कूर्बे की कला और उसकी ज़मीन
रामबाबू
1855 में, पेरिस के कला–जगत के सुप्रसिद्ध, भव्य, अन्तरराष्ट्रीय आयोजन Exposition Universelle की शुरुआत एक दिलचस्प बावेले से हुई। Expostion के आयोजकों ने विशाल कैनवस पर चित्रित, गुस्ताव कूर्बे की कृति ‘चित्रकार का स्टूडियो’ को प्रदर्शन के लिए स्वीकार नहीं किया। कूर्बे एक अक्खड़ विद्रोही युवा अवाँगार्द चित्रकार के रूप में तब तक ख्याति अर्जित कर चुका था। उसके अराजकतावादी, समाजवादी विचार और प्रूदों, शांपफ्लूरी, बुशों और बॉदलेयर जैसी राजनीति, पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया की “विस्फोटक़ हस्तियों से उसकी मित्रता भी बहुविख्यात थी।
अपनी महत्त्वाकांक्षी (और अब इतिहास–प्रसिद्ध) कलाकृति खारिज किए जाने से क्रुद्ध कूर्बे ने एक अनूठा क़दम उठाया। Exposition Universelle के पास ही उसने एक विशेष मण्डप बनवाया और उसमें अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी आयोजित कर डाली। मण्डप के प्रवेशद्वार पर टँगे सुर्ख बैनर पर बड़े–बड़े शब्दों में प्रदर्शनी की विषयवस्तु को द्योतित करना नाम–शीर्ष अंकित था-‘यथार्थवाद’-गुस्ताव कूर्बे। राजनीति और कला की दुनिया के सत्ताधारियों के विरुद्ध कलाकार की आज़ादी और जनपक्षधरता का परचम लहराते हुए जो जंग कूर्बे ने तब छेड़ी, उसे जीवनपर्यन्त अविराम जारी रखा और उसकी हर क़ीमत चुकाई।
आज कम ही लोग शायद इस ऐतिहासिक तथ्य से परिचित होंगे कि गुस्ताव कूर्बे पहला कलाकार था जिसने सचेतन तौर पर, यथार्थवादी सौन्दर्यशास्त्र को स्वीकार करने की घोषणा की और उसे व्यवहार में लाया। इसके पूर्व एक सुनिश्चित पारिभाषिक शब्द के रूप में यथार्थवाद का उल्लेख 1826 में मर्क्यूर फ्रांकेस सिएकल में मिलता है जहाँ अतीत की कलात्मक उपलब्धियों के अनुकरण के बजाय, कलाकार के समक्ष समकालीन जीवन और प्रकृति द्वारा प्रस्तुत प्रतिरूपों या मॉडलों के सच्चे और सटीक चित्रण पर आधारित सिद्धान्त के रूप में इसका उल्लेख किया गया था। 1850 तक बाल्जाक की ‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के उपन्यासों में फ्रांसीसी सामाजिक संरचना के सम्पूर्ण वर्णक्रम का विश्वकोषी चित्रण क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद के साहित्य–शिखर का निर्माण कर चुका था। लेकिन साहित्यिक यथार्थवाद का सचेतन कार्यक्रम उन्नीसवीं शताब्दी के छठे दशक में, कूर्बे की सौन्दर्यशास्त्रीय अवस्थिति से उत्प्रेरित होने के बाद ही सामने आया। कूर्बे की यथार्थवादी अवस्थिति में बाल्जाक के विचारों के साथ ही कला की सामाजिक अर्थवत्ता और अभिव्यंजकता के बारे में तत्कालीन सुप्रसिद्ध कला–आलोचक पियेर जोसेफ़ प्रूदों (जो यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन के प्रसिद्ध अराजकतावादी–समाजवादी नेता भी थे) और जूल्स शाम्पफ्लूरी के विचारों का भी काफ़ी प्रभाव था। संयोगवश ये दोनों ही कूर्बे के घनिष्ठ मित्रों में थे। 1855 में ही कूर्बे ने कला–विषयक अपनी प्रतिबद्धताओं का घोषणापत्र ‘यथार्थवाद’ नाम से प्रस्तुत किया और 1861 में उसने एण्टवर्प में आयोजित कलाकारों की एक सभा में एक वक्तव्य दिया। अपनी इन प्रसिद्ध सैद्धान्तिक कृतियों में कूर्बे ने कला की सामाजिक अर्थवत्ता, उद्गम और पक्षधरता के बारे में अपनी सोच रखते हुए यथार्थवाद की अवधारणा पर प्रकाश डाला है।
कूर्बे उस महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक संक्रमण काल की उपज था और प्रतिनिधि भी, जबकि पूरा यूरोप दुर्द्धर्ष वर्ग–महासमर का क्षेत्र बना हुआ था और उसका भी केन्द्रीय रंगमंच फ्रांस था। सेंट साइमन और फ़ूरिए के काल्पनिक समाजवादी विचार, बुर्जुआ शासन से मोहभंग के शिकार निम्न मध्यवर्ग के साथ ही सर्वहारा वर्ग को भी प्रभावित कर रहे थे। फ्रांस ही वह देश था जहाँ 1831 में लियों शहर में अपने पहले विद्रोह के द्वारा सर्वहारा वर्ग ने राजनीतिक रंगमंच पर अपने तूफ़ानी प्रवेश का पूर्व–संकेत दे दिया था। विद्रोह कुचल दिया गया, लेकिन समाजवाद के स्वप्नों की मृत्यु नहीं हुई। बाब्य़ेफ से लेकर साइमन और फ़ूरिए तक की परम्परा एत्येन काबे के शान्तिपूर्ण कल्पनावादी कम्युनिज़्म, लुई ब्लां के निम्नपूँजीवादी समाजवाद, लुई ब्लांकी के कल्पनावादी कम्युनिज़्म, प्रूदों के निम्न पूँजीवादी अराजकतावाद आदि–आदि अनेकश: विचार–सरणियों में विभाजित होकर आगे विकसित हो रही थी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पूरा यूरोप दुर्द्धर्ष वर्ग–संघर्ष का रणांगन बना हुआ था। एक ओर बुर्जुआ वर्ग सामन्ती अभिजातों के विरुद्ध सत्ता–सुदृढ़ीकरण का निर्णायक संघर्ष लड़ रहा था, दूसरी ओर पूँजीवादी लूट–खसोट के विरुद्ध मज़दूर संघर्षों की उत्ताल तरंगें उठ रही थीं। लुई फिलिप के जुलाई राजतंत्र को भूलुण्ठित कर देने वाली 1848 की फरवरी क्रान्ति में गणतंत्रवादी बुर्जुआ वर्ग और उग्रपरिवर्तनवादी–निम्नपूँजीवादी वर्गों का मज़दूरों ने भी बढ़–चढ़कर साथ दिया। लेकिन श्रम और पूँजी के बीच के तीखे होते अन्तरविरोधों ने जल्दी ही इस संश्रय में दरारें डाल दीं। जून, 1848 में पेरिस के मज़दूरों का इतिहास–प्रसिद्ध विद्रोह भड़क उठा, जिसे सड़कों पर क़त्लेआम के बाद निर्ममतापूर्वक कुचल दिया गया। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि विद्रोह के बर्बर दमन ने समाजवादी विचारों की बुनियाद ठोस बनाने में अहम भूमिका निभाई। साथ ही, मेहनतकश आम जनता को कुछ आमूलगामी परिवर्तन लाने वाले क़ानूनों के द्वारा महत्त्वपूर्ण जनवादी अधिकार देने के लिए बुर्जुआ सत्ता को बाध्य होना पड़ा। शासक वर्ग के विभिन्न धड़ों के बीच के गहराते अन्तरविरोधों के चलते ‘द्वितीय गणतंत्र’ का प्रयोग भी निराशाजनक सिद्ध हुआ। दिसम्बर, 1848 के चुनावों द्वारा लुई नेपोलियन राष्ट्रपति चुना गया और दिसम्बर, 1851 में प्रतिक्रान्तिकारी तख्तापलट के बाद वह फ्रांस का निरंकुश सम्राट बन गया।
ठीक इसी समय, जब यूरोप क्रान्ति के तूफ़ानों का केन्द्र बना हुआ था, सर्वहारा क्रान्ति की वह मार्गदर्शक विचारधारा जन्म ले चुकी थी जिसे अगली शताब्दी आने तक एक प्रचण्ड भौतिक शक्ति बन जाना था। मार्क्स और एंगेल्स द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद का सिद्धान्त विकसित कर चुके थे। 1848 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो’ प्रकाशित हो चुका था। लेकिन जर्मनी और इंग्लैण्ड के विपरीत, फ्रांस के मज़दूर आन्दोलन पर मार्क्स के विचारों का प्रभाव कम ही था। वहाँ विभिन्न अराजकतावादी क्रान्तिकारी और निम्नपूँजीवादी समाजवादी विचारों का प्रभाव अधिक था। लेकिन ये सभी विचार मूलत: क्रान्तिकारी और मज़दूर–हितैषी थे। यह याद रखना होगा कि सर्वहारा संघर्ष की विचारधारात्मक यात्रा का अभी यह पहला ही पड़ाव था।
