ख़ाली समय / थियोडोर अडोर्नो

ख़ाली समय

थियोडोर अडोर्नो

ख़ाली समय से जुड़े प्रश्न को, कि लोग इसमें क्या करते हैं और आखिरकार इससे कौन से अवसर पैदा हो सकते हैं, अमूर्त सामान्यीकरण के रूप में नहीं उठाया जाना चाहिए। संयोग से ‘ख़ाली समय’ या ‘फालतू समय’ की शब्दावली का उद्भव हाल में ही हुआ है। इसका पूर्ववर्ती शब्द ‘फुरसत’ स्वच्छन्द, आरामदेह जीवन-शैली के विशेषाधिकार को व्यक्त करता था और इसलिए इससे गुणात्मक रूप से भिन्न और कहीं ज़्यादा अच्छा था। ‘ख़ाली समय’ या ‘फालतू समय’ एक विशिष्ट अन्तर को दर्शाता है, जो कि वह समय है जो न तो ख़ाली है और न ही फालतू, जो काम में लगा हुआ है, और तो और, जिसे अ:स्वायत्त की संज्ञा दी जा सकती है। ख़ाली समय अपने विपरीत से बंधा हुआ है। नि:संदेह, जिस विरोधात्मक सम्बन्ध में ख़ाली समय अवस्थित होता है, उसे कई अनिवार्य विशिष्टताओं से भर देता है। और जो बात कहीं ज़्यादा अहम है वह यह कि ख़ाली समय सामाजिक परिस्थितियों की समग्रता पर आश्रित होता है, जो कि लोगों को अपने मोहपाश में बाँधे रखता है। न तो अपने काम में और न ही अपनी चेतना में लोग वास्तविक स्वतन्त्रता से छुटकारा पा सकते हैं। रंगमंच के क्षेत्र से उधार लिये गये शब्द ‘भूमिका’ का एक कुंजी के रूप में प्रयोग करने वाले समन्वयवादी समाजशास्त्री इस तथ्य की पुष्टि करते हैं और यह शब्द यह बताता है कि समाज द्वारा लोगों पर मिथ्यारोपित अस्तित्व न तो उस चीज़ से मेल खाता है, जो कि लोग अपने आप में होते हैं, और न ही उस चीज़ से जो कि वे हो सकते हैं। बेशक लोग अपने आप में जैसे हैं और उनकी तथाकथित सामाजिक भूमिकाओं के बीच सरल विभेद करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। ये भूमिकाएँ मानवीय स्वभाव के सबसे आन्तरिक तन्तुबद्धीकरण (आर्टिक्युलेशन) को इस हद तक प्रभावित करती हैं कि अद्वितीय सामाजिक एकीकरण के युग में मनुष्यों में ऐसी किसी भी चीज़ का पता लगाना मुश्किल है, ज़िसका निर्धारण कार्यात्मक रूप से न होता हो। यह ख़ाली समय से जुड़े प्रश्न के लिए ग़ौर किये जाने लायक विचार है। कहने का अभिप्राय है कि जब इस मोहपाश की जकड़ ढीली पड़ जाती है और लोग, कम-से-कम आत्मगत तौर पर, इस बात में यक़ीन करते हैं कि वे स्वेच्छा से काम कर रहे हैं, उस वक्त भी यह इच्छा उन्हीं ताक़तों द्वारा निर्मित की जा रही होती है, ज़िनसे कि वे उन कुछ कार्यरहित घण्टों में छुटकारा पाना चाहते हैं। आज जो प्रश्न ख़ाली समय की परिघटना के साथ वाकई न्याय कर पायेगा वह इस प्रकार हैः वहाँ ख़ाली समय का क्या होता है जहाँ श्रम की उत्पादकता अस्वतन्त्रता की लगातार मौजूद परिस्थितियों के तहत निरन्तर बढ़ती रहती हैं, यानी वे उत्पादन सम्बन्ध ज़िनमें लोग जन्म से बंधे होते हैं और जो मानव अस्तित्व के नियमों को निर्दिष्ट करते हैं, जैसा कि वे हमेशा से करते रहे हैं? हमारे दिन में और हमारे युग में ख़ाली समय पहले ही अत्यधिक विस्तारित हो चुका है। और यह विस्तार स्वचालन और परमाणु ऊर्जा के क्षेत्रों में हुए आविष्कारों के चलते अभी और बढ़ना चाहिए, ज़िनका अभी पूरी तरह से उपयोग नहीं हो सका है। यदि कोई बिना विचारधारात्मक पूर्वधारणओं के इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करेगा तो वह इस सन्देह से नहीं बच पायेगा कि ‘ख़ाली समय’ अपने विपरीत की ओर बढ़ रहा है, और अपनी ही पैरोडी (प्रहसन) बन रहा है। इस प्रकार अस्वतन्त्रता धीरे-धीरे ‘ख़ाली समय’ को हस्तगत कर रही है और अस्वतन्त्र लोगों की बहुसंख्या इस प्रक्रिया से उतनी ही अनभिज्ञ है जितनी की स्वयं अस्वतन्त्रता से।

