एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया के दौरान रोज़मर्रा के जीवन में बच्चों की भागीदारी और प्राथमिकताओं के चयन में मीडिया की भूमिका

हाली ओज़गुनर व दुइगू चुकूर (तुर्की)

(यह लेख बच्चों पर मीडिया के प्रभाव के विश्लेषण पर केन्द्रित है। इसमें अभिव्यक्त विचार लेखकों के अपने विचार हैं। -सं.)

1. परिचय

पूँजीवाद सत्ता में आने का और तकनोलॉजी के द्रुत विकास के ज़रिये उपभोग को अधिकतम सम्भव बढ़ाने का प्रयास करता रहा है। इसने पूँजी और सूचनाओं के संचरण को वैश्विक पैमाने पर सम्भव बना दिया है।

इस प्रक्रिया के दौरान उपभोग को सभ्यता की कसौटी के तौर पर पेश किया जाता है cartoon violenceऔर समान मूल्यों और जीवन शैलियों को पूरी दुनिया के विभिन्न देशों तक स्थानान्तरित किया जाता है। परिणामतः, समान उत्पादों का उपभोग एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया की ओर ले जाता है जो कि समाजों की अधिसंरचनाओं और उपसंरचनाओं को नियंत्रित करता है और जीवन के सभी अंगों का पुनर्निर्माण करता है।

यह प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो जाती है जो कि वह दौर है जब व्यक्ति की सामाज़िक अस्मिता का मोटे तौर पर निर्माण होता है। बच्चों को पहला शिक्षण उनके परिवारों के द्वारा सांस्कृतिक ढाँचे में समायोजन द्वारा दिया जाता है। यद्यपि, आज के बच्चे टेलीविज़न, वीडियो व कम्प्यूटर गेम्स से अपने परिवारों की अपेक्षा ज्यादा सम्पर्क में रहते हैं और पूंजीवादी व्यवस्था इन उपकरणों के जरिये सीधे बच्चों से संपर्क साधती है।

विभिन्न संस्कृतियों से आने वाले बच्चे इन चित्रों और मनोरंजनों के उपकरणों से प्रभावित होते हैं और जल्दी ही इन पर निर्भर बन जाते bugsdaffycensored_450x376हैं। परिणामतः, उनकी सामाज़िक दुनिया मीडिया (टेलीविज़न, कंप्यूटर गेम्स, आदि) के ज़रिये उन्हीं समान मूल्यों और जीवन शैली से निर्मित होने लगती है। लेकिन हालिया वर्षों में उत्तरआधुनिकतावाद ने स्थानीय संस्कृतियों और स्थानीय अस्मिताओं को बढ़ावा दिया है, और सांस्कृतिक वैविध्य पर चर्चाएँ शुरू हो गयी हैं। सांस्कृतिक वैविध्य पर ज़ोर बढ़ा है और, विभिन्न संस्कृतियों और जीवन शैलियों पर बल दिया गया है। यह स्थिति एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है और पूँजीवादी व्यवस्था के लक्ष्यों से अन्तरविरोध रखती है।

यह प्रस्तुति निम्न बातों पर ग़ौर करेगीः

-किस प्रकार मीडिया बच्चों की सामाज़िक दुनिया को समान मूल्यों और जीवन शैलियों द्वारा निर्मित करती है और उन सामाज़िक संबंधों की चारित्रिक विशेषताओं को उजागर करती है जो इस प्रक्रिया में उभरते हैं।

-बच्चों द्वारा उनके रोज़मर्रा के जीवन में प्राथमिकताओं के चयन और भागीदारी में इस प्रक्रिया की भूमिका।

2. बच्चों पर मीडिया के प्रभाव

बच्चे अपना ज्यादातर ख़ाली वक्त टेलीविज़न देखते हुए बिताते हैं। पिछले दशक में बच्चों के टीवी चैनलों का जबर्दस्त विस्तार हुआ है। डिस्नी, फॉक्स किड्स, कार्टून नेटवर्क आदि जैसे चैनल दुनिया के हर हिस्से में बच्चों पर प्रभाव डालते हैं।