युवा कूर्बे पेरिस के उन लेखकों–कलाकारों में शामिल था जो 1848–51 के ऐतिहासिक घटना–प्रवाह के निकट साक्षी थे, एक हद तक हिस्सेदार भी थे और प्राय: ये सभी आमूल परिवर्तन के पक्षधर थे। सृजनधर्मा आत्माओं को क्रान्ति की मुक्तिदायिनी स्पिरिट गहराई से आप्लावित कर रही थी तथा नये प्रयोगों की पहलक़दमी को निर्बन्ध कर रही थी। कूर्बे की इस दौर की गतिविधियों की चर्चा से पहले, बेहतर रहेगा कि उसके जीवन के बारे में भी थोड़ी जानकारी ले ली जाए।
कूर्बे का जन्म पूर्वी फ्रांस के जूरा क्षेत्र के ओर्नांस नामक क़स्बे के एक धनी किसान परिवार में 10 जून, 1819 को हुआ था। परिवार की किसानी पृष्ठभूमि और नई बुर्जुआ पहचान ने ग्रामीण फ्रांस के वर्ग–वैषम्य और वर्ग–विभाजित सामाजिक यथार्थ के प्रति कूर्बे की सजग संवेदना को विकसित करने की शुरुआत बचपन में ही कर दी थी। स्थानीय ग्रामीण जीवन और परिवेश के प्रति कूर्बे का जो गहरा लगाव था, वह आगे चलकर उसके कला–सर्जना–संसार के केन्द्रीय भूभाग में स्थापित एक विषय बना। कूर्बे का यह लगाव जीवनपर्यन्त बना रहा। चैदह वर्ष की आयु में उसके कला–प्रशिक्षण की शुरुआत नव–क्लासिकी चित्रकार बैरन ग्रॉस के भूतपूर्व शिष्य पेर बॉद के छात्र के रूप में हुई। 1837 में वह बोसांकों चला गया और वहाँ एक अन्य क्लासिकी चित्रकार फ्लाजूला की अकादमी में प्रशिक्षण लेने लगा। कूर्बे ने व्यवस्थित ढंग से कला की पढ़ाई कभी नहीं पूरी की। दो वर्ष बाद वह पेरिस चला गया जो उस समय न सिर्फ़ कला के मामले में, बल्कि सभी तरह की रैडिकल राजनीतिक गतिविधियों के मामले में पूरे यूरोप का केन्द्र बना हुआ था। वहाँ एक अल्पख्यात चित्रकार स्ट्यूबेन के स्टूडियो में प्रशिक्षण लेने के साथ ही कूर्बे मॉडलों से चित्र बनाता रहा, नियमित रूप से लूव्र म्यूज़ियम में संग्रहीत चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार करता रहा और सैलों (वार्षिक चित्र–प्रदर्शनी) में सफलता के लिए हाथ–पैर मारता रहा। कूर्बे के शुरुआती दिन क़िलता के दिन थे। 1841 से 1847 के सात वर्षों में सैलों की चयन समिति ने उसके द्वारा प्रस्तुत पच्चीस में से मात्र तीन कृतियों को प्रदर्शन के लिए चुना। उसका कोई भी चित्र बिक नहीं सका। इसी दौरान उसकी मुलाक़ात वर्जीनी बिने से हुई जो उसकी मिस्ट्रेस बनी और 1847 में उसके एक बच्चे की माँ भी। 1847 में सैलों में प्रदर्शित उसके एक चित्र पर एक डच डीलर की निगाह पड़ी जिसने जनवरी 1848 में उसे हालैण्ड आमंत्रित किया और एक पोर्ट्रेट बनाने का काम सौंपा।
1848 तक पेरिस के कलाजगत में कूर्बे की पहचान बनने लगी थी, लेकिन तब तक कला के सामाजिक सरोकार और कलाकार की जनपक्षधरता के बारे में कूर्बे के विचार सुनिश्चित शक्ल अख्तियार करने लगे थे। पेरिस क्रान्ति की दहलीज पर खड़ा था। बड़े उथल–पुथल भरे दिन थे। इस समय तक प्रसिद्ध कवि बॉदलेयर, अराजकतावादी राजनीतिज्ञ–पत्रकार प्रूदों और यथार्थवादी लेखक–आलोचक जूल्स शांपफ्लूरी से कूर्बे की दोस्ती परवान चढ़ चुकी थी। कूर्बे के स्टुडियो के बिल्कुल क़रीब स्थित ब्रेसरी आंदलेर नामक कहवाघर 1840 के दशक में फ्रांस के अग्रणी बुद्धिजीवियों, लेखकों और समाजवादी राजनीतिज्ञों के जुटने की प्रमुख जगह था। कूर्बे के मित्रों की चौकड़ी भी यहीं जमती थी और राजनीतिक घटनाओं के अतिरिक्त कला और साहित्य की समकालीन समाज में भूमिका जैसे विषयों पर बहस–मुबाहिसा किया करती थी। ‘यथार्थवाद’ की अवधारणा इन्हीं अनौपचारिक गोष्ठियों में ठोस हुई और यह अनायास नहीं कि ब्रेसरी आंदलेर को बाद में ‘यथार्थवाद का मन्दिर’ नाम से भी जाना जाने लगा। फरवरी, 1848 की क्रान्ति के दौरान कूर्बे ने जन विद्रोह का मुखर होकर पक्ष लिया हालाँकि लड़ाइयों में उसने बहुत कम हिस्सा लिया। उसके मित्र कवि बॉदलेयर ने पेरिस की सड़कों पर चली लड़ाइयों में हिस्सा लेने के साथ ही क्रान्ति के दौरान, शांपफ्लूरी के साथ मिलकर एक पत्रिका ‘ल सलुत पब्लिक’ भी निकाली। इसके मुखपृष्ठ के लिए कूर्बे ने एक रेखांकन बनाया था जो देलाक्रुआ के चित्र ‘जनता की अगुआई करती मुक्ति’ की पैरोडी था। उस उथल–पुथल भरे राजनीतिक माहौल में भी वार्षिक चित्र–प्रदर्शनी का आयोजन हुआ और उसमें एक साथ कूर्बे की दस कृतियाँ प्रदर्शित हुर्इं। अकादमिक क्लासिसिज़्म के प्रभावों से तो कूर्बे पहले ही मुक्त हो चुका था। सेल्फ पोर्ट्रेट्स की एक श्रृंखला और ‘देहात में प्रेमी’ (1844) जैसे कुछ चित्रों के बाद वह रोमैण्टिसिज़्म से भी दूरी लेने लगा था जो 1848 तक आते–आते एक निर्णायक विच्छेद बन चुका था। इन परम्पराओं को खारिज करने के बाद कूर्बे ने, जैसा कि वह कहा करता था, “सकारात्मक” कला की एक नई श्रेणी को अपनाया जो जीवन को एक अविरल प्रवाह के रूप में पुनर्सृजित करती थी, जगत की भौतिक सत्ता और महत्ता को अभिपुष्ट करती थी और उन सभी संप्रत्ययों–परिघटनाओं के कलात्मक मूल्य को अस्वीकार करती थी जो अनुभूत, इन्द्रियगोचर और “ठोस” नहीं थे।
दैनन्दिन जीवन की महत्ता और उसमें निहित “कविता” को उद्घाटित करने की दुर्निवार इच्छा से प्रेरित कूर्बे ने अब राष्ट्रीय जीवन के उस पक्ष को विस्तृत और सूक्ष्म चित्रण के लिए चुना, जिसके यथार्थ की प्रामाणिकता से वह परिचित था। यह फ्रांसीसी राज्यों का देहाती जीवन था। ‘ओर्नांस में भोजन के बाद’ (After Dinner at Ornans, 1849), ‘ओर्नांस में अंत्येष्टि’ (Burial at Ornans), (1849) और ‘ग्रामीण बालाएँ’ (The village Damsels) (1851), जैसे चित्रों में कूर्बे ने विशाल कैनवस पर यथार्थवादी स्पिरिट को मूर्त रूप दिया। परिसीमित ‘स्पेस’, ‘फॉर्म्स’ का स्थैतिक सन्तुलन आकृतियों का सघन, चित्रवल्लरी–सरीखा समूहीकरण (जैसे कि ‘ओर्नांस में अंत्येष्टि’ में) तथा मन्द–मद्धम रंग–पट्टिकाएँ-कूर्बे की इस दौर की कलाकृतियों की संरचना में ये अभिलाक्षणिक विशिष्टताएँ उल्लेखनीय हैं।
