ब्रेष्ट और स्तानिस्लाव्स्की-साथ–साथ और आमने–सामने
सत्यव्रत
इस लेख में हमारा उद्देश्य ब्रेष्ट के एपिक थिएटर और स्तानिस्लाव्सकी की पद्धति का विस्तृत निरूपण प्रस्तुत करना नहीं है। हम यहाँ सामान्य तौर पर इन दोनों से परिचित पाठकों और रंगकर्मियों से मुखातिब हैं। इस लेख में हमारी आधारभूत स्थापना यह है कि (i) एपिक थिएटर और स्तानिस्लाव्स्की की पद्धति में सांगोपांग तुलना सम्भव नहीं है क्योंकि एक के पीछे सचेतन रूप से एक विश्व–दृष्टि मौजूद है और वह एक समग्र सिस्टम है, जबकि दूसरी एक पद्धति (मेथड) है जो रंगकर्म के सुदीर्घ अनुभवों की देन है, यहाँ भी सर्वहारा अवस्थिति की ओर विकासमान विश्व–दृष्टि मौजूद है, लेकिन वह सचेतन नहीं है; (ii) ब्रेष्ट स्तानिस्लाव्स्की से टकराते हैं और फिर एक हद तक सामंजस्य स्थापित करते हैं, उनका निषेध करते हैं और उन्हें विस्तार भी देते हैं, स्तानिस्लाव्स्की से ब्रेष्ट तक, परिवर्तन के तत्त्व और निरन्तरता के तत्त्व-दोनों का टकराव और संश्लेषण मौजूद है; (iii) स्तानिस्लाव्स्की का थिएटर व्यवस्था–विरोधी रैडिकल थिएटर है, अपने उन्नततम रूप में, जबकि ब्रेष्ट का थिएटर प्रोलेतारियन थिएटर है, अपनी शैशवावस्था में।
यहाँ हम थिएटर के लोगों के बीच की आपसी बातचीत के रूप में कुछ अनन्तिम विचार रख रहे हैं। अभी इन प्रश्नों पर काफ़ी कुछ काम बाक़ी है। ख़ास तौर पर इसलिए भी कि, अपने रंग–सिद्धान्त और व्यवहार पर लगातार आलोचनात्मक चिन्तन करते हुए बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ख़ास तौर पर अपने जीवन के आख़िरी दशक में जो कुछ सोच–विचार रहे थे, वह अभी मुख्यत: अध्ययन और विचार–विमर्श के एजेण्डे पर प्रमुखता के साथ उपस्थित नहीं हो पाया है।
दिखाओ कि तुम दिखा रहे हो! उन तमाम विविध अन्दाज़ों में
जिन्हें तुम तब दिखाते हो, जब यह दिखाना होता है
कि लोग कैसे अपनी भूमिकाएँ अदा करते हैं,
दिखाने का अन्दाज़ कभी नहीं भूलना चाहिए
हर अन्दाज़ के पीछे दिखाने का अन्दाज़ मौजूद होना चाहिए
यह इस तरह होगा : यह दिखाने से पहले
कि कैसे कोई आदमी किसी को धोखा देता है या
ईर्ष्या से भर उठता है, या कोई सौदा पक्का करता है,
पहले दर्शकों की तरफ़ देखो, गोया तुम कहना चाहते हो :
‘अब ज़रा ग़ौर करें, यह आदमी किसी को धोखा
दे रहा है और इस तरह से दे रहा है,
जब वह ईष्या से भर उठता है तब ऐसा दीखता है,
और जब सौदा तय करता है तो ऐसे करता है’
इस तरह तुम्हारे दिखावे में दिखाने का अन्दाज़ आएगा,
जो भी बनाकर तैयार किया गया है उसे पेश करने का, पूरा करने का
और लगातार आगे बढ़ने का अन्दाज़
सो दिखाओ कि जो तुम दिखाते हो वह ऐसा है जिसे रोज ही दिखाते हो
और पहले भी अक़सर दिखा चुके हो, और तुम्हारा नाटक
किसी बुनकर के बुनाई करने सरीखा, किसी शिल्पकार की कृति सरीखा होगा
और जो चीज़ दिखाने से जुड़ी है, जैसे कि देखने को
ज़्यादा आसान बनाने में तुम्हारी लगातार दिलचस्पी,
हर प्रसंग केा हमेशा बेहतरीन ढंग से दिखाने की पूरी कोशिश,
उसे भी तुम्हें प्रकट करना चाहिए, तब यह सब
धोखा देना और सौदा करना और ईष्या से भर उठना
रोज़मर्रा के कार्य–व्यापार का स्वभाव लिये हुए होगा,
मसलन खाना खाने, सुबह नमस्कार करने
और अपना काम करने सरीखा (आख़िर तुम काम ही तो कर रहे हो न?)
और मंच पर
अपनी भूमिकाओं के पीछे तुम्हें ख़ुद भी उन्हें अदा करने वालों
के रूप में दिखते रहना होगा।
(दिखाने को दिखाना ज़रूरी है)
अनु. : मंगलेश डबराल
…नक्क़ाल
कभी भी स्वयं को पूर्णत: विलीन नहीं कर देता उसमें जिसकी वह नक़ल उतारता है
वह पूरी तरह से अपने को उस आदमी में क़तई नहीं बदल लेता
जिसकी वह नक़ल करता है। हमेशा ही
वह बना रहता है निरूपणकर्ता, न कि मूर्त रूप। जिस व्यक्ति को
प्रस्तुत किया जाता है वह
एक नहीं हो जाता उसके साथ-वह, नक्क़ाल,
नहीं होता उसकी अनुभूतियों का साझीदार,
न ही भावनाओं का। वह जानता है
थोड़ा ही उसके बारे में। उसकी नक़ल में
कोई तीसरी चीज़ नहीं पैदा होती जो उसकी हो, जैसी कि वह होती, और
कोई अन्य और कोई एक और अन्य-एक तीसरा
एक अकेले दिल और
एक अकेले दिमाग़ के साथ।
अपनी सभी अनुभूतियों को अपने साथ रखे हुए,
वह तुम्हारे सामने होता है उस आदमी की नक़ल उतारता हुआ
और उसे प्रस्तुत करता हुआ
जो पराया है उसके लिए।
(रोज़मर्रा का थिएटर)
अनु. : सत्यव्रत
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एक पूरी कविता और दूसरी कविता के कुछ अंश हमने यहाँ ख़ास तौर पर इसलिए उद्धृत किए हैं कि इनमें उन्होंने अपने एपिक थिएटर की कुछ प्रातिनिधिक विशिष्टताओं को और उसमें अभिनय के उसूलों को अत्यन्त कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है।
एपिक थिएटर के ब्रेष्टीय सिद्धान्त की निर्माण–प्रक्रिया ब्रेष्ट के जीवन–दर्शन और विश्व–दृष्टिकोण की निर्माण–प्रक्रिया की सहवर्ती थी। यह समय था जब रूस में अक्टूबर क्रान्ति और गृहयुद्ध के बाद दुनिया का पहला मज़दूर राज्य अपने आधारों को मज़बूत बना रहा था, पूरे यूरोप में मज़दूर आन्दोलन उफ़ान पर था, रंचमंच और संगीत की दुनिया में भी प्रयोग और आन्दोलन का सरगर्म माहौल था, और साथ ही, जर्मनी में मध्यवर्ग के मानस में पैठा (पहले महायुद्ध का) सघन पराजय–बोध पूँजीवाद के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी रूप-फ़ासीवाद के फलने–फूलने के आधार की भूमिका निभा रहा था। एक ओर सामाजिक–राजनीतिक जीवन के प्रश्नों से टकराते हुए और दूसरी ओर नाटक की सुदीर्घ जर्मन परम्परा और सामान्यत: पूरी यूरोपीय परम्परा का समाहार करते हुए, समकालीन जीवन और विचार के, नाटक में और रंगमंच पर कलात्मक सृजन की समस्याओं से जूझते हुए, तथा नाटक और रंगकर्म की उन्नीसवीं शताब्दी की बुर्जुआ जनवादी यथार्थवादी परम्परा से आमूलगामी विच्छेद की आवश्यकता को शिद्दत के साथ महसूस करते हुए, ब्रेष्ट ने अपना विश्व–दृष्टिकोण और अपनी नाट्य–सैद्धान्तिकी और रंग–सैद्धान्तिकी विकसित की।