बच्चे टीवी के सामने ज्यादा पैस्सिव बनते जाते हैं और सभी सूचनाओं को बिना प्रश्न खड़ा किये और आत्म विश्लेषण के मान लेते हैं। टीवी कार्टूनों और प्रचार (ऐड्स) के जरिये बच्चों की समझदारी को समान धरातल पर निर्मित करता है। अमेरिका और अन्य विकसित देश जो कि कार्टूनों के सबसे बड़े बाज़ार हैं, पूरी दुनिया के सभी देशों में इन कार्टून कार्यक्रमों का निर्यात करते हैं। ऐसा करके वे अपने मूल्यों का भी निर्यात करते हैं। बच्चे जो इन मूल्यों को स्वीकार करते हैं वे अपनी संस्कृति से अलगावग्रस्त हो जाते हैं।

मेलबर्न में हुए ‘बच्चों के लिए टेलीविज़न पर प्रथम अन्तरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन में तैयार किये गये बाल टेलीविज़न चार्टर के सम्बन्धित सिद्धान्त इस प्रकार है:

-बच्चों को ऐसे टेलीविज़न कार्यक्रमों के जरिये अपने आपको, अपनी संस्कृति को, अपनी भाषाओं को और अपने जीवन अनुभवों को सुनना, देखना और अभिव्यक्त करना चाहिए, जो कि उनके अपने समुदाय और स्थान के बोध को पुष्ट करें।

– बच्चों के कार्यक्रमों को बच्चे के अपने सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के समानान्तर अन्य संस्कृतियों के बारे में जागरूकता और उनकी समझ को बढ़ावा देना चाहिए।

व्यवहारतः, विकसित देश बच्चों के जिन कार्यक्रमों को बनाते हैं और दूसरे देशों को निर्यात करते हैं वे आम तौर पर दूसरे सिद्धान्त पर आधारित होते हैं।

ओनूर (2005) ने बच्चों के उन कार्यक्रमों की जाँच की जो विकसित देशों में बनाये गये थे और ज़िन्हें बेतरतीब तरीके से चुना गया था (जैसे कि फ्रिलण्टस्टोन्स, बग्स बनी, वुडी वुडपेकर, आदि) ताकि उन मूल्यों की जांच की जा सके जिन्हें ये कार्यक्रम बढ़ावा देते हैं। उनके परिणामों को निम्न रूप में समेटा जा सकता हैः

– ‘मनुष्य को प्रकृति को नियंत्रित करना चाहिए’, इस विचार को बढ़ावा दिया जाता है।

-वैश्विक मूल्यों (वैश्विक समाजों या समूहों का सदस्य होना, वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा, आदि) को बढ़ावा दिया जाता है।

– स्थानीय संस्कृतियों के ऊपर वैश्विक पूँजीवादी संस्कृति की श्रेष्ठता को बढ़ावा दिया जाता है।

-प्रतिस्पर्द्धा, सफलता, और व्यक्तिवाद जैसे पूँजीवादी मूल्यों और एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाता है।

– इस बात पर बल दिया जाता है कि लोगों को एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करना चाहिए।

-परिभाषित अस्मिताएँ हमेशा परिवर्तन-योग्य होती हैं।

उपभोगवादी संस्कृति को लगातार बढ़ावा दिया जाता है। मिसाल के तौर पर, कार्टून चरित्र खिलौना उद्योग से उत्पादन की माँग करते हैं और औद्योगिक उत्पादनों का उपभोग करते हैं।

कार्टूनों के जरिये हिंसा की संस्कृति को भी बढ़ावा दिया जाता है। मिसाल के तौर पर, हीमैन और निंजा टर्टल्स जैसे कार्टून वे उपकरण बन जाते हैं जिनके ज़रिये बच्चे और किशोर स्वयं को अभिव्यक्त करने लगते हैं।

