मज़दूर, मज़दूर आन्दोलन और संगीत

मज़दूर, मज़दूर आन्दोलन और संगीत

(अन्तरराष्ट्रीय महिला कपड़ा–मज़दूर यूनियन की गायक मण्डली के बीच भाषण25 जून, 1938)

हान्स आइस्लर

हान्स आइस्लर महान जर्मन संगीतकार और संगीत चिन्तक थे। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के सर्वाधिक प्रतिभावान युवा संगीतकारों में उन्हें गिना जाता था। लेकिन आइस्लर ने बुर्जुआ विचारधारा और कला–धाराओं को खारिज किया और अपनी सृजनात्मक क्षमताएँ हिटलर–पूर्व जर्मनी में क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को समर्पित कर दीं। इसी दौरान उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेष्ट के साथ मिलकर काम शुरू किया और यह भागीदारी इन दोनों महान कलाकारों के जीवन–पर्यन्त चलती रही।-सं॰

आइस्लर व ब्रेख्‍त

आइस्लर व ब्रेख्‍त

मैं मज़दूर या मज़दूर आन्दोलन या संगीत के बारे में एक ख़ास ज़िम्मेदारी समझकर आपसे बात कर रहा हूँ क्योंकि मैं सिर्फ़ विचार व्यक्त करना नहीं चाहता, यह भी बताना चाहता हूँ कि वे व्यावहारिक और प्रगतिशील हैं। अगर हम संगीत के बारे में बात करने जा रहे हैं तो यह ज़रूरी है कि पहले उससे सम्बन्धित आज के जीवन की विशिष्ट परिस्थितियों का एक खाका खींच लें। ऐसा करते हुए अमूर्त दार्शनिक सिद्धान्तों की जगह ठोस वास्तविकताओं पर ध्यान देना बेहतर होगा।

कल्पना करिए कि हम विभिन्न प्रकार के संगीतकारों और संगीतप्रेमियों के साथ भेंटवार्ता कर रहे हैं। शायद उनके उत्तर बहुत सारी बातों पर प्रकाश डाल सकेंगे।

आइए, किसी प्रसिद्ध संगीतकार से (मैं उनमें से कई को जानता हूँ) ये सवाल करते हैं : “आपके विचार में संगीत का क्या लक्ष्य है? और एक संगीतकार के तौर पर इस सवाल का आप क्या जवाब देंगे कि आप किसके लिए संगीत पेश करते हैं?” आमतौर पर जवाब यही मिलेगा, “संगीत का कोई ख़ास लक्ष्य नहीं होता। संगीत का लक्ष्य उसी में निहित है। मेरा काम लोगों को सुन्दर अनुभूति प्रदान करना है और अधिक से अधिक प्रदान करना तथा इसके लिए कोशिश करनी है।

यह सब सुनने में अच्छा लगता है, पर क्या यही सच्चाई है? क्या वह सचमुच आम लोगों के लिए संगीत पेश करता है या वह विशिष्ट संगीत रचनाकार सम्पन्न उच्च वर्ग के छोटे से समूह के लिए अपना संगीत पेश करता है? और, जब एक संगीतकार रेडियो पर गम्भीर शास्त्रीय या आधुनिक संगीत प्रस्तुत करता है तो क्या लोग-मज़दूर वर्ग तथा निम्न मध्यवर्ग के लोग उसे समझ सकते हैं? क्या संगीतरचना हमेशा बिना किसी उद्देश्य के होती है? इन सब प्रश्नों का उत्तर है, नहीं।

पहली बात तो यह है कि संगीत के लिए संगीत या कला के लिए कला का नारा बहुत नया है, इसे सौ साल भी नहीं हुए हैं। इतिहास गवाह है कि महान संगीतकारों ने कभी ऐसे नारों का इस्तेमाल नहीं किया है। उदाहरण के लिए, जोहान सेबेस्टियन बाख ने अपने बारे में कहा था, “मेरा कर्तव्य अपने संगीत से प्रभु और चर्च की सेवा करना है।”[i]  उनकी भावना एक कलाकार की उतनी नहीं थी जितनी एक शिल्पकार या उपदेशक की। बीथोवन अपने समय से, महान फ्रांसीसी क्रान्ति के युग से अत्यन्त प्रभावित था। अगर आप वैगनर[ii] की 1848 से लिखी गई सैद्धान्तिक रचनाओं को देखें तो पाएँगे कि वे “कला कला के लिए” जैसे नारों के बिल्कुल ख़िलाफ़ हैं।

इन महान कलाकारों की सोच और उनकी परम्परा के प्रति वर्तमान उपेक्षा का कारण क्या है? इसका जवाब हमें संगीतकार के उत्तर के दूसरे हिस्से से मिल जाएगा कि वह लोगों की सेवा करना चाहता है। हमें पता है कि आजकल बहुत कम लोग गम्भीर शास्त्रीय या आधुनिक संगीत को वाक़ई समझते हैं और उसका आनन्द उठा पाते हैं।

जी हाँ, मुझे पता है कि कुछ महान रचनाओं को एक हद तक लोकप्रियता हासिल है, पर आम तौर पर बड़े शहरों के बुद्धिजीवी तबकों तक ही। न्यूयार्क, शिकागो, सान फ़्रांसिस्को, लॉस एँज़िलस और बोस्टन ही पूरा अमेरिका नहीं है। जब ब्राडकास्टिंग कम्पनियाँ अपने श्रोताओं से उनकी पसन्द के बारे में जानकारियाँ एकत्र करती हैं तो 99 प्रतिशत श्रोताओं का उत्तर यही होता है, “हमें मनोरंजक संगीत अधिक चाहिए, सिम्फ़नियाँ कम।” अगर शास्त्रीय संगीत के श्रोता इतने कम हैं तो गम्भीर आधुनिक संगीत के तो और भी कम होंगे।

यह महत्त्वपूर्ण बात है क्योंकि संगीत के अच्छे वातावरण के लिए ज़रूरी है कि नई-नई संगीत रचनाओं की आमद निरन्तर बनी रहे। आइए अब हम एक आधुनिक संगीतकार से प्रश्न करें, आर्नल्ड शोनबर्ग जैसे किसी प्रसिद्ध संगीतकार से। निश्चित ही उसका जवाब यही होगा, “मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया हूँ। बहुत कम लोग मेरा संगीत समझते हैं, शायद सौ–दो सौ लोग।” अगर उससे पूछिये कि ऐसी असामान्य स्थिति में भी वह संगीत रचना क्यों करता है तो वह कहेगा, “मुझे स्वयं को अभिव्यक्त करना है और शायद सौ–दो सौ साल बाद लोग मेरे संगीत को समझेंगे।” यह स्थिति शोनबर्ग जैसे विश्वविख्यात संगीतकारों की ही नहीं है बल्कि आधुनिक शैली के नये संगीतकारों की भी है और हर युवा रचनाकार संकट में है।