एपिक थिएटर की सैद्धान्तिकी तीसरे दशक के उत्तरार्द्ध में अस्तित्व में आ चुकी थी। बाद के दो–ढाई दशकों के दौरान ब्रेष्ट के चिन्तन और प्रयोगों में इसके विकास, विस्तार और परिवर्द्धन का अनवरत क्रम जारी रहा। ब्रेष्ट के जीवन का अन्तिम दशक इस विकास–प्रक्रिया में एक नई मंज़िल बनकर आया। तीसरे दशक में, नई सैद्धान्तिकी का ढाँचा खड़ा करने की पहली मंज़िल पर ब्रेष्ट स्तानिस्लाव्स्की से, कमोबेश सीधे टकराते हैं और उनकी थीसिस की एण्टीथीसिस प्रस्तुत करते हैं। जीवन के अन्तिम दशक में उनकी रंग–सैद्धान्तिकी स्तानिस्लाव्स्की की पद्धति के कई सूत्रीकरणों के साथ तादात्म्य स्थापित करती दीखती है। यहाँ सिन्थेसिस की अवस्था सामने आती है। ब्रेष्ट एपिक थिएटर को अपूर्ण मानकर आगे बढ़ते हैं, एपिक थिएटर को वे ज़रूरी पूर्वाधार बताते हुए अब ‘डायलेक्टिकल थिएटर’ की बात करते हैं। एपिक थिएटर की पद्धति भी द्वन्द्वात्मक थी, पर ब्रेष्ट उसकी कतिपय एकांगिकताओं को दूर करने की कोशिश करते हैं-पहले रंग–व्यवहार में और फिर सिद्धान्त में। यहाँ वे फिर स्तानिस्लाव्स्की से संवाद करते हैं, पर इस रूप में कि एक टिप्पणी लिखते हैं : ‘कुछ चीज़ें जो स्तानिस्लाव्स्की से सीखी जा सकती हैं।’ यह 1952 की बात है। ब्रेष्ट का यह नया नज़रिया ही है जो उनके लेख ‘शेक्सपियर के ‘कोरिओलेनस’ नाटक के पहले दृश्य के अध्ययन’ में परिलक्षित होता है और यही उन्हें ‘शॉर्ट ऑर्गनम’ का नया परिशिष्ट लिखने के लिए बाध्य करता है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
“समाजवादी यथार्थवाद के आधार पर सृजित कोई कलाकृति मज़दूर वर्ग के दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करती है और सभी अच्छे लोगों की ओर निर्देशित होती है।” कला–साहित्य की पक्षधरता की यह लेनिनवादी अवधारणा ब्रेष्ट के रंग–चिन्तन का प्रस्थान–बिन्दु थी। यहीं से आगे बढ़ते हुए ब्रेष्ट अपना यह महत्त्वपूर्ण सूत्र निगमित करते हैं कि यथार्थ को जब हम “हू ब हू” प्रस्तुत करते हैं तो निरपेक्ष ढंग से नहीं बल्कि “मजूदर वर्ग के नज़रिए से हूबहू” प्रस्तुत करते हैं। निरपेक्ष ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश असम्भव को सम्भव बनाने जैसी ही होगी और उसकी परिणति होगी-प्रकृतवाद, सर्वहारा वर्ग–दृष्टि से विचलन और मनोगतवाद। इसी तर्क का विस्तार फिर इस रूप में सामने आता है कि कला–साहित्य को, और एक उन्नत संश्लेषित कला के सर्वाधिक प्रभावी रूप में थिएटर को, सर्वोपरि तौर पर, मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता को शिक्षित करने का एक साधन होना चाहिए। इसके लिए सबसे अधिक ज़रूरी यह है कि थिएटर आम लोगों का मनोरंजन इस रूप में न करे कि उन्हें भावनात्मक आवेग में बहा ले जाए, बल्कि इस रूप में करे कि वे चीज़ों को आलोचनात्मक विवेक के साथ देखें और समाज के क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण की समझ विकसित करने की दृष्टि से सारभूत सजीव यथार्थ को आत्मसात करें। इस तरह ब्रेष्ट का यह रंग–चिन्तन एकदम मार्क्सवादी कला–दर्शन की गति–रेखा का अनुसरण करता हुआ, सामाजिक श्रम–विभाजन–प्रसूत इस प्रस्तरीकृत रूढ़िबद्ध धारणा की जड़ों पर चोट कर रहा था कि शिक्षा और मनोरंजन एकदम विलग चीज़ें होती हैं और यह कि यदि मनोरंजन करना हो तो तर्कबुद्धि को घर रखकर आओ, और शिक्षित होना हो, बहस–विचार करना हो तो “मज़ा लेने” की मानसिकता छोड़ गम्भीर हो जाओ। ब्रेष्ट एपिक थिएटर को “वैज्ञानिक युग का थिएटर” बताते हुए अपने प्रसिद्ध लेख “ए शॉर्ट ऑर्गनम फॉर दि थिएटर’”में कहते हैं कि यह एक ऐसा थिएटर है जो “स्वयं को उन लोगों के साथ जोड़ता है जो महान परिवर्तन लाने के लिए अनिवार्यत: सबसे अधीर हैं।” उनके अनुसार एपिक थिएटर उन लोगों का सार्थक मनोरंजन करता है “जो प्राकृतिक विज्ञानों से इतना दूर दिखाई देते हैं, पर वे इनसे दूर केवल इसलिए हैं क्योंकि उन्हें बलपूर्वक दूर रखा जाता है। इन तक पहुँच पाने के पहले उन्हें समाज का एक नया विज्ञान विकसित और लागू करना होगा। ये वैज्ञानिक युग की सच्ची सन्तानें हैं और अगर थिएटर को आगे बढ़ाना है तो केवल ये ही उसे गति दे सकते हैं।”(शॉर्ट ऑर्गनम, पैरा–23)
एपिक थिएटर के मुक्तिकारी मिशन को स्पष्ट करते हुए ब्रेष्ट लिखते हैं : “हमारे थिएटर को चीज़ों को समझने में होने वाले रोमाँच को प्रोत्साहित करना चाहिए और लोगों को यथास्थिति को बदलने में आनन्द लेने के लिए प्रशिक्षित करना चाहिए। हमारे दर्शकों को केवल यही नहीं सुनना चाहिए कि प्रोमीथियस कैसे मुक्त हुआ, बल्कि उन्हें उसे मुक्त कराने के आनन्द में स्वयं को प्रशिक्षित भी करना चाहिए। उन्हें यह सिखाया जाना चाहिए कि वह हमारे थिएटर में आविष्कारक और अन्वेषक द्वारा अनुभव किए जाने वाले सन्तोष व आनन्द को महसूस करें, मुक्तिदायक के विजय के गौरव को महसूस करें।”
(अर्न्स्ट फिशर की पुस्तक “दि नेसेसिटी ऑफ आर्ट’ में उद्धृत, पृ. 10, पेंग्विन, 1970)
चिन्तन की इसी प्रक्रिया में ब्रेष्ट पारम्परिक नाटकीय थिएटर के सामने एक प्रतिपक्ष के रूप में उपस्थित होते हैं। 1930 में वे पारम्परिक नाटकीय थिएटर और एपिक थिएटर के बीच के अन्तर को इस रूप में दर्शाते हैं :
[column-group]
[column]
पारम्परिक नाटकीय थिएटर
कथावस्तु (प्लॉट)
दर्शक को मंचीय व्यापार में शामिल कर लेता है
और
उसकी क्रियाशील होने की क्षमता ख़त्म कर देता है
उसमें ऐन्द्रिक अनुभूति उत्पन्न करता है
अनुभव
दर्शक किसी चीज़ में सम्पृक्त
हो जाता है
सुझाव
सहजवृत्तिक अनुभूतियाँ सुरक्षित रखी जाती हैं
दर्शक इसमें धँसा हुआ होता है और अनुभवों में
भागीदारी करता है
मनुष्य को, जैसा है वैसा मानकर चला जाता है
वह अपरिवर्तनीय है
तैयार चीज़ पर निगाहें होती हैं
एक दृश्य दूसरे का निर्माण करता है
विकास
एकरेखीय गति
क्रमविकासवादी नियतत्ववाद
मनुष्य एक स्थिर–बिन्दु के रूप में
चिन्तन स्वत्व का निर्धारण करता है
अनुभूति
[/column]
[column]
एपिक थिएटर
आख्यान (नैरेटिव)
दर्शक को प्रेक्षक बनाता है
किन्तु
उसकी क्रियाशील होने की क्षमता को जगाता है
उसे निर्णय लेने को बाध्य करता है
दुनिया की तस्वीर
दर्शक किसी चीज़ का सामना करने के लिए तैयार
किया जाता है
वितर्क
पहचान के बिन्दु तक लाया जाता है
दर्शक इसके बाहर खड़ा होता है,
अध्ययन करता है
मनुष्य को जाँच–पड़ताल का विषय बनाता है
वह परिवर्तनीय है और परिवर्तन करने में सक्षम है
प्रक्रिया पर निगाहें होती हैं
हर दृश्य अपनी हैसियत में होता है
मोन्ताज
वक्र रेखा में गति
छलाँग
मनुष्य एक प्रक्रिया के रूप में
सामाजिक स्वत्व चिन्तन का निर्धारण करता है
तर्कणा
[/column]
[/column-group]
