकती हैं। जैसाकि उन्होंने आतंकवादी संगठन बोको हरम द्वारा अपहृत नाईजीरियाई लड़कियों की रिहाई के लिए किया था। उन्हें यह बात बिल्कुल नहीं अखरती कि उनके देश पाकिस्तान में शिक्षा पर होनेवाला खर्च कुल जीडीपी का 2 प्रतिशत ही क्यों है और क्यों शिक्षा योग्य 2 करोड़ 50 लाख बच्चे तीसरी कक्षा के पहले ही विद्यालयों से बाहर हो जाते हैं। उसके देश के 1 करोड़ बच्चों को ईंट भट्टे पर क्यों काम करना पड़ता है। वह अब इस्लाम के साँचे खाँचे में शिक्षा के महत्व पर बात करती हैं परन्तु स्त्री उत्पीड़न को औचित्य प्रदान करने वाली इसकी भूमिका को नज़रअन्दाज कर जाती हैं। सार्वजनिक शिक्षा की सर्वसुलभता उनकी माँग का एजेण्डा नहीं बन पाता। साम्राज्यवादी ताकतों ने एक प्रतीक चिह्न के रूप में किस तरह मलाला का इस्तेमाल कर लिया है, यह प्रत्यक्ष है।

पाकिस्तान (या अन्य किसी देश) की लड़कियों की शिक्षा के प्रति इन पुरस्कार समितियों का सरोकार एक भ्रमजाल से अधिक कुछ नहीं है। नोबल कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष थॉर्बजार्न जगलैंड का पाखण्ड इस एक वाक्य से ही प्रकट हो जाता है जो उन्होंने शिक्षा के सम्बन्ध में कहा था- ‘आतंकवाद में खींच लिये जाने की जगह उन्हें स्कूल जाने दो।’ यानी आतंकवाद न होता तो वहाँ स्कूलों और शिक्षा का कोई विशेष महत्व नहीं होता। जैसे यह अधिकार नहीं विवशता है। आज पाकिस्तानी लड़कियों  की शिक्षा के लिए साम्राज्यवादी देश अत्यन्त संवेदनशील हो उठे हैं। नवउदारवाद के प्रबल पक्षधर इंग्लैण्ड के राजनीतिज्ञ गार्डन ब्राउन तो उनकी शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए आज सद्भावना दूत का काम करने लगे हैं, यही नहीं वे तीसरी दुनिया में लड़कियों की शिक्षा के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन मिलेनियम डेवलपमेण्ट के भी सद्भावना दूत बन गये हैं। लड़कियों की शिक्षा के प्रति आज अतिचिन्तित ये वही दक्षिणपंथी राजनेता हैं जिन्होंने शिक्षा और स्वास्थ्य के निजीकरण की रफ़्तार तेज करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई और जब विरोध में मेहनतकश नौजवान और छात्र सड़कों पर उतरे तो उनसे निपटने के लिए उन्होंने बड़ी तत्परता से सेना का सहारा लिया। सद्भावना की कलई खोलने के लिए यह एक ही तथ्य पर्याप्त है कि इराक पर बमबारी के पक्ष में, जिसने हज़ारों बच्चों को मौत की नींद सुला दिया, इस दूत ने न केवल अपना मत दिया अपितु इसके लिए फंड भी उपलब्ध कराया था।

नोबल शान्ति पुरस्कार वास्तव में साम्राज्यवादी एजेण्डा है। इसके हकदार वे लोग और वित्तपोषित ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएँ होती हैं जो जनता के बीच नवउदारवादी नीतियों की स्वीकार्यता बनाने में ‘विचारधारात्मक पारगमन टिकट’ के तौर पर काम कर सकें। यानी वर्ग संघर्ष से वर्ग सहयोग की ओर! यह नवसाम्राज्यवाद का जनविद्रोह-विरोधी रणनीति है। बाल अधिकारों के प्रति साम्राज्यवादी देश, उनकी सेवा में सन्नद्ध अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ और देशी विदेशी अनुदान से संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं के मानव प्रेम का पहलू आज इसीलिए इतना मुखर हो उठा है ताकि नवउदारवादी नीतियों के अमल से जन्मे स्वतःस्फूर्त जन उभारों और जनआन्दोलनों को व्यवस्था के भीतर ही संगठित करके एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण किया जा सके और मौजूदा चौहद्दी में ही अर्थव्यवस्था के विकास के नाम पर अनुग्रहवादी व गरीबी कार्यक्रम को फण्ड देकर जन समर्थन हासिल किया जा सके। इसलिए इस तरह के तमाम सामाजिक उपक्रमों में संसाधनों के प्रश्न को तकनीकी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता यह बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक राजनीतिक प्रश्न है। अनुदान की चाशनी में पगाकर ऐसी अज्ञात ‘लोकहितैषी’ पूँजी का निवेश साम्राज्यवादी दाता एजेंसियों द्वारा उदारतापूर्वक किया ही इसीलिए जाता है ताकि नवउदारवादी नीतियों और योजनाओं का सिद्धान्त और व्यवहार में विकास, किसी जनप्रतिरोध की गुंजाइश के बिना, जनकल्याण नामधारी कार्रवाइयों के माध्यम से सफलतापूर्वक किया जा सके। ये स्वयंसेवी संस्थाएँ कैलाश सत्यार्थी, मोहम्मद युनुस जैसे सिपहसालारों को इसलिए भी तैनात करती हैं ताकि वे रैडिकल परिवर्तन के मिथक को औचित्य प्रदान करने और उसे बढ़ावा देने का काम भी करते रहें। परन्तु लोकोपकार के बेलबूटे वाला छद्म मानवीयता का यत्नपूर्वक डाला गया यह आवरण अब संकटग्रस्त नवसाम्राज्यवादी यथार्थ की ठठरी को छुपाने में असफल हो रहा है। नवउदारवादी नीतियों के नतीजे इसका भेद खोल रहे हैं। ज़ाहिर है, इस स्थिति ने साम्राज्यवादी थिंक टैंक के सामने अपनी रणनीति के पुनर्गठन की विवशता पैदा कर दी है। यह वही स्थिति है जिसे किसी अन्य सन्दर्भ में ग्राम्शी ने ‘बुद्धि का निराशावाद’ कहा था।

  • नान्दीपाठ-3, अप्रैल-जून 2016

हमारे समय का यथार्थ और जगदीशचन्द्र के उपन्यास

प्रेमचन्द की ही तरह, जगदीशचन्द्र के भी सन्दर्भ में “यथार्थवाद की विजय” मुख्यत: यह है कि उपस्थित किए गए मूलभूत जीवन–प्रश्न का समाधान वे कृत्रिम या आरोपित ढंग से कथावृत्त की चौहद्दी में घटित होते हुए नहीं दिखलाते। इस सतही विकल्प के द्वारा पाठक को राहत या चैन तो मिल सकता था, लेकिन यह “यथार्थवाद की पराजय” की शर्त पर ही सम्भव होता! ‘गोदान’ की ही तरह जगदीशचन्द्र की उपन्यासत्रयी का त्रासद अन्त पाठक को उस बेचैनी तक पहुँचाकर छोड़ देता है जहाँ से समाधान की तलाश की चिन्ताएँ उगना–पनपना शुरू करती हैं।

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