क्या हमेशा से ऐसा ही रहा है? नहीं, बिल्कुल नहीं। बीथोवन और वैगनर कुछ वर्षों के लिए अकेले पड़ गए थे पर यह दुविधा उनके जीवनकाल में ही ख़त्म हो गई। और संगीत के इतिहास में ऐसा कोई समय नहीं रहा जब समस्त संगीत सूचनाएँ इसी तरह संकटग्रस्त रही हों जैसे वह आज हैं। गड़बड़ी कहाँ है? क्या आज के रचनाकार सक्षम नहीं हैं? या लोग ही उतने समझदार नहीं हैं? फिर से जवाब है, नहीं ऐसी बात नहीं। आर्नल्ड शोनबर्ग एक उत्कृष्ट संगीतकार हैं और हर देश में समझदार लोग रहते हैं। पर कोई न कोई गड़बड़ी है। गड़बड़ी तब पैदा होती है जब आप संगीत को मनोरंजक और गम्भीर, इन दो श्रेणियों में बाँट देते हैं। न्यूयार्क के एक प्रसिद्ध उदारवादी अख़बार के संगीत समीक्षक से पूछिये। सम्भवत: वह यही कहेगा, “मित्र, यह विभाजन हमेशा से रहा है। इसके बारे में चिन्ता मत करो, हमेशा से ऐसा ही रहा है कि कुछ लोग दूसरे की अपेक्षा कला को अधिक समझते हैं। बुरा न मानिए, आइस्लर साहब, क्या आप वाक़ई सोचते हैं कि बीथोवन को उसके ज़माने में सभी लोग समझते थे? या मोत्सार्ट को? क़तई नहीं।”

इसके जवाब में हम अपने संगीत समीक्षक मित्र से कह सकते हैं, “पर यह मत भूलिये कि आज संगीत को सुनने और समझने के अधिक और बेहतर अवसर हैं। रेडियो को ही लीजिए। लेकिन क्या रेडियो से कोई बड़ा परिवर्तन हुआ है?” फिर से मेरा जवाब है, नहीं।

संगीत संचालक, रचनाकार और समीक्षक की बातों का निष्कर्ष निकालते हुए हम कह सकते हैं कि संगीत आज संकट में है। और हम जैसे वर्ग–सचेत राजनीति और कला के अवाँ–गार्द लोगों को मानना ही होगा कि यह संकट विश्वव्यापी गहरे आर्थिक और राजनीतिक संकट की ही एक अभिव्यक्ति है।

संगीत के क्षेत्र में इस संकट की एक पहचान मनोरंजक और गम्भीर संगीत का विभाजन है। क्या यह विचित्र विभाजन नहीं है? क्या यह ज़रूरी है कि हमारा मनोरंजन सिर्फ़ सस्ते और कूड़ा संगीत से हो और गम्भीर शास्त्रीय संगीत को सुनते हुए हम किसी दिखावेबाज़ की तरह गम्भीर बने रहें? एक बार फिर इतिहास से सबक ले सकते हैं। संगीत के इतिहास में हमें शायद ही ऐसी कोई स्थिति दिखे जब संगीत बिना किसी बाधा और कठिनाई के आम लोगों की, आम लोगों के लिए सहज अभिव्यक्ति रही है। सिर्फ़ आदिम समाज में, उदाहरण के लिए अमेरिकी इण्डियन और प्राचीन पूर्वी संस्कृति, अथवा प्राचीन जर्मन, रोमन और केल्टिक समाजों में हमें धार्मिक और ‘सेक्युलर’ संगीत में अटूट एकता मिलती है। पर मध्ययुग में हमें चर्च के संगीत और आम लोकप्रिय संगीत के बीच एक ख़ास फ़र्क़ दिखाई देता है। लेकिन यह विभाजन गम्भीर और मनोरंजक संगीत के आज के विभाजन जैसा नहीं था। पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी में चर्च का संगीत अत्यन्त समृद्ध था, और फ्रांस, इटली तथा हालैण्ड के नये व्यापारिक नगरों में व्यापारी वर्ग तथा राजदरबार के लिए भी अत्यन्त परिष्कृत संगीत का चलन था। कलात्मक संगीत के इन अधिक विशिष्ट रूपों के बरक्स हम ख़ास तरह का “उपयोगी” संगीत भी पाते हैं जो मुख्यत: आम लोगों के नृत्यसंगीत और लोकगीतों के रूप में था।

हमें यह याद रखना होगा कि बाख़ की तरह का संगीतकार चर्च और राजशाही दोनों की सेवा करता था। वैसे कलात्मक संगीत और लोक संगीत के बीच निश्चित रूप से निरन्तर सम्बन्ध बना रहा। चर्च संगीत में लोक संगीत का काफ़ी उपयोग होता था और लोक संगीत में चर्च के संगीत का : आम लोग भी अक़सर चर्च के गीत गाया करते थे। उस समय लोक संगीत का वास्तव में सांस्कृतिक आधार था और उसकी एक परम्परा थी। आदिम काल से ही शारीरिक श्रम और शिल्प का संगीत से जुड़ाव रहा है। इस संगीत का उद्देश्य सामूहिक श्रम को सुसंगठित स्वरूप देना था, जैसे नाव चलाने, मछली मारने, खेती और अन्य पेशों में। उत्सवों और धार्मिक अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों के शब्दों से पता चलता है कि वे आदिम श्रम से किस तरह जुड़े हुए थे। और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सत्रहवीं सदी तक चर्च हर किसी के लिए खुला था और सांस्कृतिक सांगीतिक जीवन में उसका निर्णायक महत्त्व था।

मैं इतिहास के ब्योरों का और अधिक उल्लेख नहीं करूँगा। लेकिन एक परिचित गीत के उदाहरण में आपकी दिलचस्पी हो सकती है। मुझे विश्वास है कि आप सब ‘वोल्गा के नाविक के गीत’[iii] से परिचित होंगे। आप इसे किसी भी श्वेत रूसी चायघर या कैबरे में सुन सकते हैं। इसे सुनते हुए भूतपूर्व तथाकथित सम्भ्रान्त लोग बड़ी शिद्दत से पुराने समय को याद करते हैं जब वे किसी भी किसान को मज़े से लात मार सकते थे। पर क्या यह गीत हमेशा ही इन गन्दे सम्भ्रान्त डाकुओं की भावनाओं की अभिव्यक्ति था? नहीं, यह एक पुराना और सम्मानित गीत है इसे वोल्गा नदी के नाविक गाया करते थे, सिर्फ़ अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए नहीं बल्कि धारा के विपरीत अपनी नावों को खींच कर ले जाने के अपने काम को संगठित करने के लिए भी। ज़ाहिर है कि जब इतने सारे लोगों को एक भारी नाव खींचनी हो तो उन्हें अपनी ताकत का इस्तेमाल एक ही साथ, यानी इस गीत के निश्चित लय पर करना पड़ता था। अन्यथा वे नाव बढ़ा नहीं पाते या अपनी श्रम शक्ति का बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पाते। बाद में यह गीत एक असल लोकगीत बन गया और अनेक प्रकार के शारीरिक श्रम में इसका उपयोग होने लगा। अब आगे चलते हैं। मान लीजिए एक चतुर व्यापारी नाविकों को यह गीत गाते हुए सुनता है और उसे यह अच्छा लगता है। वह सोचता है कि इस गीत से कमाई की जा सकती है। वह कुछ बढ़इयों को भाड़े पर लगाकर नदी तट पर बेंचें बनवा देता है और शहर के अमीर व्यापारियों की बीवियों को टिकट बेचता है कि वे आकर पहली बार वोल्गा के असली नाविकों को असली ‘वोल्गा के नाविक का गीत’ गाते हुए सुनें। और सजी–धजी महिलाएँ गीत को सुनकर बहुत पसन्द करती हैं।