अध्ययन दिखलाते हैं कि बच्चे टेलीविज़न पर देखे जाने वाले आक्रामक व्यवहार की नकल करने लगते हैं (मिहानदूस्त, 1989)। कार्टून चरित्र (जैसे कि टॉम एंड जेरी) हमेशा लड़ते हैं, किसी ऊंचे स्थान से गिरते हैं, अपना सिर कई बार ज़ोर से टकराते हैं, और उन्हें कुछ भी नहीं होता। बच्चे कई बार इस सूचना को यथार्थ मान बैठते हैं और इस प्रकार के बोध के नतीजे बेहद ख़तरनाक सिद्ध होते हैं।

बच्चों के दिमाग़ पर किसी प्यारे मुखौटे से ढँकी प्रच्छन्न हिंसा को थोप दिया जाता है। बच्चे हिंसा को सामान्य मानने लगते हैं और ‘अन्य’ बच्चों को अपना दुश्मन समझने लगते हैं। वे शक्तिशाली कार्टून चरित्रों को पसंद करते हैं (अगर वे बुरे हों तो भी) बजाय अपने माता-पिता को पसंद करने के, और सहिष्णुता, धैर्य और सहकार जैसे मूल्यों से कट जाते हैं।

स्थानीय संस्कृतियों के बच्चों के गेम्स और खिलौनों पर भी विकसित देशों का प्रभाव होता है। आजकल, खिलौने अपनी पारम्परिक अस्मिताओं से दूर चले गये हैं और पॉप्युलर कल्चर का एक हिस्सा बन गये हैं। इन खिलौनों के प्रारूपों और इनसे जुड़े मिथकों पर भी अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्ज़ा है (ओनूर, 2005)।

बच्चे जिनके पास बार्बी बेबीज़, फर्बीज़, तामागोचीज, एक्शनमैन्स, निंजा टर्टल्स, टेलीटबीज़ और पोकेमॉन जैसे खिलौने होते हैं, वे अपने हस्तकौशल और रचनात्मकता को विकसित नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा, खिलौनों के नाम में एकरूपता पूरे विश्व में फैल जाती है। अन्य खिलौनों को अलग-अलग देशों में अलग-अलग नामों से बोला जाता है, लेकिन आज दुनिया के सभी हिस्सों में बच्चे इन खिलौनों को एक ही नाम से पुकारते हैं (गोगस, 2005)। कोई खिलौना अगर एक देश में बाज़ार में आता है, तो वह मीडिया की सहायता से जल्द ही दुनिया के अन्य हिस्सों में भी आसानी से पहुँच जाता है। मीडिया द्वारा अन्य देशों में ले जाये गये कुछ खिलौने (जैसे कि लायन किंग, टार्जन, या हैरी पॉटर के चरित्र) मैकडोनाल्ड, कोका कोला, पेप्सी आदि जैसी कम्पनियों द्वारा प्रमोशंस (यानी प्रचार) के तौर पर दिये जाते हैं (गोगस, 2005)। खिलौनों के अलावा, बच्चों के खेलने की संस्कृति मीडिया द्वारा प्रोत्साहित तकनोलॉजी में रुचि और उसकी प्रशंसा के जरिये भी बदली है। इसलिए पारम्परिक बाहरी खेलों के मुकाबले अब इण्डोर गेम्स (जैसे कम्प्यूटर गेम्स, आदि) को प्राथमिकता मिलने लगी है।

‘टीनेजर्स’ शब्द की जगह ‘स्क्रीनेजर्स’ शब्द लेने लगा है (रशकॉफ, 1996)। बच्चे आज अपने घरों के भीतर ही एक काल्पनिक समाज के जरिये समाजीकृत होते हैं। गति, हिंसा, और इसी प्रकार के मूल्यों को कंप्यूटर गेम्स द्वारा रूपांतरित कर दिया गया है। इन प्रभावी और आश्चर्यचकित कर देने वाले गेम्स के जरिये दूसरों को मारने की भावना बढ़ती है। बच्चे आम तौर पर गेम स्टारों के काल्पनिक चरित्रें से अपने आपको समेकित करते रहते हैं और ऐसे गेम्स द्वारा मुहैया करायी जाने वाली सन्तुष्टि को महसूस करते हैं। यह बच्चों को अन्य लोगों से और ज़्यादा अलगावग्रस्त कर देता है और उनके सामाजिक अन्तर्सम्बन्धों को कमज़ोर बनाता है।