मैं अपने एक मामूली अनुभव द्वारा इस समस्या को स्पष्ट करना चाहूँगा। प्रायः बातचीत या साक्षात्कार के दौरान लोगों से उनकी अभिरुचियों या शौकों (हॉबी) के बारे में पूछा जाता है। जब सचित्र साप्ताहिक अखबार संस्कृति उद्योग की किसी दिग्गज शख़्सियत के विषय में ख़बर दे रहे होते हैं, तो वे अन्तरंगता की विभिन्न मात्रओं के साथ बिरले ही उस व्यक्ति विशेष की अभिरुचियों की सूचना देने का अवसर छोड़ते हैं। मेरा जब कभी भी इस प्रश्न से सामना होता है, तो मैं स्तब्ध रह जाता हूँ। मेरी कोई अभिरुचि नहीं है। ऐसा नहीं है कि मैं काम में इस कदर डूबा रहता हूँ कि खुद को अध्यवसायी तरीके से ज़रूरी काम में लगाने के अलावा अपने समय के साथ कुछ और न कर पाऊँ। लेकिन जहाँ तक मेरे मान्य पेशे की सीमा के परे मेरी गतिविधियों का सवाल है तो मैं बिना किसी अपवाद के उन सबको काफ़ी गम्भीरता से लेता हूँ। इस हद तक गम्भीरता से कि अगर मैं अब इस व्यापक बन चुकी बर्बर मानसिकता के ऐसे उदाहरणों के प्रति अनुभव से कठोर नहीं हुआ होता तो यह विचार ही मुझे भयभीत करने के लिए पर्याप्त होता कि इनका अभिरुचियों से कुछ भी लेना-देना है जो कि और कुछ नहीं बल्कि ऐसी व्यस्तताएँ हैं ज़िनके लिए महज़ अपना समय काटने के लिए मैं मूर्खतापूर्ण तरीके से पागल हूँ। संगीत रचना, संगीत सुनना, एकाग्रता से पढ़ना ये सभी गतिविधियाँ मेरे जीवन का अनिवार्य अंग हैं; इन्हें शौक कहना इनकी खिल्ली उड़ाना होगा। दूसरी ओर, मैं इतना भाग्यशाली तो रहा ही हूँ कि दार्शनिक और समाजशास्त्रीय रचनाओं के सृजन और विश्वविद्यालय में अध्यापन के मेरे काम को ख़ाली समय के बिल्कुल विपरीत के तौर पर परिभाषित नहीं किया जा सकता, जैसा कि इन दोनों के बीच की बारीक विभाजक रेखा माँग करती है। हालाँकि मैं इस बात से भली-भाँति परिचित हूँ कि इस मामले में मुझे विशेषाधिकार प्राप्त है, जिसमें कि खुशकिस्मती और अपराधबोध दोनों के तत्व शामिल हैः मैं एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर बोल रहा हूँ जिसके पास अपनी मंशा के रास्ते पर चलने और अपने कार्य को उसी के अनुसार ढालने का दुर्लभ अवसर प्राप्त रहा है। यह निश्चय ही एक अच्छा कारण है जो बताता है कि क्यों मेरे काम में और इससे इतर जो मैं करता हूँ, उसमें कोई कठोर विरोध नहीं है। अगर ख़ाली समय को केवल उस स्थिति में तब्दील होना हो जिसमें सभी लोग उस चीज़ का आनन्द उठा पायें जो पहले कुछ कुछ गिने-चुने लोगों का विशेषाधिकार था और सामन्तवाद की तुलना में पूँजीवादी समाज ने इस दिशा में कुछ कदम उठाये भी हैं तो मैं इसकी तस्वीर कार्य के क्षेत्र के बाहर अपने जीवन के अनुभवों के मुताबिक बनाऊँगा, हालाँकि अलग परिस्थितियों में यह मॉडल अनिवार्य रूप से बदल जायेगा।

अगर हम मार्क्स के समान यह कल्पना करें कि बुर्जुआ समाज में श्रमशक्ति एक माल बन गयी है जिसमें श्रम का परकीकरण होता है, तब ‘अभिरुचि’ शब्द ही विरोधाभास बन जाता हैः उस मानवीय अवस्था का भी श्रम और ख़ाली समय के बीच के कठोर अन्तर की तरह ही परकीकरण हो गया है, जो खुद को परकीकरण के विपरीत के तौर पर देखती है, जो पूरी तरह से मध्यस्थित सम्पूर्ण व्यवस्था में अमध्यस्थित जीवन का मरुद्यान है। इनमें से ख़ाली समय मुनाफ़ा-केन्द्रित सामाजिक जीवन के रूपों की ही निरन्तरता है। जि‍स तरह ‘शो बिज़नेस’ शब्द को आजकल बेहद गम्भीरता से लिया जाता है, उसी तरह ‘अवकाश उद्योग’ शब्दावली में छिपे व्यंग्य को अब काफ़ी हद तक भुला दिया गया है। यह व्यापक तौर पर विदित है और इसलिए उतना ही सच भी कि पर्यटन और कैम्पिंग जैसी विशिष्ट अवकाश की गतिविधियाँ मुनाफ़े के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं और उसके लिए ही आयोजित की जाती हैं। साथ ही, काम और ख़ाली समय के बीच के