(‘द मॉर्डन थिएटर इज़ द एपिक थिएटर’, ‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’, लन्दन, 1964, पृ. 37)
इस तरह “वैज्ञानिक युग का” अपना वैचारिक या बौद्धिक थिएटर विकसित करते हुए ब्रेष्ट पारम्परिक थिएटर के दूसरे ध्रुव पर जा खड़े हुए। पारम्परिक थिएटर जो विचार, तर्कणा या चिन्तन की प्रक्रिया को जगाने, जगाए रखने
“मैं इस उसूल को अपनाना चाहता था कि यह सिर्फ दुनिया की व्याख्या करने का नहीं बल्कि उसको बदलने का मामला है, और इसी चीज को मैं थिएटर में भी लागू करना चाहता था।“
–बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (स्तानिस्लाव्स्की से अपनी भिन्नता बतलाते हुए)
और गति देने के बजाय दर्शकों को भावनात्मक प्रतिक्रियाओं की कड़ी में बाँध लेता था, उसे ब्रेष्ट ने “अरस्तूवादी” बताते हुए खारिज कर दिया। अरस्तू का कहना था कि अभिनेता का अभिनय ऐसा होना चाहिए कि दर्शक भावनात्मक रूप से संक्रमित हो जाए, उसका हृदय में वही भाव प्रतिध्वनित हो, उसके हृदय में वही भाव संचरित हो जाए, जिसका अपने अभिनय के द्वारा अभिनेता मूर्त रूप बना हुआ है। स्तानिस्लाव्स्की की प्रणाली अरस्तूवादी परम्परा से ही जुड़ती थी, हालाँकि विश्व–दृष्टिकोण और वर्ग–पक्षधरता के तौर पर उनकी अवस्थिति सर्वथा भिन्न थी। स्तानिस्लाव्स्की तदनुभूति (एम्पैथी) की बात करते थे यानी दर्शक उसी तरह से महसूस करे जैसे कि अभिनेता महसूस करता है। उसका अभिनय इतना प्रामाणिक, ओजस्वी और जीवन्त हो कि उसका भावनात्मक आवेग दर्शक में संक्रमित हो जाए। इस तरह, स्तानिस्लाव्स्की की प्रणाली ऐसी अभिनय कला की, अभिनेता के ऐसे रंग–व्यवहार की वकालत करती थी जिसमें अभिनेता चरित्र के साथ सम्पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर ले। इस तरह, दर्शक की भावनाओं को, उसके भाव–संवेगों को एक सुनिश्चित ढंग से, एक सुनिश्चित मार्ग पर निर्देशित करते हुए थिएटर उसके विचार को निर्देशित करता है, उसकी चिन्तन–प्रणाली को प्रभावित–अनुकूलित करता है, ऐसा स्तानिस्लाव्स्की का मानना था।
कहा जा सकता है कि स्तानिस्लाव्स्की की प्रणाली यदि अरस्तू की रंग–सैद्धान्तिक परम्परा की कड़ी के रूप में सामने आती है तो ब्रेष्ट दिदेरो के प्रबोधन–थिएटर की रंग–सैद्धान्तिक परम्परा को आगे विस्तार देते प्रतीत होते हैं। ग्रीक त्रासदियों के युग के बाद नाटकों की दृष्टि से तो पुनर्जागरण–काल एक महान युगान्तरकारी युग था, लेकिन थिएटर के सैद्धान्तिक पहलू के विकास की दृष्टि से प्रबोधनकाल अधिक महत्त्वपूर्ण था जब यथार्थवादी दृष्टि और तर्कणा के सहमेल से युगान्तरकारी रंग–सैद्धान्तिक प्रतिपादन हो रहे थे और किसी को यदि इसका अग्रदूत कहा जा सकता है तो वह निस्सन्देह दिदेरो था जिसकी इस विषय पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति थी : ‘पैराडॉक्स ऑफ दि ऐक्टर’। उसके अनुसार, अभिनेता एक ज़बर्दस्त स्वांग करने वाला व्यक्ति होता है, एक प्रचण्ड छलिया होता है जो अनुभूतियों की सहायता से नहीं बल्कि मस्तिष्क के प्रयास से आँसू बहाता है। उसे नाटककार के विचारों का एक ठण्डा और शान्त वाहक होना चाहिए। चिन्तन हर चीज़ को निर्देशित करता है जिनमें अनुभूतियाँ भी शामिल हैं। ब्रेष्ट इसी विचार–परम्परा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि एपिक थिएटर दर्शक को निर्णय लेने के लिए तैयार करता है, उसे घटना के ऐन सामने ला खड़ा करता है, उसे अध्ययन करने के लिए उकसाता और तैयार करता है, तथा उसकी तर्कणा को अपील करता है।
एपिक थिएटर की अवधारणा विकसित करने के साथ–साथ ब्रेष्ट उनका प्रयोगात्मक रूप भी अपने नाटकीय आख्यात्मक शैली के नाटकों में विकसित करते चल रहे थे। एपिक थिएटर के सिद्धान्त की निर्माण–प्रक्रिया के दौरान ही वे ऐसी संरचना वाला एक नाटक ‘थ्री पेनी ऑपेरा’ (1928) लिख चुके थे। एपिक थिएटर की अवधारणा के सांगोपांग निरूपण के बाद उन्होंने ‘दि फ्लाइट ऑफ लिण्डबर्ग्स’ (1929), ‘ही हू सेज़ यस ऐण्ड ही हू सेज़ नो’ (1929–30), दि मेज़र्स टेकेन’ (1930), ‘दि एक्सेप्शन ऐण्ड दि रूल’ (1930) और ‘दि होरेशियन्स ऐण्ड दि क्यूरिएशियन्स’ (1934) जैसे नाटक लिखे जो पेशेवर थिएटर कम्पनियों के अतिरिक्त मज़दूरों की शौकिया मण्डलियों द्वारा भी खेले गये। ‘सेण्ट जॉन ऑफ दि स्टॉकयार्ड्स’ (1932) और मक्सिम गोर्की के उपन्यास पर आधारित ‘मदर’ (1933) की संरचना भी पूरी तरह से एपिक थिएटर की अवधारणा पर ही आधारित थी।
अपने इन नाटकों में आख्यानात्मक ढाँचे की निर्मिति में ब्रेष्ट ने कई तकनीकें अपनार्इं-कहीं मंच पर कथावाचक की मौजूदगी, कहीं दृश्यों के पूर्व व्याख्यात्मक पद्यांश, तो कहीं दृश्यों की पूर्व सूचना देते हुए बैनर। ऐसा करते हुए ब्रेष्ट नाटक में होने वाले ऐक्शन को पहले ही बताकर सस्पेंस के उस आकर्षण को भंग कर देते थे, जो अरस्तूवादी शैली का एक अभिन्न अंग हुआ करता था। ऐक्शन के साथ दर्शक के पारम्परिक तादात्म्य को तोड़ डालने के लिए ब्रेष्ट ने अलगाव–प्रभाव (एलियनेशन इफ़ेक्ट) की विशिष्ट शैली और तकनीक विकसित की जिसका मूल मकसद था मंच पर जारी क्रियाओं–प्रक्रियाओं से दर्शक की एक आलोचनात्मक दूरी बनाए रखना। इसके लिए ऐसे बिम्ब–विधान का उन्होंने प्रयोग किया जो सुपरिचित चीज़ों को भी सहसा दर्शक के लिए नया और विचित्र बना देता है और वह चौंककर उसके महत्त्व को पहचानने लगता है। एलियनेशन इफ़ेक्ट को परिभाषित करते हुए ब्रेष्ट लिखते हैं : “एक ऐसी प्रस्तुति जो पार्थक्य (अलगाव–प्रभाव) पैदा करती है, वह होती है जिसमें हम उसके विषय को पहचान सकते हैं, लेकिन साथ ही वह हमें अपरिचित सा लगता है।“ (शार्ट ऑर्गनम, पैरा–42)
अलगाव–प्रभाव की तकनीक के प्रयोग के बारे में वे आगे लिखते हैं : “किसी चीज़ को अपरिचित बनाने का एक सरल तरीक़ा प्रथाओं और नैतिक सिद्धान्तों से सम्बन्धित है। किसी का आना, किसी शत्रु की प्रस्तुति का ‘ट्रीटमेण्ट’, प्रेमियों की मुलाक़ात, राजनीतिक या व्यापारिक समझौता-इन सबको इस तरह चित्रित किया जा सकता है जैसे वे सामान्य सिद्धान्तों के उदाहरण मात्र हों। इस तरह दिखाए जाने पर वह विशिष्ट और एक ही बार हुई घटना परेशान करने वाली लगने लगती है क्योंकि वह ऐसी दीख पड़ती है मानो कोई आम बात हो, कोई ऐसी बात हो जो सिद्धान्त रूप ले चुकी है। जैसे ही हम यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या वास्तव में इसे ऐसा ही होना चाहिए था, या इसे किस तरह होना चाहिए था, हम उस घटना को अपरिचित के रूप में देख रहे होते हैं”। (शार्ट ऑर्गनम, पैरा–67)
