नान्दीपाठ
मीडिया, संस्कृति और समाज पर केन्द्रित
प्रिय साथी,
ऐसी एक पत्रिका की उपयोगिता के बारे में अधिक विस्तार में जाना शायद अनावश्यक ही होगा। हाल के दिनों में, ख़ासकर पिछले 25 वर्षों के दौरान, हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में जो बदलाव आये हैं, और इनमें जनसंचार माध्यमों, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया और ‘नये मीडिया’ का जो योगदान है, उस पर काफ़ी चर्चा होती रही है। सहमति और असहमति मैन्युफैक्चर करने और विचार-निर्मिति के लिए शासक वर्गों के हाथों में यह एक बेहद प्रभावी हथियार है और इसकी प्रभाविता तथा पहुँच आज पहले से कर्इ गुना बढ़ चुकी है। समाज के बौद्धिकक तत्वों और उन्नत मस्तिष्कों को प्रभावित और अनुकूलित करने में इण्टरनेट-आधारति माध्यम बेहद कारगर साबित हो रहे हैं। सत्ता की प्रभाविता और इसके सामाजिक अवलम्बों का विस्तार करने में इन माध्यमों की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह समझना अब मुशिकल नहीं है कि घर-घर में पैठा टीवी आज सिनेमा से भी ज़्यादा प्रभावी भूमिका निभा रहा है। इन बदलावों का असर इस बात से और भी बढ़ जाता है कि ज़्यादातर लोग मीडिया के ज़रिये परोसी जाने वाली सामग्री के ‘पैसिसव रिसीवर’ होते हैं और इसे आलोचनात्मक विवेक के साथ ग्रहण नहीं करते। नयी चीज़ों को गढ़ने में जिन मस्तिष्कों की अहम भूमिका होती है, उन्हें तरह-तरह से भ्रमित और कुण्ठित करने में भी बुर्जुआ मीडिया आज बहुत असरदार हो रहा है।
ऐसे में सबसे पहले ज़रूरी यह है कि समाज के उन्नत तबकों का आलोचनात्मक विवेक जागृत किया जाये, उनमें देखने, सुनने और ग्रहण करने का वैचारिक नज़रिया विकसित किया जाये। जनसंचार माध्यमों के ज़रिये जो कला-प्रस्तुतियाँ हो रही हैं टीवी सीरियल, संगीत, सिनेमा आदि, उनके साथ ही ज्ञान देने के नाम पर विशेष वर्गीय पूर्वाग्रहों के साथ इतिहास की प्रस्तुति करने वाले चैनलों की विवेचना-समालोचना हमें करनी होगी। बुर्जुआ शिक्षा व्यवस्था के पतन, ख़ासकर मानविकी की शिक्षा में आयी गिरावट, पुस्तकालयों के स्तर और पुस्तक-संस्कृति में आयी कमी ने भी युवा पीढ़ी के मनो- मस्तिष्क में अपने द्वारा ही प्रस्तुत ज्ञान को भरना शासक वर्गों के लिए आसान बना दिया है। इन पहलुओं पर भी हमें गम्भीरता से विचार करना होगा।
मीडिया की वैचारिकी पर आज काफी काम हो रहा है, मार्क्सवादी दृष्टि से भी और ‘उत्तर सरणियों’ से पैदा हुर्इ दृष्टि से भी। उन सभी की विवेचनाओं में जाना भी ज़रूरी है।
बेशक, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों में आये बदलावों पर छाती पीटने की ज़रूरत नहीं, मगर इन बदलावों की प्रगति, इनके स्रोतों और मूल कारणों तथा समग्र विकास की दिशा को समझने की ज़रूरत है।
मनोरंजन उद्योग आज पूँजीनिवेश का भी एक बहुत बड़ा अनुत्पादक सेक्टर बन चुका है। सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पहलुओं के साथ ही इसके आर्थिक ढाँचे को भी समझने की ज़रूरत है। किस प्रकार इसमें भी इज़ारेदारी बढ़ रही है, बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों को खा रही हैं, देश और दुनिया के पैमाने पर पूँजीवादी घराने मीडिया को किस तरह से सीधे नियंत्रित कर रहे हैं, इसे समझे बग़ैर आज मीडिया की भूमिका को सही ढंग से जाना-समझा नहीं जा सकता।
इस परिदृश्य में एक वैकलिपक मीडिया खड़ा करने की ज़रूरत और चुनौतियाँ पहले से कहीं ज़्यादा हैं। लेकिन यह भी सच है कि सामाजिक परिवर्तन की परियोजनाओं के एक अंग के तौर पर वैकलिपक मीडिया का ताना-बाना खड़ा करने की व्यापक सम्भावनाएँ भी आज मौजूद हैं। इस दृष्टि से नये मीडिया की नयी सम्भावनाओं के अन्वेषण और उपयोग के साथ ही इसकी सीमाओं-समस्याओं को भी विचार के दायरे में लाना होगा।
इसके साथ ही, लोगों में आलोचनात्मक विवेक विकसित करने के लिए प्रवृत्ति-निर्धारक फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, पुस्तकों, अल्बमों आदि की समीक्षाएँ भी हम प्रस्तुत करेंगे।
हिन्दी में सुनिश्चित लक्ष्य पर केंद्रित ऐसी एक विशिष्ट पत्रिका की शिद्दत के साथ ज़रूरत महसूस होती रही है। इस ज़रूरत को पूरा करने की यह एक विनम्र कोशिश है। इस प्रयोग की सपफलता के बारे में हम कोर्इ दावे नहीं कर रहे। इसकी सफ़लता काफ़ी हद तक इस पर निर्भर करेगी कि आप सबका इसे किस तरह सहयोग मिलता है और हिन्दी का बौद्धिक समाज इसका किस तरह स्वागत करता है।
पत्रिका के पहले अंक की सामग्री इस प्रकार है:
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