अन्तर को लोगों के मस्तिष्कों में, सचेतन और अचेतन दोनों ही स्तरों पर, एक मानक के रूप में बिठा दिया गया है। चूँकि प्रभावी कार्य सम्बन्धी आचार नीति के अनुसार, काम से मुक्त समय का इस्तेमाल खर्च हुई श्रमशक्ति के पुनर्निर्माण में होना चाहिए, इसलिए कार्यरहित समय शुद्धतावादी उत्साह के साथ काम से विच्छिन्न कर दिया जाता है, जिसका कि वह महज़ एक अवयव है। और यहाँ हम बुर्जुआ चरित्र के आचरण-सम्बन्धी मानक से रूबरू होते हैं। एक तरफ़ तो हमें काम के वक्त काम पर ध्यान देना चाहिए और अपना ध्यान इधर-उधर न तो भटकने देना चाहिए, और न ही मौज-मस्ती में गँवाना चाहिए; उज़रती श्रम इसी पूर्वधारणा पर आधारित है और इसके नियमों को आत्मसात कर लिया गया है। वहीं दूसरी ओर, ख़ाली समय को किसी भी तरह से काम के समरूप नहीं होना चाहिए, शायद इसलिए कि हम बाद में और बेहतर तरीके से काम कर सकें। अतः बहुत सारी अवकाश की गतिविधियों की निरर्थकता। और फिर भी मानो चोरी-छिपे व्यवहार की उन वर्जित प्रणालियों की, जो कि काम के राज्य से सम्बन्ध रखती हैं और जो लोगों को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं होने देंगी, ख़ाली समय के राज्य में तस्करी की जा रही है। पहले के दौरों में बच्चों को उनके ध्यान-केन्द्रण के लिए स्कूल रिपोर्टों में अंक दिये जाते थे। इसका एक पूरक यह है कि बड़े लोगों की ये आत्मगत और शायद अच्छे इरादों वाली चिन्ताएँ होती हैं कि ख़ाली समय में बच्चों को खुद पर ज़्यादा दबाव नहीं डालना चाहिए और न ज़्यादा पढ़ना चाहिए और न ही रात में ज़्यादा देर तक जगना चाहिए। गुप्त रूप से अभिभावकों ने मन की उच्छृंखलता को महसूस किया जो कि मानवीय जीवन के कुशलतापूर्ण विभाजन से मेल नहीं खाता था। इसके अलावा प्रभावी लोकाचार किसी भी ऐसी चीज़ को सन्देह से देखता है जो मिलाजुला और विविधतापूर्ण है और जो कि साफ़ तौर पर बिना अस्पष्टता के उसकी उचित जगह पर न हो। जीवन का कठोर द्विभाजन उसी परकीकरण का आदेश देता है जिसने अब ख़ाली समय को पूरी तरह से अधीन बना लिया है।

इस अधीनता को शौक की विचारधारा में सक्रिय रूप में देखा जा सकता है। इस प्रश्न की नैसर्गिकता में, कि आपका क्या शौक है, यह पूर्वधारणा अन्तर्निहित है कि आपके पास एक शौक तो होना ही चाहिए, या इससे भी बेहतर कि आपके पास विभिन्न शौकों का एक पूरा दायरा होना चाहिए जो कि अवकाश उद्योग की आपूर्ति की क्षमता के अनुरूप होना चाहिए। व्यवस्थित स्वतन्त्रता बाध्यताकारी है। लानत है आप पर अगर आपका कोई शौक नहीं है, ख़ाली वक्त बिताने का कोई तरीका नहीं है, तो आप एक फिसड्डी छात्र हैं, या बुड्ढे हैं, सनकी हैं, और आप एक ऐसे समाज में हँसी का पात्र बन जायेंगे जो ख़ाली समय बिताने का तरीका आप पर थोपता है। ऐसी बाध्यता किसी भी रूप में बाह्य चरित्र की नहीं होती। यह कार्यात्मक व्यवस्था में लोगों की अन्दरूनी ज़रूरत से जुड़ी होती है। पुराने युवा आन्दोलनों में लोकप्रिय गतिविधि कैम्पिंग बुर्जुआ जीवन की ऊबाऊपन और परम्परा के ख़िलाफ़ एक विद्रोह था। लोगों को बाहर निकलना था, इस वाक्य के दोनों अर्थों में। तारों के नीचे बाहर सोने का अर्थ था कि आप घर और परिवार दोनों से पलायन कर चुके हैं। युवा आन्दोलनों के मरने के बाद इस ज़रूरत को कैम्पिंग उद्योग ने पाला-पोसा और संस्थाबद्ध किया। उद्योग ने अकेले अपने बूते पर ही लोगों को टेण्ट, डोरमोबाइल, और अतिरिक्त उपकरणों की विशाल मात्र को ख़रीदने के लिए मजबूर नहीं किया होता अगर लोगों में स्वयं यह इच्छा नहीं होती; लेकिन स्वतन्त्रता की उनकी अपनी ज़रूरत ही व्यवसाय द्वारा कार्यरूप ग्रहण करती है, विस्तारित होती है और पुनरुत्पादित होती है; जो वे चाहते हैं एक बार फिर उसे उन पर थोप दिया जाता है। यही उस सहजता का कारण है जिसके साथ ख़ाली समय समेकित हो जाता है; लोग इस बात के प्रति अचेत हैं कि वे कितने अस्वतन्त्र हैं, वहाँ भी जहाँ वे अपने आपको सबसे मुक्त महसूस करते हैं क्योंकि ऐसी अस्वतन्त्रता के शासन को उनसे अमूर्तीकृत कर दिया गया है।