अलगाव–प्रभाव उत्पन्न करने में अभिनेता की भूमिका को रेखांकित करते हुए ब्रेष्ट कहते हैं कि उसे “वह सब कुछ छोड़ देना पड़ेगा जो उसने अपने द्वारा निभाए जा रहे पात्र के साथ दर्शक का तादात्म्य स्थापित कराने के बारे में सीखा है। दर्शकों को पूरी तरह तन्मय कर देने के प्रयास में उसे ख़ुद ही तन्मय नहीं हो जाना चाहिए”। आगे वे कहते हैं कि “यदि वह (अभिनेता) किसी जुनूनी आदमी का किरदार अदा कर रहा है तो उसे ख़ुद ही जुनूनी नहीं लगना चाहिए क्योंकि यदि ऐसा होगा तो दर्शक कैसे समझेगा कि किरदार पर काहे का जुनून सवार है!” (शॉर्ट ऑर्गनम, पैरा–47)
इसी सिलसिले में ब्रेष्ट आगे ‘जेस्टस’ की अवधारणा विकसित करते हैं जिसका तात्पर्य जॉन विलेट इन शब्दों में प्रकट करते हैं : “भंगिमा (जेश्चर) और सार (जिस्ट), मुद्रा (एटीट्यूड) और दृष्टिकोण (व्यू प्वाइण्ट) साथ–साथ विकसित करना : दो लोगों के बीच सम्बन्ध के एक पहलू का अलग से अध्ययन करके उसकी बुनियादी चीज़ें तय करना और उसे शारीरिक या मौखिक रूप से अभिव्यक्त करना।” ‘जेस्टस’ के बारे में ब्रेष्ट विस्तृत विवेचना के बाद
“ब्रेष्ट के विचार से, स्तानिस्लाव्स्की से हमें केवल यथार्थ का कृत्र्मि पुनर्निर्माण ही हासिल हो सकता है, ब्रेष्ट दृढ़प्रतिज्ञ हैं ‘चीजों को उसी रूप में दिखाने के लिए जैसी कि वे हैं।’ प्रीमियम अभी भी ‘सत्य’ पर ही है, लेकिन परिभाषाएँ बदल दी गयी हैं : ‘यथार्थवादी’ का अर्थ अब यह हो जाता है कि जो ‘समाज के कारण–कार्य–सम्बन्धात्मक तंत्र को अनावृत्त करे’।”
–शोमित मित्र्
यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं : “ऐसी सामग्री को विखण्डित करके एक के बाद एक ‘जेस्टस’ में ढालते हुए अभिनेता पहले अपने कथानक में महारत हासिल करने के ज़रिए अपने किरदार में महारत हासिल कर लेता है। पूरे दृश्यबन्ध पर ठीक से काम करने के बाद ही वह मानो एक छलाँग में अपने किरदार को, उसकी सभी विशिष्ट खूबियों के साथ, पकड़ सकता है। (शार्ट ऑर्गनम, पैरा–64)
ब्रेष्ट पारम्परिक थिएटर के प्लॉट (कथावस्तु) को आख्यान से विस्थापित करते हैं, लेकिन कहानी (स्टोरी) को नाटक के “प्रदर्शन की धड़कन” और “थिएटर की बड़ी कार्रवाई” मानते हुए इस रूप में उसे परिभाषित करते हैं : “…घटनाओं की वह पूरी संरचना जो प्रत्येक ‘जेस्टस’ के साथ, सम्प्रेषणों और संवेदों को समेटते हुए दर्शक का मनोरंजन करती है।” (शॉर्ट ऑर्गनम, पैरा–65)
एपिक थिएटर की अवधारणा कथानक में उसकी संघटक, अलग–अलग घटनाओं को इस तरह से जोड़ने पर बल देती है कि जोड़ आसानी से नज़र आ जाएँ और प्रसंगों में एक उचित क्रम हो ताकि अलग–अलग घटनाओं के विशिष्ट महत्त्व पर दर्शक का ध्यान जाए तथा उसे निर्णय पर पहुँचने का पूरा मौक़ा मिले। इस ढाँचागत संरचना को लोकप्रियता का पुट देने के लिए ब्रेष्ट ने अख़बारी शैली, लोकगान और दृष्टान्त के मौलिक प्रयोगों से लेकर संगीत के इस्तेमाल तक पर विशेष ज़ोर दिया। उनका कहना था कि परम्परागत थिएटर में संगीत पूरक का काम करता है, पाठ को सशक्त बनाता है और चित्रण करता है जबकि एपिक थिएटर में संगीत की उपस्थिति सशक्त टिप्पणी के रूप में होती है, यह पाठ को खोलता है, तथा एक अवस्थिति अपनाकर विश्लेषण और आलोचना प्रस्तुत करता है।
1930 में ब्रेष्ट जब पारम्परिक थिएटर से एपिक थिएटर की तुलनात्मक भिन्नताएँ निरूपित कर रहे थे तो इस रूप में स्तानिस्लाव्स्की के रंग–सिद्धान्तों से टकरा रहे थे कि उनकी प्रणाली में ही परम्परागत थिएटर का विकास अपने चरम रूप में मूर्त हुआ था।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यूरोप में स्वच्छन्दतावादी थिएटर की धारा प्रधान थी। भावावेगात्मकता, प्रगीतात्मकता और विद्रोह की स्पिरिट इसकी विशिष्टता थी। शताब्दी के मध्य में उपन्यास और नाटकों के साथ–साथ थिएटर में जिस आलोचनात्मक यथार्थवादी शैली का विकास हुआ, वह स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति के साथ जैविक रूप से अन्तर्सम्बन्धित थी। यह मुख्यत: गोगोल, ओस्त्रोव्स्की, चेखव, इब्सन और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटकों पर आधारित थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में क्रान्तिकारी जनवादी विचारों से समृद्ध होकर, जिस तरह आलोचनात्मक यथार्थवादी गद्य और ख़ासकर उपन्यास रूस में सर्वाधिक प्रखर, ओजस्वी और उन्नत रूप में सामने आए, ठीक वैसा ही नाटकों और थिएटर के साथ भी हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रूसी यथार्थवादी थिएटर अपने शिखर पर था और इसके नेता थे मास्को आर्ट थिएटर के संस्थापक स्तानिस्लाव्स्की और नेमिरोविच–दोंचेंको।
स्तानिस्लाव्स्की कला की दुनिया में एक जुझारू भौतिकवादी थे, लेकिन एक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नहीं। यथास्थिति की उनकी आलोचना आनुभविक थी। वे राजनीतिक सक्रियता से एकदम अलग थिएटर की दुनिया के आदमी थे लेकिन उनका व्यक्तित्व और चिन्तन क्रान्तिकारी जनवादी आन्दोलन के उस माहौल से प्रभावित था जिसने रूस में मार्क्सवादी चिन्तन और उससे प्रभावित सामाजिक–सांस्कृतिक आन्दोलनों के लिए नर्सरी का काम किया था। स्तानिस्लाव्स्की के थिएटर की क्लासिक समतुल्यता या सादृश्यता चेखव के नाटकों से निरूपित की जा सकती है। समाजवादी आन्दोलन के प्रति उनका रुख भी वैसा ही था जैसा चेखव का। गोर्की ने ‘दुश्मन’ और ‘रसातल’ जैसे अपने जिन नाटकों में सर्वहारा के जीवन पर बुर्जुआ जीवन के अमानवीकारी प्रभावों को और भविष्य के नये नायकों को प्रस्तुत किया, उनकी अन्तर्वस्तु नई थी, लेकिन शिल्प और संरचना की दृष्टि से ये नाटक चेखव के नाटकों की ही अगली कड़ी थे, न कि उनसे आमूलगामी रूप से भिन्न थे। उल्लेखनीय है कि इन नाटकों का ऐतिहासिक रूप से प्रसिद्ध मंचन स्तानिस्लाव्स्की के मास्को आर्ट थिएटर ने ही किया था। कहा जा सकता है कि गोर्की की प्रारम्भिक समाजवादी यथार्थवादी रचनाओं के जो अन्तरविरोध थे (वे मुख्यत: क्रान्तिकारी स्वच्छन्दतावादी रचनाएँ थीं) और क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद और क्रान्तिकारी जनवाद के सीमान्त पर खड़े स्तानिस्लाव्स्की की जनपक्षधर अवस्थिति के जो अन्तरविरोध थे, इत्तफाक से (या यह महज़ एक इत्तफाक नहीं भी था) उनके कुलाबे आपस में भिड़ गये। इस तरह नाटक और मंच–प्रस्तुति के बीच एक बेहतरीन तादात्म्य स्थापित हो गया।