1848 की क्रान्ति के बाद क़ायम द्वितीय गणतंत्र अल्पजीवी सिद्ध हुआ और लुई नेपोलियन द्वारा सत्तापहरण करके स्वयं को सम्राट घोषित करने के साथ ही उसकी (यानी द्वितीय गणतंत्र की) अकाल मृत्यु हो गई। इन तूफ़ानी सालों के गुज़र जाने के काफ़ी समय बाद, कूर्बे ने लिखा था : “1848 में, प्रूदों और मैं, सिर्फ़ दो ऐसे लोग थे जो तैयार थे।” निश्चित ही, यह गर्वोक्ति एकदम सही नहीं प्रतीत होती, लेकिन इतना अवश्य है कि कूर्बे ने सर्वहारा जनों, किसानों और आमूल परिवर्तनवादी निम्न बुर्जुआ वर्ग के साथ खुली, सक्रिय पक्षधरता का बेपरवाह–बेलौस प्रदर्शन किया और पुनर्जागरणकाल के महान कलाकारों की तरह अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए तलवार उठाकर लड़ने और जेलखाने में ठूँस दिए जाने के लिए वह हमेशा तैयार रहा।
1848 के सैलों में कूर्बे की प्रविष्टियों को आम जनता के साथ ही आलोचकों ने भी मुक्त कण्ठ से सराहा। ‘ओर्नांस में भोजन के बाद’ शीर्षक कृति को स्वर्णपदक मिला और सरकार ने उसे ख़रीद लिया। इस स्वर्णपदक के चलते भविष्य में सैलों में प्रविष्टि के लिए चयन–प्रक्रिया से गुज़रने के झंझट से कूर्बे को छूट मिल गई। द्वितीय गणतंत्र के तीन वर्षों के दौरान कूर्बे की यथार्थवादी कला रोमैण्टिसिज़्म की रही–सही प्रभावछायाओं से भी मुक्त होकर तेज़ी से परवान चढ़ी। कूर्बे ने ओर्नांस के परिचित दृश्यों, परिवार, मित्रों, किसानी जीवन आदि को विषय–वस्तु बनाते हुए अपनी नई चित्र–भाषा और नया बिम्ब–विधान विकसित किया। इस दौर के चित्रों में, ख़ास तौर पर विशाल कैनवस पर चित्रित ‘ओर्नांस में अंत्येष्टि’ उल्लेखनीय है। इसे कूर्बे ने 1849 की गर्मियों में तैयार किया और 1850–51 के सैलों में यह प्रदर्शित किया गया। यह एक चित्रवल्लरी–सदृश ‘कम्पोज़ीशिन’ है, जो तत्काल ही ध्यान खींचता है और चौंकाता है। इस चित्र की यथार्थ–शैली को, इसकी “कुरूप” आकृतियों को, चित्र में दिखलाए गए शराब के नशे में धुत्त लगते कर्मचारियों को और “कुरूपता” के इस संयोजन की विशालता को आलोचकों ने रत्ती भर भी पसन्द नहीं किया। यथार्थवादी शैली पर रोषपूर्ण आलोचनाओं की एक लहर–सी टूट पड़ी। दरअसल, इस काम में इस चित्र ने महज़ एक निमित्त की भूमिका निभाई। यह समय था जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर निर्णायक तौर पर हावी हो रही थी। समाज के माहौल के हिसाब से कला जगत का माहौल भी बदल रहा था। लुई नेपोलियन की निरंकुश सत्ता के अधिकारियों ने कूर्बे की कला को सीधे विद्रोह की वकालत के रूप में देखा। उल्लेखनीय है कि लुई नेपोलियन द्वारा सत्तापहरण और निरंकुश बुर्जुआ सत्ता की स्थापना के बाद फ्रांस के कई इलाक़ों में किसान–विद्रोह हुए। जिन किसानों ने जून, 1848 के विद्रोह में सर्वहाराओं का साथ नहीं दिया, इतिहास उन्हें उसकी सज़ा दे रहा था और पश्चाताप का अवसर भी। किसान विद्रोहों को कुचल दिया गया, लेकिन उनका भय नई सत्ता की छाती पर लम्बे समय तक प्रेत की तरह सवार रहा। इस माहौल में, कला जगत के सिरमौरों की आँखों में कूर्बे का ठोस, खुरदरा, अपारम्परिक यथार्थवाद बुरी तरह चुभ रहा था और ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले उसके चित्रों में उकेरे गए नायकत्व से विभूषित अक्खड़, समझौताहीन किसान चरित्र नये सत्ताधारियों को बहुत परेशान कर रहे थे। प्रूदों, एक कला–आलोचक के रूप में, इन चित्रों की व्याख्या समसामयिक स्थितियों पर राजनीतिक वक्तव्य के रूप में पेश कर रहा था जो सत्ताधारियों और कला–जगत के नौकरशाहों के लिए और अधिक असुविधाजनक था।
किसानी जीवन मध्यकाल से ही चित्रकला का विषय बनता रहा। पिएतर ब्रूगेल (1525–69) किसानी जीवन के यथार्थ को उकेरने वाला, पुनर्जागरण काल का अग्रतम चित्रकार था। कूर्बे के समकालीन जां–फ्रांस्वा मिलेत (1814–75) ने भी फ्रांस के किसानों के जीवन को अपने चित्रों का विषय बनाया। 1848 की क्रान्ति के बाद ग्रामीण जीवन और किसान, फ्रांस के कलाकारों के केन्द्रीय सरोकार का एक विषय बन गए थे, लेकिन कूर्बे का यथार्थवादी ‘ट्रीटमेण्ट’ बाक़ी सबसे अलग था। जैसे मिलेत द्वारा प्रस्तुत किसान अपनी ज़मीन से जुड़े हुए नायक सदृश थे जो समकालीन सामाजिक मुद्दों से सुरक्षित दूरी पर थे, सामाजिक रूप से अचेत “धरती–पुत्र” थे जिन्हें भावुकतापूर्ण शैली में चित्रित किया गया था। इसके विपरीत, कूर्बे ने समाज में किसानों की स्थिति को, नितान्त अभावुकतापूर्ण शैली में, एक बेहद कटु यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया। साथ ही, कूर्बे के आम ग्रामीण चरित्र कष्टसाध्य–श्रमसाध्य स्थितियों में जीने वाले ख़ुद्दार और अक्खड़ लोग लगते हैं। कूर्बे के इन चित्रांकनों से कुछ ही वर्ष पूर्व महान यथार्थवादी लेखक बाल्जाक ने अपने कुछ उपन्यासों में किसानी जीवन के नग्न–क्रूर यथार्थ को प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत किया था। इनमें से सर्वोत्कृष्ट कृति ‘किसान’ 1848 की क्रान्ति से चार वर्ष पहले ही प्रकाशित हुई थी। कहा जा सकता है कि ग्रामीण जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने में, साहित्य में जो युगान्तरकारी भूमिका बाल्जाक ने निभाई थी, वही चित्रों की दुनिया में कूर्बे ने निभाई।
यही नहीं, हम कूर्बे और बाल्जाक के यथार्थवाद की तुलना कुछ और भी व्यापक अर्थ–सन्दर्भों में कर सकते हैं। बाल्जाक ने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ श्रृंखला के अपने उपन्यासों को पहले ‘उन्नीसवीं शताब्दी की जीवन–चर्या का अध्ययन’ शीर्षक दिया था। कूर्बे का चित्र–संसार भी वस्तुत: उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर आठवें दशक तक के जीवन के सभी पक्षों का सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करता है, एक ऐसा कलात्मक पुनर्सृजन प्रस्तुत करता है जिसे निस्संकोच ऐतिहासिक अभिलेख का दर्जा भी दिया जा सकता है। बाल्जाक की ही तरह कूर्बे ने भी अपने चित्रों के माध्यम से फ्रांस के विभिन्न वर्गों के निजी जीवन, प्रान्तीय जीवन, शहरी जीवन और राजनीतिक जीवन के चित्र रचते हुए संस्कृति और जीवन–शैली के, सामाजिक द्वन्द्वों के और जीवन–दृष्टियों के टकरावों के चित्र एक व्यापक फलक पर उपस्थित किए। फ्रेडरिक एंगेल्स ने बाल्जाक के इस “भव्यतम गुण” की सर्वाधिक प्रशंसा की है कि वे “स्वयं अपनी वर्ग–सहानुभूतियों और राजनीतिक पूर्वाग्रहों के विरुद्ध खड़े होने के लिए विवश हुए” और कि “उन्होंने भविष्य के वास्तविक लोगों को वहाँ देखा, जहाँ और केवल जहाँ, वे उस समय मिल सकते थे।” एंगेल्स ने इसे यथार्थवाद की सबसे महती विजयों में से एक बताया। कूर्बे ने भी भविष्य के वास्तविक लोगों को उनकी वास्तविक जगह पर देखा और साथ ही, उनके जीवन और चिन्तन की भविष्योन्मुख पथ–रेखा की भी पहचान–पड़ताल की। ऐसा वह इसलिए कर सका कि उसकी वर्ग–पक्षधरता सचेतन थी। बाल्जाक विचारों से ‘लेजिटिमिस्ट’ थे, लेकिन कूर्बे सचेतन तौर पर सर्वहारा वर्ग का और उसके मुक्ति–संघर्षों का पक्षधर कलाकार था। वह उत्कट क्रान्तिकारी जनवादी था जो, दुर्भाग्यवश, ऐतिहासिक भौतिकवादी विचारों के सम्पर्क में तो नहीं आ सका लेकिन अराजकतावादी समाजवादी विचारों का उस पर गहन प्रभाव था। मुमकिन है कि कूर्बे प्रूदों के बजाय यदि कार्ल मार्क्स की मित्र–मण्डली में शामिल होता तो हाइनरिष हाइने, वेयेर्त और फ्रैलिगराथ की तरह वह भी शायद वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को ही अपनाता। मेहतनकशों के प्रति कूर्बे की सचेतन पक्षधरता उसके ‘पत्थर तोड़नेवाले’ (The Stonebreakers, 1849) जैसे चित्रों में एकदम स्पष्ट देखी जा सकती है।
दिसम्बर, 1851 की प्रतिक्रान्तिकारी घटनाओं और बहुतेरे प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के पक्ष–परिवर्तन से कूर्बे का मनोबल नहीं टूटा। उलटे उसकी विद्रोही मनोवृत्ति और अधिक हठी हो गई। यथार्थवादी शैली के अवसरवादी आलोचक जो उसके ऊपर टूट पड़े थे, वह उन्हें तिलचट्टों–भुनगों से अधिक अहमियत नहीं देता था। धारा के विरुद्ध वह अडिग खड़ा रहा और सत्ताधारियों की धमकियों और प्रलोभनों का निर्विकार भाव से तिरस्कार करता रहा। सत्ताधारियों को उकसाने–चिढ़ाने में भी उसे विशेष सन्तोष मिलता था। 1853 में सरकार ने एक बार फिर उसकी ओर समझौते के लिए हाथ बढ़ाया। ललित कला के निदेशक कोम्त द नेवर्केके ने कूर्बे से भावी विश्व–प्रदर्शनी के लिए कोई महत्त्वपूर्ण, बड़ी कलाकृति प्रस्तुत करने का प्रस्ताव रखा, बशर्ते कि चित्र का एक रेखांकन पहले ही प्रस्तुत कर दिया जाए। कूर्बे ने इस प्रस्ताव को अविलम्ब अस्वीकार कर दिया और कहा कि यह कलाकार की बौद्धिक स्वतंत्रता में अवांछित हस्तक्षेप है। इसका नतीजा यह हुआ कि कूर्बे की तीन कलाकृतियाँ प्रदर्शनी के लिए अस्वीकृत कर दी गर्इं। लेकिन कूर्बे ने हार नहीं मानी। 1855 में जब अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शनी शुरू हुई तो कूर्बे ने उसी के समान्तर एक मण्डप में अपनी एकल प्रदर्शनी लगा दी, जिस घटना की चर्चा लेख की शुरुआत में की जा चुकी है। 1853 की सैलों में एक धनी फाइनेंसर के बेटे अल्फ्र”ेड ब्रुयास से कूर्बे की भेंट हो चुकी थी। ब्रुयास अपना पूरा जीवन और सम्पत्ति कला–संग्रह और कलाकारों के संरक्षण में लगाने के लिए प्रतिबद्ध था। जब तक वह जीवित रहा, कूर्बे का वफ़ादार संरक्षक और मददगार बना रहा।
1855 में ‘यथार्थवाद मण्डप’ की समान्तर प्रदर्शनी के बाद का समय कूर्बे के लिए निजी तौर पर काफ़ी संकटपूर्ण रहा। वर्जीनी बिने कूर्बे का घर छोड़कर चली गई। कूर्बे के बेटे को भी वह अपने साथ ले गई। कूर्बे को इससे भावनात्मक आघात तो लगा, पर उसने इसे भी अपनी प्रतिबद्धताओं की क़ीमत समझकर अपने मन को समझा लिया। उसी समय एक मित्र को लिखे गए पत्र में उसने लिखा था कि उसकी कला ने उसे लगातार व्यस्त बनाए रखा है। साथ ही, उसने यह भी लिखा है कि एक शादीशुदा आदमी हर हाल में प्रतिक्रियावादी होता है। कूर्बे का यह सूत्रीकरण अतिरेकी हो सकता है पर यह कूर्बे की उस दौर की मन:स्थिति को दर्शाता है और साथ ही, प्रयोगधर्मा, अन्वेषी, विद्रोही सर्जकों के आत्मिक जीवन के उस सान्द्र दुख भरे तनाव को भी सामने लाता है, जो प्राय: उन्हें पारिवारिक और आन्तरिक सम्बन्धों के दायरे में जीवनपर्यन्त बेधता–बींधता रहता है। कूर्बे के हठी, अनम्य विद्रोही और ज़िन्दादिल व्यक्तित्व का अन्तर्तम बेहद सुकोमल–संवेदनशील था और उस नीम अँधेरे रहस्यमय ‘आत्मा के अंचल’ की एक झलक सी. प्रस्तुत करते हुए उसने एक बार एक दोस्त को लिखा था : “मेरे इस हँसते हुए मुखौटे के पीछे, जिसे तुम जानते हो, मैं दुख और कड़वाहट छिपाए रहता हूँ, और एक उदासी जो ख़ून पीने वाली पिशाचिनी के समान लगातार मेरे हृदय से लिपटी रहती है। जिस समाज में हम रहते हैं, उसमें रिक्तता तक जा पहुँचना बहुत सहज–सुगम होता है।” ग़ौरतलब है कि अपने निजी दुख के कारणों का विश्लेषण भी कूर्बे नितान्त वस्तुपरक ढंग से करते हुए इसका कारण सामाजिक परिवेश में ढूँढ़ता है और शायद यही वह चीज़ थी जिसके चलते प्रतिकूलतम स्थितियों के सामने भी अपनी सर्जनात्मकता की इंच–इंच हिफ़ाज़त करते हुए कूर्बे अजेय तना खड़ा रहा और अपनी प्रतिबद्धता की ख़ातिर सड़क पर उतरकर मेहनतकशों के साथ बैरिकेड्स के पीछे जा डटने में भी उसे कोई हिचक नहीं हुई-न तो 1848 में और न ही 1871 के महान पेरिस कम्यून के दिनों में। जेल और निर्वासन उसे तोड़ नहीं सके क्योंकि उसके पास दुख के कारणों को समझने की एक वैज्ञानिक दृष्टि थी और उनके ख़िलाफ़ जूझने की एक दुर्निवार–दुर्दान्त युयुत्सा भी। कूर्बे जीवन और प्रकृति के सौन्दर्य का चिरअतृप्त–पिपासु प्रेमी था, और जिन्हें यह समाज उस सौन्दर्य–चेतना से सर्वथा पृथक्कृत करके अमानवीय स्थितियों में जीने को बाध्य करता है, उनके मानवीय अधिकारों, गरिमा और नैसर्गिकता के अधिकारों की ख़ातिर अपना सब कुछ गँवाकर लड़ने के लिए जीवनपर्यन्त वह कटिबद्ध रहा।