दूसरी तरफ़, टीवी प्रचार बच्चों में उपभोग को बढ़ावा देते हैं और उन्हें प्रसिद्ध ब्राण्डों की प्रशंसा करना सिखाते हैं। प्रचार फास्ट-फूड और एसिडिक पेय पदार्थों के उपभोग को भी बढ़ावा देते हैं, जो कि स्थानीय रसोइयों की पारम्परिक खान-पान की संस्कृति की जगह ले लेते हैं। यह बच्चों में नैसर्गिक खान-पान आदत को खत्म करते हैं और बाद में स्वास्थ्य की समस्याओं को भी पैदा करते हैं। खाने-पीने की आदतों के अलावा, टीवी प्रचार पहनावे में भी एक किस्म का मानकीकरण लाते हैं। आज चित्र या छवि बहुत अहम हो गयी है और पूरे विश्व को एक एकल छवि बाज़ार में तब्दील कर दिया गया है। टीवी प्रचारों के जरिये काल्पनिक आवश्यकताओं को पैदा किया जाता है और समान उत्पाद को विभिन्न देशों में अलग-अलग छवियों के जरिये बेचा जाता है। कुछ प्रसिद्ध ब्राण्डों की पूरी दुनिया के बच्चों में काफ़ी माँग है (जैसे कि कोका कोला, एडिडास, नेस्ले, मैकडोनाल्ड, सोनी, लेवाइस)। बच्चे अपनी अस्मिता को पहनावे से निर्मित करते हैं और सोचते हैं कि समाज में उनकी प्रतिष्ठा उनके रूप पर निर्भर करती है। संक्षेप में, टीवी प्रचार बच्चों की आत्म विश्लेषण करने की क्षमता को घटाते हैं और उन्हें पैसिव, प्रतिक्रिया न देने वाला, और बहला दिये जाने के मामले में कमज़ोर बनाना है, ताकि उनके ज़रिये उपभोग को बढ़ावा दिया जा सके।

अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादों और साथ ही अपने दर्शनों को मीडिया के जरिये विस्तारित करती हैं। मिसाल के तौर पर, खिलौनों, कपड़ों, किताबों, और फर्नीचर के प्रारूप तैयार करने में कार्टून चरित्रें का व्यापक उपयोग होता है, जो कि एक साथ एक मार्केटिंग रणनीति भी होती है, और साथ ही इन उत्पादों की पहचान और उपभोग को लगातार बढ़ाने का तरीका भी होता है।

परिणामतः, मीडिया बच्चों की प्राथमिकताओं और जीवन शैलियों को प्रभावित करता है और समान किस्म के वैश्विक उत्पादों के साथ दुनिया के सभी हिस्सों में बच्चों को एक जैसे बोध, स्वाद और सौन्दर्यात्मक मूल्य दिये जाते हैं।

  1. तुर्की में स्थिति

तुर्की में तुर्की रेडियो एण्ड टेलीविज़न कारपोरेशन के 1968 में बनने के साथ टेलीविज़न ब्रॉडकास्टिंग की शुरुआत हुई। टीआरटी ने 1995 में बच्चों के कार्यक्रमों से जुड़े चार्टर की घोषणा के बाद 1997 में बच्चों के कार्यक्रमों के निर्माण और प्रसारण के लिए कुछ नियम बनाये। इन नियमों में तुर्की सांस्कृति मूल्यों, तुर्की भाषा के सही उपयोग, राष्ट्रवाद, और राष्ट्र की एकता को बढ़ावा देने की बात की गयी है।

ये नियम टेलीविज़न चैनलों से अपने कार्यक्रमों के ज़रिये आत्मविश्वास, आत्म अभिव्यक्ति, रचनात्मकता, सहिष्णुता, सम्मान आदि जैसे भावों और साथ ही स्वास्थ्य, खेल, और कला को बढ़ावा देने के लिए कहते हैं। लेकिन एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया में बच्चों के कार्यक्रमों द्वारा दिये जा रहे मूल्यों से इन लक्ष्यों का कोई लेना-देना नहीं है। तुर्की में 1990 के दशक से प्राईवेट टेलीविज़न चैनलों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। अनुसंधान दिखलाता है कि बच्चों में टीवी देखने की दर इस प्रकार हैः