जैसाकि आप जानते हैं, आमतौर पर, कला और संगीत पर आज धनी महिलाओं का विशेषाधिकार है। वे बार–बार इस गीत को सुनने आती हैं और ‘वोल्गा के नाविक का गीत’ हिट हो जाता है। पर कुछ दिन बाद महिलाएँ कहती हैं, “आज का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा, बल्कि यह काफ़ी लचर था। लेकिन पिछले सोमवार को तो गाना पहले दर्ज़े का था। हे भगवान! क्या हो गया?” वे नाविकों से पूछती हैं और उन्हें दिलचस्प उत्तर मिलता है। नाविक कहते हैं, “आज नाव ज़रा हल्की थी, इस पर माल नहीं लदा था। लेकिन पिछले सोमवार को हमें भारी पत्थर ढोने पड़े थे। हमें बहुत मेहनत करनी पड़ी थी और इसलिए हम अपनी पूरी ताकत से गा रहे थे।”

यह कोई मज़ाक नहीं है। आप आज के संगीत और पुराने लोकसंगीत के बीच के फ़र्क़ को साफ़–साफ़ देख सकते हैं जब लोग ख़ुद अपने लिए गाते थे, सुनने वालों के लिए नहीं। वास्तविक पुराने लोक संगीत में मनोरंजक और गम्भीर संगीत का कोई फ़र्क़ नहीं था। पुराने कलात्मक संगीत में, जैसे मोत्सार्ट के संगीत में भी कोई फ़र्क़ नहीं था। ‘दि मैजिक फ्ल्यूट और ‘दि सेराग्लियो जैसे उनके ऑपेरा में संगीत गम्भीर भी है और मनोरंजक भी।

इनमें फ़र्क़ करने की प्रवृत्ति 19वीं सदी में औद्योगिक क्रान्ति से शुरू हुई। औद्योगिक क्रान्ति का आम तौर पर समाज के लिए क्या अर्थ था? इसका मतलब था इसके साथ ही एक नये वर्ग-औद्योगिक मज़दूर का जन्म। औद्योगिक मज़दूर ने अपनी सरल ग्रामीण संस्कृति खो दी, उसका पुराना रहन–सहन, आदतें उससे दूर हो गर्इं और उसका शिल्प और उसकी छोटी सी सम्पत्ति भी उससे छिन गई। यह सब उससे बलपूर्वक छीन लिया गया ताकि उसे सर्वहारा बना दिया जाए जिसके पास बेचने के लिए अपनी श्रम शक्ति के अलावा और कुछ न रहे। यह सब ऐसे समय हुआ जब श्रम विभाजन की तकनीक भी विकसित हो रही थी। अगर आप 1840, 1850 और 1860 के दशकों में फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों की रिपोर्टों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि मज़दूर वर्ग पर औद्योगिक क्रान्ति का कैसा अमानवीय, पतनोन्मुख और अपमानजनक प्रभाव पड़ा। इन रिपोर्टों में बाल श्रम, महिला श्रम, जानलेवा शोषण, मालिकों के असीमित अधिकार और कर्मचारियों की असहायता का भयानक विवरण है। उस समय पूँजीपति वर्ग की ताकत बढ़ रही थी और बीथोवन, गेटे, बायरन, शेली और बाल्जाक जैसी महान प्रतिभाओं को उसने जन्म दिया। पर मज़दूर को इन्सान के तौर पर नहीं देखा जाता था। एक ओर तो समृद्ध बुर्जुआ संस्कृति थी और दूसरी ओर असंस्कृत जनता थी जिसका मानो कोई चेहरा ही नहीं था। पर इस असहाय जनता में से ही हिरावल दस्ते, औद्योगिक मज़दूरों ने सभी क्षेत्रों के प्रगतिशील लोगों के साथ मिलकर अपनी दुरवस्था से निकलने का रास्ता ढूँढ़ निकाला। वे वर्गसचेत हो गये। उन्होंने इन तमाम परिवर्तनों के पीछे के आर्थिक कारणों और संचालक शक्तियों का पता लगा लिया; और फिर काल्पनिक समाजवादी विचारों से मार्क्स और एंगेल्स की वैज्ञानिक पद्धति तक पहुँचने और राजनीतिक संगठन शुरू होने में अधिक वक्त नहीं लगा।

मैं इन सबके बारे में बहुत कुछ कहता चला जा सकता हूँ पर यह मज़दूर वर्ग के इतिहास पर एक भाषण हो जाएगा। लेकिन हमारे लिए इसमें एक दिलचस्प प्रश्न यह है कि औद्योगिक क्रान्ति ने संगीत की संस्कृति के साथ क्या किया? इसने अधिकांश पुराने लोक संगीत को नष्ट कर दिया। कैसे किया यह बताना बहुत आसान है। कारख़ाने के मज़दूर वोल्गा के नाविकों की तरह, और उसी उद्देश्य से नहीं गा सकते। उनके काम की गति और लय अब मशीनों से तय होती है, ख़ुद मज़दूरों से नहीं। स्वत:स्फूर्त संगीत की संस्कृति ऐसी परिस्थितियों में मर जाती है। औद्योगिक क्रान्ति के बाद दो पीढ़ियाँ बीतते न बीतते आबादी का अधिकांश संगीत की किसी भी संस्कृति से वंचित हो गया। और इस तरह गम्भीर और मनोरंजक संगीत का फ़र्क़ शुरू हुआ।

गम्भीर संगीत को समझने के लिए विकसित संस्कृति और उच्च स्तरीय जीवन की ज़रूरत होती है। कहने का मतलब कि आपके पास समय, पैसा और कम से कम इतनी शिक्षा होनी चाहिए कि आप एक वाद्य बजाना सीख सकें; आपको थोड़ी–बहुत सैद्धान्तिक जानकारी और ललित कला, साहित्य आदि का एक हद तक ज्ञान होना चाहिए। आपके पास इतना अवसर तो अवश्य होना चाहिए कि संगीत रचनाओं को बार–बार सुन सकें, और आपको ख़ुद भी उनमें से कुछ न कुछ सीखना चाहिए। यही सब आपको वास्तव में संगीत का रसिया और शौकिया संगीतकार बना सकता है। स्पष्ट है कि यह सब मध्यवर्ग या उच्च वर्ग को ही उपलब्ध हो सकता है। ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि और सामाजिक स्थिति के बिना आप कमोबेश असहाय ही रहेंगे।