1855 की प्रदर्शनी के बाद कूर्बे को कई झटकों का, एक के बाद एक सामना करना पड़ा। उसके राजनीतिक ‘मित्र–दार्शनिक–मार्गदर्शक’ प्रूदों को क्रान्ति के दौरान की अपनी गतिविधियों के कारण जेल की सज़ा मिली और बुशों को निर्वासन का दण्ड मिला। यथार्थवाद की अवधारणा विकसित करने में अन्यतम सहयोगी की भूमिका निभाने वाला मित्र शाम्पफ्लूरी कूर्बे की लगातार दृढ़ होती समाजवादी प्रतिबद्धताओं से असहमति प्रकट करते हुए ख़ुद को उससे अलग कर चुका था। अवसरवादी कला–आलोचक कूर्बे और उसकी यथार्थवादी शैली पर आरोपों–भर्त्सनाओं की बौछार कर रहे थे। इधर सत्ता की कोपदृष्टि कूर्बे पर लगातार टिकी हुई थी और कभी भी उसे सलाखों के पीछे धकेला जा सकता था। इस समय तक फ्रांस के बाहर कूर्बे और उसकी शैली की ख्याति काफ़ी फैल चुकी थी। इसलिए उसने ज़्यादा समय देश से बाहर बिताने का फ़ैसला किया। 1855 से 1870 के बीच वह ज़्यादातर विदेश में ही रहा। फ्रैंकफुर्ट में काफ़ी सम्मान के साथ, एक पूरा स्टूडियो ही उसे काम करने के लिए स्थानीय अकादमी की ओर से भेंट किया गया। नार्मण्डी–तट पर, त्रुविल में वह जेम्स व्हिस्लर से मिला। समुद्र के चित्र और स्थानीय सुन्दरियों के पोट्रेट्स बनाकर दोनों ने ठीक–ठाक कमाई कर ली। एत्रतात में उसने कुछ दिनों तक युवा मोने (Monet) के साथ काम किया। जर्मनी, हालैण्ड, बेल्जियम और इंग्लैण्ड में उसकी प्रदर्शनियाँ आयोजित हुर्इं और उसे ढेरों सम्मान मिले। बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड द्वितीय ने उसे एक पदक दिया और बवेरिया के शासक लुडविग द्वितीय ने उसे ‘ऑर्डर ऑफ सेण्ट माइकल’ से सम्मानित किया। 1870 में फ्रांस–प्रशा युद्ध के ठीक पहले, फ्रांस की सरकार ने एक बार फिर मेल–मिलाप के लिए उसकी ओर हाथ बढ़ाया और उसे ‘लीजन ऑफ ऑनर’ प्रस्तावित किया गया जिसे उसने शान के साथ यह कहते हुए ठुकरा दिया कि “यह कला में राजकीय हस्तक्षेप का एक उदाहरण है।” जिस सरकार को वह अपनी जनता के ख़िलाफ़ मानता था, उससे समझौता किसी भी सूरत में उसे कुबूल न था।
कूर्बे का राजनीतिक गुरु और मित्र प्रूदों तीन वर्ष की जेल की सज़ा काटने के बाद रिहा होकर बेल्जियम चला गया था। वहाँ से 1862 में वह पेरिस लौट आया। उसके बहुतेरे अनुयायी उसका साथ छोड़ चुके थे। कई प्रूदोंपन्थियों ने तो 1863 के चुनाव में हिस्सा लिया जिसकी प्रूदों ने कटु आलोचना की। हालाँकि फ्रांस के रैडिकल्स पर फिर भी प्रूदों का प्रभाव था, लेकिन पूरे यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन और पहले इण्टरनेशनल में कार्ल मार्क्स के विचारों को मानने वालों का निर्णायक प्रभाव स्थापित हो चुका था। अपने अन्तिम वर्षों में प्रूदों कला के विभिन्न प्रश्नों पर लम्बी टिप्पणियाँ लिखने में अपना समय ख़र्च कर रहा था। 1865 में मृत्युशैया से कूर्बे को लिखे गए एक पत्र में उसने इसके लिए सख्त अफ़सोस ज़ाहिर किया था कि कूर्बे की चित्रकला के पक्ष में उसने ‘कला के सिद्धान्तों के बारे में’ शीर्षक जिस पुस्तक की शुरुआत की थी, वह पूरी न हो सकी।
1865 में प्रूदों की मृत्यु के बाद उसके ज़्यादातर समर्थक रूसी अराजकतावादी बाकुनिन के पीछे गोलबन्द हुए। बाकुनिन ने पहले इण्टरनेशनल और यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में जो भयंकर विध्वंसक भूमिका निभाई, वह एक अलग ही कहानी है। कूर्बे का बाकुनिन से कोई सम्पर्क या निकटता नहीं बनी। लेकिन मज़दूर आन्दोलन के वैचारिक मतभेदों की गहराई में गए बग़ैर वह समाजवाद के लक्ष्य और फ्रांस के मज़दूरों–किसानों के प्रति निष्ठापूर्वक प्रतिबद्ध बना रहा।
1870 में प्रशा से पराजय के बाद नेपोलियन तृतीय की सत्ता भरभराकर ढह गई और फ्रांस में तृतीय गणतंत्र की स्थापना हुई। कूर्बे को गणतंत्र के कला आयोग का अध्यक्ष चुना गया। फरवरी, 1871 के नेशनल असेम्बली के चुनाव में भी कूर्बे ने हिस्सा लिया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। लेकिन वह कौंसिलर चुन लिया गया और इसी हैसियत से पेरिस कम्यून की स्थापना के बाद कूर्बे उसका सदस्य भी बना।
18 मार्च 1871 को पेरिस की मेहनतकश आबादी जब सड़कों पर उतर आई और ‘नेशनल गाडर्स’ की अगुआई में सत्ता पर कब्जा करके थिएर सरकार को पेरिस से मार भगाया, तो कूर्बे को अपना पक्ष चुनने और भूमिका तय करने में कोई हिचक नहीं हुई। वह कलाकार से तत्क्षण एक श्रमिक योद्धा बन गया। 26 मार्च 1871 को कम्यून का निर्वाचन हुआ और 28 मार्च को नगर भवन के सामने आम सभा में उसकी घोषणा हुई। कूर्बे भी कम्यून का सदस्य चुना गया। इतिहास में पहली बार मज़दूर वर्ग की सत्ता क़ायम हुई, जो सिर्फ़ 72 दिनों तक चली लेकिन भविष्य की सर्वहारा क्रान्तियों के लिए इतने बहुमूल्य सबक दे गई कि एक अक्षुण्ण आलोक–स्तम्भ के रूप में वह आज भी महत्त्वपूर्ण बनी हुई है।
कूर्बे ने कम्यून की सभी कार्रवाइयों में और उसकी हिफ़ाज़त की लड़ाई में एक सच्चे, वीर कम्युनार्ड के समान हिस्सा लिया। कम्यून ने नेपोलियन प्रथम की विजय की स्मृति में स्थापित वान्दोम स्तम्भ को सैन्यवाद का प्रतीक मानकर गिराने का जो निर्णय लिया था, उसमें कूर्बे की अहम भूमिका थी। पेरिस के कलाकारों की जिस सभा में नेपोलियन की मूर्ति गिराकर उसकी जगह स्वतंत्रता की मूर्ति प्रतिष्ठापित करने का निर्णय लिया गया था, उसकी अध्यक्षता कूर्बे ने ही की थी। कार्ल मार्क्स ने अपनी टिप्पणियों में इस सभा का उल्लेख किया है (देखिए, कार्ल मार्क्स, ‘अख़बार से टिप्पणियाँ’, साहित्य और कला : मार्क्स–एंगेल्स, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1981, पृ. 195–196)
कम्यून के पतन के बाद कूर्बे को गिरफ्तार कर लिया गया। यूरोपव्यापी प्रसिद्धि के कारण उसके प्राण तो बच गए लेकिन उसे छह माह क़ैद और 500 फ्रैंक जुर्माने की सज़ा हुई। जेल में वह गम्भीर रूप से बीमार हो गया। इसी बीच उसका इकलौता बेटा भी चल बसा। मई 1873 में नई सरकार ने यह आदेश दिया कि वान्दोम स्तम्भ के पुनर्निर्माण का पूरा ख़र्च दण्ड के तौर पर कूर्बे को देना होगा। यह रक़म लगभग तीन लाख फ्रैंक बैठती थी, जो कूर्बे किसी भी सूरत में नहीं दे सकता था। नतीजतन उसे देश छोड़कर भागना पड़ा। उसने स्विट्रजरलैण्ड में, ला तूर द पेओ में शरण ली। यहाँ उसने कम्यून के निर्वासित समर्थकों से जीवनपर्यन्त सम्पर्क बनाए रखा। फ्रांस वापस लौटने की उम्मीद उसने अन्तिम सांस तक नहीं छोड़ी। वह बहुत अधिक शराब पीने लगा था, लेकिन चित्र बनाने का सिलसिला लगातार जारी रहा। ड्रॉप्सी रोग के संक्रमण से वर्ष 1877 के आख़िरी दिन उसकी मृत्यु हो गई।
कूर्बे के यथार्थवाद की सादृश्यता एक ओर यदि बाल्जाक, स्टेण्ढाल, फ्लॉबेयर, डिकेंस, थैकरे आदि के आलोचनात्मक यथार्थवादी गद्य से स्थापित की जा सकती है तो दूसरी ओर हाइनरिष हाइने और वेयेर्त जैसे समाजवादी कवियों की पहली पीढ़ी की कविता की भौतिकता, ठोसपन, क्रान्तिकारी स्वच्छन्दता और सघन ऐन्द्रिकता से तथा वाल्ट व्हिटमन की ओजस्वी क्रान्तिकारी जनवादी काव्य–चेतना से भी समतुल्यता के कुछ बिन्दु देखे जा सकते हैं। कूर्बे की चित्रकला में यदि क्लासिसिज़्म और रोमैण्टिसिज़्म के निषेध और अतिक्रमण का एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष इन धाराओं में निहित मानववादी, लौकिकतावादी प्रवृत्तियों और यथार्थवादी रुझानों से जुड़कर उन्हें आगे विस्तार देने का भी है।