इसके कठोर अर्थों में लिया जाय, और अगर उन अर्थों में लिया जाये जिसे आज पुरानी पड़ चुकी विचारधारा माना जायेगा, तो कार्य के विपरीत ख़ाली समय की धारणा के बारे में कुछ शून्यतापूर्ण है (हेगेल ने इसे अमूर्त कहा होता)। इसका एक आद्यरूपीय उदाहरण उन लोगों के व्यवहार में देखने को मिलता है जो कि महज़ एक ‘सन टैन’ के लिए धूप में अपने आपको सेंक कर भूरा कर देते हैं, हालाँकि तपती धूप में सोना बिल्कुल भी आनन्ददायी नहीं होता, और काफी गुंजाइश है कि यह शारीरिक तौर पर अप्रीतिकर भी होता हो, और यह निश्चित तौर पर दिमाग़ को दरिद्र कर देता है। ‘सन टैन’ में, जो कि देखने में प्रियकर हो सकता है, माल का अन्धभक्ति वाला चरित्र वास्तविक लोगों पर अपना दावा ठोंक देता है। वे स्वयं अन्धभक्ति की वस्तु बन जाते हैं; यह विचार कि भूरी त्वचा वाली लड़की कामुक रूप से ज़्यादा आकर्षक है, सम्भवतः एक और तर्कसंगतीकरण है। ‘सन टैन’ अपने आप में एक लक्ष्य है, उस पुरुष मित्र से भी ज़्यादा जिसे आकर्षित करना इसका काम था। अगर कर्मचारी छुट्टियों से बाध्यताकारी त्वचा के रंग के बिना लौटते हैं तो वह पक्के तौर पर यह उम्मीद कर सकते हैं कि उनके सहकर्मी उनसे यह तीखा सवाल पूछेंगे कि क्या आप छुट्टियों पर नहीं गये थे। ख़ाली समय में जो अन्धभक्ति फलती-फूलती है वह और सामाजिक नियन्त्रणों के अधीन आती है। यह ज़ाहिर है कि अपने ज़बर्दस्त और अपरिहार्य प्रचार के साथ कॉस्मेटिक उद्योग इसमें योगदान करने वाला एक कारक है, लेकिन लोगों की सहज प्रकट तथ्यों की अवहेलना करने की इच्छा भी उतनी ही बड़ी है।

धूप में सोने की क्रिया वर्तमान स्थितियों में ख़ाली समय के अहम तत्व के चरम बिन्दु पर पहुँचने की निशानी है, ऊब। छुट्टियों और ख़ाली समय में अन्य विशेष उपहारों से लोग जिन चमत्कारों की अपेक्षा करते हैं अन्तहीन विद्वेषपूर्ण उपहास का निशाना बनाये जाते हैं, क्योंकि यहाँ भी वे उसी सीमा की देहरी से आगे नहीं जा पातेः दूरस्थ स्थान अब अलग स्थान नहीं रहे जैसा कि वे बॉदलेयर की ऊब के लिए थे। शिकार हुए व्यक्ति का उपहास अपने आप ही उन प्रणालियों से जुड़ा होता है, जो उसे शिकार बनाती हैं। कम उम्र में ही शॉपेनहावर ने ऊब का एक सिद्धान्त रचा था। अपने आधिभौतिक निराशावाद के प्रति वफादार रहते हुए वह सिखाते हैं कि लोग या तो अपनी अन्धी इच्छा की अपूर्ण आकांक्षाओं से पीड़ित होते हैं या फिर जैसे ही ये आकांक्षाएँ पूरी होती हैं, वैसे ही पैदा होने वाली ऊब से पीड़ित होते हैं। यह सिद्धान्त अच्छी तरह से व्याख्या करता है कि अस्वायत्तता की स्थितियों के तहत लोगों के ख़ाली समय का क्या होता है, और जिसे नयी जर्मन भाषा में बाह्य निर्धारण (Fremdbestimmthiet) कहा जाता है। अपने निराशावाद में शोपेनहावर का यह अहंकारपूर्ण कथन कि मनुष्य जाति प्रकृति का कारखाना उत्पाद है, उस चीज़ को भी समझता है जो कि माल चरित्र की पूर्णता के हाथों आदमी बन जाता है। नाराज़ निराशावाद मनुष्यों का ज्यादा सम्मान करता है, बजाय मनुष्य के न अपचयित किये जा सकने वाले सारतत्व के बारे में होने वाले गम्भीर विरोध प्रदर्शनों के। लेकिन हमें शॉपेनहॉवर के सिद्धान्त को सार्वभौमिक वैधता रखने वाली किसी चीज़ के रूप में या मनुष्यों के आदिम चरित्र के बारे में अन्तर्दृष्टि के रूप में ज़बरन भौतिक रूप नहीं देना चाहिए। ऊब