एक अनुभवसिद्ध भौतिकवादी के रूप में स्तानिस्लाव्स्की के विचारों में बहुतेरी विसंगतियाँ और त्रुटियाँ मौजूद थीं, पर मुख्य बात यह थी (और यहीं पर ब्रेष्ट से उनका सामीप्य भी था) कि कला की सामाजिक सोद्देश्यता, सामाजिक प्रकार्यों तथा सौन्दर्य के भौतिक स्रोत के बारे में उनके विचार प्रगतिशील थे। कला में यथार्थवाद–विरोधी धाराओं से लड़ते हुए उन्होंने प्रत्ययवादी सौन्दर्यशास्त्र की इस प्रस्थापना का खण्डन किया कि मनुष्य कलात्मक सृजन के “रहस्यों” का उद्घाटन और सृजनात्मक प्रक्रिया के सार का ज्ञान नहीं कर सकता है। अज्ञेयवाद का विरोध करते हुए, भौतिकवादी संज्ञान सिद्धान्त की बुनियादी अपेक्षाओं के अनुरूप स्तानिस्लाव्स्की की “प्रणाली” यह स्थापना रखती है कि कलाकार के लिए जीवन को जानना ही नहीं, बल्कि उसका मूल्यांकन करना भी आवश्यक है। कलाकारों को जीवन के व्यापकतम अवबोधन की राय देते हुए स्तानिस्लाव्स्की लिखते हैं : “जो कलाकार परिवेशी जीवन को देखने और उसकी खुशियों तथा तकलीफ़ों को अनुभव करने पर भी उसकी गहराइयों, जड़ों में नहीं जाता और उसके पीछे चरम नाटकीयता तथा शौर्य भावना से ओत–प्रोत महती घटनाओं को नहीं देखता, वह कलाकार सच्चे सृजन के लिए मृत है। ताकि कला के लिए जिया जा सके, कलाकार को परिवेशी जीवन के मर्म में पैठना ही होगा, अपने मस्तिष्क पर ज़ोर देना ही होगा, ज्ञान की जो कमी है उसे पूरा करना ही होगा और अपने नज़रिए में परिवर्तन लाना ही होगा। यदि कलाकार अपने सृजन को बेजान नहीं बनाना चाहता, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह जीवन को कूपमण्डूक की भाँति न देखे। कूपमण्डूक कलाकार सच्चे अर्थों में कलाकार नहीं हो सकता।”
यथार्थ के संज्ञान और जीवन–स्थितियों के कच्चे माल से कलात्मक पुनर्सृजन की पद्धति की चर्चा करते हुए स्तानिस्लाव्स्की ने यह सूत्र प्रतिपादित किया : “बुद्धि-इच्छा-अनुभूति।” बाद में उन्होंने बुद्धि को दो भाग में विखण्डित कर दिया-कल्पना और विचार, तथा इच्छा और अनुभूति को आपस में मिला दिया। अब उनका संशोधित सूत्र था : “कल्पना-विचार-इच्छानुभूति। देखा जाए तो इन दोनों सूत्रों में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है।
मंच पर जो प्रस्तुत होता है, वह भी वस्तुगत यथार्थ ही है, फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि यह जीवन के वस्तुगत यथार्थ का कलात्मक पुनर्सृजन है। इस वस्तुगत यथार्थ के संज्ञान के लिए भी, क़ायदन, वही सूत्र लागू होना चाहिए जो जीवन के यथार्थ के संज्ञान के लिए, यानी : “बुद्धि-इच्छा-अनुभूति।” लेकिन यहीं पर स्तानिस्लाव्स्की का अन्तरविरोध सामने आता है। वे तदनुभूति की बात करते हैं, थिएटर में दर्शक की भावनाओं को एक ख़ास ढंग से (जहाँ अभिनेता मंचीय बिम्ब का स्रष्टा होने के साथ ही स्वयं में इस बिम्ब की सामग्री होता है, “मनोशारीरिक तंत्र” होता है, स्वयं में आंगिक बिम्ब होता है) ख़ास दिशा में निर्देशित करते हुए उसके सुनिश्चित विचारों के निर्माण की बात करते हैं। यानी उनकी “प्रणाली” में ऐक्शन अनुभूति को जन्म देता है और अनुभूति विचार को या चिन्तन को उकसाती है। यानी मंच पर मंचित यथार्थ के संज्ञान का सूत्र बना : “अनुभूति-विचार।“ अपने संज्ञान सिद्धान्त को यहाँ स्तानिस्लाव्स्की ने स्वयं उलट दिया। इसका प्रतिवाद करते हुए ब्रेष्ट जो सूत्र देते हैं वह है : “विचार-विचार।“ अनुभूति की जगह उनका पूरा ज़ोर तर्कणा पर है, विचार पर है। ठीक इसी समय एक तीसरा सूत्र हमें आल्बेयर कामू के नाटकों और उनके मंचन में दीखता है जो अन्ततोगत्वा अस्तित्ववादी निष्पत्तियों में स्खलित हो जाता है। वह सूत्र है : “विचार-अनुभूति।”
यहाँ एक और उल्लेख ज़रूरी है जो कि प्राय: नहीं किया जाता। स्तानिस्लाव्स्की के ही स्कूल से दो शिष्य ऐसे निकले, जिन्होंने मार्क्सवादी अवस्थिति अपनाते हुए, कलात्मक यथार्थ के वैचारिक–सौन्दर्यात्मक संज्ञान के सन्दर्भ में अपने आचार्य से पृथक और काफ़ी हद तक प्रतिवादी अवस्थिति अपनाई। ये थे महान सोवियत नाट्य निर्देशक मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव। स्तानिस्लाव्स्की की प्रणाली जहाँ अभिनेता और अभिनीत चरित्र के बीच सम्पूर्ण तादात्म्य या एकात्मकता की बात करती थी वहीं मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव ने अभिनेता और उसकी भूमिका के बीच “एलियनेशन” की अवधारणा प्रस्तुत की। उनका कहना था कि अभिनेता और अभिनीत चरित्र के बीच एक दूरी बनी रहनी चाहिए ताकि अभिनेता अपने द्वारा मंच पर प्रस्तुत चरित्र के बारे में अपना रुख प्रकट कर सके। आगे चलकर वाख्तांगोव ने अपनी कुछ मंच–प्रस्तुतियों में ऐसा अनूठा प्रयोग किया जिसमें अभिनेता पारी–पारी से अभिनीत चरित्र से एकरूप हो जाता था और फिर दूरी ले लेता था। बहरहाल, सूक्ष्म विस्तार में जाने पर, कई भिन्नताओं के बावजूद, समग्रत: और सापेक्षत:, मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव की अवस्थिति ब्रेष्ट की अवस्थिति के निकट थी तथा स्तानिस्लाव्स्की से प्रतिवादी दूरी लिए हुए थी।
अब हम यह देखें कि ब्रेष्ट स्तानिस्लाव्स्की का प्रतिवाद करते हुए कहाँ और कैसे संवाद की स्थिति में आते हैं, यानी एण्टीथीसिस से सिन्थेसिस की मंज़िल तक की उनकी यात्रा कैसे सम्पन्न होती है! वैचारिक–कलात्मक संघर्षों और उनमें समय–समय पर उत्पन्न होने वाले अतिरेक या एकांगिकता के विचलनों को समझने के लिए उन विवादों के देश–काल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित होना बहुत ज़रूरी होता है। यह याद रखना होगा कि ब्रेष्ट जिस समय भावना और अनुभूति के बरक्स विवेक और तर्कबुद्धि को रखते हुए जिरह कर रहे थे, यह वह समय था जब जर्मनी में फ़ासिस्ट लोगों की स्वत:स्फूर्त भावना और अन्ध सहजवृत्ति को जनोत्तेजक ढंग से उभाड़ने का काम कर
“हमें इस क़िस्म के थिएटर की ज़रूरत है, जो मानव–सम्बन्धों के विशिष्ट ऐतिहासिक क्षेत्र
के अन्तर्गत सम्भव अनुभूतियों, अन्तर्दृष्टियों और मनोवेगों को उद्घाटित मात्र करने का
काम ही न करे, बल्कि उन विचारों एवं अनुभूतियों को भी प्रयोग में लाये और प्रोत्साहित करे
जो स्वयं इस क्षेत्र को ही बदल डालने में सहायक हों।”
–बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
रहे थे। यह फ़ासिस्ट विचार लोकप्रिय कला–रूपों के साथ ही, पद्धति के रूप में उन्नत कलात्मक सृजन के सीमान्तों में भी पैठा हुआ था। ब्रेष्ट ने इस विचारधारात्मक संघर्ष में फ़ासिस्ट अवस्थिति के विरोध में यह अवस्थिति अपनाई कि कला भावनाओं से सम्बन्ध रखने के बजाय सीधे मनुष्य के विचारों से सम्बोधित होती है और यह कि मनोरंजन का सम्बन्ध भावना से नहीं होता, चीज़ों की वास्तविकता को जानने का अनुभव ही सबसे वास्तविक मनोरंजन है।
अपने विचारों के इस दौर में ब्रेष्ट ने जो नाटक लिखे, उनमें सापेक्षत:, एक सरलीकृत योजनाबद्धता के तहत सुनिश्चित राजनीतिक अवस्थितियों के प्रवक्ता पात्रों के द्वन्द्वात्मक टकराव दर्शक के सामने आते थे। और दूसरी बात यह कि अपने शैक्षिक प्रकार्य को पूरा करते हुए, ये नाटक सुनिश्चित भाव–संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ भी उत्पन्न करते थे। यह परिणति ब्रेष्ट की मान्यता से बहुत मेल नहीं खाती थी। जर्मनी में नात्सी आधिपत्य के बाद, अपने निर्वासन के दिनों में, यानी 1933 से 1947 के बीच, ब्रेष्ट के नाटकों की संरचना और रंग–व्यवहार में (ब्रेष्ट नाट्य–निर्देशन तो नहीं करते थे पर अपनी सभी नाट्य–प्रस्तुतियों और उनकी तैयारी की प्रक्रिया से नज़दीकी से जुड़े रहते थे) महत्त्वपूर्ण बदलाव आते दीखते हैं। द्वन्द्व की सरलीकृत योजनाबद्धता को अब संश्लिष्ट द्वन्द्वात्मकता विस्थापित कर देती है, राजनीतिक–सामाजिक आग्रह प्रत्यक्ष होने के बजाय गहरे, गहन और व्यापक होते दीखते हैं और चरित्रों के आन्तरिक, मनोगत द्वन्द्वों का तनाव भी मंच पर प्रकट होने लगता है। इस प्रायोगिक परिणति के सैद्धान्तिकीकरण का काम तो ब्रेष्ट ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में करना शुरू किया, लेकिन उनकी वैचारिक अवस्थिति में परिवर्तन के संकेत पहले ही मिलने लगे थे। 1930 में पारम्परिक थिएटर से एपिक थिएटर की तुलना करते हुए उन्होंने अनुभूति के बरक्स तर्कणा को रखा था। वही ब्रेष्ट 1949 में अपने सिद्धान्त की ऐसी किसी व्याख्या के प्रति सावधान करते हैं जो भावना या अनुभूति को पूरी तरह खारिज करती हो। वे लिखते हैं : “हालाँकि कई बार ऐसा कहा जाता है, पर यह सही नहीं है कि एपिक थिएटर (जो क़तई अनाटकीय थिएटर नहीं है, जैसा कि प्राय: कहा जाता है) यह नारा देता है : ‘तर्क इस पाले में, भावना (संवेदना) उस पाले में।’ यह किसी भी तरह भावना को रद्द नहीं करता। न्यायभावना, आज़ादी की चाह और न्यायसंगत क्रोध आदि को खारिज करने से तो यह इतनी दूर है कि यह न केवल उनकी उपस्थिति को मानकर चलता है बल्कि उन्हें जगाने और मज़बूत करने का काम करता है।” (‘फ़ॉर्मल प्रॉब्लम्स एराइज़िंग फ्ऱॉम दि थिएटर्स’ न्यू कण्टेण्ट,’ ‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’, लन्दन, 1964, पृ. 227)
ब्रेष्ट अब अनुभूति को खारिज नहीं करते, बल्कि इस रूप में अपनी बात कहते हैं : “वह समय गुज़र गया है जब हमारे परिवेशी विश्व को रंगमंच के माध्यमों से मात्र अनुभूति के तौर पर चित्रित किया जाता था। चित्रण अनुभूति बने, इसके लिए उसे सत्यपरक होना चाहिए।” और इस “सत्यपरकता” के लिए वे मंच पर अनुभूतियों को विचार की विशिष्ट शक्ति से मण्डित करने की बात करते हैं। यानी ब्रेष्ट की नई सन्तुलित अवस्थिति यह बनती है कि विचार भावना को जन्म देता है। विचार अनुभूति बन जाता है। यानी ब्रेष्ट अब विचार और अनुभूति के द्वन्द्वात्मक संश्लेषण की बात करते हैं। “विचार-विचार” की जगह अब उनका सूत्र इस रूप में व्यक्त किया जा सकता है-“विचार और भावना का द्वन्द्व-विचार और भावना का संश्लेषण।” ब्रेष्ट की यह विचार–यात्रा पहले (निर्वासन काल के दौरान ही उनके रंगमंचीय सृजनात्मक कार्यकलाप के दौरान दीखने लगती है। फिर जर्मनी लौटने के बाद, 1947 से 1956 के बीच वे इसे सूत्रबद्ध करने का काम करते हैं। आगे हम देखेंगे कि ब्रेष्ट जिस समय विचार और अनुभूति के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की तथा प्रस्तुति और तदनुभूति के बीच के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की बात कर रहे थे, उसी समय वे इस सवाल से भी जूझ रहे थे कि स्तानिस्लाव्स्की की परम्परा से क्या लेना है और किन तत्त्वों का निषेध करना है। और यही उनके जीवन का वह कालखण्ड है जब वह सोच रहे थे कि एपिक थिएटर की जगह द्वन्द्वात्मक थिएटर का नाम उनके थिएटर के लिए अधिक उपयुक्त रहेगा।
यद्यपि, ब्रेष्ट अनुभूति और तर्कणा के द्वन्द्वात्मक संश्लेषण की बात चौथे दशक के अन्त से सोचने लगे थे, लेकिन, विशेष तौर पर 1950 के बाद के लेखन में इसका उल्लेख विभिन्न रूपों में देखने को मिलता है। शेक्सपियर के नाटक ‘कोरिओलेनस’ के अपने द्वारा किए गए रूपान्तरण के साथ दिए गए निर्देश में वे तदनुभूति को खारिज करने के बजाय उससे आगे जाने की बात करते हैं : “नायक और त्रासदी के तत्त्व का आनन्द लेने के लिए हमें नायक के साथ तदनुभूति की भावना से आगे जाना होगा… हमें कम से कम केवल कोरिओलेनस की ही नहींं बल्कि रोम की और ख़ासकर प्लेबियंस की भी त्रासदी को ‘अनुभव’ करना होगा।” (ब्रेष्ट : ‘प्लेज़’, वाल्यूम 9, ‘कोरिओलेनस : टेक्स्ट्स बाइ ब्रेष्ट’, पृ. 382.83, अनु– : राल्फ मैनहीम और जॉन विलेट)
पुन: 1953 के अपने एक संक्षिप्त संवाद (‘कन्वर्सेशन अबाउट बीइंग फ़ोर्स्ड इण्टू एम्पैथी’, ‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’, पूर्वोद्धृत, पृ. 270–271) में भी ब्रेष्ट मंच पर प्रस्तुत किसी घटना–विशेष के दोहरे पहलुओं की बात करते हैं और कहते हैं कि उन्हें पहचानने और महसूस करने से ही वास्तविक भावना उत्पन्न होती है। वे तदनुभूति में, तथा मंच पर प्रस्तुत भावना से दूरी लेने में-दोनों में ही सक्षम होने की बात करते हैं ओर यह कहते हुए सहसा वे वाख्तांगोव के निकट खड़े दिखाई देते हैं।