प्रारम्भिक पुनर्जागरणकालीन चित्रकला में मानववाद और इहलोकवाद के जो मूल्य समाविष्ट हुए थे, उनकी तार्किक परिणति के तौर पर परवर्ती पुनर्जागरणकाल में यथार्थवादी पद्धति और शैली के तत्त्व प्रकट होने लगे थे। लेकिन चित्रकला में सांगोपांग रूप में यथार्थवादी पद्धतियाँ और शैलियाँ हमें अठारहवीं शताब्दी में, प्रबोधनकालीन विचारों के प्रभाव में देखने को मिलती हैं। वह दौर था जब कला के केन्द्र में जनवादी मूल्य अपने को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। इस दौर में “थर्ड एस्टेट” के शार्दें, ग्रेज़, हूदों (फ्रांस) और होगार्थ (ब्रिटेन) जैसे कलाकारों की कलाकृतियों में आम लोगों का दैनन्दिन जीवन और व्यक्तिगत चरित्रों की विशिष्टताओं के साथ ही सामाजिक लोकाचारों का व्यंग्यात्मक चित्रण ख़ूब देखने को मिलता है। फ्रांसीसी कलाकार डेविड और इंग्रे के क्लासिसिस्ट पोर्ट्रेट्स में व्यक्ति के रूप में मनुष्य की सत्ता या अस्मिता में गहन अभिरुचि उद्घाटित होती है। यथार्थवादी पद्धति के उद्भव में गोया की सर्जनात्मक कृतियों का एक विशिष्ट स्थान है। गोया ने पर्यावरण की “सजीव कविता” की “खोज़ की और सामाजिक अन्तरविरोधों के निर्मम विश्लेषण की नई पद्धतियाँ ईजाद कीं। गोया मुखर अभियोगात्मक कला (‘एक्युज़ेटरी आर्ट’) के प्रवर्तकों में से एक था।
अठारहवीं शताब्दी के अन्त से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी का लगभग एक तिहाई समय रोमैण्टिसिज़्म के विकास का कालखण्ड था जब पोर्ट्रेट्स, ज़ांर (genre) पेण्टिंग्स और लैण्डस्केप्स में यथार्थवादी प्रवृत्तियाँ तेज़ी से मज़बूत हुर्इं। फ्रांस में जेरिको और देलाक्रुआ प्रकृति से और साथ ही, जीवन्त यथार्थ से, उसके तमाम खौलते–खदबदाते अन्तरविरोधों–तनावों से सीधे मुखातिब हुए। सच पूछें तो इन्हीं कलाकारों ने दौमिए की कला की पूर्वपीठिका तैयार की। दौमिए ने समकालीन जीवन की नाटकीय अभिलाक्षणिकताओं को एक विशिष्ट अर्थ–गाम्भीर्य के साथ अनावृत्त करने का काम किया। दौमिए वह कलाकार था जिसने रोमैण्टिसिज़्म की धारा की बुर्जुआ–विरोधी भावनाओं को सामाजिक अन्तरविरोधों के सुसंगत अध्ययन के उपकरण में रूपान्तरित कर देने की गम्भीर कोशिश की। कोरो और बारबिज़न स्कूल के रूसो और दोबिन्यी जैसे महारथी कलाकारों ने प्रकृति की सर्वाधिक निगूढ़ और विचक्षण स्थितियों और ‘मोटिफों’ को हृदयंगम किया तथा लैण्डस्केप–पेण्टिंग में यथार्थवादी शैली के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यूँ तो उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप के अन्य देशों में भी क्रान्तिकारी जनवादी अन्तर्वस्तु से युक्त यथार्थवादी शैलियों का विकास हुआ, लेकिन आलोचनात्मक यथार्थवाद के कला–सिद्धान्त सबसे मुखर रूप में फ्रांस और रूस के कलाकारों की कृतियों में सामने आए। उपरोक्त, फ्रांसीसी चित्रकारों के अतिरिक्त रूस में किप्रेन्स्की और त्रोपिनिन के पोर्ट्रेट्स में, किसानों के दैनन्दिन जीवन के विषयों पर केन्द्रित वेनेत्सियानोव के चित्रों में और श्चेद्रिन के लैण्डस्केप्स में यथार्थवादी प्रवृत्तियाँ स्पष्टत: दीखती हैं। ब्रिउलोक के कृतित्व ने यथार्थवाद के सिद्धान्तों पर सचेतन आधृति की आधारशिला रखी। इवानोव ने प्रकृति के प्रत्यक्ष अध्ययन को सामान्य दार्शनिक सामान्यीकरणों के साथ संश्लेषित करके प्रस्तुत किया। फ़ेदोतोव को उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी जनवादी यथार्थवाद का प्रवर्तक माना जाता है। कला में उनकी भूमिका कुछ वैसी ही थी जैसी दर्शन और साहित्य में चेर्नीशेव्स्की की।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, अलग–अलग यूरोपीय स्कूलों के चित्रों में यथार्थवाद परिपक्व रूप में तथा राष्ट्रीय और शैलीगत वैविध्य के साथ विकसित हुआ। यह दौर था जब सामाजिक यथार्थ के कलात्मक पुनर्सृजन, पर्यावरण और इसकी विविध परिघटनाओं के सूक्ष्म–सजग अध्ययन तथा दैनन्दिन जीवन के सौन्दर्यात्मक–कलात्मक मूल्यों पर अत्यधिक ज़ोर दिया गया। इस यथार्थवादी पद्धति की सामान्य अभिलाक्षणिकताएँ थीं-मुखर सामाजिक रुझान, सामाजिक परिघटनाओं का आलोचनात्मक अध्ययन, मानव–चरित्रों के सामाजिक अनुकूलन पर बल और यथार्थ का एक जीवन्त गतिमान परिघटना के रूप में अवबोधन।
कूर्बे वह कलाकार था जिसकी कलात्मक सर्जनात्मकता में उस समय तक विकसित यथार्थवाद की सभी प्रवृत्तियों–रुझानों को सर्वाधिक प्रातिनिधिक अभिव्यक्ति मिली। अपनी यथार्थवादी सौन्दर्य–दृष्टि और कला–शैली विकसित करते हुए कूर्बे ने क्लासिसिज़्म से मनुष्य की सत्ता और नायकत्व में गहरी आस्था को लिया और रोमैण्टिसिज़्म से उसने बुर्जुआ–विरोधी विद्रोह और यथास्थिति की निर्भीक आलोचना की चित्रभाषा अपनाई। लेकिन स्वत्व के स्थैतिक चरित्र और परिशुद्धता का जो ‘कल्ट’ क्लासिसिज़्म की खासियत थी, उसका निषेध करते हुए कूर्बे ने यथार्थ का ‘ट्रीटमेण्ट’ काल के अविरल प्रवाह के रूप में किया। इसी तरह रोमैण्टिसिज़्म की परम्परा में चीज़ों के आदर्शीकरण और अवास्तविक सौन्दर्यीकरण (एस्थेटाइज़ेशन) की जो प्रवृत्ति थी, दैनन्दिन आम जीवन की स्थूलताओं–तुच्छताओं के प्रति उपेक्षा का जो भाव था, आत्मिक जीवन का अन्वेषण करते हुए अतिरिक्त अन्तर्मुखता तक चले जाने की जो प्रवृत्ति थी और वर्तमान से विद्रोह करते हुए अतीत को ‘ग्लोरिफ़ाई’ करने का जो विचलन था, उसका कूर्बे ने निषेध किया।
यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी को सचेतन तौर पर विकसित करने वाला कूर्बे पहला कलाकार था। वह एक सिद्धान्तकार–कलाकार था। और ऐसा हो पाने में उसकी अपूर्व सफलता का बुनियादी कारण यह था कि अपनी कला और विचारों को लेकर वह कभी भी स्टुडियो की चौहद्दी में क़ैद नहीं रहा। हमेशा वह संघर्षों के बीच रहा। कूर्बे कलाकारों–साहित्यकारों की उस पहली पीढ़ी का सदस्य था जिन्होंने सर्वहारा वर्ग, मेहनतकश जनगण और समाजवाद के प्रति खुली प्रतिबद्धता की घोषणा की। यही कारण है कि कूर्बे अपने कई चित्रों में आलोचनात्मक यथार्थवाद की सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ और समाजवादी यथार्थवाद की दहलीज पर खड़ा हुआ प्रतीत होता है।