जीवन का एक कार्य है जिसे काम करने की बाध्यता और श्रम के कठोर विभाजन के तहत जीना होता है। इसे ऐसा होने की ज़रूरत नहीं है। जब भी ख़ाली समय में बर्ताव वास्तव में स्वायत्त होता है, जिसका निर्धारण स्वतन्त्र लोग स्वयं अपने लिए करते हैं, तो बिरले ही ऊब पैदा होती है; यह न तो उन गतिविधियों में पैदा होती है, जो कि महज़ आनन्द की इच्छा की पूर्ति करती हैं, और न ही ख़ाली समय की उन गतिविधियों में जो कि अपने आप में तर्कसंगत और अर्थपूर्ण हैं। यूँ ही वक्त ज़ाया करना हमेशा मूर्खतापूर्ण नहीं होता और उसका आत्म नियन्त्रण की जकड़ से वरदान के रूप में मिली मुक्ति के रूप में आनन्द लिया जा सकता है। अगर लोग अपने बारे में और अपनी जिन्दगियों के बारे में खुद निर्णय ले सकते, अगर वे उन्हीं चीज़ों के राज्य में फँसे नहीं होते, तो वे ऊबते नहीं। ऊब वस्तुगत नीरसता का प्रतिबिम्बन है। इस रूप में यह राजनीतिक उदासीनता जैसी स्थिति में होती है। उदासीनता का सबसे अकाट्य कारण है जनता के बीच की यह भावना जो कि किसी भी तरह से ग़लत नहीं है कि उस क्षेत्र में राजनीतिक भागीदारी जो समाज उन्हें देता है, उनके असली वजूद को केवल मामूली तौर पर ही बदल सकता है, और यह आज दुनिया में मौजूद सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए सच है। अपने हितों के लिए राजनीति की प्रासंगिकता को न समझ पाने के कारण वे सभी राजनीतिक गतिविधियों से पीछे हट जाते हैं। शक्तिहीनता की सुस्थापित और विक्षिप्त भावना ऊब से करीबी से जुड़ी हुई हैः ऊब वस्तुगत हताशा है। यह सामाजिक पूर्णता द्वारा मनुष्य पर थोपी गयी विकृतियों का भी लक्षण है, जिसमें से सबसे महत्वपूर्ण निश्चित तौर पर कल्पना (phantasie) का अपयश और अपुष्टि। कल्पना पर विज्ञान की उस स्पिरिट (Geist) द्वारा केवल वर्जित वस्तु के लिए यौनिक जिज्ञासा और इच्छा होने का शक़ किया जाता है, जो कि अब स्पिरिट रही ही नहीं। जो अनुकूलित होना चाहते हैं उन्हें अपनी कल्पना को अधिक से अधिक सीमित करना सीखना चाहिए। अधिकांशतः, कल्पना का विकास शुरुआती बचपन के अनुभव द्वारा अपंग बना दिया जाता है। कल्पना की कमी जो समाज द्वारा मन में बिठायी और विकसित की जाती है, वह लोगों को उनके ख़ाली समय में असहाय बना देती है। लोग अपने विशाल मात्र में ख़ाली समय के साथ क्या करें यह अप्रासंगिक प्रश्न अकल्पनाशील होने पर ही आधारित है, मानो, यह सवाल भीख देने का सवाल हो, मानवाधिकारों का नहीं। लोग अपने ख़ाली समय के साथ इतना कम असल में क्यों कर पाते हैं इसका कारण यह है कि उनकी कल्पना को बौना बना दिया जाता है जो कि उनको इस क्षमता से ही वंचित कर देता है जिसने स्वतन्त्रता की अवस्था को आनन्ददायी बनाया था। लोगों को स्वतन्त्रता देने से इंकार कर दिया गया है और इसके मूल्य को छोटा बना लिया गया है, इतने लम्बे समय से कि अब लोग इसे चाहते ही नहीं हैं। उन्हें वह खोखला मनोरंजन चाहिए होता है, जिसके ज़रिये सांस्कृतिक रूढ़िवाद उनका संरक्षक बनता है और उनका अपमान करता है, ताकि वे कार्य के लिए ताक़त जुटा सकें, जिसकी इस सामाजिक व्यवस्था में उनसे माँग की जाती है जिसकी सांस्कृतिक रूढ़िवाद हिफ़ाज़त करता है। यह इस बात का एक अच्छा कारण है कि लोग क्यों अपने काम और उस व्यवस्था से बंधे हुए हैं जो उन्हें काम करने के लिए प्रशिक्षित करती है, बावजूद इसके कि उस व्यवस्था को उनके श्रम की लम्बे समय से ज़रूरत नहीं रह गयी है। हावी स्थितियों के तहत यह अपेक्षा करना और माँग करना ग़लत और मूर्खतापूर्ण होगा कि लोगों को अपने ख़ाली समय में ईमानदारी से उत्पादक होना चाहिए; क्योंकि उत्पादकता कोई ऐसी चीज़ लाने की क्षमता जो पहले नहीं थी, ही वह चीज़ है जो उनमें से मिटा दी गयी है। अधिक से अधिक अपने ख़ाली समय में वह जो पैदा करते हैं वह मनहूस शौक से थोड़ा ही बेहतर होता है| कविताओं और चित्रों की नकल जो मौजूदा न पलटे जा सकने वाले श्रम विभाजन के तहत इन नौसिखुओं (Freizeitler) से ज़्यादा दूसरे अच्छी कर सकते हैं। जो वे पैदा करते हैं उसमें कुछ गैरज़रूरी होता है। यह ग़ैरज़रूरीपन उत्पाद की हीन गुणवत्ता को दिखला देता है, जो कि उसके उत्पादन के मिलने वाले किसी भी सुख को निरस्त कर देता है।