यह भी सच है कि 19वीं सदी के संगीतकार, रोमाण्टिक संगीतकार समाज के इसी तबके के लिए संगीत रचना करते थे और इसी की भावनाओं को व्यक्त करते थे। शुमान, शॉपेन, लिज़्ट, ब्राहम्स[iv] और अन्य उच्च मध्यवर्ग की बैठकों में राज करते थे। हजारों प्रेमगीत और पियानो की रचनाएँ औद्योगिक क्रान्ति की उपज इन्हीं परिवारों की नौजवान बेटियाँ गाती–बजाती थीं।

इसके अलावा, 19वीं सदी आते–आते कलात्मक संगीत महज़ राजा–महाराजा और दरबारियों की बैठक की चीज़ नहीं रह गया, बल्कि पहली बार यह बिक्री की चीज़ और एक व्यापार बन गया। औद्योगिक क्रान्ति से सौ साल पहले बाख़ एक ही साथ चर्च और दरबार का सेवक, पियानो, वायलिन और ऑर्गन वादक तथा लैटिन, फ्रेंच और संगीत का शिक्षक था। उसने अपनी कुछ रचनाओं को ख़ुद छपवाया भी, और वह चर्च का लाइब्रेरियन तथा नक़लनवीस भी था। वह लिज़्ट की तरह का कोई रूमानी व्यक्ति नहीं बल्कि एक सामान्य, अच्छा नागरिक था जिसकी बारह सन्तानें थीं।[v] औद्योगिक क्रान्ति ने एक घुमन्तू सेल्समैन की तरह के संगीत कलाकार की सृष्टि की। संगीत का रचनाकार एक विशेषज्ञ बन गया। वह बीथोवन की तरह सिर्फ़ एक रचनाकार था। संगीत का शिक्षक भी एक विशेषज्ञ बन गया गया। अलब्रेख्त बर्गर की तरह संगीत का ख़ास सिद्धान्तकार। वह सिर्फ़ सिद्धान्त पढ़ाता था। पर वह संगीत में पटु नहीं था और न ही रचनाकार था। संगीत छापने वाला भी पैदा हो गया और कंसर्ट हाल का मालिक भी। पहले संगीत का आयोजन अमीरों के महलों में होता था। फिर संगीत सम्मेलनों का प्रबन्धक आया। अक़सर वही जो संगीत का जानकार होता। बाद में वह स्वतंत्र हो गया। ‘व्यावसायिक’ संगीत का ख़रीदार और विक्रेता, संगीत के क्षेत्र का व्यापारी। संगीत का इतिहासकार भी पैदा हुआ, नया और जिज्ञासु क़िस्म का। इस तरह हम देखते हैं कि गम्भीर और मनोरंजक संगीत के बीच की खाई पाटने वाले ख़ास तरह के लोग पैदा हुए। ये संगीत को किसी वस्तु की तरह ख़रीदने, बेचने और वितरण–व्यापार की पूरी प्रक्रिया के मालिक बन बैठे।

इन नकारात्मक स्थितियों के बावजूद 19वीं सदी में जो विकास हुआ वह प्रगतिशील था। एक ओर हम कई प्रतिभासम्पन्न रचनाकारों और जानकारों को देखते हैं। दूसरी ओर नये और अत्यन्त विकसित क़िस्म के श्रोताओं और संगीत से सम्बद्ध अव्यवसायी लोगों को। हालाँकि इस दौर की सामाजिक स्थिति कुल मिलाकर भयानक थी। इंग्लैण्ड, जहाँ सबसे पहले और तीव्र औद्योगिक क्रान्ति सम्पन्न हुई, की नब्बे प्रतिशत आबादी उपेक्षा और सांस्कृतिक अन्धकार की स्थिति में जी रही थी। इससे हम कह सकते हैं कि उस समय की सामाजिक स्थिति सांस्कृतिक विकास के लिए वास्तव में ख़तरा बन गई थी। उन नब्बे असंस्कृति लोगों के लिए किस तरह का संगीत उपलब्ध था और उनकी ज़रूरत क्या थी। वह इस तरह का संगीत था जिसका बीयर या जिन की तरह जल्दी और सस्ते दामों पर उत्पादन और उपभोग किया जा सके, और इतना ख़राब और इतना चमकदार जैसे मिल में बने नये कपड़े। लेकिन जिस तरह जिन बहुत स्वास्थ्यवर्द्धक पेय नहीं है और जैसे सस्ता कपड़ा सुन्दर और टिकाऊ नहीं होता उसी तरह नया “मनोरंजक़” संगीत भी था। वह सस्ता मिल–निर्मित और सांस्कृतिक मूल्यों से रहित संगीत था। यह उन्हीं के लिए सुपाच्य था जिनकी संगीत में रुचि नहीं थी। सिर्फ़ एक शर्त ज़रूरी थी, वह यह कि वे बहरे नहीं हों। ज़ाहिर है कि इस संगीत की रचना महान प्रतिभाओं ने नहीं की थी और न ही आम लोगों ने। वह किसी भी तरह से पुराने लोक संगीत की तरह नहीं था। इसे लोगों के लिए संगीत के व्यापारियों ने तैयार किया था। चौथी–पाँचवी श्रेणी के संगीतकारों को ये व्यापारी ऐसे नक़ली “लोकप्रिय” संगीत की रचना के लिए पैसे देते थे और प्रकाशन संस्थान इसकी स्वरलिपियों को छापते थे-सस्ते काग़ज़ पर सस्ता संगीत, सस्ते गीत छापकर बाज़ार में अख़बारों या लेमनचूस की तरह बेचा जाता था। यांत्रिक संगीत वाद्यों की खोज होने पर ऐसे संगीत का उत्पादन और बढ़ा। जैसे–जैसे इस तरह के मनोरंजक संगीत का चलन बढ़ा, गम्भीर संगीत का चलन घटता गया।

आज मनोरंजक संगीत का रेडियो और फ़िल्मों में इतना महत्त्व हो गया है कि इसे दिन–रात कभी भी सुना जा सकता है। अगर आप रेडियो खोलें या आप किसी रेस्तराँ में जाएँ तो आपको यही सुनने को मिलेगा।

इस तरह के संगीत में लोगों को क्या मिलता है? मैं आपसे इस सवाल का जवाब माँगता हूँ। व्हिस्की के एक बड़े गिलास से आपको क्या मिलता है? थोड़े समय के आनन्द के बाद बस सिरदर्द। अगर आप ज़्यादा पियें तो अस्पताल पहुँच जाएँगे। इसी तरह अगर नौजवान लोग इस संगीत को बहुत ज़्यादा सुनेंगे तो दिमाग़ी तौर पर सुस्त पड़ जाएँगे और मज़दूर वर्ग की वास्तविक ज़रूरतों और उसकी क्षमता से गाफ़िल हो जाएँगे।