इस दृष्टि से ‘शॉर्ट ऑर्गनम’ के उन परिशिष्टों को भी देखना महत्त्वपूर्ण होगा जो ब्रेष्ट की मृत्यु के बाद उनके कागजात में बीस अलग–अलग पन्नों पर दर्ज़ मिले और जिन्हें उन्होंने सम्भवत: अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में लिखा था। यहाँ वे (शॉर्ट ऑर्गनम के पैरा तीन के परिशिष्ट में) सीखने और आनन्द के बीच के अन्तरविरोध को सही ढंग से समझने पर बल देते हैं और कहते हैं कि जब उत्पादकता पूरी तरह से मुक्त हो जाएगी, केवल तभी समझना आनन्द में बदल जाएगा और आनन्द समझने में, यानी इन दोनों के बीच का अन्तरविरोध हल हो जाएगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रेष्ट इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि मार्क्सवाद और थिएटर की समझदारी मात्र के आधार पर किसी नाट्य–प्रस्तुति में इस अन्तरविरोध को हल नहीं किया जा सकता जब तक कि जीवन में उसका वस्तुगत आधार न तैयार हो (यानी समाजवाद की उन्नत अवस्था न आ चुकी हो और उत्पादकता पूर्णत: निर्बन्ध न हो चुकी हो)। पुन: ‘शॉर्ट ऑर्गनम’ के पैरा 53 के परिशिष्ट में वे बताते हैं कि प्रस्तुति के दौरान चरित्र के साथ आत्म–तादात्म्य के विरुद्ध वे चेतावनी इसलिए देते हैं कि ऐसा करने की हरचन्द कोशिश के बावजूद यह पूरी तरह सम्भव नहीं हो पाता और जो नतीजा सामने आता है, वह होता है : अनुभव और चित्रण के बीच, तदनुभूति और प्रदर्शन के बीच तथा औचित्य–प्रतिपादन और आलोचना के बीच अन्तरविरोध। ब्रेष्ट के अनुसार, अभिनेता के यदि उपरोक्त निर्देश न दिया जाए तो अभिनय (प्रदर्शन) और अनुभव (तदनुभूति) के बीच के अन्तरविरोध को देखकर वह यह मान बैठता है कि अभिनेता के काम में, इनमें से कोई एक ही अभिव्यक्त हो सकता है। (‘अपेण्डिसेज़ टु दि शॉर्ट ऑर्गनम’, ‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’, पूर्वोद्धृत, पृ. 276–277)
ब्रेष्टियन थिएटर के विशेषज्ञ और उनकी रचनाओं के प्रसिद्ध सम्पादक जॉन विलेट इस बात की ताईद करते हैं कि अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रेष्ट अपने पूरे सिद्धान्त की ‘ओवरहॉलिंग’ कर रहे थे। एपिक थिएटर की अवधारणा को वे छोड़ या बदल नहीं रहे थे, बल्कि उसे आगे विकसित कर रहे थे। आगे की यात्रा में एपिक थिएटर पूर्वशर्त या आधार–बिन्दु का काम कर रहा था। पारम्परिक बुर्जुआ थिएटर के विरुद्ध संघर्ष में कारगर भूमिका निभाने के बाद एपिक थिएटर की अवधारणा अब ब्रेष्ट को बहुत औपचारिक (रूपगत पक्षों पर अधिक ज़ोर देने वाली) लगने लगी थी और अब वे नया नाम प्रस्तावित कर रहे थे-द्वन्द्वात्मक थिएटर। मैनफ्रेड वेकवर्थ ने लिखा है कि जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रेष्ट अपने थिएटर को प्राय: “द्वन्द्वात्मक थिएटर” ही कहा करते थे और कहते थे कि “मंच पर कोई कहानी बयान करना, ठीक उसी समय, घटनाओं को ‘डायलेक्टिसाइज़’ करना भी है।” ब्रेष्ट के चिन्तन के इस नये दौर के बारे में, ऊपर उल्लिखित ‘शॉर्ट ऑर्गनम’ के परिशिष्ट वास्तव में एक कामकाजू अन्तरिम रिपोर्ट के समान प्रतीत होते हैं। उल्लेखनीय है कि 1956 में ब्रेष्ट ने अपने सैद्धान्तिक लेखों का जो अन्तिम संकलन तैयार किया था (जो उनकी मृत्योपरान्त प्रकाशित हुआ) उसका नाम उन्होंने रखा था : ‘थिएटर में द्वन्द्ववाद।’ इसकी भूमिका के प्रारम्भ में ही उन्होंने स्पष्ट किया है कि जिस तरह का थिएटर उनका लक्ष्य था और जो अंशत: प्रयोग में भी था, उसके लिए “एपिक थिएटर’ सम्बोधन बहुत अधिक औपचारिक है। उनके अनुसार, एपिक थिएटर मात्र एक पूर्वाधार है क्योंकि इसमें उस समाज की उत्पादकता और परिवर्तनशीलता अन्तर्निहित नहीं है, जहाँ से उसका थिएटर आनन्द का मुख्य तत्त्व अर्जित करता है। (ब्रेष्ट ऑन थिएटर, पूर्वोद्धृत, पृ. 281.282)
ब्रेष्ट के जीवन का यही दौर था जब वे स्तानिलाव्स्की के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाते हुए, इस बात की नये सिरे से पड़ताल करते हैं कि स्तानिस्लाव्स्की की ‘पद्धति’ से क्या–क्या सीखा जा सकता है। यद्यपि मूल विचारधारात्मक अवस्थिति और आधारभूत पद्धतिशास्त्रीय प्रश्न पर मतभेद बरकरार रहता है, स्तानिस्लाव्स्की के स्वाभाविकता के आग्रह में निहित प्रकृतवादी विच्युतियों की उनकी आलोचना भी मौजूद रहती है, लेकिन विचार और भावना के संश्लेषण के बारे में सोचते हुए ब्रेष्ट को तदनुभूति–उत्पादन के विशेषज्ञ और अपनी ‘अंगज व्यापार विधि’ से स्वयं अभिनेता को ही मंच पर आंगिक बिम्ब में रूपान्तरित कर देने वाले स्तानिस्लाव्स्की से कुछ चीज़ें सीखने की ज़रूरत महसूस होती है।
अपने रंग–चिन्तन के प्रारम्भिक वर्षों में, जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, ब्रेष्ट कई बुनियादी प्रश्नों पर स्तानिस्लाव्स्की के एकदम आमने–सामने खड़े होते हैं। चौथे दशक में, जब उनके चिन्तन में नये संक्रमण की शुरुआत होती है तो ब्रेष्ट अपनी छिटफुट टिप्पणियों में, स्तानिस्लाव्स्की के थिएटर को ‘अतीत की चीज़’ बताते हैं, यानी वे वर्तमान में उसे अप्रासंगिक मानते हुए भी, परम्परा के रूप में उसकी महत्ता को स्वीकार करते हैं। ‘मेसिंगकॉफ़ संवाद’ के एक अंश में नाट्यशास्त्री कहता है कि मास्को आर्ट थिएटर द्वारा अभी भी प्रस्तुत किए जा रहे स्तानिस्लाव्स्की के प्रोडक्शन्स को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो उनमें बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के वर्ग–सम्बन्धों को इस प्रकार सुरक्षित रख दिया गया है, जैसे कि आप उन्हें किसी संग्रहालय में देख रहे हों। वह कहता है : “जिस पर वह ध्यान देते हैं, वह है स्वाभाविकता और नतीजतन उनके थिएटर में हर चीज़ इतनी स्वाभाविक लगती है कि विराम लेने और तफ़सील में जाने का मौक़ा ही नहीं मिलता। सामान्यत: आप अपने घर या अपनी ख़ुद की खाने–पीने की आदतों की जाँच–पड़ताल नहीं करते, या करते हैं?” उसी दौर की एक अन्य टिप्पणी में वे आक्रामक ढंग से लिखते हैं : “दर्शक की तीक्ष्ण आँख उन्हें भयभीत करती है। वे उसे बन्द कर देते हैं।” (ब्रेष्ट ऑन थिएटर, पूर्वोद्धृत, पृ. 237)
चौथे दशक की ही एक अन्य टिप्पणी, जिसमें ब्रेष्ट ने स्तानिस्लाव्स्की के साथ मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव के थिएटर की चर्चा की है, और जॉन विलैट ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’ की एक सम्पादकीय टिप्पणी में जिसका हवाला दिया है, हम यहाँ हूबहू दे रहे हैं क्येांकि इससे ब्रेष्ट की चिन्तन–प्रक्रिया को समझने में थोड़ी और मदद मिलती है :