लोगों के ख़ाली समय में की गयी सबसे ग़ैरज़रूरी और निरर्थक गतिविधि भी समाज में समेकित हो जाती है। एक बार फिर यहाँ एक सामाजिक आवश्यकता सक्रिय है। सेवाओं के कुछ विशेष रूप, ख़ास तौर पर घरेलू नौकरों की सेवा, ख़त्म हो रहे हैं; माँग आपूर्ति के साथ समानुपात में नहीं है। अमेरिका में केवल वाकई काफी समृद्ध लोग ही नौकर रख सकते हैं, और यूरोप इस मामले में उसके ठीक पीछे है। इसका अर्थ है कि कई लोग वे काम करते हैं जो पहले दूसरों को दे दिये गये थे। ‘अपने से करो’ का नारा इसे एक व्यावहारिक सलाह के रूप में देखता है। लेकिन यह यान्त्रिकीकरण के प्रति लोगों के असन्तोष को भी समझना है, जो कि लोगों से बोझ को हटा देता है, जबकि लोगों के पास अपने नये प्राप्त समय के लिए कोई इस्तेमाल नहीं होता है, और इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं है, बस इसकी वर्तमान व्याख्या पर विवाद है। इस प्रकार, एक बार फिर कुछ निश्चित विशेषीकृत उद्योगों के हितों में, लोगों को वे कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जो कि अन्य लोग ज़्यादा सरलता से और निपुणता से उनके लिए कर सकते हैं, और जिनसे इसी कारण से वे अन्दर ही अन्दर घृणा करते हैं। वास्तव में, सेवाओं पर ख़र्च किये जा रहे पैसे को आप बचा सकते हैं, श्रम विभाजन पर आधारित एक समाज में यह विचार बुर्जुआ चेतना के बेहद पुराने स्तर से सम्बन्ध रखता है; यह जिद्दी आत्म-हितों से बनी अर्थव्यवस्था है, एक अर्थव्यवस्था जो इस तथ्य के ठीक विपरीत है कि यह विशेषीकृत कुशलताओं का विनिमय ही है जो इस पूरी प्रणाली को चलाता है। निरपेक्ष वैयक्तिकता के घृणित उदाहरण विलियम टेल ने घोषणा की कि घरेलू कुल्हाड़ी बढ़ई की ज़रूरत को खत्म कर देती है वस्तुतः बुर्जुआ चेतना का पूरा अस्तित्व शास्त्र शिलर की उक्तियों से बनाया जा सकता है।

लेकिन ‘अपने से करो’ जैसा समकालीन किस्म का ख़ाली समय का व्यवहार एक दूरगामी सन्दर्भ में फिट बैठता है। तीस वर्ष से भी पहले मैंने ऐसे व्यवहार को ‘छद्म गतिविधि’ कहा था। तब से छद्म गतिविधि ख़तरनाक तरीके से फैली है, (विशेषकर) उन लोगों के बीच भी जो अपने आपको व्यवस्था विरोधी मानते हैं। आम तौर पर कहें तो यह मानने का अच्छे कारण हैं कि छद्म गतिविधियों के सभी रूपों में समाज के अश्मीभूत सम्बन्धों को बदलने की आवश्यकता मौजूद होती है। छद्म गतिविधि दिशाभ्रष्ट स्वतःस्फूर्तता है। लेकिन यह संयोग से दिशाभ्रष्ट नहीं है; क्योंकि लोगों के अन्दर एक अस्पष्ट शंक होता है कि अपने ऊपर के पड़े जुवे को उतार फेंकना कितना मुश्किल है। वे जाली और भ्रामक गतिविधियों से, संस्थाबद्ध स्थानापन्न सन्तुष्टियों से, भटकना पसन्द करते हैं, बजाय कि उस जागरूकता की ओर मुखातिब हों कि आज परिवर्तन की सम्भावना तक उनकी कितनी कम पहुँच है। छद्म गतिविधियां उसी उत्पादकता की कल्पनाएँ और प्रहसन हैं, जिसकी समाज एक ओर तो लगातार माँग करता है, लेकिन दूसरी ओर उस पर नियन्त्रण रखता है, और जहाँ तक व्यक्ति का सवाल है, वह उसकी ज़रा भी आकांक्षा नहीं रखता। उत्पादक ख़ाली समय केवल उन्हीं के लिए सम्भव है जो अपने संरक्षण से बाहर निकल चुके हैं, उनके लिए नहीं जो कि अस्वायत्तता की परिस्थितियों के तहत स्वयं अपने लिए अस्वायत्त बन चुके हैं।