श्रम, श्रमिक और श्रम–प्रक्रिया में कूर्बे की विशेष दिलचस्पी ख़ास तौर से उल्लेखनीय है। श्रम को कूर्बे एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखता है जो एक ओर तो इन्सान को निस्तेज–निढाल कर देती है, लेकिन दूसरी ओर उसके उदात्तीकरण तथा मुक्ति के आधारभूत कारक तत्त्व की भूमिका भी निभाती है। इसी दृष्टिकोण के चलते कूर्बे ऐसे बिम्बों के सृजन में सफल रहा जो ओजपूर्ण, प्रातिनिधिक और वास्तुशिल्पीय ढंग से अभिव्यजंनाशील थे। इस सन्दर्भ में उसके ‘पत्थर तोड़ने वाले’ (1849) और ‘ओसानी करने वाले’ (The Winnowers, 1854) जैसे चित्र विशेष तौर पर द्रष्टव्य हैं।
कूर्बे ने ग्रामीण स्त्रियों का चित्रण निहायत वस्तुपरक, यथार्थवादी ढंग से किया। अपने बहुतेरे चित्रों में कूर्बे ने निर्वसनाओं को यथार्थवादी ढंग से चित्रित लैण्डस्केप में साहसिक ढंग से अवस्थित करके प्रस्तुत किया। कूर्बे की निर्वसनाओं के चित्रों में कुछ–कुछ वैसी ही ऐन्द्रिकता (सेन्सुअसनेस) है, जैसी फ्रेडरिक एंगेल्स ने प्रारम्भिक सर्वहारा समाजवादी कवि वेयेर्त की कविताओं में पाई थी और जिसकी उन्होंने विशेष प्रशंसा की थी। कूर्बे की सुन्दर स्त्रियाँ भी अलौकिक नहीं हैं। वे अपनी नैसर्गिक निर्वसनता में आम स्त्रियाँ हैं, हमारे परिवेश और जीवन के आसपास की। कूर्बे के ऐसे चित्रों में पुनर्जागरणकालीन मानववाद और इहलोकवाद को भौतिकवादी दृष्टि से युक्त एक नई ऊँचाई मिलती प्रतीत होती है।
कूर्बे सौन्दर्य के आदर्शीकरण का घनघोर विरोधी था। नवक्लासिकी कला के आदर्शीकृत बिम्बों को खारिज करते हुए वह एकदम वास्तविक आम लोगों को चित्रित करता था और कभी–कभी तो कुरूपप्राय शरीरों को भी वास्तुशिल्पीय ठोसपन के साथ चित्रित करता था जैसाकि उसके चित्र ‘नहाने वाले’ (The Bathers, 1853) में देखा जा सकता है। लगभग विकर्षित करने वाली कुरूपता के प्रति कूर्बे के इस लगाव की तत्कालीन कला–आलोचकों ने ख़ूब आलोचना की। पर कूर्बे अविचल रहा। जीवन के कटु यथार्थ की यह कुरूपता बुर्जुआ कलावन्तों की निगाह में कूर्बे का ‘ट्रेडमार्क’ बन गई और वे इस तथ्य को या तो देख नहीं पाए या नज़रअन्दाज़ करते रहे कि आम जीवन के सहजता के सौन्दर्य, मानवीय ओज–औदात्य और श्रम की गरिमा के साथ ही सागर और धरती के जितने ‘मूड्स’ और रंग कूर्बे ने चित्रित किए हैं, वे अपने आप में बेमिसाल हैं।
विषयों की समकालीनता के अतिरिक्त कूर्बे की प्रस्तुति का तरीक़ा भी अपने आप में क्रान्तिकारी था। कूर्बे से पहले सैलों की आम रीति यह थी कि बड़े कैनवस पर सिर्फ़ धार्मिक–मिथकीय–ऐतिहासिक चित्र ही प्रस्तुत किए जाते थे। पहली बार कूर्बे ने बड़े कैनवस पर किसानों और आम लोगों के जीवन को उपस्थित किया जिससे उन शहरी दर्शकों को एकदम झटका, या यहाँ तक कि सदमा लग जाता था जो चित्रों में किसी क़िस्म की प्रतीकात्मक अन्तर्वस्तु की निरर्थक तलाश करते रहते थे। कूर्बे ने अपने एक प्रसिद्ध चित्र ‘मेले से लौटते फ्लेगी के किसान’ (Peassants of Flagey Returning from the Fair, 1850–55) में सर्वाधिक प्रत्यक्ष ढंग से किसान–बुर्जुआ चरित्रों के विषम सामाजिक परिवेश को उपस्थित किया, लेकिन आलोचकों ने इसे भी मुख्यत: “कुरूप” रूपाकारों और विसंगत ‘कम्पोज़ीशन’ के लिए आलोचना का निशाना बनाया।
अपनी यथार्थवादी शैली के बारे में कूर्बे ने एक जगह लिखा है : “मेरा मानना है… कि चित्रकला सार रूप में एक ठोस कला है और इसमें केवल वास्तविक और विद्यमान चीज़ों की ही प्रस्तुति हो सकती है। यह एक सम्पूर्णत: भौतिक भाषा है, जिसके शब्द सभी दृश्य वस्तुओं से संघटित हुए हैं, कोई वस्तु जो अमूर्त है, दृश्य नहीं है, अनस्तित्वमान है, वह चित्रकला के दायरे में नहीं आती।” ऐसा नहीं कि कूर्बे के चित्रों में अमूर्त विचारों–भावों–स्वप्नों का चित्रण नहीं है, लेकिन, पहली बात तो यह कि वे विचार–भाव और स्वप्न ठोस–सजीव जीवन–चित्रों के माध्यम से, उनके संश्लिष्ट जैविक अंग के रूप में अपने को अभिव्यक्त करते हैं, और दूसरी बात यह कि, व्यापक आम जन–जीवन से प्रादुर्भूत होने के चलते वे एकदम भौतिक रूप से ठोस प्रतीत होते हैं। कूर्बे स्पष्ट शब्दों में कहा करता था कि ऐतिहासिक और काल्पनिक दृश्यों का चित्रण कलाकार का काम नहीं है, उसे वह प्रस्तुत करना चाहिए जिसे वह जानता है-यानी अपने समय की दुनिया को। उसका कहना था कि पुराने महान कलाकारों की कला से सीखना चाहिए, न कि उनकी नक़ल करनी चाहिए। जीवन के सजीव यथार्थ के कलात्मक पुनर्सृजन के इसी अनम्य आग्रह के चलते, कूर्बे दोस्तों के आग्रह पर 1862 में जब कुछ दिनों के लिए स्टूडियो चला रहा था, तब वह अपने शिष्यों से कहा करता था कि महज़ ‘लाइफ़ क्लासेज़’ में ‘न्यूड’ पेण्ट करने से कोई वास्तविक कलाकार नहीं बन सकता।
सामाजिक विषयों की आलोचनात्मक परिशुद्धता के साथ प्रस्तुति कूर्बे के युग के क्रान्तिकारी जनवादी आदर्शों के प्रति कलात्मक प्रतिबद्धता का ही मूर्त रूप थी। कला की सामाजिक महत्ता और एक सच्चे कलाकार की गरिमा के बारे में जनवादी आदर्शों की एक प्रातिनिधिक प्रस्तुति हमें कूर्बे के एक चित्र ‘स्वागत है, जनाब कूर्बे’ (Bonjour, Monsieur Courbet, 1854) में देखने को मिलती है जिसमें एक आत्मसम्मानी, गरिमावान कलाकार के रूप में स्वयं कूर्बे अपने कला–संरक्षक ब्रुयास के सामने खड़ा है।
कूर्बे की प्रसिद्धतम और भव्यतम कलाकृति ‘कलाकार का स्टूडियो’ ‘The Artists Studio’ (1855) को हम आधुनिक चित्रकला के विश्व इतिहास की चुनी हुई कृतियों में निस्संकोच शामिल कर सकते हैं। यह एक अन्योक्तिपरक, लाक्षणिक या रूपकात्मक कम्पोज़ीशन है जिसमें कूर्बे ने अपने स्टूडियो में स्वयं को अपने मित्रों और अपने द्वारा सृजित चरित्रों से घिरा हुआ चित्रित किया है। मित्र सृजित चरित्र–सदृश हो गए हैं और सृजित चरित्र मित्र जैसे। फ्रेम में स्टूडियो में प्रकृति प्रविष्ट हो गई है अपनी पशुवत साधारणता के साथ। कैनवस के जिस क्षितिज पर टिकी हैं कलाकार की निगाहें, उसके पहलू में शिशु औत्सुक्य की उपस्थिति है। निर्वसन मॉडल मौजूद है, पर कलाकार के पीछे चली गई है। कपड़े उसने पहने नहीं हैं, पर हाथ में उठा लिये हैं। वह भी कलाकार के नये अन्वेषण को, नये ‘विज़न’ को पकड़ने की कोशिश कर रही है। जीवन के वास्तविक मॉडल सामने हैं, बैठे हुए, लेकिन अभी वे नीम अँधेरे–नीम उजाले में हैं। यह पूरी कृति अपने आप में कूर्बे की सामाजिक प्रतिबद्धता और सौन्दर्यात्मक–कलात्मक दृष्टि का घोषणापत्र है और साथ ही अभिव्यक्ति की खोज की चिन्ता और द्वन्द्वों की एक मुखर अभिव्यक्ति भी।