2 वर्ष के बच्चे – 14 प्रतिशत

4 वर्ष के बच्चे – 65 प्रतिशत

6 वर्ष के बच्चे – 95 प्रतिशत

और, 9 वर्ष के बच्चे – 96 प्रतिशत

चूँकि निजी टीवी चैनल आम तौर पर अधिकतम मुनाफ़े के बारे में ही सोचते हैं, इसलिए वे अन्तर्वस्तु की परवाह किये बग़ैर कार्टून कार्यक्रमों को विकसित देशों से खरीदने पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं, बजाय इसके कि वे स्वयं अपने कार्यक्रमों को बनायें, क्योंकि इस विकल्प में ज्यादा वक्त और पैसा लगेगा (टिमीसी, 1999)।

तुर्की में ऐसे ही कुछ कानून हैं जिनके अनुसार टीवी चैनलों को आम सदाचार, तुर्की संस्कृतियों और परम्पराओं, और पारिवारिक जीवन को ध्यान में रखना चाहिए और ऐसे कार्यक्रमों से बचना चाहिए जिनका बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हो। लेकिन मौजूदा कार्यक्रम व्यवहारतः इन नियम-कानूनों पर विचार नहीं करते और नतीजतन, हिंसा बच्चों के रोज़मर्रा के जीवन और खेलने की संस्कृति में स्थानान्तरित हो जाती है, जैसा कि विश्व के अन्य हिस्सों में भी हो रहा है। बच्चे अपने आपको कार्टून स्टारों के रूप में देखने लगते हैं और यथार्थ से दूर चले जाते हैं (मेटे, 1999)। मिसाल के तौर पर तुर्की में एक चार वर्ष का बच्चा पिकाकू की तरह उड़ने के लिए एक ऊँची बिल्डिंग से नीचे कूद गया (रैडिकल, 20 अक्टूबर, 2000)।

आधुनिक तकनोलॉजिकल खिलौने जिनमें युद्ध और हिंसा की विषयवस्तु छायी हुई है, लोकप्रिय हो गये हैं। इसका एक उदाहरण है बेबीलेड जिसे तुर्की में टोपाक कहते हैं। इस खिलौने के तुर्की के विभिन्न हिस्सों में 200 से ज़्यादा नाम हैं जो कि भाषा और स्थानीय संस्कृति के वैविध्य को दिखलाता है। लेकिन आज उस खिलौने को तुर्की में बेबीलेड ही कहा जाता है, जैसा कि अन्य देशों में (गोगस व टर्ज़ी, 2004)। बेबीलेड (लट्टू) जो कि मूलतः लकड़ी से बना होता है, अपने मूल गुणों को खो चुका है और संगीत और लाइट से लैस एक यान्त्रिक खिलौना बन गया है।

  1. बच्चों की प्राथमिकताओं पर मीडिया का असर

बच्चों रोज़मर्रा की प्राथमिकताओं, पसन्दों, आदतों और कल्पनाओं पर मीडिया का गहरा असर पड़ता है। इस स्थिति का परिणाम यह होता है कि बच्चे अधिक उपभोग करने और अधिक महँगी चीज़ों को हासिल करने का लक्ष्य रखने लगते हैं। इसके लिए जितनी जल्दी हो सके अमीर हो जाना ज़रूरी होता है।

लड़के महँगी कारों के मालिक होने का सपना देखते हैं, जबकि लड़कियाँ सुन्दर बन जाना चाहती हैं। वे मानते हैं कि खुश रहना अधिक महँगे उत्पादों के उपभोग से सम्भव हो जायेगा। बच्चों का उपभोग किये जाने वाले उत्पादों के प्रति बर्ताव उनके खाने-पीने की आदतों और खेलने की संस्कृति का भी निर्माण करने लगता है। बच्चों के कमरों के फर्नीचर और टेक्सटाइल तक पर कार्टून स्टारों की छवियाँ छाई रहती हैं। पाप्युलर संगीत को भी पसन्द किया जाता है।