“बुर्जुआ थिएटर अपने सीमान्तों पर पहुँच चुका है।
स्तानिस्लाव्स्की की पद्धति की प्रगतिशीलता। 1. यह तथ्य कि यह एक पद्धति है। 2. मनुष्य की, निजी तत्त्व (प्राइवेट एलिमेण्ट) की निकटतर जानकारी। 3. मनोवैज्ञानिक अन्तरविरोध दर्शाये जा सकते हैं।(नैतिक प्रवर्गों, अच्छे और बुरे का अन्त)। 4. परिवेश के प्रभाव के लिए इजाज़त। 5. विस्तार (या विक्षेप)। 6. निरूपण (या अभिनय) की स्वाभाविकता।
वाख्तांगोव की पद्धति। 1. थिएटर थिएटर होता है। 2. क्या नहीं, कैसे। 3. अपेक्षाकृत अधिक कम्पोज़ीशन। 4– अपेक्षाकृत अधिक अन्वेषणशीलता और कल्पनाशीलता।
मेयरहोल्ड की पद्धति। 1. निजी तत्त्व के विरुद्ध। 2. कला–मर्मज्ञता पर बल। 3. गति (मूवमेण्ट्स) और उसकी यांत्रिकी। 4. परिवेश का अमूर्तन।
मिलन–बिन्दु = वाख्तांगोव, जो बाक़ी दोनों को अन्तरविरोधी तत्त्वों के रूप में अपनाते हैं, लेकिन साथ ही, सर्वाधिक मुक्त भी हैं। उनकी तुलना में, मेयरहोल्ड आयासित (या तनावग्रस्त) हैं, स्तानिस्लाव्स्की ढीले (या सुस्त) हैं : दूसरे में वास्तविक जीवन की अनुकृति है जबकि पहले में उसका अमूर्तन है। लेकिन जब वाख्तांगोव का अभिनेता कहता है, ‘मैं हँस नहीं रहा हूँ, मैं हँसी का प्रदर्शन कर रहा हूँ’, तो उसके प्रदर्शन से किसी को कुछ भी सीखने को नहीं मिलता। द्वन्द्वात्मक रूप से देखा जाए तो वाख्तांगोव स्तानिस्लाव्स्की–मेयरहोल्ड समष्टि (स्तानिस्लाव्स्की–मेयरहोल्ड काम्प्लेक्स) हैं लेकिन उनके बीच के विभाजन के पहले का, न कि बाद के सामंजस्य का।” (ब्रेष्ट ऑन थिएटर, पूर्वोद्ध्त, पृ. 237–238)
ब्रेष्ट की इस टिप्पणी से, ख़ास तौर पर मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव के साथ तुलना करते हुए स्तानिस्लाव्स्की की चर्चा से, यह बात काफ़ी स्पष्ट हो जाती है कि थिएटर में आलोचनात्मक यथार्थवादी या क्रान्तिकारी जनवादी धारा, और समाजवादी यथार्थवादी धारा के बीच की एकता और संघर्ष में, परम्परा की निरन्तरता और परिवर्तन के नवोन्मेष के बीच के द्वन्द्व में, ब्रेष्ट स्तानिस्लाव्स्की को किस प्रकार ऐतिहासिक–वैचारिक परिप्रेक्ष्य में अवस्थित करने की कोशिश कर रहे थे। सर्वहारा की “कविता” अतीत से नहीं बल्कि भविष्य से प्रेरित होती है। लेकिन साथ ही वह अतीत की समस्त क्रान्तिकारी विरासत के सारतत्त्व की-समस्त मानवीय सारतत्त्व की वारिस भी होती है। इसी द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध को ब्रेष्ट थिएटर में निरूपित कर रहे थे। सर्वहारा कला की वैचारिक–सौन्दर्यशास्त्रीय–पद्धतिशास्त्रीय आधारभूमि तैयार करते हुए बुर्जुआ कला के क्रान्तिकारी शिखर–बिन्दु के तौर पर उन्हें पहले स्तानिस्लाव्स्की से टकराना था, उनका अतिक्रमण करना था और फिर उनसे परम्परा का दाय सादर ग्रहण करके आगे की यात्रा पर चल पड़ना था। ब्रेष्ट काफ़ी हद तक इसमें सफल रहे और नये प्रश्नों–समस्याओं का जो एजेण्डा उन्होंने अपनी बाद की पीढ़ी को सौंपा, उसी एजेण्डे को लेकर सर्वहारा थिएटर को आगे जाना है।
ब्रेष्ट ने स्तानिस्लाव्स्की पर अपनी जो आख़िरी टिप्पणी 1952 के आसपास लिखी थी, उसे यहाँ पूरा का पूरा उद्धृत करते हुए हम इस चर्चा को समाप्त कर रहे हैं :
कुछ चीज़ें जो स्तानिस्लाव्स्की से सीखी जा सकती हैं
- नाटक की कविता की अनुभूति
स्तानिस्लाव्स्की का थिएटर जब अपने समय की रुचि की तुष्टि के लिए प्रकृतवादी नाटक प्रस्तुत करता है तब भी प्रस्तुति उन्हें (यानी नाटकों को) काव्यात्मक अभिलाक्षणिकताओं से सम्पन्न बना देती है; यह कभी भी महज़ रिपोर्ताज के स्तर तक नीचे नहीं उतरता। जबकि यहाँ जर्मनी में क्लासिकल नाटक भी किसी प्रकार की भव्यता नहीं अर्जित कर पाते।
- समाज के प्रति दायित्वबोध
स्तानिस्लाव्स्की ने अभिनेताओं को उनके शिल्प के सामाजिक अर्थ से परिचित कराया। कला उनके लिए अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं थी, लेकिन वे जानते थे कि थिएटर में कला के माध्यम से ही कोई लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
- सितारों की समष्टि अभिनय करती हुई
स्तानिस्लाव्स्की के थिएटर में सिर्फ़ सितारे होते हैं, महान और छोटे। उन्होंने सिद्ध किया कि व्यक्ति का अभिनय केवल समष्टि के अभिनय के माध्यम से ही सम्पूर्ण प्रभाविता अर्जित कर पाता है।
- व्यापक कल्पना और तफ़सीलों की महत्ता
मास्को आर्ट थिएटर में प्रत्येक नाटक एक सावधानी से सोचा–विचारा गया सुगठित रूप और सूक्ष्मता से प्रतिपादित तफ़सील की समृद्धि अर्जित कर लेता है। इनमें से एक के बिना दूसरा किसी काम का नहीं होता।
- सत्यनिष्ठा एक कर्तव्य के रूप में
स्तानिस्लाव्स्की यह शिक्षा देते थे कि अभिनेता को अपने बारे में और जिन लोगों को उन्हें अभिनय द्वारा प्रस्तुत करना होता है उनके बारे में सही–सटीक जानकारी होनी चाहिए। जो चीज़ अभिनेता के पर्यवेक्षण से अर्जित नहीं होती, या पर्यवेक्षण द्वारा पुष्ट नहीं होती, वह श्रोता द्वारा पर्यवेक्षण के लिए उपयुक्त नहीं होती।
- स्वाभाविकता और शैली की एकता
स्तानिस्लाव्स्की के थिएटर में भव्य स्वाभाविकता और गहन अर्थवत्ता एक–दूसरे की सहवर्ती होती हैं। एक यथार्थवादी के रूप में कुरूपता को प्रस्तुत करने में वे कभी नहीं हिचकते लेकिन इसे वे नितान्त शालीन ढंग से करते हैं।
- अन्तरविरोधों से परिपूर्ण रूप में यथार्थ की प्रस्तुति
स्तानिस्लाव्स्की ने सामाजिक जीवन की विविधता और जटिलता को सम्पूर्णता में समझा था और वे जानते थे कि बिना उसमें उलझे हुए उसे कैसे प्रस्तुत किया जाए। उनकी सभी प्रस्तुतियाँ अर्थगर्भित होती थीं।
- मनुष्य का महत्त्व
स्तानिस्लाव्स्की एक प्रतिबद्ध मानवतावादी थे, और उस हैसियत से उन्होंने अपने थिएटर को समाजवाद के मार्ग पर निर्देशित किया।
- कला के और आगे विकास की महत्ता
मास्को आर्ट थिएटर कभी भी अपनी सफलता से निश्चिन्त नहीं हुआ। स्तानिस्लाव्स्की हर प्रस्तुति के लिए नई कलात्मक पद्धतियाँ ईजाद करते थे। उनके थिएटर से वाख्तांगोव जैसे महत्त्वपूर्ण कलाकार आए जिन्होंने फिर अपने शिक्षक की कला को आगे सम्पूर्ण मुक्ति में विकसित किया।
(‘ब्रेष्ट ऑन थिएटर’, पूर्वोद्धृत, पृ. 236–237)
- सृजन परिप्रेक्ष्य, जनवरी-अप्रैल 2002