अब हम आज के समय को देखें जो संगीत के लिए अभूतपूर्व संकट का समय है। हालाँकि 19वीं सदी इस संगीत की जनक है। पर हम बीसवीं सदी को भी इस दृष्टि से कम नहीं मान सकते। विश्व युद्ध के बाद के आर्थिक महासंकट ने दुनिया भर में बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग और पेशेवर तबकों को प्रभावित किया। नई पीढ़ी नई परिस्थितियों से प्रभावित होकर नई आदतों और नये मानकों के अनुसार संगीत समारोहों की जगह खेलों और फ़िल्मों को महत्त्व देने लगी। ख़ास तौर पर इस देश में गम्भीर संगीत को प्रोत्साहन और उसका आयोजन सिर्फ़ धनी महिलाएँ ही करती हैं। मध्यवर्ग के युवा, छात्र और बुद्धिजीवी भी संगीत समारोहों में मिल जाते हैं, लेकिन इससे सामान्य स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर कोई ऐसा भूकम्प आए जिसकी शिकार सिर्फ़ धनी महिलाएँ हो जाएँ तो अगले ही दिन संगीत निर्देशक, गायक, पियानोवादक और संगीत रचनाकार सभी को रोटियों के लाले पड़ जाएँगे। हालाँकि धनी लोग ही आज गम्भीर संगीत को प्रायोजित करते हैं लेकिन अच्छे संगीत को समझने पर अब उनका एकाधिकार नहीं है जैसा कि 18वीं और 19वीं सदी में मध्यवर्ग और कुलीनों के साथ था। आज संगीत समारोहों में जाने का अर्थ वस्त्राभूषण का प्रदर्शन और घमण्ड दिखाने से अधिक कुछ नहीं है। फ़ैशनपरस्त और ‘सुदर्शन स्टोकोवस्की[vi]’ संगीतकारों को उनकी रचनाओं से अधिक सराहा जाता है। संगीतकारों, संचालकों, गायकों और शिक्षकों को धनी औरतों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क बनाए रखना पड़ता है जिनका प्रायोजन भी अक़सर पर्याप्त नहीं होता। यह देखकर अक़सर बड़ा ख़राब लगता है कि कुछ कलाकार अपनी प्रतिभा को जनता के प्रति ज़िम्मेदार बनाने के बजाय कैसे परजीवी बन जाते हैं। इस तरह के संरक्षण में संगीत का स्तर कैसे बनाया रखा जा सकता है? मैं कुछ तथ्य पेश करता हूँ। मेट्रोपोलिटन ऑपेरा अपनी तरह का दुनिया में सबसे धनी ऑपेरा है। लगभग पचास वर्ष से कई धनी परिवार बड़ी–बड़ी रकमें दान में देकर इसकी मदद करते रहे हैं। आप में से कितने लोग हैं जो कभी मेट्रोपोलिटन ऑपेरा के किसी कार्यक्रम में गए हैं? मुझे लगता है कि पाँच–सात लोग या शायद कोई भी नहीं। क्या आप मोत्सार्ट, बीथोवन, हान्देल या वैगनर के ऑपेरा के बारे में जानते हैं? आप कह सकते हैं कि मेट्रोपोलिटन ऑपेरा वैसे तो आम लोगों की सीधी सेवा नहीं करता पर वह ऑपेरा की एक ख़ूबसूरत परम्परा का निर्माण कर रहा है जो कभी देश के काम आएगी। पर, मेरा कहना है नहीं। यह सही है कि इस ऑपेरा का तकनीकी स्तर बहुत ऊँचा है और उसके पास कुछ श्रेष्ठ गायक हैं। पर संचालक उत्तम श्रेणी के नहीं हैं, वे सिर्फ़ अच्छे रुटीनी और अनुभवी संगीतकार हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से इसका सम्पूर्ण स्तर नीचा है। इसे आधुनिक स्वरूप देने की कोई कोशिश नहीं होती। प्रदर्शन आम तौर पर उच्च श्रेणी के नहीं होते। रुटीन तरीक़े से पुराने ऑपेरा को बार–बार दिखाया जाता है। यह कोई सांस्कृतिक संस्था नहीं है, यह पैसे का घमण्ड दिखाने वालों का लग्ज़री क्लब बन गया है। इसके अलावा सवाल यह भी है कि संगीत संचालकों का चयन कौन करता है? धनी औरतें संचालकों को चुनती हैं। संगीत की योग्यता का महत्त्व गौण होता है। कार्यक्रम कौन तय करता है? वही धनी औरतें कार्यक्रम भी तय करती हैं जो प्राय: ख़राब होते हैं। वे आम तौर पर बीथोवन से सिबेलियस तक परिक्रमा रेलयात्रा की तरह होते हैं। क्या आधुनिक अमेरिकी संगीतकारों पर ध्यान दिया जाता है? नहीं। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। धनी महिला प्रायोजक! ये महिलाएँ किस वर्ग की प्रतिनिधि हैं? बैंकरों, कारख़ानेदारों, व्यापारियों और दुकानदारों की। क्या ये कार्यक्रम हम लोगों के जीवन संगीत की प्रेरक शक्ति बन सकते हैं? नहीं। लोगों की कौन सहायता कर सकता है? लोग ही कर सकते हैं।

लोगों के लिए कुछ ही अच्छे–संगीत कार्यक्रम उपलब्ध हैं। कुछ लोकप्रिय संगीत कार्यक्रमों के अलावा उन्हें सिर्फ़ ब्राडवे या हालीवुड का सस्ता संगीत ही सुनने को मिलता है। मैं जाज़ और स्विंग को पूरी तरह ख़राब नहीं मानता। ड्यूक एलिंग्टन और बेनी गुडमैन वास्तव में प्रतिभासम्पन्न संगीतकार हैं। पर ड्यूक एलिंग्टन अपनी जीविका नाइट क्लबों में कमाते हैं और इस तरह कलाकार के तौर पर उसका विकास बाधित होता है। बेनी गुडमैन एक बहुत अच्छे क्लेरियन वादक हैं, पर हालीवुड में बीमार और उबाऊ फ़िल्म बनाते हैं और अपनी कला को नष्ट कर रहे हैं। संगीत मेलों में लोगों को क्या मिलता है? बेई मीर बिष्ट श्योन और टि–‘पि–टिन जैसे गाने। और मैं ब्राडवे और हालीवुड के हजारों उत्तेजक प्रेमगीतों के बारे में सोचना भी नहीं चाहता। आपमें से कुछ कहेंगे कि यह नुकसानदेह नहीं, सिर्फ़ मनोरंजन है, चिन्ता मत कीजिए। पर एक संगीतकार के तौर पर मैं चिन्ता करता हूँ। क्योंकि मैं जानता हूँ कि यह ज़हर है। लोगों के लिए अफ़ीम। पर उपाय क्या है? क्या मज़दूर लोग लम्बी–लम्बी दाढ़ियाँ बढ़ाकर सिर्फ़ गम्भीर संगीत के कार्यक्रमों में भाग लें? यह हास्यास्पद और असम्भव है।

आगे कुछ कहने से पहले मुझे अमेरिका के पक्ष में कुछ कहने की इजाज़त दीजिए। मुझे यह कहते हुए ख़ुशी हो रही है कि संस्कृति के क्षेत्र में भी इस देश का प्रशासन और राष्ट्रपति रूज़वेल्ट प्रगतिशील हैं। मैं समझता हूँ कि थिएटर और संगीत के क्षेत्र में डब्ल्यू पीए[vii] की स्थापना सराहनीय है। पर क्या सरकार समस्या का हल निकाल सकती है? असम्भव। एक प्रगतिशील सरकार लोगों की सहायता कर सकती है। पर यह अस्थायी सहायता ही हो सकती है, परिवर्तनकारी नहीं। मैं फिर कहता हूँ जनता की ताकत जनता से ही मिलती है।