इसलिए ख़ाली समय केवल श्रम के विरोध में नहीं खड़ा है। ऐसी व्यवस्था में जहाँ पूर्ण रोज़ग़ार अपने आपमें एक आदर्श बन गया है, ख़ाली समय श्रम की छायात्मक निरन्तरता के अलावा और कुछ नहीं है। अभी तक हमारे पास खेल और विशेषकर उसके दर्शक के प्रभावशाली समाजशास्त्र का अभाव है। फिर भी, तमाम परिकल्पनाओं में से कोई परिकल्पना दिमाग़ में आती है; स्पष्ट तौर पर कहें तो यह कि खेल में किये गये शारीरिक प्रयास के बल पर, टीम गतिविधि में शरीर के कार्यरूप ग्रहण करने के बल पर, जो कि अधिक से अधिक सबसे लोकप्रिय खेलों में होता है, लोग बिना समझे व्यवहार की उन प्रणालियों में प्रशिक्षित किये जाते हैं जिसकी कार्य प्रक्रिया में उनसे माँग की जाती है, और अधिक या कम मात्र में परिशुद्ध किये जाते हैं। खेल खेलने का सबसे मान्य कारण यह है कि यह इस बात पर यक़ीन दिलाता है कि फिटनेस ही इसका अकेला और स्वतन्त्र लक्ष्य हैः जबकि काम के लिए फिटनेस खेलों के तमाम छिपे हुए उद्देश्यों में से कम है। प्रायः खेलों में लोग अपने ऊपर ठीक उस चीज़ को थोपते हैं (और अपनी स्वतन्त्रता की विजय के रूप में मनाते हैं) जो कि समाज उन पर थोपता है और जिसका आनन्द उन्हें लेना सीखना चाहिए।

मुझे ख़ाली समय और संस्कृति उद्योग के सम्बन्धों के बारे में थोड़ा और कहने की इजाज़त दें। मेरे और होर्कहाइमर द्वारा तीस वर्ष से भी पहले इस शब्द का प्रयोग किये जाने के बाद से प्रभुत्व और समेकन के इस साधन पर काफी कुछ लिखा गया है, इतना कि मैं एक विशिष्ट समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा, जिस पर उस समय हम एक परिप्रेक्ष्य विकसित करने में असफल रहे थे। संस्कृति उद्योग पर काम करने वाले विचारधारात्मक आलोचक, जो इस आधार से प्रस्थान करते हैं कि संस्कृति उद्योग के मानक, जिन्हें पहले मनोरंजन और निम्न कला माना जाता था उनके अश्मीभूत मानक हैं, के अन्दर यह रुझान होती है कि संस्कृति उद्योग पूरी तरह से लोगों के सचेतन और अचेतन पर प्रभुत्व स्थापित करता है और उन्हें नियंत्रित करता है, जिनकी तरफ़ वह निर्दिष्ट होता है, यानी कि वे ही लोग जिनकी अभिरुचियों से उदारतावादी युग में संस्कृति उद्योग का जन्म हुआ था। फिर भी इस बात पर यक़ीन करने की वजह है कि भौतिक उत्पादन की ही तरह मानसिक जीवन की प्रक्रिया में उत्पादन ही उपभोग को विनियमित करता है, खास तौर पर वहाँ जहाँ कि उत्पादन निकटता से उपभोग के अनुरूप हो गया है, जैसा कि संस्कृति उद्योग में हुआ है। कोई सोच सकता है संस्कृति उद्योग अपने उपभोक्ता के हिसाब से बिल्कुल अनुकूलित है। लेकिन चूँकि इस बीच संस्कृति उद्योग पूर्ण बन चुका है जो कि उन्हीं चीज़ों की परिघटना है जिससे कि वह अस्थायी रूप से लोगों को भटकाती है यह सन्देहास्पद है कि संस्कृति उद्योग और उपभोक्ता चेतना को एक-दूसरे के समरूप माना जा सकता है। कुछ वर्ष पहले फ्रैंकफर्ट संस्थान में हमने इस समस्या के सम्बन्ध में एक अध्ययन किया था। दुर्भाग्य से इस सामग्री के पूर्ण विश्लेषण को कुछ अन्य जरूरी कार्यों के पक्ष में आगे के लिए टाल दिया गया था। फिर भी, इसकी एक सरसरी जाँच तथाकथित ख़ाली समय की समस्या के लिए प्रासंगिक होगी। यह अध्ययन हॉलैण्ड की राजकुमारी बीएट्रिस और कनिष्ठ जर्मन राजनीतिज्ञ क्लॉस वॉन ऐम्सबर्ग की शादी से सम्बन्धित है। उद्देश्य था इस शादी के बारे में जर्मन जनता की प्रतिक्रिया का मूल्यांकन करना जिसका प्रसारण सारे मास मीडिया ने किया था, जिस पर सारे सचित्र साप्ताहिक अखबार लगातार बात कर रहे थे, और जिसे लोग अपने ख़ाली समय में उपभोग कर