पाँचवें दशक और छठे दशक के शुरुआती वर्षों के दौरान कूर्बे के चित्रों में सघन–प्रगाढ़–संयत–अनलंकृत रंग पट्टिका (Palette) एक विशिष्टता के रूप में नज़र आती है। फिर क्रमश: वह इस शैली से दूरी लेता दीखता है और धीरे–धीरे स्थानिक रंगों के बजाय रंग–संगतियाँ और उनके अनुपातन उसकी चित्र–भाषा के प्रमुख तत्त्व के रूप में उभरकर सामने आते हैं। ‘प्लीन एयर पेण्टिंग’ (Plein air painting) के प्रभाव में कूर्बे ने अपनी रंग पट्टिका को हल्का और चटख बनाने और समृद्ध करने की शुरुआत की। छठे दशक के उत्तरार्द्ध से, उसके चित्रों में एक विशेष तरह की रंग–दीप्ति प्रोद्भासित होती दीखने लगती है। साथ ही, ‘ब्रश–वर्क’ के ‘टेक्सचर’ पर भी विशेष ज़ोर दीखता है। कूर्बे के जिन लैण्डस्केप और ‘स्टिल लाइफ़’ चित्रों में रंग संघटन के एक महत्त्वपूर्ण अवयव की भूमिका निभाते हैं, उनमें एक विशिष्ट प्रकार की, विश्वसनीय स्पर्शगोचरता और ठोसपन दीखता है। ऐसे चित्रों में, उदाहरण के तौर पर Winter Landscape, (1867) Mountain Hut (1874) और Fruits जैसे चित्र उल्लेखनीय हैं। कूर्बे के सागर–दृश्यों (sea scapes) का अपना एक अलग ही मिज़ाज है। इनमें स्पर्शगोचरता के साथ ही स्वप्न–दृश्यों की स्वप्निलता भी है और सागर विशेष रंग–बिम्बों और रंग–संगतियों के द्वारा तत्कालीन फ्रांस के राष्ट्रीय जीवन के रूपक के रूप में भी नज़र आता है-कहीं तूफ़ान के पहले का दृश्य, तो कभी तूफ़ान के बाद का तो कभी धीर–गम्भीर–गहन सागर के सतत आन्तरिक उद्वेलन के वक्ष पर तिरते जीवन का। कूर्बे के उत्तरवर्ती दौर के चित्रों में The Kill (1867) महत्त्वपूर्ण है जिसमें बर्फ़ और आकाश की प्रदीप्त पृष्ठभूमि में शिकारी के उठे हुए हाथ और मृत्यु की वेदना में छटपटाते हिरण को केन्द्र में रखकर शिकार–दृश्य का जुगुप्सापूर्ण नाटक उपस्थित किया गया है। इस चित्र में भी लाक्षणिक ढंग से तत्कालीन सामाजिक परिदृश्य का कोई बिम्ब ढूँढ़ा जा सकता है। इस दौर में कूर्बे फिर ‘न्यूड’ चित्रित करने की ओर लौटता है। कुछ अधिक साहसिक मुद्राओं में और सघन ऐन्द्रिकता के साथ वह इस बार निर्वसन स्त्री–सौन्दर्य के यथार्थ को प्रस्तुत करता दीखता है। उनमें प्रकृति की नैसर्गिकता का विस्तार है, नैसर्गिकता का आग्रह है, भौतिकता की अभिव्यक्ति है और अनावृत्त सत्य के साक्षात्कार की ऊर्जस्वी आकांक्षा है।
कूर्बे के कठोरतम आलोचक भी उसकी तकनीकी दक्षता को, ख़ासकर जीवन और प्रकृति के उपादानों के फलकों की समृद्धि और सूक्ष्मता की उसकी पकड़ को निर्विवाद रूप से स्वीकार करते थे। कूर्बे त्वरित गति और असामान्य सधे हाथों से रेखांकन और रंग भरने का काम करता था। उल्लेखनीय है कि कूर्बे ने ही करनी (trowel) के शक्ल की ‘पैलेटनाइफ’ (Palette Knife) जिसे (english knife) कहा जाता था। यह लम्बा और लचीला होता था जिससे स्पर्श में अद्भुत नज़ाकत ला पाना मुमकिन हो जाता था। कूर्बे भौतिकता और ठोसपन पर ज़ोर देने के लिए अपरिष्कृत रंगों का इस्तेमाल करता था, उनमें भी बालू मिला देता था और कैनवस पर उनकी मोटी परत चढ़ाता था। नतीजतन, आम तौर पर सैलों में प्रदर्शित नाज़ुक, चिकने–चमकदार, अतिपरिष्कृत चित्रों के सामने उसके चित्र एक नाटकीय ‘कण्ट्रास्ट’ प्रस्तुत करते प्रतीत होते थे। अपने लैण्डस्केपों में भी लोकप्रिय शैली का विरोध करते हुए कूर्बे प्राय: रूखा–“भोथरा”, स्वप्नदर्शी, अचित्रोपम ‘अप्रोच’ अपनाता था। प्राकृतिक वस्तुओं–विशिष्टताओं के सुव्यवस्थित संयोजन के बजाय, कूर्बे कैनवस की सतह पर एक एकल, शक्तिशाली बिम्ब उपस्थित करता था।
कूर्बे की यथार्थवादी परम्परा के कुछ पक्षों की निरन्तरता हमें माने (Manet) के सामयिक–प्रासंगिक विषयों पर केन्द्रित कम्पोज़ीशनों में दिखाई देती है। आगे चलकर, आधुनिक शहरों के दैनन्दिन जीवन के कलात्मक मूल्यों पर बल देने वाले तथा प्रकृति का यथार्थवादी चित्रण करने वाले मोने, रेनुआ, देगा, पिसारो और सिसले आदि इम्पे्रशनिस्ट उस्तादों के चित्रों में भी हमें यथार्थवादी धारा का विकास दीखता है। पर इन सभी में कूर्बे जैसी परम्पराभंजक प्रयोगधर्मिता, बहुआयामिता, प्रखर जनपरकता और सचेतन वैचारिकता नज़र नहीं आती।
क्रान्तिकारी जनवादी विचारों और आलोचनात्मक यथार्थवादी सौन्दर्य–दृष्टि और पद्धति की दृष्टि से (शैलियों की राष्ट्रीय विशिष्टतामूलक भिन्नताओं के बावजूद), रूस में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के रेपिन, पेरोव, क्रामोस्कोइ, सुरिकोव, शिश्किन और लेवितान आदि चित्रकारों ने और फिर बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में सेरोव, कोरोविन, इवानोव, कासात्किन आदि ने कूर्बे की परम्परा को आगे विस्तार दिया। अक्टूबर क्रान्ति के बाद रूस में और यूरोप में चित्रकला में समाजवादी और जनवादी परम्परा के नये उभार ने यथार्थवादी धारा को नई ऊँचाइयाँ दीं। इस नये क्रान्तिकारी यथार्थवाद का पुरखा भी, निस्सन्देह कूर्बे ही था।
आज जब चित्रकला की यथार्थवादी परम्परा की कला–इतिहास और सैद्धान्तिकी के बुर्जुआ हलकों में चर्चा होती है तो प्राय: कूर्बे का नाम या तो चलताऊ ढंग से लिया जाता है या फिर उसके वैचारिक पक्षों और प्रतिबद्धता की अनदेखी की जाती है। उसके कृतित्व के कुछ प्रखर–प्रदीप्त पक्ष आज भी बुर्जुआ कलावन्तों की आँखों में चुभते हैं, उनके सुकोमल सौन्दर्य–बोध को घायल करते हैं। कूर्बे अपने समय में भी ऐसे लोगों को सदमा और झटका देता था और आज भी देता है। और सबसे बड़ी बात यह कि ब्रश थामने वाले हाथों में बन्दूक थामकर सर्वहारा सत्ता के पक्ष में बैरिकेड्स के पीछे जा डटने वाले तथा जेल और निर्वासन से भी न टूटने वाले कलाकार को भला वे कलावन्त लोग कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो कला के “बाज़ार” में महज़ कोठे के दलालों की भूमिका निभाते हैं?
बाएँ : बॉदलेयर की पत्रिका ‘ल सलुत रिपब्लिक’ का कूर्बे का बनाया मुखपृष्ठ
नीचे : ब्रेसरी आन्दलेर के भीतरी भाग की कूर्बे की बनायी एचिंग
कूर्बे का चित्र् ‘प्रूधों और उसके बच्चे’; कूर्बे कभी प्रूधों को पोर्ट्रेट बनवाने के लिए बैठने को राज़ी नहीं कर सका, इसलिए उसने अपने मित्र् की मृत्यु के बाद 1865 में यह चित्र बनाया
- क्लिफ़्स एट एत्रतात आफ्टर दि स्टॉर्म 2. स्टॉर्मी सी. 3. दि विनोअर्स 4. पीजेंट्स ऑफ़ फ़्लेगी रिटर्निंग फ्रॉम फ़ेयर 5. बेरिएल एट ओर्नांस 6. दि स्टूडियो
- सृजन परिप्रेक्ष्य, जनवरी-अप्रैल 2002