यह जनता कौन है? आप ही जनता हैं। अब मैं आप मज़दूरों के संगीत कार्यक्रम की सम्भावना के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है कि चूँकि आपकी यूनियन ने थिएटर के क्षेत्र में सफलतापूर्वक काम किया है, आप अपने क्षेत्र में भी कुछ महत्त्वपूर्ण करना चाहेंगे। एक बात यह है कि आपके संगठन का मुझे व्यक्तिगत अनुभव नहीं है। मैंने आपके किसी कार्यक्रम के बारे में नहीं सुना है। मैं आपके संगीत संचालक या गायक मण्डली को नहीं जानता और यह भी नहीं जानता कि आप क्या गाते हैं। पर, अपने अन्तरराष्ट्रीय अनुभवों से जो कुछ मैंने सीखा है उनके बारे में मैं आपको बता सकता हूँ। स्वभाविक रूप से अमेरिका में और फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी, स्विट्ज़रलैण्ड, शुशनिग और हिटलर के पहले के आस्ट्रिया, हिटलर के पहले के जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया (कहने की ज़रूरत नहीं कि हिटलर के पहले के), डेनमार्क, युगोस्लाविया और अन्तत: सोवियत संघ में फ़र्क़ है।

मैं इन सभी देशों में रहा हूँ और संगीतकार के रूप में काम किया है। शायद मेरे कुछ अनुभव आपके काम आ सकें। मैंने अत्यन्त सफल गायक मण्डलियों को देखा है जैसे फ्रांस में जनमोर्चा गायक मण्डली जिमें 250 गायक थे; और एलन बुश के नेतृत्व में लन्दन में एक ऐसी ही गायक मण्डली थी। मैंने मास्को में मई दिवस पर लाखों लोगों को अपना गीत गाते हुए सुना है। मैंने मज़दूरों की अन्य मण्डलियों को भी सुना है पर सच कहता हूँ, कई बार मैं समझ ही नहीं पाया कि वे जीवित हैं या मृत। इसका कारण क्या है?

मज़दूरों की कमज़ोर गायक मण्डली की कोई ख़ास विचार–दृष्टि नहीं होती। उसका कोई निश्चित चरित्र नहीं होता। वे न इधर के होते हैं न उधर के। न वे पूँजीवादी होते हैं और न ही सर्वहारा। वे लोकप्रिय गीतात्मक समूह गान गाते हैं। उदाहरण के लिए जर्मनी में वे मेंडलसन का भावकुतापूर्ण लोकप्रिय गीत ‘वेरबत दिस डू गोनर वाल्ड’ गाया करते थे या फिर कुछ अच्छे संगीतकारों के लोकप्रिय गीत। पर अधिकतर वे चतुर्थ या पंचम श्रेणी के संगीतकारों के सस्ते गीत गाया करते। ऐसे गीत न सिर्फ़ गाने में उबाऊ होते हैं बल्कि उन्हें सुनना भी असहनीय होता है। इनके अधिकतर गीत 19वीं सदी के अन्त के और युद्ध से पहले के लिखे हुए थे। वे न तो महान कला के उदाहरण हैं और न ही आज की ज़िन्दगी की वास्तविकता को अभिव्यक्त करते हैं। ग़रीब गायक मण्डलियाँ कुछ लोकगीत भी गाती हैं। आम तौर पर बहुत ख़राब ढंग से, चार हिस्सों वाले। अन्तत: वे उन समूह गीतों को भी गाते हैं जिन्हें हम जर्मन भाषा में टेन्डेन्ज कहते हैं। ये सचेत रूप से सामाजिक महत्त्व के समूह गीत होते हैं। जर्मनी, हालैण्ड और इंग्लैण्ड में टेण्डेंज समूह गीत 1890 और 1920 के बीच लिखे गए थे। इसमें से कुछ सचमुच बहुत अच्छे हैं पर उनमें से अधिकतर पात्र पुराने फ़ैशन के लगते हैं। मुझे विश्वास है कि आपको इनके बारे में पता है। आम तौर पर इनमें शब्द बड़े मासूम और कोमल हैं जैसे, “आज हम रात के अँधेरे में संघर्ष कर रहे हैं, पर उम्मीद है कल रौशनी होगी” या फिर “एक दिन हम आज़ाद हो जाएँगे।”

इनका संगीत भी पुराने ढंग का है और गायक मण्डली का व्यवहार और प्रदर्शन भी उसी तरह का होता है। ये भले लोग छह महीने तक ऐसे कार्यक्रम के लिए रियाज करते हैं। वे हाल किराए पर लेते हैं। और किसी रविवार को कार्यक्रम पेश करते हें। मंच पर खड़े होते हैं तो बड़ा गरिमापूर्ण और पवित्र लगता है, संचालक के संकेतों का बहुत ध्यान से अनुसरण करते हैं। और अपने तर्इं अच्छा से अच्छा प्रदर्शन करते हैं। श्रोताओं में आमतौर पर गायकों के सम्बन्धी, मज़दूर संगठन के सदस्य और अन्य मित्र होते हैं। लेकिन पूरा वातावरण जैसे शवयात्रा का होता है। इसलिए सवाल यही उठता है, “कौन मर गया है?” शायद प्रगतिशील संगीत। कार्यक्रम शुरू होता है। शुरू में कुछ लोकगीत गाए जाते हैं या फिर कुछ लोकगीत के आसपास की चीज़”। मैं मज़दूर यूनियनों के कुछ ग्रुपों के गीत सुनकर डर जाता हूँ जो कई वर्ग संघर्षों में गाते–गाते थक गए होते हैं”। ला, ला, ला,ला,ला, ला, ला” “जब मैं तुम्हें याद करता हूँ बहुत अकेला महसूस करता हूँ।”

इन विचित्र गीतों के बाद बारी आती है शास्त्रीय गीतों की, कुछ बेहतर संगीतकारों की दो या तीन रचनाओं की। अगर प्रदर्शन अच्छा नहीं हो तब भी चलता है। श्रोता रेडियो पर बेहतर प्रदर्शन सुन चुके हैं। अन्त में सामाजिक महत्त्व के समूह गीत गाए जाते हैं। कर्कश और एकरस आवाज़ में। आप यह उद्घोषणा सुनते हैं कि “फिर से सूरज उगेगा” या “आज़ादी, हमें तुमसे प्यार है।”

अक़सर संचालक की कोई दोस्त या पत्नी पियानो बजाती है या एकल गीत गाती है : और इस तरह एकल गायिका कार्यक्रम में शामिल होती है। एकतारा की चढ़ती–उतरती धुन पर लिस्ज़ के ‘प्रेम स्वप्न’ जैसे गीत, या वायलिन पर ‘स्वीट क्रासिलिरियाना’ या फिर उससे आप ग्रेग का “मुझे तुमसे प्यार है” सुनेंगे और अन्त में “हँसो पगलियासी” सुनेंगें।