रहे थे। चूँकि, जिस तरीके से इस पूरी घटना को पेश किया जा रहा था जैसा कि इस पर लिखे लेखों से जाहिर होता था, इसे एक असामान्य महत्व दे दिया था, इसलिए हमें आशा थी कि दर्शक और पाठक इसे उतनी ही गम्भीरता से ले रहे होंगे। विशेष रूप से, हम वैयक्तिकीकरण की आभिलाक्षणिक समकालीन विचारधारा के कार्य को देखना चाहते थे; जिसके ज़रिये वास्तविकता के कार्य रूप ग्रहण करने के लिए एक स्पष्ट मुआवज़े के रूप में, अलग-अलग लोगों और निजी सम्बन्धों के मूल्य को वास्तविक सामाजिक निर्धारकों की तुलना में अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा दिया जाता है। अब मुझे उचित सावधानी के साथ कहना चाहिए कि ये सारी अपेक्षाएँ काफी सरलीकृत थीं। दरअसल, यह अध्ययन इस बात का एक पाठ्यपुस्तकों जैसा उदाहरण पेश करता है कि कैसे आलोचनात्मक सैद्धान्तिक विचार आनुभविक सामाजिक शोध से बहुत-कुछ सीख भी सकता है और दुरुस्त भी कर सकता है। एक विभाजित चेतना के लक्षणों की पहचान करना सम्भव था। एक ओर लोग इसका आनन्द वर्तमान की ठोस घटना के तौर पर ले रहे थे, जो कि उनके दैनिन्दिन जीवन के जैसा बिल्कुल नहीं थाः अगर आधुनिक जर्मन के एक प्रिय जुमले का इस्तेमाल करें तो इसे एक ‘अद्वितीय अनुभव’ (einmalig) होना चाहिए था। इस हद तक दर्शकों की प्रतिक्रिया जाने-पहचाने पैटर्न के अनुरूप थी जिसके अनुसार एक प्रासंगिक सम्भवतः राजनीतिक ख़बर को, सूचना के प्रसारण के ज़रिये एक उपभोक्ता वस्तु में बदल दिया गया था। हमारे साक्षात्कार का ढाँचा इस प्रकार बनाया गया था कि जो प्रश्न दर्शकों की तात्कालिक प्रतिक्रिया पता लगाने के लिए थे, उनके पूरक के तौर पर ऐसे नियन्त्रण प्रश्न रखे गये थे जो कि इस भव्य घटना के राजनीतिक महत्व से जुड़े थे। यहाँ यह नतीजा सामने आया कि साक्षात्कार देने वाले कई लोगहमें सटीक अनुपात की उपेक्षा करनी चाहिएपूरी घटना को लेकर काफ़ी यथार्थवादी थे और घटना के राजनीतिक और सामाजिक महत्व का आलोचनात्मक तरीके से मूल्यांकन कर रहे थे, जिसकी अद्वितीय प्रकृति को लेकर कुछ समय पहले वे अपने टीवी के सामने मन्त्रमुग्ध होकर बैठे थे। अगर मेरे नतीजे बहुत जल्दबाज़ी में न निकाले गये हों, तो कह सकते हैं कि संस्कृति उद्योग लोगों को जो चीज़ उनके ख़ाली समय में मुहैया कराता है उसका उपभोग और उसे स्वीकार ज़रूर किया जाता है, लेकिन एक प्रकार की आपत्ति के साथ, उसी प्रकार जैसे कि सबसे नादान थियेटर जाने वाला और फिल्म देखने वाला व्यक्ति उस सबको सच नहीं मानता जिसे कि वह पर्दे पर देखता है। शायद आप इससे भी आगे जाकर कह सकते हैं कि लोग इस पर यक़ीन नहीं करते हैं। यह जाहिर है कि चेतना और ख़ाली समय का समेकन अभी पूरी तरह से सफल नहीं हुआ है। व्यक्तियों के वास्तविक हित अभी भी काफी मज़बूत हैं जो पूरी तरह शामिल किये जाने की प्रक्रिया का कुछ निश्चित सीमाओं के भीतर विरोध करते हैं। यह उस सामाजिक पूर्वानुमान से मेल खाता है जो कि कहता है कि एक समाज जिसके अन्तर्निहित अन्तरविरोध बिना कम हुए जारी रहते हैं, चेतना के धरातल पर भी पूरी तरह से समेकित नहीं किया जा सकता। समाज पूरी तरह से मनमानी नहीं कर सकता, ख़ास तौर पर ख़ाली समय में, जिसका वाकई में लोगों पर दावा है लेकिन अपनी प्रकृति से ही वह यह दावा पूरी तरह से नहीं कर सकता जब तक कि वह लोगों को पागल बनाने की हद तक न पहुँचा दे। मुझे परिणामों का जिक्र करने से बचना चाहिए, लेकिन मुझे लगता है कि हम परिपक्वता (mundigkeit) की एक छोटी सी झलक यहाँ देख सकते हैं जो कि अन्ततः ख़ाली समय को वास्तविक स्वतन्त्रता में तब्दील होने में मदद करेगी।

अनुवादः शिवानी

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