टीनेजर (किशोर) मानते हैं कि उनका रूप अहम है और इसलिए वे प्रसिद्ध ब्राण्डों के महँगे कपड़े पहनना चाहते हैं। बच्चे ऐसे खाद्य पदार्थों को पसन्द करते हैं जो अत्यधिक कैलोरी वाले होते हैं, जैसे हैम्बर्गर, चिप्स आदि और साथ ही एसिडिक पेय पदार्थों को भी जैसे कि कोला। बच्चे कम्प्यूटर गेम्स के जरिये अपनी खेल-सम्बन्धी ज़रूरतों को पूरा करने लगते हैं और कृत्रिम यान्त्रिक खिलौनों को प्राथमिकता देते हैं। बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ावा देने वाले पारम्परिक खिलौनों को प्राथमिकता नहीं दी जाती है।

बच्चों की (आम तौर पर) पढ़ने में या स्थानीय संस्कृति से जुड़ी हुई कहानियों को सुनने में कोई रुचि नहीं होती। कार्टून और प्रचारों में प्रयोग होने वाले भावों से मूल भाषाएँ बदलने लगती हैं।

ऐसा माना जाने लगता है कि समस्याओं का समाधान हिंसा और लड़ाई से सम्भव है। इसलिए बच्चों के रोज़मर्रा के जीवन की प्राथमिकताएँ पूँजीवादी व्यवस्था के लक्ष्यों के अनुसार मीडिया द्वारा निर्मित होती हैं।

प्रकृति के साथ बच्चे वास्तविक सम्पर्क खो बैठते हैं, और विशेष तौर पर शहरों में रहने वाले बच्चे, और प्रकृति और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के बारे में जागरूकता कमज़ोर होती जाती है। चूँकि एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया प्राकृतिक सम्पदा के उपभोग की ओर ले जाती है, इसलिए बच्चों को प्रकृति कोई ऐसी चीज लगती है, जिसका उपभोग किया जाना है, बजाय किसी ऐसी चीज के जिसे संरक्षित किया जाना है।

एकलसंस्कृतिकरण की प्रक्रिया का बच्चों के रोज़मर्रा के जीवन की प्राथमिकताओं और भागीदारियों पर असर पड़ता है। यह बच्चों के बोध को सीमित कर देती है और उनके प्रश्न पूछने और आत्मविश्लेषण की क्षमता को सीमित कर देती है। नतीजतन बच्चे स्वयं अपनी ही ज़रूरतों से अलगावग्रस्त हो जाते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था की प्राथमिकाओं और माँगों को अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं के रूप में देखने लगते हैं। यह प्रक्रिया बच्चों के सामाजिक विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करती है और उनके सामाजिक मेलजोल में कमी लाती है जिसका नतीजा होता है समाज के मूल्यों, जिससे कि उनका रिश्ता है, के प्रति जिम्मेदारी और संवेदनशीलता में कमी।

चूँकि यह प्रक्रिया बच्चों को अधिक से अधिक पैस्सिव बनाती है, इसलिए सामाजिक विश्व में उनकी भागीदारी कम होती जाती है। यह प्रक्रिया ऐसे व्यक्तियों को पैदा करती है, जो अपनी संस्कृतियों की बजाय तकनोलॉजी और पश्चिमी संस्कृतियों की प्रशंसा करते हैं। चूँकि मीडिया हिंसा को बढ़ावा देता है, इसलिए बच्चे अधिक से अधिक गै़रिज़म्मेदार, असहिष्णु और सहकार-विरोधी बनते जाते हैं।

संक्षेप में, मीडिया बचपन के दौरान समाजीकरण की प्रक्रिया में एक अहम भूमिका निभाता है, और सभी बच्चों को एक ही सांस्कृतिक धरातल पर खड़े उपभोक्ता के रूप में देखता है। फिर बच्चे वास्तविक दुनिया को मीडिया द्वारा दी गई इसी समझदारी के जरिये व्याख्यायित करते हैं और पेश की गई और वास्तविक दुनिया के बीच के अन्तर अन्त में सांस्कृतिक विभ्रमों को जन्म देते हैं।

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