श्रोता बड़े नम्र होते हैं और कार्यक्रम संगीत संचालक को आयोजकों की ओर से फूलों का एक गुलदस्ता भेंट करने के साथ शान्तिपूर्वक समाप्त हो जाता है। यह सब छह महीने के कठिन परिश्रम के बाद सम्भव हो पाता है। मैं अक़सर अपने आपसे पूछता हूँ कि ये गायक रियाज के समय क्या करते हैं ख़ास तौर से पुरुषों के लिए मुख्य सप्तक और मन्द्र में? अ…ला,ला…।

मन्द्र का आधार ही बुरा होता है, परन्तु सम्भवत: वह अपने को दिलासा देते हैं कि कुल मिला कर कार्यक्रम उतना ख़राब नहीं होगा। मुझे विश्वास है कि ऐसे कार्यक्रम के बाद कार्यकारिणी की बैठक होती है और कोई न कोई पूछता है कि श्रोता कम क्यों थे। अध्यक्ष कहता है “प्रचार कम हुआ और टिकट ज़्यादा नहीं बिके।”

मैं ऐसा नहीं समझता, अगर आप ज़बर्दस्ती टिकट बेचें तब भी। मैं समझता हूँ कि अध्यक्ष यह जानना चाहेगा कि इतने कम लोग अभ्यास के समय क्यों आते हैं”? मैं गायक मण्डली की स्थिति समझता हूँ, ख़ास तौर पर मन्द्र स्वर में गाने वाले अपने दोस्तों की। आम तौर पर ऐसी गायक मण्डली में चालीस से कम की उम्र के लोग नहीं होते। इसका कारण स्पष्ट है।

हमने संगीत में संकट की बात की, मनोरंजन और गम्भीर संगीत में फ़र्क़ की। इस तरह के कार्यक्रम का संगीत के संकट से कुछ लेना–देना नहीं है। ज़ाहिर है कि ऐसा कार्यक्रम न तो मनोरंजक होता है न गम्भीर संगीत का होता है। यह सिर्फ़ उबाऊ, निरर्थक, कलाहीन और नीरस होता है। हालाँकि पचास साल पहले, इस तरह का कार्यक्रम मज़दूर वर्ग के लिए वास्तव में प्रगति का संकेत होता, पर आज इसका कोई अर्थ नहीं है।

ख़ास तौर पर युवा पीढ़ी के लिए जो सिनेमा, रेडियो और खेलकूद को अधिक पसन्द करती है, और अगर वे राजनीतिक विचार के हुए तो सभाओं और वामपन्थी नाटक मण्डलियों में जाते हैं। लेकिन अगर कोई सांस्कृतिक संगठन युवाओं को आकर्षित नहीं करता तो वह अपनी भूमिका अदा नहीं करता है और अपनी सक्रियता खो देता है।

ऐसे संगठन इन परिस्थिति में क्या कर सकते हैं? अगर हर सदस्य यह महसूस करे कि ये कठिनाइयाँ मज़दूर वर्ग के सामान्य संकट और उसकी विशिष्ट सामाजिक परिस्थिति से जुड़ी हुई हैं, तो इनका हल निकालना आसान होगा। इस सिलसिले में मेरे कुछ सुझाव हैं-

  1. मुख्य प्रश्न गायक मण्डली का है। इसका चुनाव इस तरह से होना चाहिए कि यह श्रोताओं और गायकों दोनों के लिए उत्साहवर्द्धक हो (ख़ास तौर पर दूसरे सप्तक के गायक) और मण्डली के सभी सदस्य छह महीने तक अभ्यास करें। संगीत और गीत मनमोहक होना चाहिए।

इस तरह की गायक मण्डली का गठन कैसे हो सकता है। एकमात्र उपाय यह है कि आधुनिक और प्रगतिशील संगीतकारों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क हो। मैंने आपको आधुनिक संगीतकारों की भयानक स्थिति के बारे में भी बताया है, जो या तो अलग–थलग पड़ गए हैं या भुखमरी की स्थिति में हैं या परजीवी बन गए हैं। पर आप उन्हें एक नया अवसर दे सकते हैं। प्रगतिशील मज़दूर वर्ग और प्रगतिशील संगीतकारों के बीच यह सहयोग दोनों के लिए फायदेमन्द होगा। एक प्रगतिशील गायक मण्डली के लिए यह सचमुच महत्त्वपूर्ण होगा। संगीतकारों के लिए ऐसी गायक मण्डली का साथ सम्पर्क ताज़ा हवा के झोंके की तरह होगा। उन्हें नये विचार, छपने का अवसर और संक्षेप में एक नई ज़िन्दगी मिलेगी।

गायक मण्डली के गठन में शास्त्रीय संगीत और आधुनिक संगीत में सही सन्तुलन बनाए रखना ज़रूरी है। एक महत्त्वपूर्ण सवाल पुरानेपन और रूढ़िबद्धता को भूल जाने का है। एक आधुनिक संगीत संचालक आपके लिए न सिर्फ़ शास्त्रीय संगीत की अच्छी रचना खोज सकता है बल्कि विभिन्न देशों के आधुनिक संगीतकारों की दिलचस्प नई रचनाएँ भी तलाश सकता है। पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी में लोकगीत भी हैं और अरलैण्डो डी. लास्सो, मरन्जियो जैसे उच्च स्तर के अनेक संगीतकारों की रचनाएँ भी।

सोवियत संघ समेत अनेक देशों में वर्ग चेतना से सम्पन्न आधुनिक संगीत का अगाध भण्डार भी उपलब्ध है। आप इन आधुनिक संगीतकारों से अपने लिए नई रचनाओं की भी माँग कर सकते हैं। पर, दुर्भाग्यवश, छोटी–छोटी रचनाओं से युक्त ऐसा कार्यक्रम शाम को और उबाऊ बना देता है। इसलिए मेरा दूसरा सुझाव यह है कि

  1. कार्यक्रम आयोजित करने का बेहतर तरीक़ा अपनाएँ। संगीत कार्यक्रमों में पुराने और बेकार पड़ चुके तौर–तरीक़ों को छोड़ दें। हमें बहुत कुछ करना है। एक अच्छा उद्घोषक चुनें। उसे उन रचनाओं के बारे में बताने को कहें जो गाए जाने हैं, शुष्क अकादमिक तरीक़े से नहीं, बल्कि नए और मज़दूर वर्ग के अनुरूप जीवन्त और मनोरंजक तरीक़े से। यह एक क़दम आगे बढ़ना है।

लेकिन फिर भी बात बनती नहीं है। प्रभावी तरीक़े से कार्यक्रम आयोजित करने के लिए और बहुत कुछ करना होगा। आपको मज़दूर वर्ग की अन्य कला मण्डलियों के साथ सहयोग करना होगा, जैसे अभिनेताओं, नर्तकों, बैंडवादकों आदि के साथ। आपके संगीतकारों और कवियों को बड़ी–बड़ी रचनाएँ तैयार करनी होंगी जैसे गतिमय संगीत नाटक जिसमें गायक मण्डली की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो। इस नये कार्यक्रम में सम्पूर्ण राजनीतिक और सामाजिक सन्दर्भ की ज़िम्मेदारी आपके कन्धे पर होगी। अभ्यास सत्रों में आपको चीज़ों को नियंत्रित करने और विचार–विमर्श करने का पर्याप्त मौक़ा मिलेगा।

  1. हास्य, व्यंग्य और तीखापन आपके सभी कार्यक्रमों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। जाज और स्विंग के कलाकारों का उपयोग आपके कार्यक्रमों में हो सकता है पर हालीवुड और ब्राडवे के विकृत रूपों में नहीं। अच्छे आधुनिक संगीत में हास्य भी होता है, लय भी और जीवन्तता भी होती है, आपको इन सबका उपयोग करना चाहिए। सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ क्या है?

एक अच्छा आधुनिक संचालक और आपके आधुनिक संगीतकार के साथ उसका अच्छा सम्बन्ध (और उनके लिए कुछ पैसे), और आपको सिर्फ़ सर्वोत्तम प्रतिभाएँ चाहिए। आपके पास सर्वाधिक प्रतिभासम्पन्न युवा कवि होने चाहिए। यह सब सम्भव है। कोशिश करिए। याद रखिए कला की मृत्यु, सस्ती संवेदनशीलता, खोखले शोरगुल और लोकगीतों की भद्दी नक़ल में निहित है। सामाजिकता का अभाव भी किसी रचना को नीरस बना देता है, ख़ास तौर पर आज के कठिन समय में। हमारी कला में मनोरंजन, अधिकतम विकसित तकनीक, चेतना, हास्य, अच्छे प्रचार और सामाजिक भावना का सुन्दरतम समन्वय होना चाहिए। मज़दूरों की कला के लिए सस्ता और उबाऊ होना सबसे ख़तरनाक है। मैं एक व्यावहारिक प्रस्ताव रखता हूँ। आपकी यूनियन मज़बूत है। आपकी सम्भावनाएँ और आपके अनुभव विशिष्ट हैं। इस बात की कोशिश करिए-कुछ अभिनेताओं, एक अच्छे उद्घोषक और एक युवा निर्देशक, कुछ युवा आधुनिक कवियों और एक संगीतकार को साथ लेकर आप एक अच्छा गीति नाट्य पेश कर सकते हैं। मैं आपको एक सुझाव देता हूँ। उस गीति–नाट्य का नाम “हमारी कहानी” रखिए। आपकी यूनियन में इतिहास पर आधारित नाटक। मैं इसका इतिहास जानता हूँ और यह अद्भुत है, कला की दृष्टि से भी। उदाहरण के लिए आप्रवासी यहूदी के लिए एक गीत हो सकता है जो एलीस द्वीप पर अपने बक्सों के ऊपर बैठा। खाड़ी और न्यूयार्क शहर को देख रहा है। एक अन्य दृश्य में यूनियन के शुरुआती दौर के उन क्रियाकलापों को दिखाया जा सकता है जो कुछ अवैध से हैं। जैसे अपराधी गिरोहों के साथ संघर्ष, एक संघर्षशील साथी की मृत्यु, गायक मण्डली इसकी व्याख्या कर सकती है। ऐसे कई दृश्य दिखाए जा सकते हैं और हर दृश्य के साथ पर्दे पर घटना की तिथि और ऐतिहासिक परिस्थिति के बारे में कुछ पंक्तियाँ प्रोजेक्ट की जा सकती हैं। गायक मण्डली को अभिनय नहीं करना चाहिए। आम तौर पर यह मुश्किल होगा और अच्छा तो क़तई नहीं होगा। उन्हें अपने गाने के लिए खड़ा रहना चाहिए या बैठे रहना चाहये। आप कुछ अभिनेता बुला सकते हैं और एक या दो एकल गायक। इतनी ही शक्ति लगाकर, मैंने जैसा कहा उस तरह आप एक अच्छा कार्यक्रम तैयार कर सकते हैं, जो आपके लिए और आपके श्रोताओं के लिए महत्त्वपूर्ण होगा। इसका अभ्यास भी उत्साहपूर्ण रहेगा और संगठन की भी सक्रियता बनी रहेगी।

क्या यह सब कठिन है? हाँ और नहीं भी। कुछ करना आसान नहीं होगा, पर आपको इस तरह सोचना चाहिए जैसे एक प्रगतिशील गायक मण्डली को सोचना चाहिए। आज की सांस्कृतिक क्रूरता और राजनीतिक संकट के दौर में हम एक दिलचस्प स्थिति देखते हैं। पूँजीवादी संस्कृति विनाश की दिशा में जा रही है। अब संस्कृति की रक्षा और पुनर्रचना की आपकी बारी है, उन धनी औरतों के बावजूद।

एक व्यक्तिगत बात कह कर मैं अपना भाषण समाप्त करना चाहता हूँ। मैं श्री शेफर और श्री लीबमन के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिन्होंने आपके सामने बोलने का मौक़ा दिया। मुझे उम्मीद है कि जो कुछ मैंने कहा उसमें से कुछ उपयोगी हो सकता है और मुझे उम्मीद है कि मैं आपके पहले कार्यक्रम पर आपको बधाई दे सकूँगा।

सन्दर्भ

अंग्रेज़ी से अनुवाद : रामकृष्ण पाण्डेय

[i]  यह उद्धरण देते हुए आइस्लर न तो चर्च को एक संस्था के रूप में मान्यता देते हैं और न ही समाज से मुँह मोड़ने का बहाना बनाते हैं।

[ii]  रिचर्ड वैगनर 1848–49 में जर्मनी में हुई पूँजीवादी जनतांत्रिक क्रान्ति में शामिल थे और उस समय उन्होंने “मैन एँड एक्सिटिंग सोसायटी”, “आर्ट एँड रिवोल्यूशन”, और “आर्ट ऑफ़ फ्यूचर” जैसे लेख लिखे।

[iii] “वोल्गा के नाविक का गीत” एक पुराना रूसी गीत है। पश्चिम यूरोप और अमेरिका में यह प्रसिद्ध है। ख़ास तौर पर फियोदोर चैलियापिन की बीच–बीच में की गई व्याख्या के साथ।

[iv]शुमैन, शोपेन, लिस्ज” और ब्राह्म्स इन सबने अपने संगीत के ज़रिए निम्न वर्ग तक पहुँचने की कोशिश की पर सर्वहारा वर्ग अपने गठन की प्रक्रिया में था और निम्न वर्ग की मानसिकता से बाहर था। इसके विपरीत वह मध्य और उच्चवर्गीय पूँजीपतियों से लाभ उठाता था।

[v] बाख़ की 20 सन्तानें थीं। सात सन्तानें पहली शादी से जिनमें से चार बचे और 13 दूसरी शादी से जिनमें से सात बचे।

[vi] ‘स्टोकोवस्की’ से आइस्लर का मतलब अमेरिका में लियोपाल्ड स्टोकोवस्की जैसे स्टार संगीत संचालकों से है।

[vii] डब्ल्यू.पी.ए. ‘वर्क्स प्रोग्रेस एडमिनिस्ट्रेशन’ का संक्षिप्त रूप है।

 

  • सृजन परिप्रेक्ष्‍य, जनवरी-अप्रैल 2002

 

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